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Catholic Bible readings for today 18 February 2021

 Daily Mass Readings for Sunday, 28 February 2021

First Reading: Genesis 22: 1-2, 9a, 10-13, 15-18


1 After these things, God tempted Abraham, and said to him: Abraham, Abraham. And he answered: Here I am.

2 He said to him: Take thy only begotten son Isaac, whom thou lovest, and go into the land of vision: and there thou shalt offer him for an holocaust upon one of the mountains which I will shew thee.

9 And they came to the place which God had shewn him, where he built an altar, and laid the wood in order upon it: and when he had bound Isaac his son, he laid him on the altar upon the pile of wood.

10 And he put forth his hand and took the sword, to sacrifice his son.

11 And behold an angel of the Lord from heaven called to him, saying: Abraham, Abraham. And he answered: Here I am.

12 And he said to him: Lay not thy hand upon the boy, neither do thou any thing to him: now I know that thou fearest God, and hast not spared thy only begotten son for my sake.

13 Abraham lifted up his eyes, and saw behind his back a ram amongst the briers sticking fast by the horns, which he took and offered for a holocaust instead of his son.

15 And the angel of the Lord called to Abraham a second time from heaven, saying:

16 By my own self have I sworn, saith the Lord: because thou hast done this thing, and hast not spared thy only begotten son for my sake:

17 I will bless thee, and I will multiply thy seed as the stars of heaven, and as the sand that is by the sea shore: thy seed shall possess the gates of their enemies.

18 And in thy seed shall all the nations of the earth be blessed, because thou hast obeyed my voice.

Responsorial Psalm: Psalms 116: 10, 15, 16-17, 18-19


R. (9) I will please the Lord in the land of the living.

10 I have believed, therefore have I spoken; but I have been humbled exceedingly.

R. I will please the Lord in the land of the living.

15 Precious in the sight of the Lord is the death of his saints.

R. I will please the Lord in the land of the living.

16 O Lord, for I am thy servant: I am thy servant, and the son of thy handmaid. Thou hast broken my bonds:

17 I will sacrifice to thee the sacrifice of praise, and I will call upon the name of the Lord.

R. I will please the Lord in the land of the living.

18 I will pay my vows to the Lord in the sight of all his people:

19 In the courts of the house of the Lord, in the midst of thee, O Jerusalem.

R. I will please the Lord in the land of the living.

Second Reading: Romans 8:31b-34


31 What shall we then say to these things? If God be for us, who is against us?

32 He that spared not even his own Son, but delivered him up for us all, how hath he not also, with him, given us all things?

33 Who shall accuse against the elect of God? God that justifieth.

34 Who is he that shall condemn? Christ Jesus that died, yea that is risen also again; who is at the right hand of God, who also maketh intercession for us.

Verse Before the Gospel: Matthew 17: 5


5 Behold a bright cloud overshadowed them. And lo, a voice out of the cloud, saying: This is my beloved Son, in whom I am well pleased: hear ye him.

Gospel: Mark 9: 2-10


2 And after six days Jesus taketh with him Peter and James and John, and leadeth them up into an high mountain apart by themselves, and was transfigured before them.

3 And his garments became shining and exceeding white as snow, so as no fuller upon earth can make white.

4 And there appeared to them Elias with Moses; and they were talking with Jesus.

5 And Peter answering, said to Jesus: Rabbi, it is good for us to be here: and let us make three tabernacles, one for thee, and one for Moses, and one for Elias.

6 For he knew not what he said: for they were struck with fear.

7 And there was a cloud overshadowing them: and a voice came out of the cloud, saying: This is my most beloved son; hear ye him.

8 And immediately looking about, they saw no man any more, but Jesus only with them.

9 And as they came down from the mountain, he charged them not to tell any man what things they had seen, till the Son of man shall be risen again from the dead.

10 And they kept the word to themselves; questioning together what that should mean, when he shall be risen from the dead.

