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27 सितंबर का पवित्र वचन

 

27 सितंबर 2020
वर्ष का छब्बीसवाँ सामान्य सप्ताह, रविवार

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📒 पहला पाठ : एज़ेकिएल का ग्रन्थ 18:25-28

25) “तुम लोग कहते हो कि प्रभु का व्यवहार न्यायसंगत नहीं हैं। इस्राएलियो! मेरी बात सुनो। क्या मेरा व्यवहार न्यायसंगत नहीं है? क्या यह सही नहीं है कि तुम्हारा ही व्यवहार न्यायसंगत नहीं हैं।

26) यदि कोई भला मनुय अपनी धार्मिकता त्याग कर अधर्म करने लगता और मर जाता है, तो वह अपने पाप के कारण मरता है।

27) और यदि कोई पापी अपना पापमय जीवन त्याग कर धार्मिकता और न्याय के पथ पर चलने लगता है, तो वह अपने जीवन को सुरक्षित रखेगा।

28) यदि उसने अपने पुराने पापों को छोड़ देने का निश्चय किया है, तो वह अवश्य जीवित रहेगा, मरेगा नहीं।

📕 दूसरा पाठ: फ़िलिप्पियों 2:1-11

1) यदि आप लोगों के लिए मसीह के नाम पर निवेदन तथा प्रेमपूर्ण अनुरोध कुछ महत्व रखता हो और आत्मा में सहभागिता, हार्दिक अनुराग तथा सहानुभूति का कुछ अर्थ हो,

2) तो आप लोग एकचित? एक हृदय तथा एकमत हो कर प्रेम के सूत्र में बंध जायें और इस प्रकार मेरा आनन्द परिपूर्ण कर दें।

3) आप दलबन्दी तथा मिथ्याभिमान से दूर रहें। हर व्यक्ति नम्रतापूर्वक दूसरों को अपने से श्रेष्ठ समझे।

4) कोई केवल अपने हित का नहीं, बल्कि दूसरों के हित का भी ध्यान रखे।

5) आप लोग अपने मनोभावों को ईसा मसीह के मनोभावों के अनुसार बना लें।

6) वह वास्तव में ईश्वर थे और उन को पूरा अधिकार था कि वह ईश्वर की बराबरी करें,

7) फिर भी उन्होंने दास का रूप धारण कर तथा मनुष्यों के समान बन कर अपने को दीन-हीन बना लिया और उन्होंने मनुष्य का रूप धारण करने के बाद

8) मरण तक, हाँ क्रूस पर मरण तक, आज्ञाकारी बन कर अपने को और भी दीन बना लिया।

9) इसलिए ईश्वर ने उन्हें महान् बनाया और उन को वह नाम प्रदान किया, जो सब नामों में श्रेष्ठ है,

10) जिससे ईसा का नाम सुन कर आकाश, पृथ्वी तथा अधोलोक के सब निवासी घुटने टेकें

11) और पिता की महिमा के लिए सब लोग यह स्वीकार करें कि ईसा मसीह प्रभु हैं।

📙 सुसमाचार : सन्त मत्ती 21:28-32

28) ’’तुम लोगों का क्या विचार है? किसी मनुष्ष्य के दो पुत्र थे। उसने पहले के पास जाकर कहा, ’बेटा जाओ, आज दाखबारी में काम करो’।

29) उसने उत्तर दिया, ’मैं नहीं जाऊँगा’, किन्तु बाद में उसे पश्चात्ताप हुआ और वह गया।

30) पिता ने दूसरे पुत्र के पास जा कर यही कहा। उसने उत्तर दिया, ’जी हाँ पिताजी! किन्तु वह नहीं गया।

31) दोनों में से किसने अपने पिता की इच्छा पूरी की?’’ उन्होंने ईसा को उत्तर दिया, ’’पहले ने’’। इस पर ईसा ने उन से कहा, ’’मैं तुम लोगों से यह कहता हूँ- नाकेदार और वैश्याएँ तुम लोगों से पहले ईश्वर के राज्य में प्रवेश करेंगे।

32) योहन तुम्हें धार्मिकिता का मार्ग दिखाने आया और तुम लोगों ने उस पर विश्वास नहीं किया, परंतु नाकेदारों और वेश्यायों ने उस पर विश्वास किया। यह देख कर तुम्हें बाद में भी पश्चात्ताप नहीं हुआ और तुम लोगों ने उस पर विश्वास नहीं किया।

