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23 अक्टूबर 2022 वर्ष का तीसवाँ सामान्य इतवार

 

23 अक्टूबर 2022

वर्ष का तीसवाँ सामान्य इतवार




पहला पाठ : प्रवक्ता 35:12-14; 16-18



12) जिस प्रकार सर्वोच्च ईश्वर ने तुम्हें दिया है, उसकी प्रकार तुम भी उसे सामर्थ्य के अनुसार उदारतापूर्वक दो;

13) क्योंकि प्रभु प्रतिदान करता है, वह तुम्हें सात गुना लौटायेगा।

14) उसे घूस मत दो, वह उसे स्वीकार नहीं करता।

16) वह दरिद्र के साथ अन्याय नहीं करता और पद्दलित की पुकार सुनता है।

17) वह विनय करने वाले अनाथ अथवा अपना दुःखड़ा रोने वाली विधवा का तिरस्कार नहीं करता।

18) उसके आँसू उसके चेहरे पर झरते हैं और उसकी आह उत्याचारी पर अभियोग लगाती है।



दूसरा पाठ : 2तिमथी 4:6-8,16-18



6) मैं प्रभु को अर्पित किया जा रहा हूँ। मेरे चले जाने का समय आ गया है।

7) मैं अच्छी लड़ाई लड़ चुका हूँ, अपनी दौड़ पूरी कर चुका हूँ और पूर्ण रूप से ईमानदार रहा हूँ।

8) अब मेरे लिए धार्मिकता का वह मुकुट तैयार है, जिसे न्यायी विचारपति प्रभु मुझे उस दिन प्रदान करेंगे - मुझ को ही नहीं, बल्कि उन सब को, जिन्होंने प्रेम के साथ उनके प्रकट होने के दिन की प्रतीक्षा की है।

16) जब मुझे पहली बार कचहरी में अपनी सफाई देनी पड़ी, तो किसी ने मेरा साथ नहीं दिया -सब ने मुझे छोड़ दिया। आशा है, उन्हें इसका लेखा देना नहीं पड़ेगा।

17) परन्तु प्रभु ने मेरी सहायता की और मुझे बल प्रदान किया, जिससे मैं सुसमाचार का प्रचार कर सकूँ और सभी राष्ट्र उसे सुन सकें। मैं सिंह के मुँह से बच निकला।

18) प्रभु मुझे दुष्टों के हर फन्दे से छुड़ायेगा। वह मुझे सुरक्षित रखेगा और अपने स्वर्गराज्य तक पहुँचा देगा। उसी को अनन्त काल तक महिमा! आमेन!



सुसमाचार : सन्त लूकस 18:9-14



9) कुछ लोग बड़े आत्मविश्वास के साथ अपने को धर्मी मानते और दूसरों को तुच्छ समझते थे। ईसा ने ऐसे लोगों के लिए यह दृष्टान्त सुनाया,

10) "दो मनुष्य प्रार्थना करने मन्दिर गये, एक फ़रीसी और दूसरा नाकेदार।

11) फ़रीसी तन कर खड़ा हो गया और मन-ही-मन इस प्रकार प्रार्थना करता रहा, ’ईश्वर! मैं तुझे धन्यवाद देता हूँ कि मैं दूसरे लोगों की तरह लोभी, अन्यायी, व्यभिचारी नहीं हूँ और न इस नाकेदार की तरह ही।

12) मैं सप्ताह में दो बार उपवास करता हूँ और अपनी सारी आय का दशमांश चुका देता हूँ।’

13) नाकेदार कुछ दूरी पर खड़ा रहा। उसे स्वर्ग की ओर आँख उठाने तक का साहस नहीं हो रहा था। वह अपनी छाती पीट-पीट कर यह कह रहा था, ‘ईश्वर! मुझ पापी पर दया कर’।