✍️-Br. Biniush Topno

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चालीसे का दूसरा रविवार 28 फरवरी 2021, इतवार

 

28 फरवरी 2021, इतवार

चालीसे का दूसरा रविवार

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पहला पाठ : उत्पत्ति ग्रन्थ 22:1-2,9a,10-13,15-18


1) ईश्वर ने इब्राहीम की परीक्षा ली। उसने उस से कहा, ''इब्राहीम! इब्राहीम!'' इब्राहीम ने उत्तर दिया, ''प्रस्तुत हूँ।''

2) ईश्वर ने कहा, ''अपने पुत्र को, अपने एकलौते को परमप्रिय इसहाक को साथ ले जा कर मोरिया देश जाओ। वहाँ, जिस पहाड़ पर मैं तुम्हें बताऊँगा, उसे बलि चढ़ा देना।''

9) जब वे उस जगह पहुँच गये, जिसे ईश्वर ने बताया था, तो इब्राहीम ने वहाँ एक वेदी बना ली और उस पर लकड़ी सजायी।

10) तब इब्राहीम ने अपने पुत्र को बलि चढ़ाने के लिए हाथ बढ़ा कर छुरा उठा लिया।

11) किन्तु प्रभु का दूत स्वर्ग से उसे पुकार कर बोला, ''इब्राहीम! ''इब्राहीम! उसने उत्तर दिया, ''प्रस्तुत हूँ।''

12) दूत ने कहा, ''बालक पर हाथ नहीं उठाना; उसे कोई हानि नहीं पहुँचाना। अब मैं जान गया कि तुम ईश्वर पर श्रद्धा रखते हो - तुमने मुझे अपने पुत्र, अपने एकलौते पुत्र को भी देने से इनकार नहीं किया।

13) इब्राहीम ने आँखें ऊपर उठायीं और सींगों से झाड़ी में फँसे हुए एक मेढ़े को देखा। इब्राहीम ने जाकर मेढ़े को पकड़ लिया और उसे अपने पुत्र के बदले बलि चढ़ा दिया।

15) ईश्वर का दूत इब्राहीम को दूसरी बार पुकार कर

16) बोला, ''यह प्रभु की वाणी है। मैं शपथ खा कर कहता हूँ - तुमने यह काम किया : तुमने मुझे अपने पुत्र, अपने एकलौते पुत्र को भी देने से इनकार नहीं किया;

17) इसलिए मैं तुम पर आशिष बरसाता रहूँगा। मैं आकाश के तारों और समुद्र के बालू की तरह तुम्हारे वंशजों को असंख्य बना दूँगा और वे अपने शत्रुओं के नगरों पर अधिकार कर लेंगे।

18) तुमने मेरी आज्ञा का पालन किया है; इसलिए तुम्हारे वंश के द्वारा पृथ्वी के सभी राष्ट्रों का कल्याण होगा।''


दूसरा पाठ : रोमियों के नाम सन्त पौलुस का पत्र 8:31b-34


31) यदि ईश्वर हमारे साथ है, तो कौन हमारे विरुद्ध होगा?

32) उसने अपने निजी पुत्र को भी नहीं बचाया, उसने हम सबों के लिए उसे समर्पित कर दिया। तो, इतना देने के बाद क्या वह हमें सब कुछ नहीं देगा?

33) जिन्हें ईश्वर ने चुना है, उन पर कौन अभियोग लगा सकेगा? जिन्हें ईश्वर ने दोषमुक्त कर दिया है,

34) उन्हें कौन दोषी ठहरायेगा? क्या ईसा मसीह ऐसा करेंगे? वह तो मर गये, बल्कि जी उठे और ईश्वर के दाहिने विराजमान हो कर हमारे लिए प्रार्थना करते रहते हैं।


सुसमाचार : सन्त मारकुस 9:2-10


2) छः दिन बाद ईसा ने पेत्रुस, याकूब और योहन को अपने साथ ले लिया और वह उन्हें एक ऊँचे पहाड़ पर एकान्त में ले चले। उनके सामने ही ईसा का रूपान्तरण हो गया।

3) उनके वस्त्र ऐसे चमकीले और उजले हो गये कि दुनिया का कोई भी धोबी उन्हें उतना उजला नहीं कर सकता।

