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सोमवार, 01 नवंबर, 2021

 

सोमवार, 01 नवंबर, 2021

सब संतों का पर्व

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पहला पाठ :प्रकाशना 7:2-4,9-14


2) मैंने एक अन्य दूत को पूर्व से ऊपर उठते देखा। जीवन्त ईश्वर की मुहर उसके पास थी और उसने उन चार दूतों से, जिन्हें पृथ्वी और समुद्र को उजाड़ने का अधिकार मिला था, पुकार कर कहा,

9) इसके बाद मैंने सभी राष्ट्रों, वंशों, प्रजातियों और भाषाओं का एक ऐसा विशाल जनसमूह देखा, जिसकी गिनती कोई भी नहीं कर सकता। वे उजले वस्त्र पहने तथा हाथ में खजूर की डालियाँ लिये सिंहासन तथा मेमने के सामने खड़े थे

10) और ऊँचे स्वर से पुकार-पुकार कर कह रहे थे, "सिंहासन पर विराजमान हमारे ईश्वर और मेमने की जय!"

11) तब सिंहासन के चारों ओर खड़े स्वर्गदूत, वयोवृद्ध और चार प्राणी, सब-के-सब सिंहासन के सामने मुँह के बल गिर पड़े और उन्होंने यह कहते हुए ईश्वर की आराधना की,

12) "आमेन! हमारे ईश्वर को अनन्त काल तक स्तुति, महिमा, प्रज्ञा, धन्यवाद, सम्मान, सामर्थ्य और शक्ति ! आमेन !"

13) वयोवृद्धों में एक ने मुझ से कहा, "ये उजले वस्त्र पहने कौन हैं और कहाँ से आये हैं?

14) मैंने उत्तर दिया, "महोदय! आप ही जानते हैं" और उसने मुझ से कहाँ, "ये वे लोग हैं, जो महासंकट से निकल कर आये हैं। इन्होंने मेमने के रक्त से अपने वस्त्र धो कर उजले कर लिये हैं।


दूसरा पाठ :1 योहन 3:1-3


1) पिता ने हमें कितना प्यार किया है! हम ईश्वर की सन्तान कहलाते हैं और हम वास्तव में वही हैं। संसार हमें नहीं पहचानता, क्योंकि उसने ईश्वर को नहीं पहचाना है।

2) प्यारे भाइयो! अब हम ईश्वर की सन्तान हैं, किन्तु यह अभी तक प्रकट नहीं हुआ है कि हम क्या बनेंगे। हम इतना ही जानते हैं कि जब ईश्वर का पुत्र प्रकट होगा, तो हम उसके सदृश बन जायेंगे; क्योंकि हम उसे वैसा ही देखेंगे, जैसा कि वह वास्तव में है।

3) जो उस से ऐसी आशा करता है, उसे वैसा ही शुद्ध बनना चाहिए, जैसा कि वह शुद्ध है।


सुसमाचार : मत्ती 5:1-12अ


(1) ईसा यह विशाल जनसमूह देखकर पहाड़ी पर चढ़े और बैठ गए उनके शिष्य उनके पास आये।

(2) और वे यह कहते हुए उन्हें शिक्षा देने लगेः

(3) "धन्य हैं वे, जो अपने को दीन-हीन समझते हैं! स्वर्गराज्य उन्हीं का है।

(4) धन्य हैं वे जो नम्र हैं! उन्हें प्रतिज्ञात देश प्राप्त होगा।

(5) धन्य हैं वे, जो शोक करते हैं! उन्हें सान्त्वना मिलेगी।

(6) घन्य हैं, वे, जो धार्मिकता के भूखे और प्यासे हैं! वे तृप्त किये जायेंगे।

(7) धन्य हैं वे, जो दयालू हैं! उन पर दया की जायेगी।

(8) धन्य हैं वे, जिनका हृदय निर्मल हैं! वे ईश्वर के दर्शन करेंगे।

(9) धन्य हैं वे, जो मेल कराते हैं! वे ईश्वर के पुत्र कहलायेंगे।

(10) धन्य हैं वे, जो धार्मिकता के कारण अत्याचार सहते हैं! स्वर्गराज्य उन्हीं का है।

(11) धन्य हो तुम जब लोग मेरे कारण तुम्हारा अपमान करते हैं, तुम पर अत्याचार करते हैं और तरह-तरह के झूठे दोष लगाते हैं।

(12) खुश हो और आनन्द मनाओ स्वर्ग में तुम्हें महान् पुरस्कार प्राप्त होगा।


मनन-चिंतन - 2


सभी गिरजाघरो में धार्मिक अवधारणा के अनुसार कलीसिया सब संतों का पर्व एक साथ मिलकर मनाती है । इसी तरह कलीसिया प्रत्येक घोषित संतो के नाम का पर्व वर्ष एक निश्चित दिन पर उनके नाम के अनुसार मनाया जाता हैं । परन्तु कुछ ऐसे भी अज्ञात और अघोषित संत है जिनका कोई पर्व दिवस नहीं हैं । वे हमारे माता-पिता, दादा-दादी, भाई-बहन दोस्त या हमारे परिजन हो सकते है, जिन्होने अपना सम्पूर्ण जीवन ईश्वर पर भरोसा रखते हुए जिया है । आज हम उन सभी अज्ञात संतो का सम्मान करते हैं और उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करते है । इन साधारण सामान्य पुरूषों और महिलाओं को अपने विश्वास के प्रतिफल में ईश्वर आपने पवित्रता और स्वर्गीय महिमा का हिस्सेदार बनाने के लिए हम ईश्वर को धन्यवाद देते है । संतो में हम विविधताएॅं पाते है क्योंकि इसमें पवित्रता का एक प्रतिरूप/पैटर्न नहीं है । इसके अन्तर्गत विद्वान, बुद्धिजीवी दार्शनिक वैज्ञानिक, मिशनरी शहीद, मूर्ख, अमीर गरीब और साधारण पाए जाते है । इन संतो के जीवन द्वारा कलीसिया हमे आज यह याद दिलाती है कि ईश्वर हमे उनके प्रेम में जीने और लोगो के जीवन में उनके प्रेम को वास्तविक बनाने के लिए बुलाया है । संत आगस्टीन ने कहा -अगर ये और वह संत बन सकते है तो मैं क्यों नही ? यह पर्व हम में से प्रत्येक को चुनौती देता है कि ईश्वर की कृपा मिलने पर कोई भी व्यक्ति को अपना उम्र, जीवन शैलि परिस्थितीया संत बनने के लिए बाधा नहीं है । इसके लिए मसीह का अनुसरण करना होगा और बुराई से दूर रहकर भले कार्य करने होंगंे । “जो लोग मुझें प्रभु ! प्रभु ! कह कर पुकारते है उनमें सब के सब स्वर्ग-राज्य में प्रवेश नहीं करोगे। जो मेंरे स्वर्गिय पिता की इच्छा पूरी करता है वही स्वर्गराज्य में प्रवेश करेगा“(मती 7ः21) यह पर्व हमारे लिए ईश्वर को धन्यवाद देने का अवसर है । ईश्वर ने संतो के साथ हमारे कई पूर्वजो को इसमें शामिल होने के लिए आमंत्रित किया है । अगर हमारा जीवन अखंडता सत्य, न्याय, दान, दया और करूणा में दूसरो के साथ बाटकर जीते है, तब भी हम पवित्रता में आगे बढ सकते है । इन वीर संतो के जीवन शैली का अनुगमन प्रभु येसु के उन स्वागत शब्द को सुनने के लिए हमें साक्ष्म बनाये । “शाबाश भले और ईमानदार सेवक ! तुम थोडे में ईमानदार रहे, मै तुम्हें बहुत पर नियुक्त करूंगा अपने स्वामी के आनन्द के सहभागी बनों” !! (मत्ती 25ः21)