14) मैं तुम से कहता हूँ - वह नहीं, बल्कि यही पापमुक्त हो कर अपने घर गया। क्योंकि जो अपने को बड़ा मानता है, वह छोटा बनाया जायेगा; परन्तु जो अपने को छोटा मानता है, वह बड़ा बनाया जायेगा।"



📚 मनन-चिंतन



आज के इस रविवार को माता कलीसिया मिशन रविवार के रूप में मनाती है। यह एक ऐसा दिन है (या कुछ ऐसे दिन हैं) जिनमें हम मिशन के लिए विशेष प्रार्थना करते हैं और उदारतापूर्वक मिशन के विकास और जारी रखने के लिए दान देते हैं। आज की पूजन विधि हमें दरिद्रों, विधवाओं एवं पापियों के लिए ईश्वर के विशेष प्रेम की याद दिलाती है। जब दरिद्र, निराश्रित और अनाथ प्रभु को पुकारते हैं तो उनकी आह भरी पुकार बादलों को चीरकर प्रभु के कानों तक पहुँच जाती है। ईश्वर उनकी पुकार को अनसुना नहीं करता, वह तुरन्त उस पर ध्यान देता है। यदि हमारा स्वर्गीय पिता दरिद्रों और दिन-हीनों का इतना ख़्याल रखते हैं तो हमें, उनकी प्रिय सन्तानों को उनका कितना ख़्याल रखना चाहिए?

आज का दूसरा पाठ हमें सन्त पौलुस के मिशन एवं उनकी चुनौतियों तथा कठिनाइयों का वर्णन करता है। वह कलिसिया के अगुआ लोगों को प्रेरित करते हैं कि वे जो भी करें प्रभु के मिशन को ध्यान में रखकर करें और निरंतर उसी की सफलता के लिए अथक प्रयास करते रहें। आज का यह रविवार हमें हमारे मिशन की भी याद दिलाता है, ईश्वर ने हममें से प्रत्येक व्यक्ति को भी एक-एक मिशन सौंपा है, और वह मिशन है, संसार के कौने-कौने में सुसमाचार का प्रचार करना। दुनिया में ऐसे अनेक लोग हैं जिन्हें आधारभूत सुविधाएँ भी नसीब नहीं होतीं। हमारे देश में ही ऐसे गाँव हैं जहाँ शिक्षा का उजाला अभी तक नहीं पहुँच पाया है।

ऐसे लोग हैं जिन्हें पीने का स्वच्छ जल नहीं मिल पाता है, उचित स्वास्थ्य सुविधाएँ नहीं मिल पाती हैं, ऐसे गाँव हैं जो बरसात के मौसम में मुख्य धारा से कट जाते हैं क्योंकि वहाँ उचित सड़क नहीं है। कई गाँव में बिजली तक नहीं पहुँची है। ऐसे लोग हैं जो कमजोर और गरीब हैं, जिनका शक्तिशाली और धनवान लोगों द्वारा शोषण किया जाता है, ग़रीबों के साथ तरह-तरह से अन्याय किया जाता है। उनका हृदय मदद के लिए ईश्वर को पुकारता है। ईश्वर आज आपसे और मुझसे पूछते हैं - “मेरी प्रजा की करुण पुकार मेरे कानों तक पहुँची है, उनकी मदद के लिए मैं किसे भेजूँ?” क्या ईश्वर के इस सवाल का जवाब देने की हिम्मत है मुझमें?

