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Catholic Bible readings for today Sunday 7 March 2021- ordinary

 Daily Mass Readings for Sunday , 7 March 2021-Ordinary 

First Reading: Exodus 20: 1-17

1 And the Lord spoke all these words:

2 I am the Lord thy God, who brought thee out of the land of Egypt, out of the house of bondage.

3 Thou shalt not have strange gods before me.

4 Thou shalt not make to thyself a graven thing, nor the likeness of any thing that is in heaven above, or in the earth beneath, nor of those things that are in the waters under the earth.

5 Thou shalt not adore them, nor serve them: I am the Lord thy God, mighty, jealous, visiting the iniquity of the fathers upon the children, unto the third and fourth generation of them that hate me:

6 And shewing mercy unto thousands to them that love me, and keep my commandments.

7 Thou shalt not take the name of the Lord thy God in vain: for the Lord will not hold him guiltless that shall take the name of the Lord his God in vain.

8 Remember that thou keep holy the sabbath day.

9 Six days shalt thou labour, and shalt do all thy works.

10 But on the seventh day is the sabbath of the Lord thy God: thou shalt do no work on it, thou nor thy son, nor thy daughter, nor thy manservant, nor thy maidservant, nor thy beast, nor the stranger that is within thy gates.

11 For in six days the Lord made heaven and earth, and the sea, and all things that are in them, and rested on the seventh day: therefore the Lord blessed the seventh day, and sanctified it.

12 Honour thy father and thy mother, that thou mayest be longlived upon the land which the Lord thy God will give thee.

13 Thou shalt not kill.

14 Thou shalt not commit adultery.

15 Thou shalt not steal.

16 Thou shalt not bear false witness against thy neighbour.

17 Thou shalt not covet thy neighbour’s house: neither shalt thou desire his wife, nor his servant, nor his handmaid, nor his ox, nor his ass, nor any thing that is his.

Responsorial Psalm: Psalms 19: 8, 9, 10, 11

R. (John 6: 68c) Lord, thou hast the words of eternal life.

8 The law of the Lord is unspotted, converting souls: the testimony of the Lord is faithful, giving wisdom to little ones.

R. Lord, thou hast the words of eternal life.

9 The justices of the Lord are right, rejoicing hearts: the commandment of the Lord is lightsome, enlightening the eyes.

R. Lord, thou hast the words of eternal life.

10 The fear of the Lord is holy, enduring for ever and ever: the judgments of the Lord are true, justified in themselves.

R. Lord, thou hast the words of eternal life.

11 More to be desired than gold and many precious stones: and sweeter than honey and the honeycomb.

R. Lord, thou hast the words of eternal life.

Second Reading: First Corinthians 1: 22-25

22 For both the Jews require signs, and the Greeks seek after wisdom:

23 But we preach Christ crucified, unto the Jews indeed a stumblingblock, and unto the Gentiles foolishness:

24 But unto them that are called, both Jews and Greeks, Christ the power of God, and the wisdom of God.

25 For the foolishness of God is wiser than men; and the weakness of God is stronger than men.

Verse Before the Gospel: John 3: 16

16 For God so loved the world, as to give his only begotten Son; that whosoever believeth in him, may not perish, but may have life everlasting.

Gospel: John 2: 13-25

13 And the pasch of the Jews was at hand, and Jesus went up to Jerusalem.

14 And he found in the temple them that sold oxen and sheep and doves, and the changers of money sitting.

15 And when he had made, as it were, a scourge of little cords, he drove them all out of the temple, the sheep also and the oxen, and the money of the changers he poured out, and the tables he overthrew.

16 And to them that sold doves he said: Take these things hence, and make not the house of my Father a house of traffic.

17 And his disciples remembered, that it was written: The zeal of thy house hath eaten me up.

18 The Jews, therefore, answered, and said to him: What sign dost thou shew unto us, seeing thou dost these things?

19 Jesus answered, and said to them: Destroy this temple, and in three days I will raise it up.

20 The Jews then said: Six and forty years was this temple in building; and wilt thou raise it up in three days?

21 But he spoke of the temple of his body.

22 When therefore he was risen again from the dead, his disciples remembered, that he had said this, and they believed the scripture, and the word that Jesus had said.

23 Now when he was at Jerusalem, at the pasch, upon the festival day, many believed in his name, seeing his signs which he did.

