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बुधवार, 26 मई, 2021 वर्ष का आठवाँ सामान्य सप्ताह

 

बुधवार, 26 मई, 2021

वर्ष का आठवाँ सामान्य सप्ताह

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पहला पाठ : प्रवक्ता ग्रन्थ 36:1,4-5, 10-

17

1) सर्वेश्वर प्रभु! हम पर दया कर, हमें अपनी करुणा की ज्योति दिखा।

4) जिस तरह तूने उनके सामने हम पर अपनी पवित्रता को प्रदर्शित किया, उसी तरह उन में अपनी महिमा को हमारे सामने प्रदर्शित कर।

5) प्रभु! वे तुझे उसी प्रकार जान जायें, जिस प्रकार हम जान गये कि तेरे सिवा और कोई ईश्वर नहीं।

10) विलम्ब न कर, निश्चित समय याद कर, जिससे लोग तेरे महान् कार्यों का बखान करें।

11) जो भागना चाहे, वह आग में भस्म हो जाये और जो लोग तेरी प्रजा पर अत्याचार करते हैं, उनका सर्वनाश हो।

12) विरोधी शासकों का सिर तोड़ डाला, जो कहते हैं, "हमारे बराबर कोई नहीं"।

13) समस्त याकूबवंशियों को एकत्र कर, उन्हें पहले की तरह उनकी विरासत लौटा।

14) प्रभु! उस प्रजा पर दया कर, जो तेरी कहलाती है, इस्राएल पर, जिसे तूने अपना पहलौठा माना है।

15) अपने पवित्र नगर, अपने निवासस्थान येरूसालेम पर दया कर।

16) अपने स्तुतिगान से सियोन को भर दे और अपनी महिमा से अपने मन्दिर को।

17) अपनी पहली कृति का समर्थन कर और अपने नाम पर घोषित भविष्य वाणियाँ पूरी कर।



सुसमाचार : मारकुस 10:32-45



32) वे येरूसालेम के मार्ग पर आगे बढ़ रहे थे। ईसा शिष्यों के आगे-आगे चलते थे। शिष्य बहुत घबराये हुए थे और पीछे आने वाले लोग भयभीत थे। ईसा बारहों को फिर अलग ले जा कर उन्हें बताने लगे कि मुझ पर क्या-क्या बीतेगी,

33) "देखो, हम येरूसालेम जा रहे हैं। मानव पुत्र महायाजकों और शास्त्रियों के हवाले कर दिया जायेगा। वे उसे प्राणदण्ड की आज्ञा सुना कर गै़र-यहूदियों के हवाले कर देंगे,

34) उसका उपहास करेंगे, उस पर थूकेंगे, उसे कोड़े लगायेंगे और मार डालेंगे; लेकिन तीसरे दिन वह जी उठेगा।"

35) ज़ेबेदी के पुत्र याकूब और योहन ईसा के पास आ कर बोले, "गुरुवर ! हमारी एक प्रार्थना है। आप उसे पूरा करें।"

36) ईसा ने उत्तर दिया, "क्या चाहते हो? मैं तुम्हारे लिए क्या करूँ?"

37) उन्होंने कहा, "अपने राज्य की महिमा में हम दोनों को अपने साथ बैठने दीजिए- एक को अपने दायें और एक को अपने बायें"।

38) ईसा ने उन से कहा, "तुम नहीं जानते कि क्या माँग रहे हो। जो प्याला मुझे पीना है, क्या तुम उसे पी सकते हो और जो बपतिस्मा मुझे लेना है, क्या तुम उसे ले सकते हो?"

39) उन्होंने उत्तर दिया, "हम यह कर सकते हैं"। इस पर ईसा ने कहा, "जो प्याला मुझे पीना है, उसे तुम पियोगे और जो बपतिस्मा मुझे लेना है, उसे तुम लोगे;

40) किन्तु तुम्हें अपने दायें या बायें बैठने देने का अधिकार मेरा नहीं हैं। वे स्थान उन लोगों के लिए हैं, जिनके लिए वे तैयार किये गये हैं।"

41) जब दस प्रेरितों को यह मालूम हुआ, तो वे याकूब और योहन पर क्रुद्ध हो गये।

42) ईसा ने उन्हें अपने पास बुला कर कहा, "तुम जानते हो कि जो संसार के अधिपति माने जाते हैं, वे अपनी प्रजा पर निरंकुश शासन करते हैं और सत्ताधारी लोगों पर अधिकार जताते हैं।