4) शिष्यों को एलियस और मूसा दिखाई दिये-वे ईसा के साथ बातचीत कर रहे थे।

5) उस समय पेत्रुस ने ईसा से कहा, ’’गुरुवर! यहाँ होना हमारे लिए कितना अच्छा है! हम तीन तम्बू खड़े कर दें- एक आपके लिए, एक मूसा और एक एलियस के लिए।’’

6) उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या कहे, क्योंकि वे सब बहुत डर गये थे।

7) तब एक बादल आ कर उन पर छा गया और उस बादल में से यह वाणी सुनाई दी, ’’यह मेरा प्रिय पुत्र है। इसकी सुनो।’’

8) इसके तुरन्त बाद जब शिष्यों ने अपने चारों ओर दृष्टि दौड़ायी, तो उन्हें ईसा के सिवा और कोई नहीं दिखाई पड़ा।

9) ईसा ने पहाड़ से उतरते समय उन्हें आदेश दिया कि जब तक मानव पुत्र मृतकों में से न जी उठे, तब तक तुम लोगों ने जो देखा है, उसकी चर्चा किसी से नहीं करोगे।

10) उन्होंने ईसा की यह बात मान ली, परन्तु वे आपस में विचार-विमर्श करते थे कि ’मृतकों में से जी उठने’ का अर्थ क्या हो सकता है।



📚 मनन-चिंतन



आज के सुसमाचार में, हम पढ़ते हैं कि प्रभु येसु पेत्रुस, याकूब और योहन को एक ऊँचे पहाड़ पर ले जाते हैं , और वहाँ उन्हें येसु की दिव्यता के साक्षात् दर्शन होते हैं जिसे देखकर वे आवाक रह जाते हैं। पेत्रुस के लिए यह इतना सुखद और कीमती पल था कि वह इसे जाने नहीं देना चाहता था। वह उस सुखद माहौल में अनिश्चित काल तक रहना चाहता था इसलिए वह येसु से कहता है, "गुरुवर! यहाँ होना हमारे लिए कितना अच्छा है! हम तीन तम्बू खड़े कर दें- एक आपके लिए, एक मूसा और एक एलियस के लिए।" उनहोने मसीह की स्वर्गीय सुंदरता की एक झलक देखी थी, और वे उसे जाने नहीं देना चाहते थे ।

प्रभु येसु ने उस समय उन्हें अपनी स्वर्गिक महिमा की बस एक झलक मात्र दिखलाई जिसे शिष्य आने वाले जीवन में अनंतकाल तक देखने व उसके भागिदार बनने वाले थे। पर इस अनंत आनंदमय स्वर्ग में जाने के लिए हमें पिता ही इस वाणी को गंभीरता से लेने की ज़रूरत है - " "यह मेरा प्रिय पुत्र है। इसकी सुनो।"

हम अपने जीवन में येसु की वाणी को सुनें और उस पर चलने वाले बने। प्रभु अपने वचन में और हमारे जीवन की परिस्थितियों में हमसे बात करता है; हम उसे उस अद्भुत क्षण की तैयारी के रूप में सुने जब हम उसे अनंत काल में आमने-सामने देख पाएंगे और सुन पाएंगे और कहेंगे - यहाँ होना हमारे लिए कितना अच्छा है! आमेन।





📚 REFLECTION



In today’s Gospel reading, Peter, James and John are taken up a high mountain by Jesus, and there they have an experience of Jesus which took their breath away. It was an experience that was so precious that Peter could not let it go. He wanted to prolong it indefinitely and so he says to Jesus, ‘Rabbi, it is wonderful for us to be here, so let us make three tents, one for you, one for Moses and one for Elijah’. He and the other two disciples had a fleeting glimpse of the heavenly beauty of Christ, and did not want to let go of it.

Beauty always attracts; it calls out to us. Yet, Peter and the others had to let go of this precious experience; it was only ever intended to be momentary. They would receive it back in the next life as a gift. For now, their task was to listen to Jesus, ‘This is my beloved Son. Listen to him’. That is our task too. We spend our lives listening to the Lord as he speaks to us in his word and in the circumstances of our lives; we listen to him as a preparation for that wonderful moment when we see him face to face in eternity and we can finally say, ‘it is wonderful to be here’, without the need to let go.



