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Sunday 15 November 2020

 Sunday 15 November 2020

33rd Sunday in Ordinary Time

First Reading :
Proverbs 31:10-13,19-20,30-31

A perfect wife – who can find her?
  She is far beyond the price of pearls.
Her husband’s heart has confidence in her,
  from her he will derive no little profit.
Advantage and not hurt she brings him
  all the days of her life.
She is always busy with wool and with flax,
  she does her work with eager hands.
She sets her hands to the distaff,
  her fingers grasp the spindle.
She holds out her hand to the poor,
  she opens her arms to the needy.
Charm is deceitful, and beauty empty;
  the woman who is wise is the one to praise.
Give her a share in what her hands have worked for,
  and let her works tell her praises at the city gates.

Responsive Psalm :
Psalm 127(128):1-5

O blessed are those who fear the Lord.
O blessed are those who fear the Lord
  and walk in his ways!
By the labour of your hands you shall eat.
  You will be happy and prosper.
O blessed are those who fear the Lord.
Your wife will be like a fruitful vine
  in the heart of your house;
your children like shoots of the olive,
  around your table.
O blessed are those who fear the Lord.
Indeed thus shall be blessed
  the man who fears the Lord.
May the Lord bless you from Zion
  all the days of your life!
O blessed are those who fear the Lord.

Second Reading :
1 Thessalonians 5:1-6

You will not be expecting us to write anything to you, brothers, about ‘times and seasons’, since you know very well that the Day of the Lord is going to come like a thief in the night. It is when people are saying, ‘How quiet and peaceful it is’ that the worst suddenly happens, as suddenly as labour pains come on a pregnant woman; and there will be no way for anybody to evade it.
  But it is not as if you live in the dark, my brothers, for that Day to overtake you like a thief. No, you are all sons of light and sons of the day: we do not belong to the night or to darkness, so we should not go on sleeping, as everyone else does, but stay wide awake and sober.

Gospel :
Matthew 25:14-30

Jesus spoke this parable to his disciples: ‘The kingdom of Heaven is like a man on his way abroad who summoned his servants and entrusted his property to them. To one he gave five talents, to another two, to a third one; each in proportion to his ability. Then he set out.
  ‘The man who had received the five talents promptly went and traded with them and made five more. The man who had received two made two more in the same way. But the man who had received one went off and dug a hole in the ground and hid his master’s money.
  ‘Now a long time after, the master of those servants came back and went through his accounts with them. The man who had received the five talents came forward bringing five more. “Sir,” he said “you entrusted me with five talents; here are five more that I have made.”
  ‘His master said to him, “Well done, good and faithful servant; you have shown you can be faithful in small things, I will trust you with greater; come and join in your master’s happiness.”
  ‘Next the man with the two talents came forward. “Sir,” he said “you entrusted me with two talents; here are two more that I have made.” His master said to him, “Well done, good and faithful servant; you have shown you can be faithful in small things, I will trust you with greater; come and join in your master’s happiness.”
  ‘Last came forward the man who had the one talent. “Sir,” said he “I had heard you were a hard man, reaping where you have not sown and gathering where you have not scattered; so I was afraid, and I went off and hid your talent in the ground. Here it is; it was yours, you have it back.” But his master answered him, “You wicked and lazy servant! So you knew that I reap where I have not sown and gather where I have not scattered? Well then, you should have deposited my money with the bankers, and on my return I would have recovered my capital with interest. So now, take the talent from him and give it to the man who has the five talents. For to everyone who has will be given more, and he will have more than enough; but from the man who has not, even what he has will be taken away. As for this good-for-nothing servant, throw him out into the dark, where there will be weeping and grinding of teeth.”’

आज का पवित्र वचन 15 नवंबर 2020

 

15 नवंबर 2020
वर्ष का तैंतीसवाँ सामान्य सप्ताह, रविवार

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📒 पहला पाठ :सूक्ति ग्रन्थ 31:10-13,19-20,30-31

10) सच्चरत्रि पत्नी किसे मिल पाती है! उसका मूल्य मोतियों से भी बढ़कर है।

11) उसका पति उस पर पूरा-पूरा भरोसा रखता और उस से बहुत लाभ उठाता है।

12) वह कभी अपने पति के साथ बुराई नहीं, बल्कि जीवन भर उसक भलाई करती रहती है।

13) वह ऊन और सन खरीदती और कुशल हाथों में कपड़े तैयार करती है।

19) उसके हाथों में चरखा रहा करता है; उसकी उँगलियाँ तकली चलाती हैं।

20) वह दीन-दुःखियों के लिए उदार है और गरीबों का सँभालती है।

30) रूप-रंग माया है और सुन्दरता निस्सार है। प्रभु पर श्रद्धा रखने वाली नारी ही प्रशंसनीय है।