क्या मुझमें हिम्मत है कि मैं कह सकूँ, “प्रभु मैं तैयार हूँ, अपने मिशन के लिए मुझे भेज?” हो सकता है मैं नौकरी करता हूँ, देख-भाल करने के लिए एक परिवार है, ऐसे लोग हैं मेरे जीवन में जिनकी ज़िम्मेदारी मेरे ही कंधों पर है, मैं अपने जीवन बहुत ज़्यादा व्यस्त हूँ। मैं दूर दराज स्थानों पर मिशन कार्य के लिए कैसे जा सकता हूँ? भले ही आप मिशन कार्य के लिए अपने घर से दूर नहीं जा सकते, लेकिन आप फिर भी मिशन के विकास के लिए अपना सहयोग दे सकते हैं। आप मिशन के लिए प्रार्थना करने के लिए अपना समय दे सकते हैं। प्रत्येक ख्रिस्तिय को अपनी कमाई का दशमांश कलिसिया के कार्यों के लिए देना चाहिए, लेकिन हम में से कितने लोग ऐसा करते हैं? मिशन के लिए और जो मिशन की ख़ातिर अपना सर्वस्व न्योछावर कर देते हैं, उन सब की ख़ातिर उदारतापूर्वक दान दें। याद रखिए ईश्वर के कार्य के लिए दिल से दिया हुआ छोटा सा दान भी ईश्वर की नज़र से नहीं छुपेगा।




📚 REFLECTION



Today the Mother Church celebrates the mission Sunday. It is a day (or few days together) specially meant for praying for missions and generously contributing for the growth and sustenance of the missions. Today's liturgy of the word reminds us about special love of God for poor, widows and sinners. When the poor, the orphan, the widows call upon the name of the Lord, their cry pierces the clouds and reaches straight to God, and God does not ignore their cries, He hears and attends to them immediately. If God our father is so concerned about the weak and the poor, how much more we, his beloved children, should be concerned about them all?

The second reading reminds us about the mission that St. Paul completes after so many hardships and rejections and persecutions. He encourages and inspires other church leaders to keep the mission in the mind and work tirelessly for the mission of the Lord. This Sunday reminds each one of us of the mission that is entrusted to us, to carry the good news to the ends of the world. There are innumerable people who are deprived of even the basic amenities. Even in our own country, there are places and people to whom the light of education has not reached yet.

There are people who have no access to clean water, no access to proper medical facilities, there are villages which are totally cut off from mainstream and rainy season, because of lack of proper roads, no electricity in many villages. There are poor people who are exploited by the rich and powerful, there is a lot of injustice done to the weak. Their heart cries out to God for help. And we know God will not leave them without help. Today God asks you and me - "I hear the cry of my people, whom shall I send?” Do I have an answer to God’s calling?

Do I have courage to say, Lord I am ready, send me for your mission? Maybe I have a job, a family to take care of, people around me who are depending on me, I am too busy in my life. How can I go for missions to far away places? Even though you cannot go to far away places for missions, you can still contribute in the growth of the mission. You can spend time in praying for the missions. Every Christian is expected to give 1/10 of the income to the church for works of charity. Contribute generously for the mission, for people who have given their life for the missions. Remember, the generous donations given for God’s mission, will not go unrewarded.



मनन-चिंतन -2




फरीसी और नाकेदार का दृष्टांत बताता है कि हम छोटे से छोटे से वरदान को खरीद नहीं सकते हैं। अनुग्रह मुफ़्त है; हम उसके लिए भुगतान नहीं कर सकते, न ही हम उसका हकदार बनने का दावा कर सकते हैं। स्वयं को धार्मिक मानने वाला व्यवहार हमें सब कुछ खोने के खतरे में डाल सकता है। धार्मिक प्रथाओं तथा अनुष्ठानों से हम ईश्वर के अनुग्रहों के लिए भुगतान नहीं कर सकते है। सभी धार्मिक अनुष्ठान हमें अपने महान और दयालु ईश्वर द्वारा हम पर बरसाने वाले अनुग्रहों की प्राप्ति के योग्य बना सकते हैं। नाकेदार स्तोत्रकार के साथ मिल कर सवाल करते हैं, "प्रभु! यदि तू हमारे अपराधों को याद रखेगा, तो कौन टिका रहेगा?" (स्तोत्र 130: 3) उसके पास दावा करने के लिए कुछ भी नहीं है। वह बस ईश्वर की दया के लिए खुद को प्रस्तुत करता है। केवल विनम्रता ही हमारी प्रार्थना को ईश्वर के समक्ष स्वीकृति के योग्य बनाती है। विनम्रता हमें दूसरों को स्वीकार करने और उनकी सराहना करने में सक्षम भी बनाती है। संत पौलुस कहते हैं, "आप दलबन्दी तथा मिथ्याभिमान से दूर रहें। हर व्यक्ति नम्रतापूर्वक दूसरों को अपने से श्रेष्ठ समझे।" (फिलिप्पियों 2: 3)।