REFLECTION


The Church celebrates the feast of each canonized saint on a particular day of the year. But there are many unknown and uncanonized saints who have no feast days. Some of them may be our own parents and grandparents, brothers and sisters, friends and relatives who have lived a life of faith placing their trust in God. Today we honor and pay our tribute to these Unknown saints. We thank God for giving ordinary men and women a share in His holiness and Heavenly glory as a reward for their Faith. There is diversity in saints. There isn’t one pattern of holiness to be found among them. There are scholars, intellectuals, philosophers, scientists, missionaries, martyrs, foolish, rich, poor and simple. The Church reminds us today that God’s call for holiness is universal, that all of us are called to live in His love and to make His love real in the lives of those around us. St. Augustine asked: “If he and she can become saints, why can’t I?” This feast challenges each one of us: anybody can, with the grace of God, become a saint, regardless of his or her age, lifestyle or living conditions. We all can become saints by choosing to follow Christ, doing good and avoiding evil. “Not everyone who says to me, ‘Lord, Lord,’ will enter the Kingdom of Heaven, but only the one who does the will of my Father in Heaven” (Mt 7:21). 2) The feast gives us an occasion to thank God for having invited so many of our ancestors to join the company of the saints. Holiness is related to the word wholesomeness. We grow in holiness when we live a life of integrity, truth, justice, charity, mercy, and compassion, sharing our blessings with others. May our reflection on the heroic lives of the saints and the imitation of their lifestyle enable us to hear from our Lord the words of grand welcome to eternal bliss: “Well done, good and faithful servant! Enter into the joys of your master” (Mt 25:21).



मनन-चिंतन - 2


आज के सुसमाचार में हम आशीर्वचन पाते हैं। ये वे मार्ग हैं जो हमें स्वर्गीय जीवन की ओर ले जाते हैं। जब सबसे पहले के ख्रीस्तीय धार्मिक समुदायों के पास धार्मिक व्यवस्था का कोई अन्य लिखित संविधान नहीं था, तब आशीर्वचन के अनुसार ही वे अपने जीवन को अनुशासित करते थे। संत पापा फ्रांसिस ने, 6 जून, 2016 को मिस्सा बलिदान के दौरान प्रवचन में पवित्र बाइबिल के आशीर्वचनों को "नया कानून" या “नयी संहिता” कहा। मूसा दस आज्ञाओं की पत्थर की पाटियाँ लेकर पहाड़ से नीचे उतर कर आये थे। प्रभु ने एक पहाड़ पर चढ़कर आशीर्वचनों की शिक्षा दी – नयी संहिता। वे गरीबों, विनीतों, शोक करने वालों, धार्मिकता के भूखों और प्यासों, दयालुओं, हृदय में निर्मल लोगों, शांतिप्रिय और सताए हुए लोगों को धन्य घोषित करते हैं क्योंकि ईश्वर उनसे प्यार करते हैं और वे स्वयं उनके जीवन में हस्तक्षेप करके उनको अनुग्रहित करेंगे। संत वे हैं, जिन्होंने अपने जीवन में आशीर्वचनों का पालन किया और परिणामस्वरूप वे ईश्वर के दर्शन का आनन्द लेते हैं।



REFLECTION


In today’s Gospel we find the beatitudes. They are the noble paths that lead to heavenly life. The earliest Christian religious communities were guided by the beatitudes even when they had no other written constitution of the religious order. Pope Francis, delivering a homily on June 6, 2016 called the beatitudes “the new law”. Moses brought the stone tablets of the Ten Commandments when he came down from the mountain the old law. Jesus went up on a mountain and taught the beatitudes – the new law. He declares the poor, the gentle, those who mourn, those who hunger and thirst for righteousness, the merciful, the pure in heart, the peacemakers and the persecuted to be blessed because God loves them; he takes their side and he himself will intervene in their lives to fill them with his blessings. The saints are those who followed the beatitudes in their lives and as a result they enjoy the beatific vision.


 -Br Biniush Topno


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शनिवार, 30 अक्टूबर, 2021

 

शनिवार, 30 अक्टूबर, 2021

वर्ष का तीसवाँ सामान्य सप्ताह

🚥🚥🚥🚥🚥🚥🚥🚥

पहला पाठ: रोमियों के नाम सन्त पौलुस का पत्र 11; 1-2, 11-12, 25-29


1) इसलिए मन में यह प्रश्न उठता है, ‘‘क्या ईश्वर ने अपनी प्रजा को त्याग दिया है?’’ निश्चय ही नहीं! मैं भी तो इस्राएली, इब्राहीम की सन्तान और बेनयामीन-वंशी हूँ

2) ईश्वर ने अपनी उस प्रजा को, जिसे उसने अपनाया, नहीं त्यागा है। क्या आप नहीं जानते कि धर्मग्रन्थ एलियस के विषय में क्या कहता है, जब वह ईश्वर के सामने इस्राइल पर यह अभियोग लगाते हैं?

11) इसलिए मन में यह प्रश्न उठता है, क्या वे अपराध के कारण सदा के लिए पतित हो गये हैं? निश्चय ही नहीं! उनके अपराध के कारण ही गैर-यहूदियों को मुक्ति मिली है, जिससे वे गैर-यहूदियों की स्पर्धा करें।

12) जब उनके अपराध तथा उनकी अपूर्णता से समस्त गैर-यहूदी संसार की समृद्धि हो गयी है, तो उनकी परिपूर्णता से कहीं अधिक लाभ होगा!

25) भाइयो! आप घमण्डी न बनें। इसलिए मैं आप लोगों पर यह रहस्य प्रकट करना चाहता हूँ -इस्राएल का एक भाग तब तक अन्धा बना रहेगा, जब तक गैर यहूदियों की पूर्ण संख्या का प्रवेश न हो जाये।

26) ऐसा हो जाने पर समस्त इस्राएल को मुक्ति प्राप्त होगी। जैसा कि लिखा है- सियोन में मुक्तिदाता उत्पन्न होगा और वह याकूब से अधर्म को दूर कर देगा।

27) जब मैं उनके पाप हर लूँगा, तो यह उनके लिए मेरा विधान होगा।

28) सुसमाचार के विचार से, वे तो आप लोगों के कारण ईश्वर के शत्रु हैं; किन्तु चुनी हुई प्रजा के विचार से, वे पूर्वजों के कारण ईश्वर के कृपापात्र हैं;

29) क्योंकि ईश्वर न तो अपने वरदान वापस लेता और न अपना बुलावा रद्द करता है।


सुसमाचार : सन्त लूकस 14:1,7-11


1) ईसा किसी विश्राम के दिन एक प्रमुख फ़रीसी के यहाँ भोजन करने गये। वे लोग उनकी निगरानी कर रहे थे।

7) ईसा ने अतिथियों को मुख्य-मुख्य स्थान चुनते देख कर उन्हें यह दृष्टान्त सुनाया,

8) ’’विवाह में निमन्त्रित होने पर सब से अगले स्थान पर मत बैठो। कहीं ऐसा न हो कि तुम से प्रतिष्ठित कोई अतिथि निमन्त्रित हो

9) और जिसने तुम दोनों को निमन्त्रण दिया है, वह आ कर तुम से कहे, ’इन्हें अपनी जगह दीजिए’ और तुम्हें लज्जित हो कर सब से पिछले स्थान पर बैठना पड़े।

10) परन्तु जब तुम्हें निमन्त्रण मिले, तो जा कर सब से पिछले स्थान पर बैठो, जिससे निमन्त्रण देने वाला आ कर तुम से यह कहे, ’बन्धु! आगे बढ़ कर बैठिए’। इस प्रकार सभी अतिथियों के सामने तुम्हारा सम्मान होगा;

11) क्योंकि जो अपने को बड़ा मानता है, वह छोटा बनाया जायेगा और जो अपने को छोटा बनाया जायेगा और जो अपने को छोटा मानता है, वह बड़ा बनाया जायेगा।’’


