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आज का पवित्र वचन गुरुवार - 29 अप्रैल 2021

 

गुरुवार - 29 अप्रैल 2021

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पहला पाठ : प्रेरित-चरित 13:13-25


13) पौलुस और उसके साथी नाव से चल कर पाफ़ोस से पम्फुलिया के पेरगे पहुँचे। वहाँ योहन उन्हें छोड़ कर येरुसालेम लौट गया।

14) पौलुस और बरनाबस पेरगे से आगे बढ़ कर पिसिदिया के अंताखिया पहुँचे। वे विश्राम के दिन सभागृह में जा कर बैठ गये।

15) संहिता तथा नबियों का पाठ समाप्त हो जाने पर सभागृह के अधिकारियों ने उन्हें यह कहला भेजा, ’’भाइयों! यदि आप प्रवचन के रूप में जनता से कुछ कहना चाहें, तो कहिए’’।

16) इस पर पौलुस खड़़ा हो गया और हाथ से उन्हें चुप रहने का संकेत कर बोलाः ’’इस्राएली भाइयो और ईश्वर-भक्त सज्जनो! सुनिए।

17) इस्राएली प्रजा के ईश्वर ने हमारे पूर्वजों को चुना, उन्हें मिस्र देश में प्रवास के समय महान बनाया और वह अपने बाहुबल से उन्हें वहाँ से निकाल लाया।

18) उसने चालीस बरस तक मरूभूमि में उनकी देखभाल की।

19) इसके बाद उसने कनान देश में सात राष्ट्रों को नष्ट किया और उनकी भूमि हमारे पूर्वजों के अधिकार में दे दी।

20) लगभग साढ़े चार सौ वर्ष बाद वह उनके लिए न्यायकर्ताओं को नियुक्त करने लगा और नबी समूएल के समय तक ऐसा करता रहा।

21) तब उन्होंने अपने लिए एक राजा की माँग की और ईश्वर ने उन्हें बेनयामीनवंशी कीस के पुत्र साऊल को प्रदान किया, जो चालीस वर्ष तक राज्य करता रहा

22) इसके बाद ईश्वर ने दाऊद को उनका राजा बनाया और उनके विषय में यह साक्ष्य दिया- मुझे अपने मन के अनुकूल एक मनुष्य, येस्से का पुत्र दाऊद मिल गया है। वह मेरी सभी इच्छाएँ पूरी करेगा।

23) ईश्वर ने अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार उन्हीं दाऊद के वंश में इस्राएल के लिए एक मुक्तिदाता अर्थात् ईसा को उत्पन्न किया हैं।

24) उनके आगमन से पहले अग्रदूत योहन ने इस्राएल की सारी प्रजा को पश्चाताप के बपतिस्मा का उपदेश दिया था।

25) अपना जीवन-कार्य पूरा करते समय योहन ने कहा, ’तुम लोग मुझे जो समझते हो, मैं वह नहीं हूँ। किंतु देखो, मेरे बाद वह आने वाले हैं, जिनके चरणों के जूते खोलने योग्य भी मैं नहीं हूँ।’


सुसमाचार : योहन 13:16-20


16) मैं तुम से यह कहता हूँ- सेवक अपने स्वामी से बड़ा नहीं होता और न भेजा हुआ उस से, जिसने उसे भेजा।

17) यदि तुम ये बातें समझकर उनके अनुसार आचरण करोगे, तो धन्य होंगे।

18) मैं तुम सबों के विषय में यह नहीं कह रहा हूँ। मैं जानता हूँ कि मैंने किन-किन लोगों को चुना है; परन्तु यह इसलिये हुआ कि धर्मग्रंथ का यह कथन पूरा हो जाये: जो मेरी रोटी खाता है, उसने मुझे लंगी मारी हैं।

19) अब मैं तुम्हें पहले ही यह बताता हूँ जिससे ऐसा हो जाने पर तुम विश्वास करो कि मैं वही हूँ।

20) मैं तुम से यह कहता हूँ- जो मेरे भेजे हुये का स्वागत करता है, वह मेरा स्वागत करता है और जो मेरा स्वागत करता है, वह उसका स्वागत करता है जिसने मुझे भेजा।