मनन-चिंतन-2



येसु के रूपांतरण का उद्देश्य शिष्यों को येसु के भावी दुःखभोग को साहस एवं विश्वास के साथ साक्ष्य देने के लिए सक्षम बनाना था। रूपांतरण के दौरान पिता परमेश्वर येसु की प्रभुता को प्रदर्शित करते हैं तथा साथ ही साथ उन्हें स्वर्गिक वाणी “यह मेरा प्रिय पुत्र है” को सुनाते हैं। यह दृश्य तथा दिव्य वाणी येसु की प्रभुता में विश्वास करने के लिए शिष्यों को तैयार कर रही थी जिससे प्रेरित होकर वे येसु के दुःखभोग तथा क्रूस-मरण से निराश न हो बल्कि विश्वास में दृढ बने रहें। येसु का यह निर्देश कि “जब तक मानव पुत्र मृतकों में से न जी उठे, तब तक तुम लोगों ने जो देखा है, उसकी चर्चा किसी से नहीं करोगे।”(मारकुस 9:9) उनके इसी उद्देश्य की पुष्टि करता है कि उन्हें न सिर्फ विश्वास में दृढ बने रहना है बल्कि येसु के पुनरूत्थान के बाद इस रूपांतरण की घोषणा भी करना है।

रूपांतरण का अनुभव अस्थायी था लेकिन उसका उद्देश्य प्रभावशाली था। पेत्रुस उस आध्यात्मिक वातावरण में ही बना रहना चाहते थे। वे उस गौरवमय क्षणों में हमेशा बने रहना चाहते थे। शायद इसलिये वे कहते हैं, “गुरुवर! यहाँ होना हमारे लिए कितना अच्छा है! हम तीन तम्बू खड़े कर दें- एक आपके लिए, एक मूसा और एक एलियस के लिए।” किन्तु पेत्रुस की इस अभिव्यक्ति एवं सुझाव पर येसु कोई उत्तर नहीं देते हैं क्योंकि शायद ये बातें अप्रासंगिक थी। जो बात प्रासांगिक थी वह यह कि वे येसु की प्रभुता एवं दिव्यता का अनुभव करे तथा अपने कठिन समय में यह याद रखें कि येसु सचमुच में कौन हैं।

ईश्वर सोदोम और गोमोरा का विनाश करने से पूर्व इब्राहिम को इसका आश्वान्वित करना चाहते थे। वे इब्राहिम से कहते हैं कि, “सोदोम और गोमोरा के विरुद्ध बहुत ऊँची आवाज उठ रही है और उनका पाप बहुत भारी हो गया है। मैं उतर कर देखना और जानना चाहता हूँ कि मेरे पास जैसी आवाज पहुँची है, उन्होंने वैसा किया अथवा नहीं।” (उत्पत्ति 18:20-21) ईश्वर का इस प्रकार इब्राहिम को अपनी योजना बताना इस बात का सूचक था कि इब्राहिम को सोदोम निवासी अपने भतीजे लोट एवं उसके परिवार की चिंता करने की आवश्यकता नहीं है। ईश्वर इब्राहिम के इस निवेदन को कि यदि वहाँ पर दस धर्मी व्यक्ति भी मिलेंगे तो भी वह उसे नष्ट नहीं करेंगे को भी स्वीकार करता है। इस प्रकार ईश्वर इब्राहिम को विश्वास में लेकर ही यह कदम उठाते हैं जिससे इब्राहिम का साहस बना रहे। (देखिए उत्पत्ति 18:20-33)

