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25 जुलाई 2020 आज का पवित्र पाठ

25 जुलाई 2020
प्रेरित याकूब का पर्व

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पहला पाठ : 2 कुरिन्थियों 4:7-15

7) यह अमूल्य निधि हम में-मिट्टी के पात्रों में रखी रहती है, जिससे यह स्पष्ट हो जाये कि यह अलौकिक सामर्थ्य हमारा अपना नहीं, बल्कि ईश्वर का है।

8) हम कष्टों से घिरे रहते हैं, परन्तु कभी हार नहीं मानते, हम परेशान होते हैं, परन्तु कभी निराश नहीं होते।

9) हम पर अत्याचार किया जाता है, परन्तु हम अपने को परित्यक्त नहीं पाते। हम को पछाड़ दिया जाता है, परन्तु हम नष्ट नहीं होते।

10) हम हर समय अपने शरीर में ईसा के दुःखभोग तथा मृत्यु का अनुभव करते हैं, जिससे ईसा का जीवन भी हमारे शरीर में प्रत्यक्ष हो जाये।

11) हमें जीवित रहते हुए ईसा के कारण निरन्तर मृत्यु का सामना करना पड़ता है, जिससे ईसा का जीवन भी हमारे नश्वर शरीर में प्रत्यक्ष हो जाये।

12) इस प्रकार हम में मृत्यु क्रियाशील है और आप लोगों में जीवन।

13) धर्मग्रन्थ कहता है- मैंने विश्वास किया और इसलिए मैं बोला। हम विश्वास के उसी मनोभाव से प्रेरित हैं। हम विश्वास करते हैं और इसलिए हम बोलते हैं।

14) हम जानते हैं कि जिसने प्रभु ईसा को पुनर्जीवित किया, वही ईसा के साथ हम को भी पुनर्जीवित कर देगा और आप लागों के साथ हम को भी अपने पास रख लेगा।

15) सब कुछ आप लोगों के लिए हो रहा है, ताकि जिस प्रकार बहुतों में कृपा बढ़ती जाती है, उसी प्रकार ईश्वर की महिमा के लिए धन्यवाद की प्रार्थना करने वालों की संख्या बढ़ती जाये।

सुसमाचार : मत्ती 20:20-28

20) उस समय जेबेदी के पुत्रों की माता अपने पुत्रों के साथ ईसा के पास आयी और उसने दण्डवत् कर उन से एक निवेदन करना चाहा।

21) ईसा ने उस से कहा, ’’क्या चाहती हो?’’ उसने उत्तर दिया, ’’ये मेरे दो बेटे हैं। आप आज्ञा दीजिए कि आपके राज्य में एक आपके दायें बैठे और एक आपके बायें।’’

22) ईसा ने उन से कहा, ’’तुम नहीं जानते कि क्या माँग रहे हो। जो प्याला मैं पीने वाला हूँ, क्या तुम उसे पी सकते हो?’’ उन्होंने उत्तर दिया, ’’हम पी सकते हैं।’’

23) इस पर ईसा ने उन से कहा, ’’मेरा प्याला तुम पिओगे, किन्तु तुम्हें अपने दायें या बायें बैठने का अधिकार मेरा नहीं है। वे स्थान उन लोगों के लिए हैं, जिनके लिए मेरे पिता ने उन्हें तैयार किया है।’’

24) जब दस प्रेरितों को यह मालूम हुआ, तो वे दोनों भाइयों पर क्रुद्ध हो गये।

25) ईसा ने अपने शिष्यों को अपने पास बुला कर कहा, ’’तुम जानते हो कि संसार के अधिपति अपनी प्रजा पर निरंकुश शासन करते हैं और सत्ताधारी लोगों पर अधिकार जताते हैं।

26) तुम में ऐसी बात नहीं होगी। जो तुम लोगों में बडा होना चाहता है, वह तुम्हारा सेवक बने

27) और जो तुम में प्रधान होना चाहता है, वह तुम्हारा दास बने;

28) क्योंकि मानव पुत्र भी अपनी सेवा कराने नहीं, बल्कि सेवा करने तथा बहुतों के उद्धार के लिए अपने प्राण देने आया है।’’