31) उसके परिश्रम का फल उसे दिया जाये और उसके कार्य सर्वत्र उसकी प्रशंसा करें।

📕 दूसरा पाठ: थेसलनीकियों के नाम सन्त पौलुस का पहला पत्र 5:1-6

1 (1-2) भाइयो! आप लोग अच्छी तरह जानते हैं कि प्रभु का दिन, रात के चोर की तरह, आयेगा। इसलिए इसके निश्चित समय के विषय में आप को कुछ लिखने की कोई ज़रूरत नहीं है।

3) जब लोग यह कहेंगे: ’अब तो शान्ति और सुरक्षा है’, तभी विनाश उन पर गर्भवती पर प्रसव-पीड़ा की तरह, अचानक आ पड़ेगा और वे उस से बच नहीं सकेंगे।

4) भाइयो! आप तो अन्धकार में नहीं हैं, जो वह दिन आप पर चोर की तरह अचानक आ पड़े।

5) आप सब ज्योति की सन्तान हैं, दिन की सन्तान हैं। हम रात या अन्धकार के नहीं है।

6) इसलिए हम दूसरों की तरह नहीं सोयें, बल्कि जगाते हुए सतर्क रहें।

📙 सुसमाचार : सन्त मत्ती 25:14-30

14) ’’स्वर्ग का राज्य उस मनुष्य के सदृश है, जिसने विदेश जाते समय अपने सेवकों को बुलाया और उन्हें अपनी सम्पत्ति सौंप दी।

15) उसने प्रत्येक की योग्यता का ध्यान रख कर एक सेवक को पाँच हज़ार, दूसरे को दो हज़ार और तीसरे को एक हज़ार अशर्फियाँ दीं। इसके बाद वह विदेश चला गया।

16) जिसे पाँच हज़ार अशर्फि़यां मिली थीं, उसने तुरन्त जा कर उनके साथ लेन-देन किया तथा और पाँच हज़ार अशर्फियाँ कमा लीं।

17) इसी तरह जिसे दो हजार अशर्फि़याँ मिली थी, उसने और दो हज़ार कमा ली।

18) लेकिन जिसे एक हज़ार अशर्फि़याँ मिली थी, वह गया और उसने भूमि खोद कर अपने स्वामी का धन छिपा दिया।

19) ’’बहुत समय बाद उन सेवकों के स्वामी ने लौट कर उन से लेखा लिया।

20) जिसे पाँच हजार असर्फियाँ मिली थीं, उसने और पाँच हजार ला कर कहा, ’स्वामी! आपने मुझे पाँच हजार असर्फियाँ सौंपी थीं। देखिए, मैंने और पाँच हजार कमायीं।’

21) उसके स्वामी ने उस से कहा, ’शाबाश, भले और ईमानदार सेवक! तुम थोड़े में ईमानदार रहे, मैं तुम्हें बहुत पर नियुक्त करूँगा। अपने स्वामी के आनन्द के सहभागी बनो।’

22) इसके बाद वह आया, जिसे दो हजार अशर्फि़याँ मिली थीं। उसने कहा, ’स्वामी! आपने मुझे दो हज़ार अशर्फि़याँ सौंपी थीं। देखिए, मैंने और दो हज़ार कमायीं।’

23) उसके स्वामी ने उस से कहा, ’शाबाश, भले और ईमानदार सेवक! तुम थोड़े में ईमानदार रहे, मैं तुम्हें बहुत पर नियुक्त करूँगा। अपने स्वामी के आन्नद के सहभागी बनो।’

24) अन्त में वह आया, जिसे एक हज़ार अशर्फियाँ मिली थीं, उसने कहा, ’स्वामी! मुझे मालूम था कि आप कठोर हैं। आपने जहाँ नहीं बोया, वहाँ लुनते हैं और जहाँ नहीं बिखेरा, वहाँ बटोरते हैं।

25) इसलिए मैं डर गया और मैंने जा कर अपना धन भूमि में छिपा दिया। देखिए, यह आपका है, इस लौटाता हूँ।’