📚 मनन-चिंतन


कुच्छ हासिल करने या दूसरों से सम्मान अर्जित करने की इच्छा होना स्वाभाविक है। हालांकि, यह आत्म-प्रचार अधिकांश तह दूसरों की कीमत पर हासिल किया जाता है। येसु का दृष्टान्त नीतिवचन की शिक्षा पर बल देता है: "राजा के सामने डींग मत मारो और बड़े लोगों के स्थान पर मत बैठो; क्योंकि किसी उच्चाधिकारी के सामने नीचा दिखाये जाने की अपेक्षा अच्छा यह है, कि राजा तुम से कहे, "यहाँ, आगे बढ़ कर बैठिए", (नीति० 25:6-7)।

सच्ची विनम्रता यह नहीं है कि आप अपने बारे में कम राय रखते हैं, या खुद को दूसरों से कमतर समझते हैं। वास्तव में, सच्ची नम्रता हमें अपने आप में व्यस्तता से मुक्त करती है। स्वयं को सच्चाई एवं वास्त्विकता से देखने का, सही निर्णय के साथ, स्वयं को उस रूप में देखने का अर्थ है जिस तरह से ईश्वर हमें देखता है (स्तोत्र १३९:१-४)। नम्रता अन्य सभी सद्गुणों की नींव है क्योंकि यह हमें परमेश्वर की दृष्टि से सही ढंग से देखने और न्याय करने में सक्षम बनाती है। विनम्रता ज्ञान, ईमानदारी, यथार्थवाद, शक्ति और समर्पण की ओर ले जाती है। इसी नम्रता को येसु हमें गले लगाने के लिए आमंत्रित कर रहे हैं।



📚 REFLECTION



It is natural to desire to achieve and to get respect and to earn esteem from others. However, self-promotion is most often achieved at the expense of others. Jesus' parable emphasizes the teaching of Proverbs: Do not put yourself forward in the king's presence or stand in the place of the great; for it is better to be told, "Come up here," than to be put lower in the presence of the prince (Prov. 25:6-7).

True humility is not having a low opinion of yourself, or thinking of yourself as inferior to others. In fact, true humility lets us free from preoccupation with ourselves. Viewing ourselves truthfully, with right judgment, means seeing ourselves the way God sees us (Psalm 139:1- 4). Humility is the foundation of all the other virtues because it enables us to see and judge correctly, the way God sees. Humility leads to knowledge, honesty, realism, strength, and dedication to give ourselves to something greater than ourselves. It is this humility that Jesus is inviting us to embrace.


 -Br Biniush Topno


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शनिवार, 30 अक्टूबर, 2021

 

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वर्ष का तीसवाँ सामान्य सप्ताह

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पहला पाठ: रोमियों के नाम सन्त पौलुस का पत्र 11; 1-2, 11-12, 25-29

1) इसलिए मन में यह प्रश्न उठता है, ‘‘क्या ईश्वर ने अपनी प्रजा को त्याग दिया है?’’ निश्चय ही नहीं! मैं भी तो इस्राएली, इब्राहीम की सन्तान और बेनयामीन-वंशी हूँ

2) ईश्वर ने अपनी उस प्रजा को, जिसे उसने अपनाया, नहीं त्यागा है। क्या आप नहीं जानते कि धर्मग्रन्थ एलियस के विषय में क्या कहता है, जब वह ईश्वर के सामने इस्राइल पर यह अभियोग लगाते हैं?

11) इसलिए मन में यह प्रश्न उठता है, क्या वे अपराध के कारण सदा के लिए पतित हो गये हैं? निश्चय ही नहीं! उनके अपराध के कारण ही गैर-यहूदियों को मुक्ति मिली है, जिससे वे गैर-यहूदियों की स्पर्धा करें।

12) जब उनके अपराध तथा उनकी अपूर्णता से समस्त गैर-यहूदी संसार की समृद्धि हो गयी है, तो उनकी परिपूर्णता से कहीं अधिक लाभ होगा!

25) भाइयो! आप घमण्डी न बनें। इसलिए मैं आप लोगों पर यह रहस्य प्रकट करना चाहता हूँ -इस्राएल का एक भाग तब तक अन्धा बना रहेगा, जब तक गैर यहूदियों की पूर्ण संख्या का प्रवेश न हो जाये।

26) ऐसा हो जाने पर समस्त इस्राएल को मुक्ति प्राप्त होगी। जैसा कि लिखा है- सियोन में मुक्तिदाता उत्पन्न होगा और वह याकूब से अधर्म को दूर कर देगा।

27) जब मैं उनके पाप हर लूँगा, तो यह उनके लिए मेरा विधान होगा।

28) सुसमाचार के विचार से, वे तो आप लोगों के कारण ईश्वर के शत्रु हैं; किन्तु चुनी हुई प्रजा के विचार से, वे पूर्वजों के कारण ईश्वर के कृपापात्र हैं;

29) क्योंकि ईश्वर न तो अपने वरदान वापस लेता और न अपना बुलावा रद्द करता है।

सुसमाचार : सन्त लूकस 14:1,7-11

1) ईसा किसी विश्राम के दिन एक प्रमुख फ़रीसी के यहाँ भोजन करने गये। वे लोग उनकी निगरानी कर रहे थे।

7) ईसा ने अतिथियों को मुख्य-मुख्य स्थान चुनते देख कर उन्हें यह दृष्टान्त सुनाया,

8) ’’विवाह में निमन्त्रित होने पर सब से अगले स्थान पर मत बैठो। कहीं ऐसा न हो कि तुम से प्रतिष्ठित कोई अतिथि निमन्त्रित हो

9) और जिसने तुम दोनों को निमन्त्रण दिया है, वह आ कर तुम से कहे, ’इन्हें अपनी जगह दीजिए’ और तुम्हें लज्जित हो कर सब से पिछले स्थान पर बैठना पड़े।

10) परन्तु जब तुम्हें निमन्त्रण मिले, तो जा कर सब से पिछले स्थान पर बैठो, जिससे निमन्त्रण देने वाला आ कर तुम से यह कहे, ’बन्धु! आगे बढ़ कर बैठिए’। इस प्रकार सभी अतिथियों के सामने तुम्हारा सम्मान होगा;

11) क्योंकि जो अपने को बड़ा मानता है, वह छोटा बनाया जायेगा और जो अपने को छोटा बनाया जायेगा और जो अपने को छोटा मानता है, वह बड़ा बनाया जायेगा।’’

📚 मनन-चिंतन

कुच्छ हासिल करने या दूसरों से सम्मान अर्जित करने की इच्छा होना स्वाभाविक है। हालांकि, यह आत्म-प्रचार अधिकांश तह दूसरों की कीमत पर हासिल किया जाता है। येसु का दृष्टान्त नीतिवचन की शिक्षा पर बल देता है: "राजा के सामने डींग मत मारो और बड़े लोगों के स्थान पर मत बैठो; क्योंकि किसी उच्चाधिकारी के सामने नीचा दिखाये जाने की अपेक्षा अच्छा यह है, कि राजा तुम से कहे, "यहाँ, आगे बढ़ कर बैठिए", (नीति० 25:6-7)।

सच्ची विनम्रता यह नहीं है कि आप अपने बारे में कम राय रखते हैं, या खुद को दूसरों से कमतर समझते हैं। वास्तव में, सच्ची नम्रता हमें अपने आप में व्यस्तता से मुक्त करती है। स्वयं को सच्चाई एवं वास्त्विकता से देखने का, सही निर्णय के साथ, स्वयं को उस रूप में देखने का अर्थ है जिस तरह से ईश्वर हमें देखता है (स्तोत्र १३९:१-४)। नम्रता अन्य सभी सद्गुणों की नींव है क्योंकि यह हमें परमेश्वर की दृष्टि से सही ढंग से देखने और न्याय करने में सक्षम बनाती है। विनम्रता ज्ञान, ईमानदारी, यथार्थवाद, शक्ति और समर्पण की ओर ले जाती है। इसी नम्रता को येसु हमें गले लगाने के लिए आमंत्रित कर रहे हैं।


📚 REFLECTION


It is natural to desire to achieve and to get respect and to earn esteem from others. However, self-promotion is most often achieved at the expense of others. Jesus' parable emphasizes the teaching of Proverbs: Do not put yourself forward in the king's presence or stand in the place of the great; for it is better to be told, "Come up here," than to be put lower in the presence of the prince (Prov. 25:6-7).