24 But Jesus did not trust himself unto them, for that he knew all men,

25 And because he needed not that any should give testimony of man: for he knew what was in man.

07 मार्च 2021, इतवार चालीसे का तीसरा इतवार

 

07 मार्च 2021, इतवार

चालीसे का तीसरा इतवार

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पहला पाठ : निर्गमन ग्रन्थ 20:1-17


1) ईश्वर ने मूसा से यह सब कहा,

2) ''मैं प्रभु तुम्हारा ईश्वर हूँ। मैं तुमको मिस्र देश से गुलामी के घर से निकाल लाया।

3) मेरे सिवा तुम्हारा कोई ईश्वर नहीं होगा।

4) ''अपने लिये कोई देव मूर्ति मत बनाओ। ऊपर आकाश में या नीचे पृथ्वी तल पर या पृथ्वी के नीचे के जल में रहने वाले किसी भी प्राणी अथवा वस्तु का चित्र मत बनाओ।

5) उन मूर्तियों को दण्डवत कर उनकी पूजा मत करो; क्योंकि मैं प्रभु, तुम्हारा ईश्वर, ऐसी बातें सहन नहीं करता जो मुझ से बैर करते हैं, मैं तीसरी और चौथी पीढ़ी तक उनकी सन्तति को उनके अपराधों का दण्ड देता हूँ।

6) जो मुझे प्यार करते हैं और मेरी आज्ञाओं का पालन करते है मैं हजार पीढ़ियों तक उन पर दया करता हूँ।

7) प्रभु अपने ईश्वर का नाम व्यर्थ मत लो; क्योंकि जो व्यर्थ ही प्रभु का नाम लेता है, प्रभु उसे अवश्य दण्डित करेगा।

8) विश्राम-दिवस को पवित्र मानने का ध्यान रखो।

9) तुम छः दिनों तक परिश्रम करते रहो और अपना सब काम करो;

10) परन्तु सातवाँ दिन तुम्हारे प्रभु ईश्वर के आदर में विश्राम का दिन है। उस दिन न तो तुम कोई काम करो न तुम्हारा पुत्र, न तुम्हारी पुत्री, न तुम्हारा नौकर, न तुम्हारी नौकरानी, न तुम्हारे चौपाये और न तुम्हारे शहर में रहने वाला परदेशी।

11) छः दिनों में प्रभु ने आकाश, पृथ्वी, समुद्र और उन में से जो कुछ है वह सब बनाया है और उसने सातवें दिन विश्राम किया। इसलिए प्रभु ने विश्राम दिवस को आशिष दी है और उसे पवित्र ठहराया है।

12) अपने माता-पिता का आदर करों जिससे तुम बहुत दिनों तक उस भूमि पर जीते रहो, जिसे तुम्हारा प्रभु ईश्वर तुम्हें प्रदान करेगा।

13) हत्या मत करो।

14) व्यभिचार मत करो।

15) चोरी मत करो।

16) अपने पड़ोसी के विरुद्ध झूठी गवाही मत दो। अपने पड़ोसी के घर-बार का लालच मत करो।

17) न तो अपने पड़ोसी की पत्नी का, न उसके नौकर अथवा नौकरानी का, न उसके बैल अथवा गधे का - उसकी किसी भी चीज का लालच मत करो।''


दूसरा पाठ : कुरिन्थियों के नाम सन्त पौलुस का पहला पत्र 1:22-25


22) यहूदी चमत्कार माँगते और यूनानी ज्ञान चाहते हैं,

23) किन्तु हम क्रूस पर आरोपित मसीह का प्रचार करते हैं। यह यहूदियों के विश्वास में बाधा है और गै़र-यहूदियों के लिए ’मूर्खता’।

24) किन्तु मसीह चुने हुए लोगों के लिए, चाहे वे यहूदी हों या यूनानी, ईश्वर का सामर्थ्य और ईश्वर की प्रज्ञा है;

25) क्योंकि ईश्वर की ’मूर्खता’ मनुष्यों से अधिक विवेकपूर्ण और ईश्वर की ’दुर्बलता’ मनुष्यों से अधिक शक्तिशाली है।