43) तुम में ऐसी बात नहीं होगी। जो तुम लोगों में बड़ा होना चाहता है, वह तुम्हारा सेवक बने

44) और जो तुम में प्रधान होना चाहता है, वह सब का दास बने;

45) क्योंकि मानव पुत्र भी अपनी सेवा कराने नहीं, बल्कि सेवा करने और बहुतों के उद्धार के लिए अपने प्राण देने आया है।"


📚 मनन-चिंतन


’’मैं स्वभाव से नम्र और विनीत हूॅ।’’(मत्ती 11:29) प्रभु का यह वचन केवल शाब्दिक ही नहीं परंतु व्यवहारिक भी था। उन्होने अपने विनम्रता का प्रमाण शिष्यों के पैरों को धो कर दिया और से भी अधिक अपने ईश्वरीय महिमा को छोड़ इस संसार में एक साधारण मनुष्य के रूप में जीना उनके विनम्रता का सबसे बड़ा उदाहरण हैं।

प्रभु ने कभी भी अपने को बड़ा नहीं समझा और इस कथन को वे अपने शिष्यों को शिक्षा के रूप में देते है कि, ‘‘जो तुम लोगों में बड़ा होना चाहता है, वह तुम्हारा सेवक बने और जो तुम में प्रधान होना चाहता है, वह सब का दास बने’’ यह शिक्षा प्रभु येसु तब देते है जब जेबेदी के पुत्र याकुब और योहन येसु के पास आकर उनके राज्य में दाये और बायें बैठने का कृपा मॉंगते है। प्रभु येसु उनके सांसारिक मन को जान जाते है वे जानते थे कि वे ईश्वर के राज्य को इस संसार के अनुसार समझ रहें थे जहॉं राजा और उनका राज्य होता है, सेना और सेनापति होते है इसलिए वे चाह रहे थे कि इस संसार में वे येसु के राज्य में दाये और बायें बैठने का वरदान मिलें।

प्रभु येसु उन्हे इस सांसारिक राजाओं और उनके शासन में होने वाली चीजों के बारे में अवगत कराते हुए कहते है कि तुममें ऐसी बात नहंी होगी। प्रभु शिष्यों में लोगो पर शासन करने वाला व्यक्ति नहीं परंतु विनम्रता से लोगों की सेवा करने वाला व्यक्ति के रूप में देखना चाहते थे। यह जीवन में हमें जो भी पद या अधिकार मिला है- एक परिवार में या समाज में, कार्यालय में या कलीसिया में, यह एक अवसर है प्रभु येसु के अनुयायी सिद्ध होने का जब हम विनम्रता पूर्वक अपनी सेवाएॅं देते है न कि अपने अहम् पर हावी होकर निरंकुश शासन करने का या सत्ताधारी लोगो पर अधिकार जताने का।

आईये हम प्रार्थना करें कि हम दिन प्रतिदिन विनम्र सेवा में आगे बढ़े। आमेन!



📚 REFLECTION


“I am gentle and humble in heart” (Mt 11:29). These words of Jesus were not merely words but it was very practical in his life. He demonstrated his humility by washing the feet of the disciples and more than that leaving the divine glory and living like a simple human person on this earth was the greatest example of his humility.

Lord Jesus never showed himself a great person and this statement he taught the disciples as a teaching that, “whoever wishes to become great among you must be your servant, and whoever wishes to be first among you must be slave of all.” This teaching was given by Jesus when James and John, the sons of Zebedee came to Jesus for asking the favour to sit on the right and left in his kingdom. Lord Jesus knew the worldly mind in them. He knew that they were thinking the Kingdom of God according to this world, where there is King and his kingdom, commanders and army that is why they were seeking to sit on the right and left in this world when Jesus kingdom will be established.

Lord Jesus making them aware of the things that happens in the worldly king and in their regime, tells them that it should not so happen among you. Lord Jesus wanted to see them not as a person ruling over the people but as a person serving the people. In this life whatever post or power we have received- whether in the family or in the society, in the office or in the Church, this is an opportunity to proof ourselves to be Jesus’ followers by giving our service to the people and not to be overcome by the ego and lord it over them or be tyrants over them.

Lets’ pray that day by day we may grow in humble service. Amen!


 -Br Biniush Topno



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Praise the Lord!