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Catholic Bible readings for today 21 February 2021

 Daily Mass Readings for Sunday, 21 February 2021

FIRST SUNDAY OF LENT

Lectionary: 23

Also Read:Mass Reading Reflection for 21 Feb 2021

First Reading: Genesis 9: 8-15

8 Thus also said God to Noe, and to his sons with him,

9 Behold I will establish my covenant with you, and with your seed after you:

10 And with every living soul that is with you, as well in all birds as in cattle and beasts of the earth, that are come forth out of the ark, and in all the beasts of the earth.

11 I will establish my covenant with you, and all flesh shall be no more destroyed with the waters of a flood, neither shall there be from henceforth a flood to waste the earth.

12 And God said: This is the sign of the covenant which I give between me and you, and to every living soul that is with you, for perpetual generations.

13 I will set my bow in the clouds, and it shall be the sign of a covenant between me, and between the earth.

14 And when I shall cover the sky with clouds, my bow shall appear in the clouds:

15 And I will remember my covenant with you, and with every living soul that beareth flesh: and there shall no more be waters of a flood to destroy all flesh.

Responsorial Psalm: Psalms 25: 4-5, 6-7, 8-9

R. (10) All the ways of the Lord are mercy and truth, to them that seek after his covenant and his testimonies.

4 Let all them be confounded that act unjust things without cause. shew, O Lord, thy ways to me, and teach me thy paths.

5 Direct me in thy truth, and teach me; for thou art God my Saviour; and on thee have I waited all the day long.

R. All the ways of the Lord are mercy and truth, to them that seek after his covenant and his testimonies.

6 Remember, O Lord, thy bowels of compassion; and thy mercies that are from the beginning of the world.

7 The sins of my youth and my ignorances do not remember. According to thy mercy remember thou me: for thy goodness’ sake, O Lord.

R. All the ways of the Lord are mercy and truth, to them that seek after his covenant and his testimonies.

8 The Lord is sweet and righteous: therefore he will give a law to sinners in the way.

9 He will guide the mild in judgment: he will teach the meek his ways.

R. All the ways of the Lord are mercy and truth, to them that seek after his covenant and his testimonies.

Second Reading: First Peter 3: 18-22

18 Because Christ also died once for our sins, the just for the unjust: that he might offer us to God, being put to death indeed in the flesh, but enlivened in the spirit,

19 In which also coming he preached to those spirits that were in prison:

20 Which had been some time incredulous, when they waited for the patience of God in the days of Noe, when the ark was a building: wherein a few, that is, eight souls, were saved by water.

21 Whereunto baptism being of the like form, now saveth you also: not the putting away of the filth of the flesh, but the examination of a good conscience towards God by the resurrection of Jesus Christ.

22 Who is on the right hand of God, swallowing down death, that we might be made heirs of life everlasting: being gone into heaven, the angels and powers and virtues being made subject to him.

Verse Before the Gospel: Matthew 4: 4b

4b Not in bread alone doth man live, but in every word that proceedeth from the mouth of God.

Gospel: Mark 1: 12-15

12 And immediately the Spirit drove him out into the desert.

13 And he was in the desert forty days and forty nights, and was tempted by Satan; and he was with beasts, and the angels ministered to him.

14 And after that John was delivered up, Jesus came into Galilee, preaching the gospel of the kingdom of God,

15 And saying: The time is accomplished, and the kingdom of God is at hand: repent, and believe the gospel.

✍️Br. Biniush Topno

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चालीसे का पहला रविवार 21 फरवरी 2021, इतवार

 

21 फरवरी 2021, इतवार

चालीसे का पहला रविवार

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पहला पाठ : उत्पत्ति ग्रन्थ 9:8-15


8) ईश्वर ने नूह और उसके पुत्रों से यह भी कहा,

9) ''देखो! मैं तुम्हारे और तुम्हारे वंशजों के लिए अपना विधान ठहराता हूँ!