SHORT REFLECTION



The parable of the Pharisee and the tax collector tells us that we cannot pay for even the smallest of graces. Grace is gratuitous; we cannot pay for it, nor can we claim it. Self-righteous behavior can place us in danger of losing everything. Religious practices are not meant to be payments for graces. They are meant to create an adequate disposition to receive graces that are freely lavished upon us by our great and merciful God. The tax collector seems to join the psalmist in asking, “If you, O Lord, should mark iniquities, Lord, who could stand?” (Ps 130:3) He has nothing to claim for. He simply submits himself to the mercy of God. Only humility makes our prayer worthy of acceptance before God. It is humility that enables us to accept and appreciate others. St. Paul says, “Do nothing from selfish ambition or conceit, but in humility regard others as better than yourselves” (Phil 2:3).



प्रवचन


प्रार्थना मनुष्य को ईश्वर से जोडती है। प्रार्थना के माध्यम से हम ईश्वर से वह सबकुछ प्राप्त कर सकते हैं जो हम ईश्वर से प्रार्थना में मांगते हैं। प्रार्थना को अत्यंत शुद्ध तथा स्वच्छ मन से करना चाहिये। दिखावटीपन, आडंबर, अहं, डींग आदि बातें प्रार्थना के लिये दीमक की तरह होती है। यह हमारी प्रार्थनाओं को सार्वजनिक प्रदर्शन में बदल देता है। इस प्रकार से की गयी प्रार्थनाओं से कोई लाभ नहीं होता है। ऐसी गलत प्रवृत्तियों के प्रति आगाह करते हुये येसु कहते हैं, ’’ढोंगियों की तरह प्रार्थना नहीं करो। वे सभागृहों में और चौकों पर खड़ा होकर प्रार्थना करना पसंद करते हैं, जिससे लोग उन्हें देखें।’’ (मत्ती 6:5) सुसमाचार में प्रभु दो व्यक्तियों को प्रार्थना करते प्रस्तुत करते हैं। दोनों की प्रार्थना में जमीन-आसमान का फर्क है। एक अपनी स्वघोषित धार्मिकता के दंभ में चूर है। उसे ईश्वर की क्षमा या कृपा की आवश्यकता नहीं। वह यह भी मानता है कि वह दूसरों के समान पापी नहीं हैं।

दूसरी ओर नाकेदार अपने पाप और पश्चाताप के बोध के कारण ईश्वर की ओर ऑखें भी नहीं उठा पा रहा था। ईश्वर उसके पश्चातापी एवं विनम्रता के भाव को स्वीकार करते हैं। धर्मग्रंथ हमें सिखाता तथा आशवासन देता है कि जब भी हम विनम्रता एवं पश्चाताप के सच्चे भाव के साथ प्रार्थना करते हैं तो ईश्वर हमारी सुनता है। ’’यदि मेरी अपनी प्रजा विनयपूर्वक प्रार्थना करेगी, मेरे दर्शन चाहेगी और अपना कुमार्ग छोड़ देगी, तो मैं स्वर्ग से उसकी सुनूँगा, उसके पाप क्षमा करूँगा और उसके देश का कल्याण करूँगा। इस स्थान पर जो प्रार्थना की जाये, उसे मेरी आँखें, देखती रहेंगी और मेरे कान सुनते रहेंगे।’’ (2 इतिहास 7:14-15)