True humility is not having a low opinion of yourself, or thinking of yourself as inferior to others. In fact, true humility lets us free from preoccupation with ourselves. Viewing ourselves truthfully, with right judgment, means seeing ourselves the way God sees us (Psalm 139:1- 4). Humility is the foundation of all the other virtues because it enables us to see and judge correctly, the way God sees. Humility leads to knowledge, honesty, realism, strength, and dedication to give ourselves to something greater than ourselves. It is this humility that Jesus is inviting us to embrace.


 -Br Biniush Topno


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शुक्रवार, 29 अक्टूबर, 2021

 

शुक्रवार, 29 अक्टूबर, 2021

वर्ष का तीसवाँ सामान्य सप्ताह

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पहला पाठ रोमियों के नाम सन्त पौलुस का पत्र 9:1-5


1) मैं मसीह के नाम पर सच कहता हूँ और मेरा अन्तःकरण पवित्र आत्मा से प्रेरित हो कर मुझे विश्वास दिलाता है कि मैं झूठ नहीं बोलता-

2) मेरे हृदय में बड़ी उदासी तथा निरन्तर दुःख होता है।

3) मैं अपने रक्त-सम्बन्धी भाइयों के कल्याण के लिए मसीह से वंचित हो जाने के लिए तैयार हूँ।

4) वे इस्राएली हैं। ईश्वर ने उन्हें गोद लिया था। उन्हें ईश्वर के सान्निध्य की महिमा, विधान, संहिता, उपासना तथा प्रतिज्ञाएं मिली है।

5) कुलपति उन्हीं के हैं और मसीह उन्हीं में उत्पन्न हुए हैं। मसीह सर्वश्रेष्ठ हैं तथा युगयुगों तक परमधन्य ईश्वर हैं। आमेन।


सुसमाचार : सन्त लूकस 14:1-6


1) ईसा किसी विश्राम के दिन एक प्रमुख फ़रीसी के यहाँ भोजन करने गये। वे लोग उनकी निगरानी कर रहे थे।

2) ईसा ने अपने सामने जलोदर से पीडि़त एक मनुष्य को देख कर

3) शास्त्रियों तथा फ़रीसियों से यह कहा, ’’विश्राम के दिन चंगा करना उचित है या नहीं?’’

4) वे चुप रहे। इस पर ईसा ने जलोदर-पीडि़त का हाथ पकड़ कर उसे अच्छा कर दिया और विदा किया।

5) तब ईसा ने उन से कहा, ‘‘यदि तुम्हारा पुत्र या बैल कुएँ में गिर पड़े, तो तुम लोगों में ऐसा कौन है, जो उसे विश्राम के दिन ही तुरन्त बाहर निकाल नहीं लेगा?’’

6) और वे ईसा को कोई उत्तर नहीं दे सके।


📚 मनन-चिंतन


यहूदियों का धार्मिक नेतृत्व विशेषकर फरीसी लोग येसु से बहुत परेशान थे। दूसरी ओर, येसु ने चंगाई और बहाली के अपने सेवाकाई को निर्बाध रूप से जारी रखा। प्रत्येक घटना धार्मिक नेताओं से उनकी बढ़ती शत्रुता को उकसाती प्रतीत होती थी। फरीसियों के क्रोध को भड़काने वाली चीजों में से एक यह थी कि येसु विश्राम के दिन चमत्कार कर रहे थे। वे निश्चित थे कि येसु एक खतरनाक और अधार्मिक व्यक्ति थे, एक विश्राम दिवस तोड़ने वाला, जिसे हर कीमत पर रोका जाना चाहिए। इसलिए, हम उस फरीसी की मंशा पर ही सवाल उठा सकते हैं जिसने येसु को विश्राम के दिन खाने के लिए आमंत्रित किया था।

खाने के दौरान, शास्त्री और फरीसी येसु को बड़े शक की निगाह से देख रहे थे। वे येसु को पकड़ना चाहते थे ताकि वे उन पर विश्राम के दिन ईश्वर की व्यवस्था को तोड़ने का आरोप लगाया जा सकें। लेकिन येसु का ध्यान जलोदर से पीड़ित एक व्यक्ति की ज़रूरतों को पूरा करने पर लगा था।

इस अवसर पर येसु ने दो बातें स्थापित करते हैं। सबसे पहले, येसु अपने काम में केंद्रित है। वे इस बात की चिंता करने के बजाय कि उसके विरोधी क्या सोचेंगे और क्या करेंगे, अपने काम को पूरा करने में अधिक केंद्रित है । दूसरे, वे यह साबित करते है कि प्रेम का नियम विश्राम के नियम से बडा है। येसु विश्राम के दिन के लिए परमेश्वर की, अच्छा करने और चंगा करने के लिए, की मंशा की ओर इशारा करते हुए फरीसियों के तर्क की खामियों को दिखाते है: ।

हमारे जीवन में हमें अपने काम पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए और याद रखना चाहिये कि, प्यार कानूनीवाद को पीछे छोड़ देता है।



📚 REFLECTION



The Jews’ religious leadership particularly the Pharisees were terribly upset with Jesus. Jesus on the other hand continued unperturbedly his ministry of healing and restoration. Each incident seemed to incite increasing hostility from the religious leaders. One of the things that drew pharisees’ wrath was Jesus performing miracles on the Sabbath day. They were certain that Jesus was a dangerous and irreligious man, a Sabbath-breaker, who must be stopped at all costs. So, we may question the motive of the Pharisee who invited Jesus to dinner on the Sabbath, after he had already repeatedly broken their Sabbath regulations.

During the dinner, the scribes and Pharisees were watching Jesus carefully, with great suspicion. They wanted to catch Jesus so they might accuse him of breaking God's law on Sabbath. Jesus' attention was fixed on meeting the needs of a man who had dropsy.

Jesus establishes two things on this occasion. Firstly, Jesus is focused. He is more focused in fulfilling his work rather than worrying about what his opponents might think and do. Secondly, he proves that the law of love supersedes the law of rest. Jesus shows the loophole of the Pharisees' argument by pointing out God's intention for the Sabbath: to do good and to heal.

In our life, we must be focused on doing our work and in every situation, love supersedes legalism.