10) और जो प्राणी तुम्हारे चारों ओर विद्यमान है, अर्थात पक्षी, चौपाये और सब जंगली जानवर, जो कुछ जहाज से निकला है और पृथ्वी भर के सब पशु-उन प्राणियों के लिए भी।

11) मैं तुम्हारे लिए यह विधान ठहराता हूँ-कोई भी प्राणी जलप्रलय से फिर नष्ट नहीं होगा और फिर कभी कोई जलप्रलय पृथ्वी को उजाड़ नहीं बनायेगा।''

12) ईश्वर ने यह भी कहा, ''मैं तुम्हारे लिए, तुम्हारे साथ रहने वाले सभी प्राणीयों के लिए और आने वाली पीढ़ियों के लिए जो विधान ठहराता हूँ, उसका चिन्ह यह होगा-

13) मैं बादलों के बीच अपना इन्द्र धनुष रख देता हूँ; वह पृथ्वी के लिए ठहराये हुए मेरे विधान का चिन्ह होगा।

14) जब मैं पृथ्वी के ऊपर बादल एकत्र कर लूँगा और बादलों में वह धनुष दिखाई पड़ेगा,

15) तब मैं तुम्हारे लिए और सब प्राणियों के लिए ठहराये अपने विधान को याद करूँगा और फिर कभी जलप्रलय सभी शरीरधारियों का विनाश नहीं करेगा।


दूसरा पाठ : सन्त पेत्रुस का पहला पत्र 3:18-22


18) मसीह भी एक बार पापों के प्रायश्चित के लिए मर गये, धर्मी अधर्मियों के लिए मर गये, जिससे वह हम लोगों को ईश्वर के पास ले जाये, वह शरीर की दृष्टि से तो मारे गये, किन्तु आत्मा द्वारा जिलाये गये।

19) वह इसी रूप में कैदी आत्माओं को मुक्ति का सन्देश सुनाने गये।

20) उन लोगों ने बहुत पहले ईश्वर के विरुद्ध विद्रोह किया था, जब वह धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा कर रहा था और नूह का जहाज़ बन रहा था। उस जहाज में थोड़े ही अर्थात् आठ व्यक्ति जल से बच गये है।

21) यह बपतिस्मा का प्रतीक है, जो अब आपका उद्धार करता है। बपतिस्मा का अर्थ शरीर का मैल धोना नहीं, बल्कि शुद्ध हृदय से अपने को ईश्वर के प्रति समर्पित करना है। यह बपतिस्मा ईसा मसीह के पुनरुत्थान द्वारा हमारा उद्धार करता है।

22) ईसा स्वर्ग गये और स्वर्ग के सभी दूतों को अपने अधीन कर ईश्वर के दाहिने विराजमान हैं।

सुसमाचार : सन्त मारकुस 1:12-15

12) इसके बाद आत्मा ईसा को निर्जन प्रदेश ले चला।

13) वे चालीस दिन वहाँ रहे और शैतान ने उनकी परीक्षा ली। वे बनैले पशुओं के साथ रहते थे और स्वर्गदूत उनकी सेवा-परिचर्या करते थे।

14) योहन के गिरफ़्तार हो जाने के बाद ईसा गलीलिया आये और यह कहते हुए ईश्वर के सुसमाचार का प्रचार करते रहे,

15) ’’समय पूरा हो चुका है। ईश्वर का राज्य निकट आ गया है। पश्चाताप करो और सुसमाचार में विश्वास करो।’’


📚 मनन-चिंतन


चालीसा काल एक ऐसा समय जब हम खुद को, खुद के मन व दिल को टटोलकर देखते हैं। यह एक ऐसा समय है जब पूरी कलीसिया एक तरह से आध्यात्मिक साधना करती है। जब हम आध्यात्मिक साधना अथवा रिट्रीट के बारे में सोचते हैं, तो हम जीवन की सामान्य दिनचर्या से दूर एक विशेष स्थान पर जाने की सोचते हैं जहाँ एक अलग दिनचर्या होती है। सुसमाचार में हम पाते हैं कि येसु बस यही कर रहे हैं । वह आत्मा द्वारा निर्जन स्थान में, ले जाये जाते हैं, जहाँ वे भीड़ से दूर अकेले रहकर प्रार्थना करते हैं। वे चालीस दिनों तक वहीं रहे, जो हमारे तपस्याकाल की अवधी है।

