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संत फ्रांसिस ज़ेवियर दिसंबर 03

 



संत फ्रांसिस ज़ेवियर

दिसंबर 03

फ्रांसिस ज़ेवियर का जन्म 7 अप्रैल 1506 को नवारे देश में हुआ। उनके बचपन में चारों तरफ़ युध्दों का माहौल था। जब युद्ध बंद हो गया तो उन्हें पेरिस विश्वविद्यालय में अध्ययन के लिए भेजा गया। वे अपने दोस्त पीटर फेवर के साथ कमरे में रहते थे। यह जोड़ी लोयोला के इग्नाटियस से बहुत प्रभावित हुई, जिसने फ्रांसिस को एक पुरोहित बनने के लिए प्रोत्साहित किया। 1530 में, फ्रांसिस ज़ेवियर ने अपनी मास्टर डिग्री हासिल की, और वे पेरिस विश्वविद्यालय में दर्शनशास्त्र पढ़ाने लगे।

24 जून, 1537 को उनका पुरोहिताभिषेक हुआ। पोप पॉल III ने 1540 में येसु समाज धर्मसंघ की स्थापना के लिए मंजूरी दी। फ्रांसिस ज़ेवियर अपने पैंतीसवें जन्मदिन पर 1541 में भारत के लिए रवाना हुए। वे 6 मई, 1542 को गोवा पहुंचे। उन्होंने वहाँ सुसमाचार का प्रचार किया, गरीबों तथा जरूरतमंदों की सेवा की। वहाँ से वे जापान और चीन की भी यात्रा की।

3 दिसंबर 1552 को फ़्रांसिस ज़ेवियर की मृत्यु हुयी। 25 अक्टूबर, 1619 को संत पापा पौलुस तृतीय ने उन्हें धन्य घोषित किया। संत पापा ग्रेगोरी पन्द्रहवें ने द्वारा 12 मार्च, 1622 को लोयोला के इग्नाटियस के साथ फ्रांसिस ज़ेवियर को भी संत घोषित किया। वे काथलिक मिशनों के संरक्षक हैं और उनका पर्व 3 दिसंबर को है।


✍️-Br. Biniush topno



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Praise the Lord!

शुक्रवार, 03 दिसंबर, 2021

 

शुक्रवार, 03 दिसंबर, 2021

आगमन का पहला सप्ताह

सन्त फ़्रासिस जेवियर

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पहला पाठ : यिरमियाह का ग्रन्थ 1:4-8


4) प्रभु की वाणी मुझे यह कहते हुए सुनाई पड़ी-

5) “माता के गर्भ में तुम को रचने से पहले ही, मैंने तुम को जान लिया। तुम्हारे जन्म से पहले ही, मैंने तुम को पवत्रि किया। मैंने तुम को राष्ट्रों का नबी नियुक्त किया।“

6) मैंने कहा, “आह, प्रभु-ईश्वर! मुझे बोलना नहीं आता। मैं तो बच्चा हूँ।“

7) परन्तु प्रभु ने उत्तर दिया, “यह न कहो- मैं तो बच्चा हूँ। मैं जिन लोगों के पास तुम्हें भेजूँगा, तुम उनके पास जाओगे और जो कुछ तुम्हें बताऊगा, तुम वही कहोगे।

8) उन लोगों से मत डरो। मैं तुम्हारे साथ हूँ। मैं तुम्हारी रक्षा करूँगा। यह प्रभु वाणी है।“



दूसरा पाठ: कुरिन्थियों के नाम सन्त पौलुस का दूसरा पत्र 4:7-15



7) यह अमूल्य निधि हम में-मिट्टी के पात्रों में रखी रहती है, जिससे यह स्पष्ट हो जाये कि यह अलौकिक सामर्थ्य हमारा अपना नहीं, बल्कि ईश्वर का है।

8) हम कष्टों से घिरे रहते हैं, परन्तु कभी हार नहीं मानते, हम परेशान होते हैं, परन्तु कभी निराश नहीं होते।

9) हम पर अत्याचार किया जाता है, परन्तु हम अपने को परित्यक्त नहीं पाते। हम को पछाड़ दिया जाता है, परन्तु हम नष्ट नहीं होते।

10) हम हर समय अपने शरीर में ईसा के दुःखभोग तथा मृत्यु का अनुभव करते हैं, जिससे ईसा का जीवन भी हमारे शरीर में प्रत्यक्ष हो जाये।

11) हमें जीवित रहते हुए ईसा के कारण निरन्तर मृत्यु का सामना करना पड़ता है, जिससे ईसा का जीवन भी हमारे नश्वर शरीर में प्रत्यक्ष हो जाये।

12) इस प्रकार हम में मृत्यु क्रियाशील है और आप लोगों में जीवन।

13) धर्मग्रन्थ कहता है- मैंने विश्वास किया और इसलिए मैं बोला। हम विश्वास के उसी मनोभाव से प्रेरित हैं। हम विश्वास करते हैं और इसलिए हम बोलते हैं।

14) हम जानते हैं कि जिसने प्रभु ईसा को पुनर्जीवित किया, वही ईसा के साथ हम को भी पुनर्जीवित कर देगा और आप लागों के साथ हम को भी अपने पास रख लेगा।

15) सब कुछ आप लोगों के लिए हो रहा है, ताकि जिस प्रकार बहुतों में कृपा बढ़ती जाती है, उसी प्रकार ईश्वर की महिमा के लिए धन्यवाद की प्रार्थना करने वालों की संख्या बढ़ती जाये।



सुसमाचार : सन्त लूकस का सुसमाचार 10:1-16



1) इसके बाद प्रभु ने अन्य बहत्तर शिष्य नियुक्त किये और जिस-जिस नगर और गाँव में वे स्वयं जाने वाले थे, वहाँ दो-दो करके उन्हें अपने आगे भेजा।

2) उन्होंने उन से कहा, ’’फ़सल तो बहुत है, परन्तु मज़दूर थोड़े हैं; इसलिए फ़सल के स्वामी से विनती करो कि वह अपनी फ़सल काटने के लिए मज़दूरों को भेजे।

3) जाओ, मैं तुम्हें भेडि़यों के बीच भेड़ों की तरह भेजता हूँ।

4) तुम न थैली, न झोली और न जूते ले जाओ और रास्तें में किसी को नमस्कार मत करो।

5) जिस घर में प्रवेश करते हो, सब से पहले यह कहो, ’इस घर को शान्ति!’