 -Br Biniush Topno


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गुरुवार, 28 अक्टूबर, 2021

 

गुरुवार, 28 अक्टूबर, 2021

वर्ष का तीसवाँ सामान्य सप्ताह

सन्त सिमोन और यूदा थदेयुस, प्रेरित : पर्व

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पहला पाठ एफ़ेसियों के नाम सन्त पौलुस का पत्र 2:19-22


19) आप लोग अब परेदशी या प्रवासी नहीं रहे, बल्कि सन्तों के सहनागरिक तथा ईश्वर के घराने के सदस्य बन गये हैं।

20) आप लोगों का निर्माण भवन के रूप में हुआ है, जो प्रेरितों तथा नबियों की नींव पर खड़ा है और जिसका कोने का पत्थर स्वयं ईसा मसीह हैं।

21) उन्हीं के द्वारा समस्त भवन संघटित हो कर प्रभु के लिए पवित्र मन्दिर का रूप धारण कर रहा है।

22) उन्हीं के द्वारा आप लोग भी इस भवन में जोड़े जाते हैं, जिससे आप ईश्वर के लिए एक आध्यात्मिक निवास बनें।


सुसमाचार : सन्त लूकस 6:12-19


12) उन दिनों ईसा प्रार्थना करने एक पहाड़ी पर चढ़े और वे रात भर ईश्वर की प्रार्थना में लीन रहे।

13) दिन होने पर उन्होंने अपने शिष्यों को पास बुलाया और उन में से बारह को चुन कर उनका नाम ’प्रेरित’ रखा-

14) सिमोन जिसे उन्होंने पेत्रुस नाम दिया और उसके भाई अन्द्रेयस को; याकूब और योहन को; फि़लिप और बरथोलोमी को,

15) मत्ती और थोमस को; अलफाई के पुत्र याकूब और सिमोन को, जो ’उत्साही’ कहलाता है;

16) याकूब के पुत्र यूदस और यूदस इसकारियोती को, जो विश्वासघाती निकला।

17) ईसा उनके साथ उतर कर एक मैदान में खड़े हो गये। वहाँ उनके बहुत-से शिष्य थे और समस्त यहूदिया तथा येरुसालेम का और समुद्र के किनारे तीरूस तथा सिदोन का एक विशाल जनसमूह भी था, जो उनका उपदेश सुनने और अपने रोगों से मुक्त होने के लिए आया था।

18) ईसा ने अपदूतग्रस्त लोगों को चंगा किया।

19) सभी लोग ईसा को स्पर्श करने का प्रयत्न कर रहे थे, क्योंकि उन से शक्ति निकलती थी और सब को चंगा करती थी।


📚 मनन-चिंतन


जब येसु ने अपना मिशन शुरू किया, तो उन्होनें अपने प्रेरित होने के लिए बारह लोगों को चुना। बारह के चुनाव में, हम एक विशेषता देखते हैं जो उन सभी बारहों के लिए समान थी कि येसु ने बहुत ही साधारण लोगों को चुना।

वे गैर-पेशेवर थे, जिनके पास कोई धन या पद नहीं था। वे मछुआरे थे। वे आम लोगों में से चुने गए थे जिन्होंने सामान्य काम किया था, उनके पास कोई विशेष शिक्षा नहीं थी, और उनके पास कोई सामाजिक लाभ का पद नहीं था। येसु ऎसे साधारण पुरुषों को चाहते थे जो एक कार्यभार ग्रहण कर सकें और इसे असाधारण रूप से अच्छी तरह से कर सकें। उनहोंने इन लोगों को इस लिए नहीं चुना कि वे क्या थे, बल्कि इसलिए कि वे उसके मार्गदर्शन और शक्ति के अधीन रहकर क्या बनने में सक्षम थे। संत पौलुस ने तत्थ को सुंदरता के साथ सारांशित किया, "ज्ञानियों को लज्जित करने के लिए ईश्वर ने उन लोगों को चुना है, जो दुनिया की दृष्टि में मूर्ख हैं। शक्तिशालियों को लज्जित करने के लिए उसने उन लोगों को चुना है, जो दुनिया की दृष्टि में दुर्बल हैं। गण्य-मान्य लोगों का घमण्ड चूर करने के लिए उसने उन लोगों को चुना है, जो दुनिया की दृष्टि में तुच्छ और नगण्य हैं, (१ कुरिन्थियों १:२७-२८) जब प्रभु हमें सेवा करने के लिए बुलाते हैं, तो हमें पीछे नहीं हटना चाहिए क्योंकि हम सोचते हैं कि हमारे पास देने के लिए बहुत कम या कुछ भी नहीं है। हमारे जैसे सामान्य लोग जो कुछ भी दे सकते हैं, प्रभु उसे लेते है और अपने राज्य में महानता के लिए उसका उपयोग करते है। हम अपना जीवन ईश्वर के लिये भेंट करें, और जैसा वह ठीक समझे, वैसा ही उसका उपयोग करे।



📚 REFLECTION



When Jesus embarked on his mission, he chose twelve men to be his apostles. In the choice of the twelve, we see a particular feature that was common to all twelve of them. Jesus chose very ordinary men.

They were non-professionals, who had no wealth or position. They were fishermen. They were chosen from the common people who did ordinary things, had no special education, and had no social advantages. Jesus wanted ordinary men who could take an assignment and do it extraordinarily well. He chose these men, not for what they were, but for what they would be capable of becoming under his guidance and power. St. Paul beautiful summarizes it, “But God chose what is foolish in the world to shame the wise; God chose what is weak in the world to shame the strong; God chose what is low and despised in the world, things that are not, to reduce to nothing things that are,” (1 Corinthians 1:27-28)

When the Lord calls us to serve, we must not hesitate back because we think that we have little or nothing to offer. The Lord takes what ordinary people, like us, can offer and uses it for greatness in his kingdom. we should make our life an offering to the Lord and allow him to use you as he sees fit.



मनन-चिंतन - 2


अपने बारह शिष्यों को चुनने से पहले प्रभु येसु ने पूरी रात प्रार्थना में बिताई। आज की दुनिया में हमें चयन के कई तरीके मिलते हैं। हमारे पास लिखित परीक्षा, मौखिक परीक्षा, इन्टर्व्यू और अन्य तरीके हैं। प्रभु येसु के पास चुनाव का एक ही तरीका है - विवेचन। वे यह जानने की कोशिश करते हैं कि अपने स्वर्गिक पिता क्या चाहते हैं। यदि हम बारह शिष्यों के स्वभाव को देखें, तो हमें आश्चर्य होगा कि ये बारह येसु के समय के हजारों लोगों में से क्यों चुने गए। क्या वे अधिक बुद्धिमान, अधिक कुशल, अधिक प्रतिभाशाली, अधिक पढ़े-लिखे थे? नहीं। क्या वे अच्छे वक्ता थे? नहीं। क्या वे सार्वजनिक संबंधों में निपुण थे? बिलकुल नहीं। तो इन बारह का चयन कैसे हुआ? जवाब बस यही है - स्वर्गिक पिता की स्वतंत्र इच्छा। स्वर्गिक पिता ने उन्हें चुना और येसु ने बस अपने स्वर्गिक पिता की इच्छा को समझा और उन्हें बुलाया। जब हम निर्णय लेते हैं तो हम कभी पूछते हैं - "ईश्वर की इच्छा क्या है?"



SHORT REFLECTION


Before he chose the twelve disciples, Jesus spent the whole night in prayer. The choice is made out of discernment. In today’s world we find very many ways of selection. We have written texts, oral exams, interviews and other methods of selection. Jesus has only one way of choice – discernment. He tries to find out what the Heavenly Father wants. If we look at the temperaments of the twelve disciples, we shall wonder as why these twelve chosen from among thousands of people of the time of Jesus. Were they more intelligent, more efficient, more talented, more learned? Were they good speakers? Were they good at public relationships? How did these twelve get selected? The answer is simply – the Heavenly Father’s free will. The heavenly father simply chose them and Jesus simply discerned the heavenly Father’s will and called them. When we make decision do we ever ask – “What is the will of God?”