हमारे लिए, हालांकि, चालिसा काल उस अर्थ में एक रिट्रीट नहीं है। चालीसे के आगमन का मतलब यह नहीं है कि हमारे जीवन की लय किसी भी मौलिक तरीके से बदल जाती है। दिन-प्रतिदिन के जीवन की मांग कम नहीं होती है; हम निर्जन स्थानों में नहीं जा सकते। हमें हमारे सामान्य जीवन के बीच में चालीसे को जीना है; हमारी चालीसे की रिट्रीट आध्यात्मिक साधना का अर्थ शाब्दिक, भौतिक अर्थों में सामान्य जीवन से दूर भागना नहीं है। इसका मतलब यह है कि हम अधिक आत्म-चिंतनशील बनने की कोशिश करते हैं। हालाँकि चालीसे के समय हम सुसमाचार के प्रकाश में खुद के भीतर झाँकने का प्रयास करते हैं और ईश्वर से बातचीत करते हैं, तो ऐसे में यह कहना बेहतर होगा कि चालीसा वह समय है जब हमें अधिक प्रार्थनाशील बनने के लिए कहा जाता है। प्रार्थना में, हम प्रभु को अपने जीवन के उन क्षेत्रों को दिखाने के लिए आमंत्रित करते हैं जो वास्तव में सुसमाचार के मूल्यों के अनुरूप नहीं हैं और हम प्रभु से हमारे जीवन की बेहतरी के लिए माँग करते हैं।

जब येसु निर्जन स्थान में गए तो शैतान ने उनकी परीक्षा ली। दूसरे शब्दों में, कहें तो वे उस शक्ति का सामना करने के लिए सामने आये जो सुसमाचार की विरोधी है। येसु ने सुसमाचार को अपने जीवन में बिना संघर्ष के नहीं जीया । हालाँकि, सुसमाचार बताता है कि उस संघर्ष में वे अकेले नहीं थे । पिता ईश्वर उनका साथ दे रहे थे। हम पढ़ते हैं, स्वर्गदूत उनकी देखभाल व परिचर्या के लिए आते हैं। यदि येसु को उस शक्ति का सामना करना पड़ा जो सुसमाचार के विरोध में है, वही उनके अनुयायियों के साथ होना स्वाभाविक है। हमें उतना ही यथार्थवादी होना चाहिए जितना येसु थे। हमारे बाहर और हमारे भीतर गहरी व बड़ी ताकतें हैं जो सुसमाचार के विरुद्ध हैं और जो हमें सुसमाचार से दूर जाने का काम करती हैं। यदि हम इन ताकतों को गंभीरता से नहीं लेंगे, तो हम उन्हें अपने में जमा करते रहेंगे। उन पर काबू पाने के लिए पहला कदम उनका सामना करना है जैसा येसु ने किया।

हम अपने दम पर ऐसा नहीं सकते। हम ईश्वर के साथ उन शक्तियों का सामना करते सकते हैं। इसलिए हम संत पौलुस के साथ कह सकते हैं - जो मुझे बल प्रदान करते हैं, मैं उनकी सहायता से सब कुछ कर सकता हूँ। आमेन।




📚 REFLECTION



Lent is a season when we try to take stock of ourselves. It is a time when the whole church is asked to go on a kind of retreat. When we think of a retreat, we tend to think of going away from the normal routine of life to a special place where there is a different routine. In the gospel reading we find Jesus doing just that. He is driven by the Spirit into the wilderness, to a place where he is alone, away from the crowds. He remained there for forty days, which is the length of our Lenten season. For us, however, Lent is not a retreat in that sense. The arrival of Lent does not mean that the rhythm of our lives changes in any fundamental way. The demands of day to day living do not diminish; we cannot head out into the wilderness. We have to live Lent in the midst of life; our Lenten retreat does not mean a retreat from life in the literal, physical sense. What it does mean is that we try to become more self-reflective. Because we are asked to reflect on ourselves, to look at ourselves, in the light of the gospel, it might to better to say that Lent is a time when we are called to become more prayerful. In prayer, we invite the Lord to show us those areas of our lives that are not really in keeping with the call of the gospel and we ask the Lord to help us to change for the better where that is needed.