26) स्वामी ने उसे उत्तर दिया, ’दुष्ट! तुझे मालूम था कि मैंने जहाँ नहीं बोया, वहाँ लुनता हूँ और जहाँ नहीं बिखेरा, वहाँ बटोरता हूँ,

27) तो तुझे मेरा धन महाजनों के यहाँ जमा करना चाहिए था। तब मैं लौटने पर उसे सूद के साथ वसूल कर लेता।

28) इसलिए ये हज़ार अशर्फियाँ इस से ले लो और जिसके पास दस हज़ार हैं, उसी को दे दो;

29) क्योंकि जिसके पास कुछ है, उसी को और दिया जायेगा और उसके पास बहुत हो जायेगा; लेकिन जिसके पास कुछ नहीं है, उस से वह भी ले लिया जायेगा, जो उसके पास है।

30) और इस निकम्मे सेवक को बाहर, अन्धकार में फेंक दो। वहाँ वे लोग रोयेंगे और दाँत पीसते रहेंगे।

📚 मनन-चिंतन

जीवन के संघर्ष में जहॉं हर कोई अपना जीवन को सॅंवारने में लगा हैं वह चाहता हैं कि उसका जीवन सुरक्षित हों- उनके पास एक अच्छा घर, परिवार और नौकरी हो; लेकिन इस जद्दोजहद में इंसान सिर्फ अपने बारे में सोचता है और एक महत्वपूर्ण बात भूल जाता है कि वह इस संसार में एक विशेष मतलब से भेजा गया है। हम सभी को यह जीवन प्रभु से प्राप्त हैं तथा यह जीवन में हमें कुछ फल उत्पन्न करना हैं जिस प्रकार योहन 15ः16 में येसु कहते है तुमने मुझे नहीं चुना बल्कि मैने तुम्हें चुना और नियुक्त किया कि तुम जा कर फल उत्पन्न करों।

यह जीवन केवल संसार में अपने जीवन को समझने और अपने जीवन को बनाने तक ही सीमित नहीं हैं परंतु इसके साथ फल उत्पन्न करने के लिए भी हैं जो आज के सुसमाचार के द्वारा और भी स्पष्ट हो जाता हैं। आज का सुसमाचार जिसमें प्रभु येसु पुनः ईश्वर के राज्य को समझाने हेतु एक दृष्टांत बताते है और वह अशर्फियों का दृष्टांत जहॉं पर हमें कई महत्वपूर्ण बात पता चलतीं हैः

पहला कि सभी वरदान हमें ईश्वर से प्राप्त हैं और सब को उनकी योग्यता अनुसार वरदान दिये गयें हैं। जितना हमें दिया गया हैं उतना हम से आशा भी है कि हम उसका उचित प्रतिफल उत्पन्न करें। ‘‘जिसे बहुत दिया गया है उस से बहुत मॉंगा जायेगा और जिसे बहुत सौंपा गया हैं, उस से अधिक मॉंगा जायेगा’’ (लूकस 12ः48)। इसलिए हमें यह नहीं सोचना चाहिए कि हमारे जीवन में यह नहीं हैं या वह नहीं हैं परंतु हमें सोचना चाहिए कि हमारे जीवन में जो हैं उसका हमने क्या किया हैं?

दूसरा - हमें ईश्वर के लिए फल उत्पन्न करना। अक्सर हम अपने जीवन में जो वरदान दियें गये है उसका उपयोग सिर्फ अपने लिए करते हैं परंतु वह वरदान केवल स्वयं के उपभोग के लिए नहीं परंतु उसका उचित फल उत्पन्न करने के लिए है। अगर किसी को प्रज्ञा का वरदान प्राप्त है तो वह उस प्रज्ञा से केवल अपनी सफलता के लिए नहीं परंतु उनकी मदद के लिए भी है जो अज्ञानी है, कमजोर हैं। जिसको ईश्वर का वचन को समझने का वरदान प्राप्त हैं वह केवल स्वयं के लिए ही नहीं परंतु उनको बताने के लिए भी है जो ईश्वर के वचन की खोज में या उसे समझने में कमजोर हैं। इस प्रकार सभी को अलग अलग वरदान उनके योग्यता के अनुसार दिये गये हैं जिससे हम उसका प्रतिफल उत्पन्न कर सकें।