 -Br Biniush Topno


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बुधवार, 27 अक्टूबर, 2021

 

बुधवार, 27 अक्टूबर, 2021

वर्ष का तीसवाँ सामान्य सप्ताह

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पहला पाठ रोमियों के नाम सन्त पौलुस का पत्र 8:26-30


26) आत्मा भी हमारी दुर्बलता में हमारी सहायता करता है। हम यह नहीं जानते कि हमें कैसे प्रार्थना करनी चाहिए, किन्तु हमारी अस्पष्ट आहों द्वारा आत्मा स्वयं हमारे लिए विनती करता है।

27) ईश्वर हमारे हृदय का रहस्य जानता है। वह समझाता है कि आत्मा क्या कहता है, क्योंकि आत्मा ईश्वर के इच्छानुसार सन्तों के लिए विनती करता है।

28) हम जानते हैं कि जो लोग ईश्वर को प्यार करते हैं और उसके विधान के अनुसार बुलाये गये हैं, ईश्वर उनके कल्याण के लिए सभी बातों में उनकी सहायता करता है;

29) क्योंकि ईश्पर ने निश्चित किया कि जिन्हें उसने पहले से अपना समझा, वे उसके पुत्र के प्रतिरूप बनाये जायेंगे, जिससे उसका पुत्र इस प्रकार बहुत-से भाइयों का पहलौठा हो।

30) उसने जिन्हें पहले से निश्चित किया, उन्हें बुलाया भी है: जिन्हें बुलाया, उन्हें पाप से मुक्त भी किया है और जिन्हें पाप से मुक्त किया, उन्हें महिमान्वित भी किया है।


सुसमाचार : सन्त लूकस 13:22-30


22) ईसा नगर-नगर, गाँव-गाँव, उपदेश देते हुए येरूसालेम के मार्ग पर आगे बढ़ रहे थे।

23) किसी ने उन से पूछा, "प्रभु! क्या थोड़े ही लोग मुक्ति पाते हैं?’ इस पर ईसा ने उन से कहा,

24) "सँकरे द्वार से प्रवेश करने का पूरा-पूरा प्रयत्न करो, क्योंकि मैं तुम से कहता हूँ - प्रयत्न करने पर भी बहुत-से लोग प्रवेश नहीं कर पायेंगे।

25) जब घर का स्वामी उठ कर द्वार बन्द कर चुका होगा और तुम बाहर रह कर द्वार खटखटाने और कहने लगोगे, ’प्रभु! हमारे लिए खोल दीजिए’, तो वह तुम्हें उत्तर देगा, ’मैं नहीं जानता कि तुम कहाँ के हो’।

26) तब तुम कहने लगोगे, ’हमने आपके सामने खाया-पीया और आपने हमारे बाज़ारों में उपदेश दिया’।

27) परन्तु वह तुम से कहेगा, ’मैं नहीं जानता कि तुम कहाँ के हो। कुकर्मियो! तुम सब मुझ से दूर हटो।’

28) जब तुम इब्राहीम, इसहाक, याकूब और सभी नबियों को ईश्वर के राज्य में देखोगे, परन्तु अपने को बहिष्कृत पाओगे, तो तुम रोओगे और दाँत पीसते रहोगे।

29) पूर्व तथा पश्चिम से और उत्तर तथा दक्षिण से लोग आयेंगे और ईश्वर के राज्य में भोज में सम्मिलित होंगे।

30) देखो, कुछ जो पिछले हैं, अगले हो जायेंगे और कुछ जो अगले हैं, पिछले हो जायेंगे।"


📚 मनन-चिंतन


ईश्वर के राज्य के रहस्य को प्रकट करने के लिए येसु एक बंद दरवाजे के प्रतीक का उपयोग करते है। बहुत देर से आने वालों के लिए दरवाज़ा बंद होने के बारे में येसु का दृष्टांत बताता है कि उन्होंने अपने मेजबान को नाराज कर दिया था और बाहर रहने के योग्य थे। येसु ने इस दृष्टांत को इस सवाल के जवाब में बताया कि कौन स्वर्ग पहुंच पायेगा। येसु के समय के अधिकांश यहूदियों ने सोचा और सिखाया कि वे अपने आप बच जाएंगे क्योंकि वे ईश्वर के चुने हुए लोग थे। येसु ने उनका और उनकी धारणाओं का सामना यह कहकर किया कि ईश्वर के राज्य में प्रवेश स्वचालित नहीं है, लेकिन योग्य होने के लिए कड़ी मेहनत करनी चाहिए।

दूसरे, येसु ने चेतावनी दी है कि यदि हम संकरे दरवाजे से प्रवेश करने का प्रयास नहीं करते हैं तो हमें बाहर रखा जा सकता है। स्वर्ग का मार्ग 'संकीर्ण द्वार' से होता है। संकरा दरवाजा 'कठिन रास्ता' होता है। येसु के लिए, संकरा द्वार क्रूस है। जिस द्वार से येसु गुजरे वह अस्वीकृति, उत्पीड़न और मृत्यु का था। हालांकि, इसके माध्यम से उन्होंने संसार को जीत लिया। क्रूस के द्वारा, येसु हमारे लिए उसके राज्य में प्रवेश करने का मार्ग खोलते हैं। लेकिन हमें क्रूस के मार्ग में येसु का अनुसरण करना चाहिए। ईश्वर के राज्य में प्रवेश करने के लिए व्यक्ति को प्रलोभन, लालच, झूठे सिद्धांतों, और जो कुछ भी हमें ईश्वर की इच्छा को पूरा करने से रोकता है, के खिलाफ प्रयास करना चाहिए और संघर्ष करना चाहिए। हम अकेले प्रयास नहीं करते हैं। ईश्वर हमारे साथ हैं और उनकी कृपा काफी है। येसु ने हमें पूर्ण विजय का आश्वासन दिया है! क्योंकि वह स्वयं द्वार है। "मैं द्वार हूँ। जो कोई मेरे द्वारा प्रवेश करेगा वह उद्धार पाएगा।” ( योहन 10:9)।



📚 REFLECTION



Jesus uses the symbol of a shut door to reveal the mystery about the kingdom of God. Jesus' parable about the door being shut to those who come too late suggests that they had offended their host and deserved to remain outside. Jesus told this story in response to the question of who will make it to heaven. Most of the Jews of Jesus’ time thought and taught that they will automatically be saved because they were the chosen people of God. Jesus confronts them and their presumption by saying that the entry to the kingdom of God is not automatic but one must strive hard to be found worthy.

Secondly, Jesus warns that we can be excluded if we do not strive to enter by the narrow door. The way to heaven is through the ‘narrow door’. The narrow door stands for ‘hard way’. For Jesus, it is the cross that is a narrow door. A door through which he passed was of rejection, persecution, and death. However, it is through this he triumphed the world. Through the cross, Jesus opens the way for us to enter into his kingdom. But we must follow Jesus in the way of the cross. To enter the kingdom of God one must strive and struggle against the forces of temptation, allurement, false doctrines, and whatever would hinder us from doing the will of God. We do not strive alone. God is with us and his grace is sufficient. Jesus assures us of complete victory! For he himself is the door. “I am the gate. Whoever enters by me will be saved.” (John 10:9).



मनन-चिंतन - 2


किसी ने येसु से पूछा, "प्रभु! क्या थोड़े ही लोग मुक्ति पाते हैं?" प्रभु येसु सीधे सवाल का जवाब नहीं देते हैं, लेकिन उससे कहते हैं, “सँकरे द्वार से प्रवेश करने का पूरा-पूरा प्रयत्न करो”। यदि आप येसु के जवाब देने के तरीके पर विचार करते हैं, तो आप समझेंगे कि येसु उसे बताना चाहते हैं कि उसे इस बात की चिंता नहीं करनी चाहिए कि कितने को बचाया जाएगा, बल्कि यह चिंता करनी चाहिए कि क्या वह खुद बच जाएगा। इसलिए अंत में प्रभु कहते हैं, " जब तुम इब्राहीम, इसहाक, याकूब और सभी नबियों को ईश्वर के राज्य में देखोगे, परन्तु अपने को बहिष्कृत पाओगे, तो तुम रोओगे और दाँत पीसते रहोगे"। हमें "अपने को बहिष्कृत" पाये जाने की संभावना के बारे में चिंता करनी चाहिए।