When Jesus went into the wilderness he was tested by Satan. In other words, he came face to face with the power that is opposed to the gospel. There is a great realism about today’s gospel. Jesus did not live the gospel to the extent he did without a struggle. However, the gospel suggests that in that struggle, he was not alone. God was supporting him. In the words of the gospel reading, ‘the angels looked after him’. If Jesus had to face the power that is opposed to the gospel, the same is true of his followers. We need to be as realistic as Jesus was. There are forces outside of us and deep within us that are hostile to the values of the gospel and that work to take us in very different directions to that of the gospel. Not to take these forces seriously is to submit to them. The first step in overcoming them is to face them as Jesus did. Lent is the time to do that. We do not do this on our own. We face them with the Lord, convinced that, as St Paul reminds us, where the forces opposed to the gospel abound, God’s grace abounds all the more.



मनन-चिंतन-2



ईश्वर का प्रेम मनुष्य के लिए सदैव बना रहता है। हालॉकि हम अपने पापमय जीवन के द्वारा ईश्वर के कोप का पात्र बनते हैं किन्तु वह दण्ड हमारे सुधार के लिए होता है। यह सुधार हमें अंनत मृत्यु से बचाने के लिए होता है। ईश्वर नूह से अपनी चिरस्थायी शांति और मुक्ति की प्रतिज्ञा करते हैं। ईश्वर उसे एक चिन्ह प्रदान करते हैं जो उन्हें इस विधान का स्मरण दिलाएगा कि ईश्वर मनुष्य का विनाश अब नहीं करेगा। प्रभु येसु द्वारा ईश्वर के राज्य की घोषणा इस मुक्ति की योजना की परिपूर्णता थी।

हमारे आम जीवन का यह साधारण सत्य है कि यदि शुद्ध जल को किसी गंदे पात्र में डाला जाये तो पात्र की गंदगी सारे जल की शुद्धता को नष्ट कर देती है। इसलिये जल की शुद्धता के पूर्ण उपयोग के लिए पात्र को भी साफ-सुथरा होना चाहिए। सुसमाचार के वरदान और हमारे जीवन के पाप लगभग शुद्ध जल एवं गंदे पात्र के समान है। इसलिये येसु ईश्वर के राज्य के आगमन की घोषणा करने के साथ-साथ ही पश्चाताप की शर्त भी जोड देते हैं। ईश्वरीय वरदानों को योग्य रीति से ग्रहण करने के लिए यह अत्यंत आवश्यक है कि हम पश्चाताप एवं विश्वास के द्वारा अपने आप को साफ-सुथरा बनाये। इसके लिए हम यह स्वीकार करें कि हम पापी हैं तथा हमें सुधार या बदलाव की आवश्यकता है। अपने पापों पर पश्चाताप कर, अपने पापमय जीवन का त्याग कर, हमें स्वयं को ईशराज्य के वरदानों को योग्य रीति से ग्रहण करने के लिए प्रस्तुत करना चाहिए। बिना सदाचरण के कोई भी प्रभु की कृपाओं को योग्य रीति से ग्रहण नहीं कर सकता।

इसलिये स्तोत्रकार भी पूछते है कि कौन प्रभु की कृपा को योग्य रीति से ग्रहण कर सकता है, “प्रभु के पर्वत पर कौन चढ़ेगा? उसके मन्दिर में कौन रह पायेगा? वही, जिसके हाथ निर्दोष और हृदय निर्मल है, जिसका मन असार संसार में नहीं रमता जो शपथ खा कर धोखा नहीं देता। प्रभु की आशिष उसे प्राप्त होगी, मुक्तिदाता ईश्वर उसे धार्मिक मानेगा। ऐसे ही हैं वे लोग, जो प्रभु की खोज में लगे रहते हैं, जो याकूब के ईश्वर के दर्शनों के लिए तरसते हैं।’’ (स्तोत्र 24:3-6) तो स्तोत्रकार भी यह मानते हैं कि व्यक्ति की निर्दोषता एवं हृदय की निर्मलता ईश्वरीय कृपा प्राप्त करने के लिए अत्यंत आवश्यक है। एफेसियों के नाम पत्र में संत पौलुस चेतावनी देते हुये कहते हैं, “आप लोग यह निश्चित रूप से जान लें कि कोई व्याभिचारी, लम्पट या लोभी - जो मूर्तिपूजक के बराबर है- मसीह और ईश्वर के राज्य का अधिकारी नहीं होगा। (एफेसियों 5:5) प्रज्ञा ग्रंथ अध्याय 1 पद संख्या 4-5 इसी सत्य को दोहराते हुए कहता है, “प्रज्ञा उस आत्मा में प्रवेश नहीं करती, जो बुराई की बातें सोचती है और उस शरीर में निवास नहीं करती, जो पाप के अधीन है, क्योंकि शिक्षा प्रदान करने वाला पवित्र आत्मा छल-कपट से घृणा करता है। वह मूर्खतापूर्ण विचारों को तुच्छ समझता और अन्याय से अलग रहता है।’’