सुसमाचार : सन्त योहन 2:13-25


13) यहूदियों का पास्का पर्व निकट आने पर ईसा येरुसालेम गये।

14) उन्होंने मन्दिर में बैल, भेड़ें और कबूतर बेचने वालों को तथा अपनी मेंज़ों के सामने बैठे हुए सराफों को देखा।

15) उन्होंने रस्सियों का कोड़ा बना कर भेड़ों और बेलों-सहित सब को मन्दिर से बाहर निकाल दिया, सराफों के सिक्के छितरा दिये, उनकी मेजे़ं उलट दीं

16) और कबूतर बेचने वालों से कहा, ‘‘यह सब यहाँ से हटा ले जाओ। मेरे पिता के घर को बाजार मत बनाओ।’’

17) उनके शिष्यों को धर्मग्रन्थ का यह कथन याद आया- तेरे घर का उत्साह मुझे खा जायेगा।

18) यहूदियों ने ईसा से कहा, ‘‘आप हमें कौन-सा चमत्कार दिखा सकते हैं, जिससे हम यह जानें कि आप को ऐसा करने का अधिकार है?’’

19) ईसा ने उन्हें उत्तर दिया, ‘‘इस मन्दिर को ढा दो और मैं इसे तीन दिनों के अन्दर फिर खड़ा कर दूँगा’’।

20) इस पर यहूदियों ने कहा, ‘‘इस मंदिर के निर्माण में छियालीस वर्ष लगे, और आप इसे तीन दिनों के अन्दर खड़ा कर देंगे?’’

21) ईसा तो अपने शरीर के मन्दिर के विषय में कह रहे थे।

22) जब वह मृतकों में से जी उठे, तो उनके शिष्यों को याद आया कि उन्होंने यह कहा था; इसलिए उन्होंने धर्मग्रन्ध और ईसा के इस कथन पर विश्वास किया।

23) जब ईसा पास्का पर्व के दिनों में येरुसालेम में थे, तो बहुत-से लोगों ने उनके किये हुए चमत्कार देख कर उनके नाम में विश्वास किया।

24) परन्तु ईसा को उन पर कोई विश्वास नहीं था, क्योंकि वे सब को जानते थे।

25) इसकी ज़रूरत नहीं थी कि कोई उन्हें मनुष्य के विषय में बताये। वे तो स्वयं मनुष्य का स्वभाव जानते थे।


📚 मनन-चिंतन


आज के पहले पाठ में पुराना विधान के दस नियमों के बारे में हम सुनते है। ईश्वर ने इस्राएली जनता को मिस्र देश की गुलामी से बाहर लाने के बाद सीनाई पर्वत पर उनको ये दस नियम प्रदान करते है। यहॉ पर ईश्वर यह कहना चाहते है कि एक राष्ट्र की गुलामी से बाहर आने से एक व्यक्ति स्वतंत्र नहीं होते है, बल्कि एक व्यक्ति उस समय पूर्ण रुप से स्वतंत्र होते है जब वह ईश्वर के नियमों का पालन करते है। इसलिए ईश्वर ने इस्राएलि जनता को दस नियमों को प्रदान किया।

आज के सुसमाचार में हम पढते है कि येसु ने येरुसालेम मंदिर में प्रवेश करते हुए रस्सियों का कोड़ा बना कर भुड़ों और बैलों-सहित सब को मन्दिर से बाहार निकाल दिये, उनकी मेजें़ उलट दीं और कबूतर बेचने वालों से कहा, यह सब यहॉ से हटा ले जाओ। येसु ने यह सब इसलिए किया क्योंकि उन लोगों ने मंदिर को बाजार बना दिया था। और यह पहली आज्ञा के विरु़द्ध पाप है। येसु अपनी शिक्षा में आज्ञाओ का पालान करने का महत्व लोगों को समझाते हुए हम पढते है। जब एक धनी युवक येसु से पूछता है - भले गुरु अनन्त जीवन प्राप्त करने केलिए मुझे क्या करना होगा? तब येसु उनसे कहते है आज्ञाओ का पालन करो। (मारकुस 10:17-19) संत मत्ती के सुसमाचार में येसु कहते है यह न समझो कि मैं संहिता अथवा नबियों के लेखों को रद्व करने आया हॅू। उन्हें रद्व करने नहीं, बल्कि पूरा करने आया हॅू (मत्ती 5:17)। एक बार जब येसु से पूछा गया कि संहिता में सब से बड़ी आज्ञा कौन-सी है? तब येसु ने कहा कि अपने प्रभु-ईश्वर को अपने सारे ह्रदय, अपनी सारी आत्मा और अपनी सारी बुद्धि से प्यार करो। यह सब से बड़ी और पहली आज्ञा है। दूसरी आज्ञा इसी के सदृश है - अपने पड़ोसी को अपने समान प्यार करो। इन्हीं दो आज्ञाओं पर समस्त संहिता और नबियों की शिक्ष अवलम्बित हैं। (मत्ती 22:36-40) येसु ने यह भी कहा कि अगर तुम मुझे प्यार करेगे, तो मेरी आज्ञाओं का पालन करोगे (योहन 14:15)