तीसरा हम सभी को अंत में अपने जीवन का लेखा-जोखा देना पड़ेगा। जो हमें ईश्वर से प्राप्त हुआ उसका हमने क्या किया? यह हमें बताता है कि जो कुछ हमें प्राप्त है वह हमारा नहीं परंतु हमें सौपा गया हैं और हमें एक कारिंदा के समान उसकी देखरेख करनी हैं और अंत मंे हिसाब देना हैं। एक कारिंदा ईमानदारी से कार्य कर सकता हैं या बेईमानी से। आज के सुसमाचार में जिन सेवको ने ईमानदारी से उचित फल दिया उनको सराहा गया अथवा उनको और भी अधिक दिया गया। परंतु जिस सेवक ने उसको छिपा कर रखा उसे डॉंटा गया अथवा उससे वह भी छीनकर जों उसके पास था उसे सजा दी गई।

चौथा हम सबको प्रभु के राज्य के लिए कार्य करना है। हम प्रभु के राज्य में कार्य करने हेतु बुलाये गये हैं जहॉं पर हमें नित-प्रतिदिन उसके राज्य के लिए कार्य करते हुए आत्माओं को बचाना हैं। जिस सेवक को दण्ड दिया गया उसने स्वामि के लिए कार्य नहीं किया बल्कि अपने जीवन में आलसीपना दिखाया। हम सभी को इस जीवन में एक अवसर मिला है जिससे हम प्रभु के लिए कार्य कर सकें। हम इस जीवन में अपने लिए तो कार्य करते हैः अपने पेट के लिए, अपने परिवार के लिए, अपने रिश्तेदारों के लिए, अपने देश के लिए, परंतु जब प्रभु के लिए कार्य करने की बारी आती है तो हम प्रभु के लिए कार्य करने से पीछे हट जाते हैैंं? प्रभु येसु ने मारकुस 12ः17 में कहा, जो कैसर का है उसे कैसर को दो और जो ईश्वर का है उसे ईश्वर को दो। हमें केवल स्वयं के लिए ही नहीं परंतु प्रभुु ईश्वर के लिए भी कार्य करना हैं। अगर इस जीवन में हम प्रभु के वरदानों को छिपा कर प्रभु के लिए कुछ नहीं करते हैं, तो हम एक अवसर को गवा देते हैं और अंत में अपने जीवन को भी। अक्सर हम अपने जीवन में ही व्यस्त रहतें हैं लेकिन हमंे मालूम होना चाहिए कि प्रभु का दिन चोर की तरह आयेगा जिसे संत पौलुस आज के दूसरे पाठ मंे बताते हैं और जब वह समय आयेगा तो शायद हमारे पास न समय रहेगा न शब्द।

हम अपने जीवन में मनन चिंतन करके देखें कि हम प्रभु के राज्य में किस प्रकार के सेवक हैं? क्या हम ईमानदार सेवक है? क्या हम मेहनत या कार्य करने वाले सेवक हैं या हम एक आलसी सेवक हैं? आज के वचन हमारे ऑंखों को खोलें तथा हमें प्रभु के राज्य के लिए कार्य करने में सहायता प्रदान करें। आमेन!


📚 REFLECTION

In the struggles of the life where everyone is busy in making one’s life. He/she wants that there life be a secured one with one house, family and job; but in this struggles of life human thinks about oneself and forgets one important thing that he/she is being sent in this world with special purpose. We all have received the life from God in order to bear fruit as Jesus says in Jn 15:16, You did not choose me but I chose you. And I appointed you to go and bear fruit.

This life is not limited to understand one’s life and make one’s life but along with that to bear fruit which is very clear through today’s gospel. In today’s gospel once again in order to explain about the Kingdom of God Lord Jesus uses one more parable and that parable is Parable of the talents where we come to many important things:

Firstly that according to our capacity we all have received gifts from God. How much gifts we have received much more is being expected also that we bear much and worth fruit from that. “From everyone to whom much has been given, much will be required; and from the one to whom much has been entrusted, even more will be demand” (Lk 12:48). That is why we should not think we don’t have this or we don’t have that in our lives but we should think what we have in our lives what we have done of it?

Secondly, we have to bear fruit for God. Usually what we have received as gifts we usually use them for ourselves but those gifts are not for the benefit of oneself alone but from that worthy fruit should be obtained. If anyone has got the gift of wisdom then it is not used for one’s own success but to help the ignorant and weak too. One who has got the gift to understand God’s word then it is not for oneself alone but also to explain and make it to understand them who are searching God’s word and its meaning but are unable to understand it. Likewise all have got the gifts and talents according to one’s own capacity so that we bear worth fruit out of it.