येसु यह जानते हैं कि हम अपने पुराने पापमय स्वाभाव को धारण कर स्वर्गराज्य के वरदानों को ग्रहण नहीं कर सकते हैं। “’कोई पुराने कपड़े पर कोरे कपड़े का पैबन्द नहीं लगाता। नहीं तो नया पैबन्द सिकुड़ कर पुराना कपड़ा फाड़ देता है और चीर बढ़ जाती है। कोई पुरानी मशकों में नयी अंगूरी नहीं भरता। नहीं तो अंगूरी मशकों फाड़ देती है और अंगूरी तथा मशकें, बरबाद हो जाती हैं। नयी अंगूरी को नयी मशको में भरना चाहिए।’’(मारकुस 2:21-22) हमें नयी शिक्षा को नये हृदय से ग्रहण करना चाहिए, ईश्वर के राज्य को नये हृदय एवं विचारधारा के साथ ग्रहण करना चाहिए।

ईश्वर निनीवे के लोगों को पश्चाताप का संदेश भेजते हैं। निनीवे के लोग प्रभु के संदेश के अनुसार पश्चाताप करते हैं तथा उनकी कृपा को ग्रहण करते हैं।

ईश्वर किस प्रकार का पश्चाताप चाहते हैं? अपने पापों को स्वीकारना तथा उन पर दुखित होकर उन्हें दुबारा नहीं करने का प्रण लेना। यह वह ’दुःख’ होता है जो ईश्वर की इच्छानुसार स्वीकार किया जाता है यह हमारे दिलों में पश्चाताप उत्पन्न करता है जो मुक्ति की ओर ले जाता है। ईश्वरीय दुःख से तात्पर्य वह दुःख है जो हमें तब होता है जब हम सोचते हैं कि हमारे पापों के कारण ईश्वर को दुःख पहुँचता है। हम पवित्र ईश्वर की शिक्षा पर ध्यान देते हैं तथा पापों के भयंकर परिणामों को सोचकर प्रभु के पास लौटते हैं तथा ईश्वर से क्षमा तथा चंगाई की भीख मांगते हैं। मन की ऐसी भावनाओं को हम ईश्वरीय दुःख कहते हैं। पश्चाताप का केंद्रीय बिन्दु ईश्वर तथा पापों से ईश्वर को लगा दुःख होता है। इस पश्चाताप को समझाते हुए संत पौलुस लिखते हैं, “मुझे इसलिए प्रसन्नता नहीं कि आप लोगों को दुःख हुआ, बल्कि इसलिए कि उस दुःख के कारण आपका हृदय-परिवर्तन हुआ। आप लोगों ने उस दुःख को ईश्वर की इच्छानुसार स्वीकार किया.... क्योंकि जो दुःख ईश्वर की इच्छानुसार स्वीकार किया जाता है, उस से ऐसा कल्याणकारी हृदय-परिवर्तन होता है कि खेद का प्रश्न ही नहीं उठता। संसार के दुःख से मृत्यु उत्पन्न होती है। आप देखते हैं कि आपने जो दुःख ईश्वर की इच्छानुसार स्वीकार किया, उस से आप में कितनी चिन्ता उत्पन्न हुई, अपनी सफाई देने की कितनी तत्परता, कितना क्रोध, कितनी आशंका, कितनी अभिलाषा, न्याय करने के लिए कितना उत्साह! इस प्रकार आपने इस मामले में हर तरह से निर्दोष होने का प्रमाण दिया है।’’(2 कुरिन्थियों 7: 9-11)