स्तोत्रकार कहते है - मैंने तेरी शिक्षा अपने ह्रदय में सुरक्षित रखीए जिससे मैं तेरे विरुद्ध पाप न करुॅ। (स्तोत्र 119:11) क्योंकि पाप तो आज्ञा का उल्लंघन है। (1योहन 3:4) ईश्वर योशुआ से कहते है - संहिता के इस ग्रन्थ की चरचा करते कहो। दिन-रात उसका मनन करो, जिससे उस में जो कुछ लिखा है, तुम उसका सावधानी से पालन करो। इस तरह तुम उन्नति करते रहोगे और अपने सब कार्यें में सफलता प्राप्त करोगे। (योशुआ 1:8) इसलिए हम हमारे जीवन में उन्नती हासिल करने केलिए और सफलता प्रप्त करने केलिए आज्ञाओं का पालान करते हुए जीवन बिताये।




📚 REFLECTION



In today’s first reading we hear about the ten commandments of God. God after having set the Israelites free from Egypt, gives them ten commandments. God is trying to tell them that a person does not become really free when he comes out of slavery, but he/she becomes really free only when he/she follows the commandments of God. That’s why God gave them the commandments.

In today Gospel we read that Jesus making a whip of cords, he drives all those who were selling cattle, sheep, and doves and the money changers from the temple. He tells them take these things out of here. Stop making my Father’s house a market place. This is the violation of the first commandment therefore Jesus corrects them. We can see Jesus always teaches about the importance of following the commandments of God. In Mk 10:17-19 when a rich young man asks Jesus what should be do in order to inherit eternal life, to him Jesus says to obey the commandments. In Mt 5:17 Jesus says do not think that I have come to abolish the law or the prophets; I have come not to abolish but to fulfill. Once Jesus was asked which is the greatest commandment in the law and Jesus answers that love your God with all your heart, with all your soul, with all your mind and with all your strength and love your neighbor as yourself. Jesus also says in Jn 14:15 that if you love me you will obey my commandments. Thus in many places we see Jesus giving importance to the commandments.

The commandments help us not to commit sin. Ps 119:11 I treasure your word in my heart so that I may not sin against you. 1Jn 3:4 says sin is lawlessness. God says to Joshua 1:8 this book of the law shall not depart out of your mouth; you shall meditate on it day and night, so that you may be careful to act in accordance with all that is written in it. For then you shall make your way prosperous, and then you shall be successful. So let us obey the commandments of God in order to grow in our life as the lord wants.


मनन-चिंतन-2


सुसमाचार हमें बताता है कि प्रभु येसु ने येरूसालेम के मंदिर में प्रवेश कर रस्सियों का कोड़ा बना कर भेड़ों और बेलों-सहित सब को मन्दिर से बाहर निकाल दिया, सराफों के सिक्के छितरा दिये, उनकी मेजे़ं उलट दीं और कबूतर बेचने वालों से कहा, “यह सब यहाँ से हटा ले जाओ। मेरे पिता के घर को बाजार मत बनाओ।” (योहन 2:14-16) मंदिर में ईश्वर उपस्थित रहते, दर्शन देते तथा हमें अपना अनुभव कराते हैं। बाइबिल के पवित्र वचन में हम चार प्रकार के मंदिर पाते हैं।