मूसा भी ईश्वर के आज्ञानुसार लोगों का नेतृत्व करते समय अनिश्चितता एवं संशय की स्थिति में था। ऐसी स्थिति में वह भी ईश्वर के दर्शन की अभिलाषा करता है जिससे संकट एवं कठिन परिस्थितियों में उसका मनोबल बना रहे। “मूसा ने प्रभु से कहा,...यदि मैं सचमुच तेरा कृपापात्र हूँ, तो मुझे अपना मार्ग दिखला, जिससे मैं तुझे जान सकूँ और तेरा कृपापात्र बना रहूँ। यह भी ध्यान रख कि ये लोग तेरी ही प्रजा हैं। ....प्रभु ने मूसा से कहा, तुमने अभी जिस बात के लिए प्रार्थना की है, वही मैं करूँगा, क्योंकि तुम मेरे कृपापात्र हो और मैंने तुम को चुना है”। इस पर मूसा ने निवेदन किया, “मुझे अपनी महिमा दिखाने की कृपा कर।” उसने कहा, “मैं अपनी सम्पूर्ण महिमा के साथ तुम्हारे सामने से निकल जाऊँगा और तुम पर अपना ’प्रभु’ नाम प्रकट करूँगा। मैं जिनके प्रति कृपालु हूँ, उन पर कृपा करूँगा और जिनके प्रति दयालू हूँ, उन पर दया करूँगा।” (देखिए निर्गमन 33:12-19)

इस प्रकार ईश्वर मूसा पर अपनी महिमा प्रकट करते हैं और मूसा के हृदय में इस ईश्वरीय महिमा की स्मृति सदैव बनी रहती है। इस अनुभव से प्रेरित होकर मूसा प्रभु की प्रजा को नेतृत्व प्रदान करते हैं।

हमारे जीवन में भी ईश्वर हमें इस प्रकार का अनुभव कराते हैं। हमें भी ईश्वर की अद्वितीय निकटता तथा सहायता का अहसास होता है। इसके फलस्वरूप हमारा विश्वास एक नये मुकाम पर पहुँचता है। किन्तु यह सदैव नहीं बना रहता है। लेकिन इस अनुभव की छाप सदैव हमारे स्मृतिपटल पर बनी रहती है। यह स्मृति हमें हमारे कठिन दौर में हमारे विश्वास को बनाये रखने में सहायक होती है।

शायद रूपांतरण के इसी अनुभव को ध्यान में रखकर संत योहन साक्ष्य देते हैं, “... शब्द ने शरीर धारण कर हमारे बीच निवास किया। हमने उसकी महिमा देखी। वह पिता के एकलौते की महिमा-जैसी है- अनुग्रह और सत्य से परिपूर्ण।” (योहन 1:14) तथा “हमने उसे अपनी आंखों से देखा है। हमने उसका अवलोकन किया और अपने हाथों से उसका स्पर्श किया है। वह शब्द जीवन है और यह जीवन प्रकट किया गया है। यह शाश्वत जीवन, जो पिता के यहाँ था और हम पर प्रकट किया गया है- हमने इसे देखा है, हम इसके विषय में साक्ष्य देते ओर तुम्हें इसका सन्देश सुनाते हैं।” (1 योहन 1:1:2) संत योहन को येसु की दिव्यता एवं प्रभुता में विश्वास था क्योंकि उन्होंने इसका अनुभव किया था तथा वे अपने इस ईश्वरीय अनुभव को सारी जीवन संजोय रखते हैं। उनकी इस स्मृति के कारण उन्होंने अपने प्रेरिताई के जीवन के सारे दुःख-संकट विश्वास के साथ झेले। संत पेत्रुस कहते हैं, “जब हमने आप लोगों को अपने प्रभु ईसा मसीह के सामर्थ्य तथा पुनरागमन के विषय में बताया, तो हमने कपट-कल्पित कथाओं का सहारा नहीं लिया, बल्कि अपनी ही आंखों से उनका प्रताप उस समय देखा, जब उन्हें पिता-परमेश्वर के सम्मान तथा महिमा प्राप्त हुई और भव्य ऐश्वर्य में से उनके प्रति एक वाणी यह कहती हुई सुनाई पड़ी, “यह मेरा प्रिय पुत्र है। मैं इस पर अत्यन्त प्रसन्न हूँ।” जब हम पवित्र पर्वत पर उनके साथ थे, तो हमने स्वयं स्वर्ग से आती हुई यह वाणी सुनी।” (2 पेत्रुस 1:16-18)

आइए हम भी अपने जीवन में ईश्वरीय अनुभवों की स्मृति संजोए रखें जिससे अपने निजी दुःखभोग में हमारा विश्वास दृढ़ बना रहें।


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