📚 मनन-चिंतन


जब सभागृह के अधिकारी ने पौलुस को जनता से प्रवचन देने का अनुरोध किया तो उन्होंने इस्राएल के मुक्ति के इतिहास को दोहराया। ईश्वर ने इस प्रक्रिया की शुरूआत को इब्राहिम, इसहाक और याकूब को चुनकर आगे बढाया। यहां महत्वपूर्ण बात यह है कि उन्होंने ईश्वर को नहीं चुना था किन्तु ईश्वर ने उन्हें चुना था। फिर ईश्वर ने उन्हें मिस्र देश में फलने-फूलने दिया तथा बाद में वहां की गुलामी से मुक्त करा कर उन्हें एक राष्ट्र के रूप में स्थापित किया। ईश्वर ने सात देशों को नष्ट कर उनके लिये स्थान तैयार किया। उसने उनके लिये न्यायकर्ताओं, नबियों तथा राजा को नियुक्त किया। दाउद जो उनके इतिहास के सबसे गौरवशाली पुरूषों में से है, के वंश से एक मसीह की प्रतिज्ञा की। और अंत में योहन बपतिस्ता ने येसु मसीह के आगमन की घोषणा की।

ये घटनायें सारे इतिहास विशेषकरके मुक्ति के इतिहास पर ईश्वर के प्रभुत्व को बताती है। ईश्वर ने इस्राएल को चुना तथा स्थापित किया। इस कार्य का लक्ष्य तथा पराकाष्ठा प्रभु येसु है। ऐफिसियों के नाम पत्र में संत पौलुस लिखते हैं, ’’उसने अपनी मंगलमय इच्छा के अनुसार निश्चय किया था कि वह समय पूरा हो जाने पर स्वर्ग तथा पृथ्वी में जो कुछ है, वह सब मसीह के अधीन कर एकता में बाँध देगा। उसने अपने संकल्प का यह रहस्य हम पर प्रकट किया है।’’(ऐफेसिया 1:11) जो भी व्यक्ति येसु की सार्वभौमिकता एवं ईश्वत्व को नही मानता वह ईश्वर का नहीं हो सकता है। पुराने विधान का मुख्य उददेश्य भविष्य में आने वाले मसीह की प्रतिज्ञा तथा उन्हें चिन्हित करना था। मसीह नबियों की सभी भविष्यवाणियों का सच तथा अनुग्रह की परिपूर्णता है। ईश्वन ने अपनी चुनी प्रजा से मुक्तिदाता भेजने की प्रतिज्ञा की थी और वह प्रतिज्ञात मुक्तिदाता, दाउद के पुत्र, हमारे प्रभु ईसा मसीह है।



📚 REFLECTION



When Paul was invited by the synagogue president to speak a message of God, he chose to narrate the salvation history of Israel. God began the process by choosing Abraham, Isaac, and Jacob. It was not their choice of God, but God’s choice of them, that is significant. Then, God made them flourished in Egypt and set them free from the slavery, brought them out and established them as a nation. He destroyed seven nations to make a place for them. He provided them judges, prophets and the kings to rule over them. From David, one of the most distinguished personalities, he promised them a Messiah. It was John the Baptist who welcomed Jesus in most humble manner.

It shows God and His sovereignty over all of history, especially the history of salvation. it was God who took initiative in choosing and establishing Israel.

However,the goal and culmination of history is the Jesus Christ. God purposed to sum up all things in heaven and earth in Christ (Eph. 1:11). “All things have been created through Him and for Him. He is before all things, and in Him all things hold together. He is also head of the body, the church; and He is the beginning, the firstborn from the dead, so that He Himself will come to have first place in everything”.

Anyone denies the centrality and supremacy of Jesus Christ is not from God. All of the Old Testament was written to point forward to Jesus Christ. He is thefulfilment of prophecies and fulness of grace.God graciously promised His chosen people to send a Saviour, and that Jesus, the son of David, is that promised Saviour.

 -Br. Biniush Topno


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Praise the Lord!