पहला – येरूसालेम का मंदिर। राजा दाऊद की इच्छा के अनुसार उनके पुत्र सुलेमान ने येरूसालेम में एक भव्य मंदिर बनाया। इस मंदिर के निर्माण में सात साल लगे। हज़ारों कारीगरों तथा कलाकारों ने मेहनत कर उसे बनाया था। शत्रुओं ने उस पर बार-बार आक्रमण किया, लूट लिया और उसे ढा दिया। इस्राएलियों ने अपनी क्षमता के अनुसार कई बार उस के पुननिर्माण की कोशिश की। उस मंदिर की प्रतिष्ठा के समय प्रभु ने वहाँ अपना नाम स्थापित कर उसे पवित्र किया और प्रतिज्ञा की कि उनकी आँखें और उनका हृदय उस में सदा विराजमान रहेंगे। (देखिए 1 राजाओं 9:3) लेकिन साथ-साथ उन्होंने सुलेमान को यह चेतावनी भी दी – “यदि तुम अपने पिता दाऊद की तरह निष्कपट हृदय और धार्मिकता से मेरे सामने आचरण करोगे; यदि तुम मेरे आदेशों, नियमों और विधियों का पालन करोगे, तो जैसा कि मैंने तुम्हारे पिता से यह कहते हुए प्रतिज्ञा की- ‘इस्र्राएल के सिंहासन पर सदा ही तुम्हारा कोई वंशज विराजमान होगा’, मैं तुम्हारा राज्यसिंहासन इस्राएल में सदा के लिए स्थापित करूँगा। किन्तु यदि तुम लोग - तुम और तुम्हारे पुत्र - मुझ से विमुख होगे और मेरे द्वारा अपने को दी गयी आज्ञाओं और विधियों का पालन नहीं करोगे; यदि तुम जा कर उन्य देवताओं की सेवा-पूजा करोगे, तो मैं इस्राएलियों को इस देश से निकाल दूँगा, जिसे मैंने उन्हें दिया है और इस मन्दिर को त्याग दूँगा, जिसका मैंने अपने नाम के लिए प्रतिष्ठान किया है। सब राष्ट्र इस्राएल की निन्दा और उपहास करेंगे।” मंदिर की पवित्रता को बनाये रखने का मतलब है ईश्वर को प्यार करना और उनकी आज्ञाओं पर चलना। जब कभी इस्राएली लोग ईश्वर का अनादर कर उनके नियमों को टुकराते थे, वे मंदिर को अपवित्र करते थे।

दूसरा - प्रभु येसु। योहन 2:19 में प्रभु येसु दावा करते हैं, “इस मन्दिर को ढा दो और मैं इसे तीन दिनों के अन्दर फिर खड़ा कर दूँगा”। इसके बाद योहन 2:21 में सुसमाचार के लेखक टिप्पणी लिखते हैं – “ईसा तो अपने शरीर के मन्दिर के विषय में कह रहे थे”। सबसे पवित्र मंदिर तो येसु ही है क्योंकि वे स्वयं ईश्वर है और उनमें पवित्रता परिपूर्णता में मौजूद थी। अदृश्य ईश्वर येसु में दृश्य बन गये। मंदिर में बालक येसु के समर्पण के समय सिमयोन नामक धर्मी तथा भक्त पुरुष ने उन्हें देख कर भावात्मक होकर ईश्वर की स्तुति करते हुए कहा था, “प्रभु, अब तू अपने वचन के अनुसार अपने दास को शान्ति के साथ विदा कर; क्योंकि मेरी आँखों ने उस मुक्ति को देखा है, जिसे तूने सब राष़्ट्रों के लिए प्रस्तुत किया है। यह ग़ैर-यहूदियों के प्रबोधन के लिए ज्योति है और तेरी प्रजा इस्राएल का गौरव।“ (लूकस 2:29-32)