Thirdly- At the end we are accountable of our life of what we have received and what we have done out of it. This tells us that what all we have received is not ours but are given or handed to us and like stewards we have to take care of them and have to give accounts at the end. One steward can do the work with full honesty or in a dishonest way. In today’s gospel those servants who bear more fruit with their honest work were appreciated and were given more. But that servant who hid the talent received the rebuke and taking from him what he had he was send for the punishment.

Fourthly- We all have to work for the Kingdom of God. We all are called to work for God’s kingdom, where we have to work daily for His Kingdom so that we can save many souls for him. The servant who was punished did not do the work for his owner and showed his laziness. We all have received an opportunity so that we can work for God. We all work for ourselves: for our stomach, for our family for our relatives, for our country but when the question arise to do the work for God, we fail to do God’s work. Lord Jesus says in Mk 12:17, Give to the Caesar the things that are the Caesar’s, and to God the things that are God’s. We should not work for ourselves alone but also for the God. In our lives, by hiding the talents if do not do anything for God then we lose an opportunity and at the end our life too.

Usually we are busy in our lives only, but we should know that the Lord’s day will come like a thief which St. Paul tell us in today’s second reading and when the time will come then we may not have the time nor words.

Let’s meditate and reflect in our lives that in the vineyard of God or in the Kingdom of God, we are which kind of servant? Are we an honest servant? Are we servant of God who work for him or are we a lazy servant? May today’s word open our eyes and help us to work for the kingdom of God. Amen!


मनन-चिंतन - 2

सृष्टि के प्रारंभ से ही ईश्वर की मनुष्य से यही अपेक्षा रही है कि वह फल पैदा करे। ईश्वर ने आदि मानव की सृष्टि के बाद उन्हें सर्वप्रथम आशीर्वाद देकर कहा, ’’फलो-फूलो....।’’ ईश्वर ने यह जीवन तथा उसके दान हमें ’उचित फल’ उत्पन्न करने के लिए प्रदान किया है। येसु ने भी विभिन्न दृष्टांतों द्वारा तथा अनेक अवसरों पर फल उत्पन्न करने की शिक्षा दी। अंजीर के पेड को सूख जाने का शाप प्रभु ने इसलिए दिया कि वह फलहीन था तथा व्यर्थ ही ’’भूमि छेंके हुआ था’’। इसी प्रकार हिंसक असामियों के दृष्टांत द्वारा प्रभु ने समय पर फल देने की शिक्षा पर जोर दिया, ’’अपनी दाखबारी का पट्टा दूसरे असामियों को देगा, जो समय पर फसल का हिस्सा देते रहेंगे’’। (मत्ती 21:41) बीज बोने वाले का दृष्टांत भी फल की उत्पादकता तथा उसे प्रभावित करने वाली परिस्थितियों के बारे में विस्तृत रूप से समझाता है। जिसको समझाकर प्रभु अंत में कहते हैं, ’’ जो अच्छी भूमि में बोये गये हैं; ये वे लोग है, जो वचन सुनते हैं, उसे ग्रहण करते हैं और फल लाते हैं- कोई तीस गुना, कोई साठ गुना, कोई सौ गुना।’’ (मारकुस 4:20) तथा ’’जिसके कान हों, वह सुन ले।’’ (मत्ती 13:9) अशर्फियों का दृष्टांत प्राथमिक रूप से केवल फल उत्पन्न करने पर जोर देता है तथा जो सेवक फल उत्पन्न करना तो दूर उसके बारे में सोचता भी नहीं वह दण्डित किया जाता है।

अशर्फियों का दृष्टांत शिक्षा एवं अंतदृष्टि से आध्यात्मिक रूप से प्रचुर मात्रा में सम्पन्न है। इसमें स्वर्गराज्य के लिये फल उत्पन्न करने की अनिवार्यता की सूक्ष्म तथा गूढ बातों को सरल एवं सांकेतिक रूप से बताया गया है।