जब राजा दाऊद ने व्यभिचार और हत्या जैसा अपराधों को स्वीकारा, ’’मैंने प्रभु के विरूद्ध पाप किया है’’ तो प्रभु ने उनकी प्रार्थनाओं पर ध्यान दिया तथा उसका पश्चाताप स्वीकारा, ’’प्रभु ने आपका यह पाप क्षमा कर दिया है। आप नहीं मरेंगे। (2समूएल 12:13) जब अहाब ने अपनी पत्नी के साथ मिलकर नाबोत को मरवा कर उसकी दाखबारी हथिया ली तो ईश्वर ने उनके लिये घोर सजा निर्धारित की। ’’अहाब ने ये शब्द सुन कर अपने वस्त्र फाड़ डाले और अपने शरीर पर टाट ओढ़ कर उपवास किया। वह टाट के कपड़े में सोता था और उदास हो कर इधर-उधर टहलता था।’’ जब अहाब ने प्रभु का भय खाकर, विनम्र तथा पश्चातापी हृदय से ईश्वर से इस प्रकार प्रार्थना की तो ईश्वर ने उनके घोर अपराधों को भी क्षमा करते हुये कहा, ’’क्या तुमने देखा है कि अहाब ने किस तरह अपने को मेरे सामने दीन बना लिया है? चूँकि उसने अपने को मेरे सामने दीन बना लिया, इसलिए मैं उसके जीवनकाल में उसके घराने पर विपत्ति नहीं ढाऊँगा।’’ (1 राजाओं 21:27,29) इसी प्रकार प्रभु के क्रूस-मरण के दौरान जब उनकी बगल में लटका डाकू उनसे कहता है, ’’ईसा, जब आप अपने राज्य में आयेंगे, तो मुझे याद कीजिएगा’’ तो ईसा उसे तुरंत पुरस्कृत करते हुये कहते हैं, ’’मैं तुम से यह कहता हूँ, तुम आज ही परलोक में मेरे साथ होगे।’’ (लूकस 23:42-43)

खोये हुये लडके के दृष्टांत के माध्यम से प्रभु इसी बात को रेखांकित करते है कि यदि पापी अपना भटका मार्ग छोड पश्चातापी हृदय से ईश्वर के पास लौटेगा तो ईश्वर उसे बेझिझक अपना लेंगे। (देखिये लूकस 15:11-32) जब जकेयुस प्रभु से कहता है, ’’प्रभु! देखिए, मैं अपनी आधी सम्पत्ति गरीबों को दूँगा और मैंने जिन लोगों के साथ किसी बात में बेईमानी की है, उन्हें उसका चौगुना लौटा दूँगा’ तब ईसा उसे तथा उसके परिवार को मुक्ति प्रदान करते हुये कहते हैं, ’’आज इस घर में मुक्ति का आगमन हुआ है, क्योंकि यह भी इब्राहीम का बेटा है। जो खो गया था, मानव पुत्र उसी को खोजने और बचाने आया है।’’ (लूकस 19:8-10)

इस प्रकार की विनम्रता एवं पश्चाताप के साथ की गयी प्रार्थनायें ईश्वर कभी नहीं ठुकराते हैं। हमें ईश्वर के सामने अपनी अयोग्यता को कभी नहीं भूलना चाहिये। हम अपनी योग्यता के बल पर नहीं बल्कि ईश्वर की दया से मुक्ति पाते हैं। येसु स्वयं ऐसे लोगों को बुलाने एवं बचाने आये थे जो स्वयं के पापों को जानते, स्वयं को अयोग्य समझते तथा पापमय जीवन से छुटकारा पाना चाहते थे। ’’निरोगियों को नहीं, रोगियों को वैद्य की जरूरत होती है। मैं धर्मियों को नहीं, पापियों को पश्चाताप के लिए बुलाने आया हूँ।’’ (लूकस 5:31-32) हमें भी इन्हीं मनोभावों को अपना कर ईश्वर से पूरे विश्वास के साथ प्रार्थना करना चाहिये।


 -Br. Biniush Topno


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Praise the Lord!