6) यदि वहाँ कोई शान्ति के योग्य होगा, तो उस पर तुम्हारी शान्ति ठहरेगी, नहीं तो वह तुम्हारे पास लौट आयेगी।

7) उसी घर में ठहरे रहो और उनके पास जो हो, वही खाओ-पियो; क्योंकि मज़दूर को मज़दूरी का अधिकार है। घर पर घर बदलते न रहो।

8) जिस नगर में प्रवेश करते हो और लोग तुम्हारा स्वागत करते हैं, तो जो कुछ तुम्हें परोसा जाये, वही खा लो।

9) वहाँ के रोगियों को चंगा करो और उन से कहो, ’ईश्वर का राज्य तुम्हारे निकट आ गया है’।

10) परन्तु यदि किसी नगर में प्रवेश करते हो और लोग तुम्हारा स्वागत नहीं करते, तो वहाँ के बाज़ारों में जा कर कहो,

11 ’अपने पैरों में लगी तुम्हारे नगर की धूल तक हम तुम्हारे सामने झाड़ देते हैं। तब भी यह जान लो कि ईश्वर का राज्य आ गया है।’

12) मैं तुम से यह कहता हूँ- न्याय के दिन उस नगर की दशा की अपेक्षा सोदोम की दशा कहीं अधिक सहनीय होगी।

13) ’’धिक्कार तुझे, खोराजि़न! धिक्कार तुझे, बेथसाइदा! जो चमत्कार तुम में किये गये हैं, यदि वे तीरुस और सीदोन में किये गये होते, तो उन्होंने न जाने कब से टाट ओढ़ कर और भस्म रमा कर पश्चात्ताप किया होता।

14) इसलिए न्याय के दिन तुम्हारी दशा की अपेक्षा तीरुस और सिदोन की दशा कहीं अधिक सहनीय होगी।

15) और तू, कफ़रनाहूम! क्या तू स्वर्ग तक ऊँचा उठाया जायेगा? नहीं, तू अधोलोक तक नीचे गिरा दिया जायेगा?

16) ’’जो तुम्हारी सुनता है, वह मेरी सुनता है और जो तुम्हारा तिरस्कार करता है, वह मेरा तिरस्कार करता है। जो मेरा तिरस्कार करता है, वह उसका तिरस्कार करता है, जिसने मुझे भेजा है।’’


📚 मनन-चिंतन


आजा माता कलीसिया संत फ़्रान्सिस जेवियर का पर्व मनाती है। सन्त फ्रांसिस जेवियर प्रभु येसु ख्रीस्त के प्रेम और मुकट का संदेश सुनाने भारत आये। वह ईश्वर की महिमा के लिए दिन रात प्रार्थना करते रहे। उन्होंने अपना सबकुछ त्याग कर ईश्वर के राज्य के लिए अपने को समर्पित कर दिया।

मनुष्य को इससे क्या लाभ यदि वह सारा संसार तो प्राप्त कर ले, लेकिन अपना जीवन ही गंवा दे? अपने जीवन के बदले मनुष्य दे ही क्या सकता? (मारकुस 8:36-37)

सुसमाचार में भी येसु अपने बहतर शिष्यों को नियुक्त कर ईश्वर के राज्य कि घोषणा करने के लिए लोगों के बीच भेजते हैं। येसु शिष्यों को अकेले नहीं बल्कि दो-दो कर उन्हें भेजते हैं। जिससे वह एक दुसरे का सहयोग करते हुए, येसु की उपस्थिती को अपने बीच में महसूस करे। "क्योंकि जहां दो या तीन मेरे नाम पर इकट्ठे होते हैं, वंहा मै उनके बीच उपस्थित रहता हूँ" (मती 18:20) येसु आज हमसे आह्वान करते हैं कि हम ईश्वर के राज्य के लिए एक दूसरे के साथ मिल कर आपस में सहयोग करे। ताकि सभी लोग ईश्वर के बारे में जान सके और उनपर विश्वास करे ।



📚 REFLECTION



Today, the mother church celebrates the feast of Saint Xavier. Saint Francis Xavier came to India to proclaim the message of love and salvation of Jesus Christ. He used to pray to God for the glory of God. He gave up everything whatever he had and surrendered his life to the will of God.

Mark 8:36–37 “For what will it profit them to gain the whole world and forfeit their life? Indeed, what can they give in return for their life?’’

In today's gospel we hear that Lord Jesus sends his twelve disciples to proclaim the good news. Jesus did not send his disciples alone instead he sent them two by two so that by helping each other they may not feel the absence of Jesus among them.

Matthew (18:20) “For where two or three are gathered in my name, there I am there among them.”

Today, Jesus invites us to come together and help each other to enter the Kingdom of heaven so that each and everyone will know about God and believe in God.


 -Br. Biniush topno


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