आमतौर पर यह माना जाता है कि ईश्वर ने सभी को एक समान बनाया है तथा इस कारण हम आपस में एक-दूसरे के साथ परस्पर तुलना करते रहते हैं। किन्तु यह धारणा सही नहीं है। ईश्वर ने किसी को किसी विशेष क्षेत्र में अधिक ज्ञान या हुनर दिया है तथा किसी को कम। इसी विभिन्नता को समझाते हुये संत पौलुस कहते हैं, ’’हम को प्राप्त अनुग्रह के अनुसार हमारे वरदान भी भिन्न-भिन्न होते हैं।...तो विश्वास के अनुरूप उसका उपयोग करे।’’ (रोमियों 12:6) अशर्फियों के दृष्टांत में स्वामी द्वारा किसी को ज्यादा तो किसी को कम अशर्फियाँ देना यही प्रतिपादित करता है कि ईश्वर ने सब को एक समान गुण एवं योग्यता प्रदान नहीं की है। स्वामी ने अपने सेवकों को उनकी ’’योग्यता का ध्यान रखकर एक सेवक को पाँच हजार, दूसरे को दो हजार और तीसरे को एक हजार अशर्फियाँ दी।’’ (मत्ती 25:15) इस प्रकार येसु यह स्पष्ट करते हैं कि हम मनुष्यों को ईश्वर ने अपनी योग्यता के अनुसार ही जिम्मेदारी प्रदान की है। सब की योग्यताएं एवं क्षमताएं एक समान नहीं है, लेकिन सभी योग्य एवं सक्षम है। इसी प्रकार जिसको जितना दिया गया है उससे भी उतने की ही आशा की जाती है।

स्वामी ने जाते समय इन अशर्फियों से क्या करना है इसके लिये सेवकों को कोई स्पष्ट निर्देश नहीं दिया था। लेकिन प्रथम दो सेवकों ने अपनी ही बुद्धि से यह समझ लिया था कि स्वामी का इस प्रकार अशर्फियाँ देने का क्या उद्देश्य हो सकता है। इसलिए उन्होंने इन अशर्फियों को तुरन्त व्यापार में लगा दिया। दस कुँवारियों के दृष्टांत में भी पाँच कुँवारियों को समझदार इसलिए माना गया कि उन्होंने अपनी जिम्मेदारी को भली-भांति समझ कर स्वयं ही अपनी मशालों के साथ कुप्पियों में तेल भी लायी थी। इसलिए संत पेत्रुस हमें चेताते हुये कहते हैं, ’’जिसे जो वरदान मिला है, वह ईश्वर के बहुविध अनुग्रह के सुयोग्य भण्डारी की तरह दूसरों की सेवा में उसका उपयोग करें।’’ (1पेत्रुस 4:10)

एक और मुख्य बात जो यह दृष्टांत हमें बताता है वह यह है कि सेवकों ने ’’तुरन्त जाकर उनके साथ लेन-देन किया’’। सेवकों ने बिना कोई समय गवायें, प्रदान की गयी अशर्फियों को व्यापार में लगा दिया। ईश्वर की योजनाओं के प्रति यह तत्परता एवं तेजी हम यूसुफ और मरियम के जीवन में भी पाते हैं। जब प्रभु के दूत ने स्वप्न में युसूफ को बालक और मरियम को मिस्र देश ले जाने का आदेश दिया तो यूसुफ ’’उसी रात बालक और उसकी माता को लेकर मिस्र देश चल दिया’’। (मत्ती 2:14) इसी प्रकार जब दूत ने यूसुफ को मरियम की गर्भवती होने तथा उनकी निष्कलंकता के बारे में बताया तो यूसुफ उसी समय ’’नींद से उठकर प्रभु के दूत की आज्ञानुसार अपनी पत्नी को अपने यहाँ ले आया।’’ (मत्ती 1:24) जब स्वर्गदूत ने मरियम को ऐलीज़बेथ के गर्भवती होने की सूचना दी तो ’’मरियम पहाडी प्रदेश में यूदा के एक नगर के लिए शीघ्रता से चल पड़ी’’। (लूकस 1:39) एम्माउस जाने वाले शिष्यों के बारे में यह कहा गया है कि वे “उसी घड़ी उठ कर येरुसालेम लौट गये” (लूकस 24:33)। हमें ईश्वर के कार्यों को करने में कोई आलस्य नहीं दिखाना चाहिए। ईश्वर भी ऐसे ही लोगों को पसंद करते हैं जो उनके कार्यों को उत्साह तथा पूरी तत्परता के साथ करने में जुट जाते हैं।