📚 मनन-चिंतन - 1

हम एक ऐसी दुनिया में रहते हैं जहां ज्यादातर लोग दूसरों के साथ व्यापार करते हैं। दूसरों के साथ व्यवहार करते समय हम अनजाने में ही अपने से पूछते हैं, कि ’मुझे क्या मिलेगा’। और जब हम यह सुनिश्चित करते हैं कि हम खोने से ज्यादा हासिल कर रहे हैं, तब हम लेन-देन करते हैं। नहीं तो, हम पीछे हट जाते हैं। वास्तव में, जब भी हम लोगों के सामने आते हैं, हम अपने अन्दर ही पूछते रहते हैं - मुझे क्या मिल सकता है? इससे पता चलता है कि हमारे अंदर स्वार्थ है। आज के सुसमाचार में, याकूब और योहन की माँ अपने बेटों के लिए येसु के राज्य में उनके दाहिने और बाएं की सीट सुनिश्चित करना चाहती है। अन्य सुसमाचारों में माँ का उल्लेख नहीं है, लेकिन दो शिष्य स्वयं येसु के पास जाते हैं। बाइबिल हमें बताती है कि अन्य दस शिष्यों ने इस बारे में सुना और इस पर वे दोनों भाइयों से नाराज थे। फिर भी, येसु जानते थे कि ऐसी इच्छा उनके सभी चेलों के दिल में थी। मत्ती 19:27 में, पेत्रुस येसु से पूछते हैं, “देखिए, हम लोग अपना सब कुछ छोड़ कर आपके अनुयायी बन गये हैं। तो, हमें क्या मिलेगा?” मत्ती 26:15 में हम देखते हैं कि यूदस महा याजकों के पास जाकर उनसे पूछता है, “यदि मैं ईसा को आप लोगों के हवाले कर दूँ, तो आप मुझे क्या देने को तैयार हैं?" बेशक, जब शिष्य यह जानना चाहते थे कि उनके समर्पण, बलिदान और अपमान के जीवन के बदले में उन्हें क्या मिलेगा, उनके अलग-अलग विचार थे।

प्रभु ईश्वर दाता हैं और वे देते रहते हैं। वे बदले में कुछ भी पाने की उम्मीद किए बिना देते रहते हैं। वे उदारता से देते रहते हैं। फिर भी हम अक्सर उनके दानों को प्राप्त करने में असमर्थ होते हैं। मत्ती 5:43-48 में येसु अपने शिष्यों से उदार बनने को कहते हैं जिस प्रकार स्वर्ग के पिता उदार हैं। वे चाहते हैं कि उनके शिष्य स्वर्ग में रहने वाले पिता के उदार प्रेम पर भरोसा रखें और उन पर विश्वास करें, जो देने में शानदार और अतुलनीय हैं।

 ब्रो बीनियूस टोपनो


📚 REFLECTION

We live in a world where most people do business with others. While dealing with others many of us unconsciously though asक ourselves ‘what will I get’. And when we are sure of gaining more than what we are losing, we transact. In fact, every time we come across people, we keep asking – what can I get? This shows that there is selfishness in us. In the Gospel today, we find the mother of James and John wanting to ensure the seats on the right and left of Jesus in his kingdom. Other Gospels do not mention the mother, but the two disciples themselves approaching Jesus. The Bible tells us that the other ten heard about this they were indignant with the two brothers. Yet, Jesus knew that such a desire was in the heart of all his disciples. In Mt 19:27, Peter asks Jesus,“Look, we have left everything and followed you. What then will we have?” In Mt 26:15 we see Judas asking the chief priests, “What will you give me if I betray him to you?” Of course, the disciples had different concerns when they wanted to find out what they would get in return for their life of dedication, detachment, sacrifices and humiliation.

The Lord is a giver and He keeps giving. He keeps giving without expecting anything in return. He keeps giving generously. It is often we who are unable to receive. In Mt 5:43-48 Jesus asks his disciples to be generous as the Heavenly Father is generous. He wants his disciples to concentrate on giving themselves and trust in the generous love of the Heavenly Father who is magnanimous and incomparable in giving.

 -Br. Biniush Topno