लोग योहन बपतिस्ता से पूछते थे कि वे उन्हें किस प्रकार का पश्चाताप करना चाहिये। “जनता उस से पूछती थी, ’’तो हमें क्या करना चाहिए?’’ वह उन्हें उत्तर देता था, ’’जिसके पास दो कुरते हों, वह एक उसे दे दे, जिसके पास नहीं है और जिसके पास भोजन है, वह भी ऐसा ही करे’’। नाकेदार भी बपतिस्मा ग्रहण करते थे और उस से यह पूछते थे, ’’गुरुवर! हमें क्या करना चाहिए?’’ वह उन से कहता था, ’’जितना तुम्हारे लिये नियत है, उस से अधिक मत माँगों’’। सैनिक भी उस से पूछते थे, ’’और हमें क्या करना चाहिए?’’ वह उन से कहता था, ’’किसी पर अत्याचार मत करो, किसी पर झूठा दोष मत लगाओ और अपने वेतन से सन्तुष्ट रहो’’। (लूकस 3:10-14)

येसु भी इसी प्रकार पश्चाताप तथा हदय परिवर्तन चाहते हैं। प्रभु ईसा स्वर्गराज्य की घोषणा करके हमें महान भविष्य के दर्शन कराते हैं। वे हमें विश्वास दिलाते हैं कि हम कितने भी बुरे एवं पापी क्यों न हो हमारे लिए स्वर्गराज्य प्राप्त करने की संभावना बनी रहती है। इस प्रकार येसु हमें यही सिखलाते हैं कि यह जरूरी नहीं कि हम क्या हैं बल्कि हमें सोचना चाहिए कि ’हम येसु की शिक्षा पर चलकर क्या बन सकते हैं’। येसु के समय जो स्वयं को पापी समझकर पश्चात करते थे प्रभु उनको स्वर्ग राज्य का वरदान देते थे किन्तु जो अपनी धार्मिक हठधर्मिता में मग्न थे उनके बचने की कोई उम्मीद नहीं दिख पडती थी। क्योंकि वे नहीं समझते थे कि उनको बदलाव की आवश्यकता है। “ईसा ने उन से कहा, ’’मैं तुम लोगों से यह कहता हूँ- नाकेदार और वैश्याएँ तुम लोगों से पहले ईश्वर के राज्य में प्रवेश करेंगे। योहन तुम्हें धार्मिकता का मार्ग दिखाने आया और तुम लोगों ने उस पर विश्वास नहीं किया, परंतु नाकेदारों और वेश्यायों ने उस पर विश्वास किया। यह देख कर तुम्हें बाद में भी पश्चात्ताप नहीं हुआ और तुम लोगों ने उस पर विश्वास नहीं किया।” (मत्ती 21:31-32)

नबी ऐजेकिएल भी पापियों को आशा दिलाते हुये कहते हैं कि यदि वे अपने जीवन को पापमय मार्गों का त्याग कर ईश्वरीय मार्ग को अपनाये तो यह उनके लिए एक नूतन जीवन की शुरूआत होगी, “प्रभु-ईश्वर यह कहता हैं अपने अस्तित्व की शपथ! मुझे दुष्ट की मृत्यु से प्रसन्नता नहीं होती, बल्कि इस से होती है कि दुष्ट अपना कुमार्ग छोड़ दे और जीवित रहे। अपना दुराचरण छोड़ दो,... यद्यपि मैं दुष्ट से यह कहता हूँ, ’तुम अवश्य मरोगे’, फिर भी यदि वह कुमार्ग छोड़ देता और न्याय और सत्य का आचरण करता है, यदि दुष्ट बन्धक लौटा देता, लूटा हुआ सामान वापस कर देता, जीवन प्रदान करने वाले नियमों का पालन करता और पाप का परित्याग करता है, तो वह निश्चय ही जीवित रहेगा, वह नहीं मरेगा। उसके द्वारा किये गये पापों में से किसी को भी याद नहीं रखा जायेगा। उसने न्याय और सत्य का आचरण किया हैय वह अवश्य जीवित रहेगा।’ (ऐजेकिएल 33:11,14-16)

आइये हम भी ईश्वर से पश्चाताप का वरदान मॉगे, सच्चा पश्चाताप करें तथा ईश्वर के वरदानों को ग्रहण करने के लिए स्वयं को प्रस्तुत करें।

 Br. Biniush Topno

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Praise the Lord!