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गुरुवार, 09 सितम्बर, 2021

 

गुरुवार, 09 सितम्बर, 2021

वर्ष का तेईसवाँ सामान्य सप्ताह

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पहला पाठ : कलोसियों 3:12-17


12) आप लोग ईश्वर की पवित्र एवं परमप्रिय चुनी हुई प्रजा है। इसलिए आप लोगों को अनुकम्पा, सहानुभूति, विनम्रता, कोमलता और सहनशीलता धारण करनी चाहिए।

13) आप एक दूसरे को सहन करें और यदि किसी को किसी से कोई शिकायत हो तो एक दूसरे को क्षमा करें। प्रभु ने आप लोगों को क्षमा कर दिया। आप लोग भी ऐसा ही करें।

14) इसके अतिरिक्त, आपस में प्रेम-भाव बनाये रखें। वह सब कुछ एकता में बाँध कर पूर्णता तक पहुँचा देता है।

15) मसीह की शान्ति आपके हृदय में राज्य करे। इसी शान्ति के लिए आप लोग, एक शरीर के अंग बन कर, बुलाये गये हैं। आप लोग कृतज्ञ बने रहें।

16) मसीह की शिक्षा अपनी परिपूर्णता में आप लोगों में निवास करें। आप बड़ी समझदारी से एक दूसरे को शिक्षा और उपदेश दिया करें। आप कृतज्ञ हृदय से ईश्वर के आदर में भजन, स्तोत्र और आध्यात्मिक गीत गाया करें।

17) आप जो भी कहें या करें, वह सब प्रभु ईसा के नाम पर किया करें। आप लोग उन्हीं के द्वारा पिता-परमेश्वर को धन्यवाद देते रहें।


सुसमाचार : सन्त लूकस 6:27-38


27) "मैं तुम लोगों से, जो मेरी बात सुनते हो, कहता हूँ - अपने शत्रुओं से प्रेम करो। जो तुम से बैर करते हैं, उनकी भलाई करो।

28) जो तुम्हें शाप देते है, उन को आशीर्वाद दो। जो तुम्हारे साथ दुव्र्यवहार करते हैं, उनके लिए प्रार्थना करो।

29) जो तुम्हारे एक गाल पर थप्पड़ मारता है, दूसरा भी उसके सामने कर दो। जो तुम्हारी चादर छीनता है, उसे अपना कुरता भी ले लेने दो।

30) जो तुम से माँगता है, उसे दे दो और जो तुम से तुम्हारा अपना छीनता है, उसे वापस मत माँगो।

31) दूसरों से अपने प्रति जैसा व्यवहार चाहते हो, तुम भी उनके प्रति वैसा ही किया करो।

32) यदि तुम उन्हीं को प्यार करते हो, जो तुम्हें प्यार करते हैं, तो इस में तुम्हारा पुण्य क्या है? पापी भी अपने प्रेम करने वालों से प्रेम करते हैं।

33) यदि तुम उन्हीं की भलाई करते हो, जो तुम्हारी भलाई करते हैं, तो इस में तुम्हारा पुण्य क्या है? पापी भी ऐसा करते हैं।

34) यदि तुम उन्हीं को उधार देते हो, जिन से वापस पाने की आशा करते हो, तो इस में तुम्हारा पुण्य क्या है? पूरा-पूरा वापस पाने की आशा में पापी भी पापियों को उधार देते हैं।

35) परन्तु अपने शत्रुओं से प्रेम करो, उनकी भलाई करो और वापस पाने की आशा न रख कर उधार दो। तभी तुम्हारा पुरस्कार महान् होगा और तुम सर्वोच्च प्रभु के पुत्र बन जाओगे, क्योंकि वह भी कृतघ्नों और दुष्टों पर दया करता है।

36) "अपने स्वर्गिक पिता-जैसे दयालु बनो। दोष न लगाओ और तुम पर भी दोष नहीं लगाया जायेगा।

37) किसी के विरुद्ध निर्णय न दो और तुम्हारे विरुद्ध भी निर्णय नहीं दिया जायेगा। क्षमा करो और तुम्हें भी क्षमा मिल जायेगी।

38) दो और तुम्हें भी दिया जायेगा। दबा-दबा कर, हिला-हिला कर भरी हुई, ऊपर उठी हुई, पूरी-की-पूरी नाप तुम्हारी गोद में डाली जायेगी; क्योंकि जिस नाप से तुम नापते हो, उसी से तुम्हारे लिए भी नापा जायेगा।"



📚 मनन-चिंतन


माता पिता अपने बच्चों से प्रेम करते है और कुछ हद तक प्रेम करना हम अपने माता पिता या परिावार से ही सीखते है। लेकिन संसार या परिवार का प्यार सीमित रहता है। प्रभु येसु हमें असीमित प्यार करना सीखाते है क्योंकि वे स्वयं असीमित प्यार करते है। अक्सर देखा जाता है कि लोग अपनो से या जो उन से अच्छा व्यवहार रखते है उन्ही से प्रेम या अच्छा बर्ताव करते है। परंतु प्रभु येसु सिखाते है कि न केवल अपनों से परंतु ‘‘अपने शत्रुओं से भी प्रेम करों। जो तुम से बैर करते हैं, उनकी भलाई करों। जो तुम्हें शाप देते है, उन को आशीर्वाद दो। जो तुम्हारे साथ दुव्यवहार करते हैं, उनके लिए प्रार्थना करो।‘‘

इस प्रकार का प्रेम करना शायद असंभव सा लगता है क्योंकि इस प्रकार केवल ईश्वर ही कर सकते है। परंतु प्रभु येसु ने इसे इस संसार में एक मानव के रूप में कर के दिखाया और बतलाया कि यह असंभव नहीं है। असंभव उनके लिए है जो अपने को बड़ा समझते है, जो अपने को छोटा नहीं मानना चाहते जो केवल अपन अहम् पर भरोसा रखते है, इसलिए प्रभु येसु ने कहा है कि ‘‘जो अपने को बड़ा होना चाहता है, वह तुम्हारा सेवक बने और जो तुम में प्रधान होना चाहता है, वह तुम्हारा दास बने।’’(मत्ती 20ः26-27)।

जो प्रभु की शिक्षा के अनुसार प्रेम करता है, उसमें ईश्वरत्व झलकता है और वह ईश्वरता की ओर अग्रसर होता है। येसु ने भी यही कहा है, ’पूर्ण बनों जैसे कि तुम्हारा स्वर्गिक पिता पूर्ण है।’



📚 REFLECTION



Parents love their children and to the some extent we learn to love from parents or family. But the love of the world or family is limited. Lord Jesus teaches us to love limitless or unconditionally because he himself loves unconditionally. Usually we find people love and behave good with the known persons or whose behavior is good towards them. but Jesus teaches us that not only with our loved ones but “love your enemies, do good to those who hate you, bless those who curse you, pray for those who abuse you.”

This type of love seems to be impossible because this can be done by God only, but Lord Jesus did this on this earth in the form of human and showed us that it is not impossible. It becomes impossible for those who think themselves big or great, who never wants them to be little, who trusts only in his ego, therefore Lord Jesus says, “Whoever wishes to be great among you must be your servant, and whoever wishes to be first among you must be your slave” (Mt 20:26-27).

One who loves according to the teaching of Jesus reflects the divinity in himself/herself and he moves towards the divinity. Jesus also told, ‘Be perfect as your Heavenly Father is perfect.’


 -Br Biniush Topno


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Praise the Lord!