स्वामी जो कुछ भी उन्हें देकर गया था उसे पहले दो सेवकों ने व्यापार में लगा दिया। उन्होंने अपने स्वयं के लिये कुछ भी नहीं छोडा। कई बार हम सोचते हैं कि जब हम अच्छी स्थिति में होंगे तब हम ईश्वर के लिए कार्य करेंगे। किन्तु ऐसी सोच में यह समस्या है कि हम पहले अपने लिये बचाना चाहते हैं फिर जो बच जाता है उसमें प्रभु के लिए कुछ करना चाहते हैं। यह दृष्टिकोण हमें पूरी ईमानदारी एवं लगन के साथ ईश्वर के कार्य करने से रोकता है। हमें इस सच्चाई को स्वीकार करना चाहिए कि यह जीवन तथा जो कुछ भी हमें प्राप्त है वह ईश्वर का दान है इसी सत्य का स्मरण दिलाते हुए संत याकूब लिखते हैं, ’’सभी उत्तम दान और सभी पूर्ण वरदान ऊपर के हैं और नक्षत्रों के उस सृष्टिकर्ता के यहाँ से उतरते हैं, जिसमें न तो कोई परिवर्तन है और न परिक्रमा के कारण कोई अन्धकार। उसने अपनी ही इच्छा से सत्य की शिक्षा द्वारा हम को जीवन प्रदान किया,...’’(याकूब 1:17-18) इसलिए हमें अपना समय तथा कार्य ईश्वर की सेवा में सम्पूर्ण रूप से समर्पित करना चाहिए।

यह सही है कि स्वामी ने सभी को एक समान अशर्फियाँ नहीं दी थी क्योंकि उन तीनों की योग्यताएं कम ज्यादा थी। किन्तु स्वामी ने सभी को योग्य माना था इसलिए उसने तीनों को अलग-अलग मात्रा में अशर्फियाँ प्रदान की। जिस को एक हजार अशर्फियाँ दी गयी थी उसकी क्षमता कम थी किन्तु नगण्य नहीं। यदि वह बिलकुल ही असक्षम होता तो उसे कुछ भी नहीं दिया जाता। लेकिन उस तीसरे सेवक ने अपनी योग्यता की कमी के कारण नहीं बल्कि अपने आलस्य के कारण कुछ भी पैदा नहीं किया। इसी आलस एवं निकम्मेपन के कारण उसे दोषी माना गया।

इस दृष्टांत का सबसे रोचक पहलू यह है कि तीसरे सेवक ने अपनी नाकामी का दोष स्वामी के स्वभाव पर मढा। वह कहता है कि मैंने इसलिए कुछ भी नहीं किया कि, ’’आपने जहाँ नहीं बोया, वहाँ लुनते हैं और जहाँ नहीं बिखेरा, वहाँ बटोरते हैं। इसलिए मैं डर गया और मैंने जा कर अपना धन भूमि में छिपा दिया। देखिए, यह आपका है, इस लौटाता हूँ।’ (मत्ती 25:24-25) उसका यही दोषारोपण उसकी दुष्टता एवं निकम्मेपन को साबित करता है। क्योंकि यह तीसरा सेवक स्वामी के कठोर स्वाभाव से भलीभांति परिचित था। वह जानता था कि स्वामी कुछ न कुछ लाभ की आशा हर जगह लगाये रहता था। इस कारण उसके लिए यह निष्कर्ष निकालना काफी सरल होता कि उसे दी गयी अशर्फियों का क्या अर्थ हो सकता है। ’’स्वामी ने उसे उत्तर दिया, ’दुष्ट! तुझे मालूम था कि मैंने जहाँ नहीं बोया, वहाँ लुनता हूँ और जहाँ नहीं बिखेरा, वहाँ बटोरता हूँ, तो तुझे मेरा धन महाजनों के यहाँ जमा करना चाहिए था। तब मैं लौटने पर उसे सूद के साथ वसूल कर लेता।....और इस निकम्मे सेवक को बाहर, अन्धकार में फेंक दो। वहाँ वे लोग रोयेंगे और दाँत पीसते रहेंगे।’’ (मत्ती 25:26-27,30) आइए हम भी ईश्वर द्वारा प्रदत्त जीवन तथा उसके वरदानों से प्रति पूरी तत्परता, समपर्ण तथा जिम्मेदारी के साथ अपनी-अपनी योग्यताओं के अनुसार फल उत्पन्न करें।

- Br. Biniush Topno

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Praise the Lord!