प्रभु येसु ने आज के सुसमाचार में तीन वास्तविकताओं पर जोर दिया है। सबसे पहले, वे कहते हैं कि स्वर्ग का दरवाजा संकीर्ण है। इसलिए यदि आप स्वर्ग में प्रवेश करने में रुचि रखते हैं, तो आपको यह सुनिश्चित करने की आवश्यकता है कि आप सही रास्ते पर हैं और आपका ध्यान संकीर्ण दरवाजे पर है। दूसरा, हमें स्वर्ग में प्रवेश करने के लिए खुद को तैयार करने हेतु आवंटित समय सीमित है और अचानक समाप्त हो सकता है। यह मांग करता है कि हम हमें उपलब्ध समय बर्बाद न करें, लेकिन बिना किसी विलंब के उस पर काम करना जरूरी मानें। तीसरा, स्वर्ग में प्रवेश करने की संभावना उन सभी के लिए खुली है जो भलाई करते रहते हैं और बुराई करने वाले सभी के लिए बंद हैं। इसलिए हमें अपने बुरे तरीकों तथा आदतों को त्यागने और दूसरों का भला करने में व्यस्त होना चाहिए। हमें सभी के कल्याण के लिए काम करना होगा।



SHORT REFLECTION


Someone asked Jesus, “Will there be only a few saved?” Jesus does not answer the question directly, but tells him, “Try your hardest to enter by the narrow door…”. If you reflect on the way Jesus replies, you will understand that Jesus wants to tell him that he should not worry about how many will be saved, but should worry as to whether he himself will be saved. That is why at the end Jesus says, “Then there will be weeping and grinding of teeth, when you see Abraham and Isaac and Jacob and all the prophets of the kingdom of God, and yourself thrown out”. We should worry about the possibility of us ourselves “thrown out”.

Jesus emphasises three realities in today’s Gospel. Firstly, he states that the door to heaven is narrow. Hence if you are interested in entering heaven, you need to make sure that you are on the right path and that your focus is on the narrow door. Secondly, the time allotted to us to prepare ourselves to enter heaven is limited and can finish abruptly. This demands that we do not waste any time, but consider it urgent to work at it without procrastination. Thirdly, the possibility of entering heaven is open to all who do good and is closed to all who do evil. Therefore we need to abandon our evil ways and get busy doing good to others. We have to work for the welfare of everyone.


 -Br Biniush Topno


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मंगलवार, 26 अक्टूबर, 2021

 

मंगलवार, 26 अक्टूबर, 2021

वर्ष का तीसवाँ सामान्य सप्ताह

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पहला पाठ रोमियों के नाम सन्त पौलुस का पत्र 8:18-25

18) मैं समझता हूँ कि हम में जो महिमा प्रकट होने को है, उसकी तुलना में इस समय का दुःख नगण्य है;

19) क्योंकि समस्त सृष्टि उत्कण्ठा से उस दिन की प्रतीक्षा कर रही है, सब ईश्वर के पुत्र प्रकट हो जायेंगे।

20) यह सृष्टि तो इस संसार की असारता के अधीन हो गयी है-अपनी इच्छा से नहीं, बल्कि उसकी इच्छा से, जिसने उसे अधीन बनाया है- किन्तु यह आशा भी बनी रही

21) कि वह असारता की दासता से मुक्त हो जायेगी और ईश्वर की सन्तान की महिमामय स्वतन्त्रता की सहभागी बनेगी।

22) हम जानते हैं कि समस्त सृष्टि अब तक मानो प्रसव-पीड़ा में कराहती रही है और सृष्टि ही नहीं, हम भी भीतर-ही-भीतर कराहते हैं।

23) हमें तो पवित्र आत्मा के पहले कृपा-दान मिल चुके हैं, लेकिन इस ईश्वर की सन्तान बनने की और अपने शरीर की मुक्ति की राह देख रहे हैं।

24) हमारी मुक्ति अब तक आशा का ही विषय है। यदि कोई वह बात देखता है, जिसकी वह आशा करता है, तो यह आशा नहीं कही जा सकती।

25) हम उसकी आशा करते हैं, जिसे हम अब तक नहीं देख सके हैं। इसलिए हमें धैर्य के साथ उसकी प्रतीक्षा करनी पड़ती है।


सुसमाचार : सन्त लूकस 13:18-21


18) ईसा ने कहा, ’’ईश्वर का राज्य किसके सदृश है? मैं इसकी तुलना किस से करूँ?

19) वह उस राई के दाने के सदृश है, जिसे ले कर किसी मनुष्य ने अपनी बारी में बोया। वह बढ़ते-बढ़ते पेड़ हो गया और आकाश के पंछी उसकी डालियों में बसेरा करने आये।’’

20) उन्होंने फिर कहा, ’’मैं ईश्वर के राज्य की तुलना किस से करूँ?

21) वह उस ख़मीर के सदृश है, जिसे ले कर किसी स्त्री ने तीन पंसेरी आटे में मिलाया और सारा आटा ख़मीर हो गया।’’


📚 मनन-चिंतन


येसु हमें ईश्वर के राज्य के बारे में सिखाने के लिए राई और खमीर का उदाहरण लेते हैं। छोटा सरसों का बीज सचमुच एक पेड़ बन जाता है जो आकाश के पक्षियों को आकर्षित करता है क्योंकि वे उस छोटे से सरसों के बीज से प्यार करते हैं जो इसे पैदा करता है। ईश्वर का राज्य इसी तरह से कार्य करता है। यह उन पुरुषों और महिलाओं के दिलों में, जो ईश्वर के वचन को ग्रहण करते हैं, छोटी शुरुआत से शुरू होता है। यह अदृश्य रूप से काम करता है और भीतर से परिवर्तन का कारण बनता है।

खमीर परिवर्तन का एक और शक्तिशाली तत्व है। जब आटे की एक गांठ में खमीर मिलाया जाता है तो यह परिवर्तन की चिंगारी पैदा करता है जो गर्म होने पर समृद्ध और स्वस्थ रोटी पैदा करता है, तथा जो मनुष्यों के जीवन का भोजन है। ईश्वर का राज्य उन लोगों में परिवर्तन उत्पन्न करता है जो येसु मसीह द्वारा प्रदान किया गया नया जीवन ग्रहण करते हैं। जब हम अपना जीवन येसु मसीह को सौंप देते हैं, तो हमारा जीवन पवित्र आत्मा से जो हम में वास करता है की शक्ति से बदल जाते हैं जो हम में वास करता है। पौलुस ने इस सच्चाई को कुरिन्थियों को लिखे दूसरे पत्र में सही रूप से इंगित किया, "हमारे पास यह खजाना मिट्टी के बर्तनों में है, यह दिखाने के लिए कि उत्कृष्ट शक्ति ईश्वर की है, न कि हमारी" (2 कुरिं। 4:7)। ईश्वर की शक्ति में विश्वास हमें उन्हें और उसके वचन को अपना जीवन अर्पित करे ताकि वे इसे बदल सके।



📚 REFLECTION



Jesus takes the example of mustard seeds and leavens to teach us about the kingdom of God. The tiny mustard seed literally grows to be a tree which attracted the birds of the air because they love the little mustard seed it produces. God's kingdom works in a similar fashion. It starts from the smallest beginnings in the hearts of men and women who receive the word of God. And it works unseen and causes a transformation from within.

Leaven is another powerful element of change. A lump of dough left to itself remains just what it is, a lump of dough. When the leaven is added to a lump of dough it sparks transformation which produces rich and wholesome bread when heated, the food of life for humans. The kingdom of God produces a transformation in those who receive the new life which Jesus Christ offers. When we yield our lives to Jesus Christ, our lives are transformed by the power of the Holy Spirit who dwells in us. Paul rightly points out this truth in the second letter to the Corinthians, "we have this treasure in earthen vessels, to show that the transcendent power belongs to God and not to us" (2 Cor. 4:7). Let belief in God’s power transform us by offering our lives to him and to his Word.