तीसरा – विश्वासियों का समुदाय। विश्वासियों के समुदाय का तात्पर्य विश्वव्यापी कलीसिया, धर्मप्रान्तीय कलीसिया, पल्ली-समुदाय, लघु ख्रीस्तीय समुदाय या पारिवारिक समुदाय से है। इस विश्वासियों के समुदायों में ईश्वर विशेष रूप से उपस्थित रहते हैं। इन समुदायों की पवित्रता बनाये रखना उनके सदस्यों की जिम्मेदारी है। इन समुदायों के नेताओं को समुदाय की पवित्रता सुनिश्चित करने की विशेष जिम्मेदारी सौंपी गयी है। समुदाय की पवित्रता उसके सदस्यों की पवित्रता पर निर्भर है। संत पौलुस कहते हैं, “आप लोगों का निर्माण भवन के रूप में हुआ है, जो प्रेरितों तथा नबियों की नींव पर खड़ा है और जिसका कोने का पत्थर स्वयं ईसा मसीह हैं। उन्हीं के द्वारा समस्त भवन संघटित हो कर प्रभु के लिए पवित्र मन्दिर का रूप धारण कर रहा है। उन्हीं के द्वारा आप लोग भी इस भवन में जोड़े जाते हैं, जिससे आप ईश्वर के लिए एक आध्यात्मिक निवास बनें।” (एफेसियों 2:20-22) संत पेत्रुस कहते हैं, “प्रभु वह जीवन्त पत्थर हैं, जिसे मनुष्यों ने तो बेकार समझ कर निकाल दिया, किन्तु जो ईश्वर द्वारा चुना हुआ और उसकी दृष्टि में मूल्यवान है। उनके पास आयें और जीवन्त पत्थरों का आध्यात्मिक भवन बनें। इस प्रकार आप पवित्र याजक-वर्ग बन कर ऐसे आध्यात्मिक बलिदान चढ़ा सकेंगे, जो ईसा मसीह द्वारा ईश्वर को ग्राह्य होंगे।” (1 पेत्रुस 2:4-5)

चौथा – हरेक विश्वासी। 1 कुरिन्थियों 3:16-17 में संत पौलुस कहते हैं, “क्या आप यह नहीं जानते कि आप ईश्वर के मन्दिर हैं और ईश्वर का आत्मा आप में निवास करता है? यदि कोई ईश्वर का मन्दिर नष्ट करेगा, तो ईश्वर उसे नष्ट करेगा; क्योंकि ईश्वर का मन्दिर पवित्र है और वह मन्दिर आप लोग हैं।“ 1 कुरिन्थियों 6:18-20 में वे कहते हैं, “व्यभिचार से दूर रहें। मनुष्य के दूसरे सभी पाप उसके शरीर से बाहर हैं, किन्तु व्यभिचार करने वाला अपने ही शरीर के विरुद्ध पाप करता है। क्या आप लोग यह नहीं जानते कि आपका शरीर पवित्र आत्मा का मन्दिर है? वह आप में निवास करता है और आप को ईश्वर से प्राप्त हुआ है। आपका अपने पर अधिकार नहीं है; क्योंकि आप लोग कीमत पर खरीदे गये हैं। इसलिए आप लोग अपने शरीर में ईश्वर की महिमा प्रकट करें।”

प्रभु ईश्वर हम से कहते हैं, “मैं तुम्हारा प्रभु तुम्हारा ईश्वर हूँ, इसलिए अपने आप को पवित्र करो और पवित्र बने रहो, क्योंकि मैं पवित्र हूँ। तुम भूमि पर रेंगने वाले जीव-जन्तुओं से अशुद्ध मत बनो। मैं वह प्रभु हूँ, जो तुम्हें इसलिए मिस्र से निकाल लाया कि मैं तुम्हारा अपना ईश्वर बनूँ। पवित्र बनो, क्योंकि मैं पवित्र हूँ।“ (लेवी 11:44-45)

संत पेत्रुस कहते हैं, “आप को जिसने बुलाया, वह पवित्र है। आप भी उसके सदृश अपने समस्त आचरण में पवित्र बनें; क्योंकि लिखा है- पवित्र बनो, क्योंकि मैं पवित्र हूँ।“ (1 पेत्रुस 1:15-16)

हम कलीसियाई समुदायों की और हमारी अपनी पवित्रता बनाये रखने के लिए बुलाये गये हैं। ईश्वर की शिक्षा पर ध्यान देकर तथा उनकी आज्ञाओं का पालन कर हम इस पवित्रता को बनाये रख सकते हैं। इसलिए स्तोत्रकार कहते हैं, “तेरी शिक्षा का पालन करने से ही नवयुवक निर्दोष आचरण कर सकता है। मैं सारे हृदय से तुझे खोजता रहा, मुझे अपनी आज्ञाओं के मार्ग से भटकने न दे। मैंने तेरी शिक्षा अपने हृदय में सुरिक्षत रखी, जिससे मैं तेरे विरुद्ध पाप न करूँ”। (स्तोत्र 119:9-11)

Br. Biniush Topno

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Praise the Lord!