मनन-चिंतन - 2


प्रभु येसु एक महान शिक्षक, उपदेशक और प्रशिक्षक हैं। वे ईश्वर के राज्य के रहस्य का वर्णन करने के लिए हर संभव कल्पना करते हैं। उनके द्वारा ब्ताया गया प्रत्येक चिह्न जीवन, विकास और सकारात्मक प्रभाव के बारे में है। वे फल पैदा करने, जीवों को आश्रय देने, स्वादिष्ट बनाने के बारे में हैं। अगर हमने ईश्वर के राज्य को स्वीकार कर लिया है, तो क्या ये विशेषताएं हमारे बीच भी नहीं होनी चाहिए? प्रभु येसु गतिशीलता, विकास और फलदायकता पर जोर देता है। गतिशीलता हमारे विश्वास का अभ्यास करने में सहजता और रचनात्मकता की मांग करता है। विकास की मांग है कि हमारा ज्ञान बढ़ता रहे, अनुभव अधिक घनिष्ठ बनता रहे, प्रतिबद्धता मजबूत होती रहे और हमारा उत्साह बना रहे। फलदायकता की मांग है कि हमारे जीवित विश्वास की अभिव्यक्ति दूसरों के लिए सेवा के कार्यों में हो।



SHORT REFLECTION


Jesus is a great teacher, preacher and instructor. He employs every possible imagery to describe the mystery of the Kingdom of God. Every image he employs is about life, growth and positive influence. They are about producing fruits, sheltering creatures, adding taste. If we have accepted the Kingdom of God, shouldn’t these features be in us too? Jesus insists on dynamism, growth and fruitfulness. Dynamism demands spontaneity and creativity in practising our faith. Growth demands that our knowledge increases, experience expands, commitment is strengthened and our enthusiasm is sustained. Fruitfulness demands that our living faith is expressed itself in deeds of service to others.


 -Br Biniush Topno


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सोमवार, 25 अक्टूबर, 2021

 

सोमवार, 25 अक्टूबर, 2021

वर्ष का तीसवाँ सामान्य सप्ताह

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पहला पाठ रोमियों के नाम सन्त पौलुस का पत्र 8:12-17


12) इसलिए, भाइयो! शरीर की वासनओं का हम पर कोई अधिकर नहीं। हम उनके अधीन रह कर जीवन नहीं बितायें।

13) यदि आप शरीर की वासनाओं के अधीन रह कर जीवन बितायेंगे, तो अवश्य मर जायेंगे।

14) लेकिन यदि आप आत्मा की प्रेरणा से शरीर की वासनाओें का दमन करेंगे, तो आप को जीवन प्राप्त होगा।

15) जो लोग ईश्वर के आत्मा से संचालित हैं, वे सब ईश्वर के पुत्र हैं- आप लोगों को दासों का मनोभाव नहीं मिला, जिस से प्रेरित हो कर आप फिर डरने लगें। आप लोगों को गोद लिये पुत्रों का मनोभाव मिला, जिस से प्रेरित हो कर हम पुकार कर कहते हैं, ’’अब्बा, हे पिता!

16) आत्मा स्वयं हमें आश्वासन देता है कि हम सचमुच ईश्वर की सन्तान हैं।

17) यदि हम उसकी सन्तान हैं, तो हम उसकी विरासत के भागी हैं-हम मसीह के साथ ईश्वर की विरासत के भागी हैं। यदि हम उनके साथ दुःख भोगते हैं, तो हम उनके साथ महिमान्वित होंगे।


सुसमाचार : सन्त लूकस 13:10-17


10) ईसा विश्राम के दिन किसी सभागृह में शिक्षा दे रहे थे।

11) वहाँ एक स्त्री आयी, जो अपदूत लग जाने के कारण अठारह वर्षों से बीमार थी। वह एकदम झुक गयी थी और किसी भी तरह सीधी नहीं हो पाती थी।

12) ईसा ने उसे देख कर अपने पास बुलाया और उस से कहा, ’’नारी! तुम अपने रोग से मुक्त हो गयी हो’’

13) और उन्होंने उस पर हाथ रख दिये। उसी क्षण वह सीधी हो गयी और ईश्वर की स्तुति करती रही।

14) सभागृह का अधिकारी चिढ़ गया, क्योंकि ईसा ने विश्राम के दिन उस स्त्री को चंगा किया था। उसने लोगों से कहा, ’’छः दिन हैं, जिन में काम करना उचित है। इसलिए उन्हीं दिनों चंगा होने के लिए आओ, विश्राम के दिन नहीं।’’

15) परन्तु प्रभु ने उसे उत्तर दिया, ’’ढोंगियो! क्या तुम में से हर एक विश्राम के दिन अपना बैल या गधा थान से खोल कर पानी पिलाने नहीं ले जाता?

16) शैतान ने इस स्त्री, इब्राहीम की इस बेटी को इन अठारह वर्षों से बाँध रखा था, तो क्या इसे विश्राम के दिन उस बन्धन से छुड़ाना उचित नहीं था?’’

17) ईसा के इन शब्दों से उनके सब विरोधी लज्जित हो गये; लेकिन सारी जनता उनके चमत्कार देख कर आनन्दित होती थी।


📚 मनन-चिंतन


जब येसु का सामना एक ऎसी बूढ़ी औरत से हुआ जिसने अपना समस्त धन इलाज में खर्च कर दिया और अठारह साल तक सीधे खड़े होने में असमर्थ थी, तो उन्होंने तुरंत उस महिला को ठीक कर दिया। वह विश्राम का दिन था। सभाग्रह का शासक इस बात से क्रोधित था कि येसु ने विश्राम के पवित्र दिन ऐसा चमत्कारी कार्य किया। अधिकांश यहूदी नेता विश्राम दिवस के नियमों के पालन में इतने मशगूल थे कि उन्होंने परमेश्वर की दया और भलाई की दृष्टि खो दी। वे इतने अंधे थे कि इतना बड़ा चमत्कार भी उसकी ईश्वर की समझ को नहीं खोल सका। वह सभाग्रह का शासक था फिर भी उसका विश्वास अंधा था और शायद सामान्य विश्वासियों से भी बदतर।

इसके विपरीत येसु ने विश्राम के दिन चंगा किया क्योंकि ईश्वर अपनी दया और प्रेम दिखाने से कभी आराम नहीं करता। ईश्वर की कृपा हर समय उपलब्ध है और हमें आपत्ति करने का कोई अधिकार नहीं है और ईश्वर के वचन में हमें आध्यात्मिक, शारीरिक और भावनात्मक रूप से बदलने की शक्ति है। क्या कोई ऐसी चीज है जो हमें बांधे रखती है या जो हमें नीचे गिराती है? क्या हम ईश्वर के पास जाने के लिए किसी विशेष अवसर की प्रतीक्षा कर रहे हैं? क्या हम कुछ अन्य कारणों से ईश्वर के पास जाने को टाल रहे हैं? आइए हम तुरंत ईश्वर के पास आएं क्योंकि वह हमेशा उपलब्ध हैं और सभी बाधाओं के खिलाफ अपनी दया दिखाने के लिए तैयार हैं और ईश्वर हमसे अपना वचन कहें और हमें आजादी दें।



📚 REFLECTION



When Jesus encountered an elderly woman who had spent of her strength and was unable to stand upright for eighteen years, he instantly healed the woman. It was Sabbat day. The ruler of the Synagogue was indignant that Jesus performed such a miraculous work on the Sabbath, the holy day of rest. Most of the Jewish leaders were so caught up in their ritual observance of the Sabbath that they lost sight of God's mercy and goodness. He was so blind that even such a great miracle could not open his understanding of God. He was the ruler of the Synagogue yet his faith was blind and perhaps worse than the ordinary faithful.

Jesus on the contrary healed on the Sabbath because God does not ever rest from showing his mercy and love. God’s grace is available all the time and we have no right to object and God's word has the power to change us, spiritually, physically, and emotionally. Is there anything that keeps us bound up or that weighs us down? Are we waiting for a particular occasion to approach God? Are we postponing approaching God for some of the other reasons? Let us come to God immediately for he is always available and willing to show his mercy against all odds and may the Lord speak his word to us and give us freedom.


 -Br Biniush Topno


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