📚 मनन-चिंतन

हम उन लोगों को महत्व देते हैं जो हमारी बात रखते हैं। हम उन लोगों की सराहना करते हैं जो अपने वादों पर खरे उतरते हैं। प्रभु भी हमारे द्वारा किए गए वादों पर खरा उतरने के हमारे प्रयासों की सराहना करता है। आज के सुसमाचार के दृष्टांत में येसु ने बताते हैं बोला, कि दो पुत्रों मेसे एक ने अपने पिता से किया हुआ वादा नहीं निभाया। उसने दाख की बारी में काम करने का वादा किया था, लेकिन नहीं किया। वह उनके वचन का पक्का नहीं था। दूसरा बेटा विपरीत दिशा में चला गया; उन्होंने शुरू में कहा नहीं, लेकिन फिर इसके बारे में सोच-विचार किया और वही किया जो उनसे पूछा गया था। हम शायद लोगों में उस गुणवत्ता की भी सराहना करते हैं, एक प्रारंभिक निर्णय पर प्रतिबिंबित करने की क्षमता और बेहतर करने के लिए, मन का परिवर्तन, दिल का परिवर्तन। प्रभु हममें उसी गुण की सराहना करते हैं, बेहतरी के लिए मन और हृदय में बदलाव के लिए खुलापन। जब प्रभु कहते हैं और हम उनका कहना नहीं मानते तो प्रभु हमारे मन परिवर्तन तक इंतज़ार करते हैं कि हम मन बदलकर फिर से उनकी बात मानेंगे और उनके आदेशों का पलाउ करेंगे। प्रभु हमें अपनी प्रारंभिक प्रतिक्रिया के बारे में बेहतर सोचने का समय देता है। जब हम हमारे एक नहीं को एक हाँ में बदल देते हैं तो यह ईश्वर को प्रसन्नता प्रदान करता है। हिंदी में एक कहावत है देर आये दुरुस्त आये। यदि हमने आज तक हमारे प्रभु के आदेशों के लिए ना कहा है तो प्रभु हमें याद रहे वो हमारा ईश्वर हमारे ना के हाँ में बदलने का इंतज़ार कर रहा है। हम अपने मनोभाव और विचारों को बदलें व येसु की बातों को हाँ कहना सीखें। आमेन।



📚 REFLECTION

We value those who listen to us. We appreciate those who live up to their promises. The Lord also appreciates our efforts to live up to our promises. In the parable of today's gospel, Jesus states that one of the two sons did not keep the promise made to his father. He promised to work in the vineyard, but did not. He was not sure of his word. The second son went in the opposite direction; He initially said no, but then thought about it and did what he was asked. We probably also appreciate that quality in people, the ability to reflect on an initial decision and, for the better, a change of mind, a change of heart. God appreciates the same quality in us, openness to change in mind and heart for the better. When God says and we do not listen to Him, then He waits till we change our mind and turn back to Him with repentance and once again begin to listen to Him and obey his commands. Let us learn to always turn back to Jesus even if we fail keep our promises and obey his commands, for He always forgives. Amen


मनन-चिंतन : पश्चाताप - एक कदम अमरता की ओर

"मै बलिदान नहीं, बल्कि दया चाहता हूँ। मैं धर्मियों को नहीं पापियों को बुलाने आया हूँ।’’ (मत्ती 9:13) इस वचन के द्वारा प्रभु येसु उन लोगों के लिए द्वार खोलते हैं जो अपने जीवन को अर्थहीन और निराशा पूर्ण समझते हैं। यह वचन उन सभी लोगो के लिए जो पाप के कारण हताश और निराश है, एक आशा का दीप हैं। आज का सुसमाचार हमें इस ओर इंगित भी करता है। आज के सुसमाचार में हम फरीसियों और पापियों पर आधारित एक उत्तम और सुंदर दृष्टांत को पाते हैं। पिता की आज्ञा या इच्छा और उसका पालन - इसके आधार पर यहाँ पर चार प्रतिक्रिया संभव हैं। पहला - जो पिता की आज्ञा सुनता तथा उसका ईमानदारी से पालन करता है, दूसरा - जो सुनता परंतु पालन नहीं करता है, तीसरा - जो नहीं सुनता परंतु बाद में जाकर पालन करता है और चौथा - जो नही सुनता और पालन भी नहीं करता हैं। प्रभु येसु ने महायाजक और जनता के नेताओं के मन की बात जानकर, पापियों के प्रति उनकी भावना, उनकी झूठी धार्मिकता और अपश्चात्तापी हृदय को देखकर दूसरे और तीसरे प्रकार की प्रतिक्रिया को प्रकट किया है।

आइये हम इस दूसरी और तीसरी प्रतिक्रियाओं पर मनन चिंतन करें। बेटा पिता को ’हाँ’ तो कहता है परंतु उसके विपरीत कार्य करता है। आदम और हेवा के विषय में जानते हैं कि ईश्वर ने उनसे कहा था, “'तुम वाटिका के सभी वृक्षों के फल खा सकते हो, किन्तु भले-बुरे के ज्ञान के वृक्ष का फल नहीं खाना; क्योंकि जिस दिन तुम उसका फल खाओगे, तुम अवश्य मर जाओगे'' (उत्पत्ति 2:16-17)। समूएल के पुत्र योएल और अबीया को न्यायकर्ता के पद पर नियुक्त किया गया था परन्तु वे “अपने पिता के मार्ग का अनुसरण नहीं करते थे। वे लोभ में पड़ कर घूस लेते और न्याय भ्रष्ट कर देते थे’’ (2 समूएल 8:3)। नबी योना को निनीवे जा कर वहाँ के लोगों को उपदेश देने को कहा गया परंतु पहली बार में उसने विपरीत कार्य किया। अनानीयस और सफीरा (प्रेरित-चरित 5) को विश्वासियों के समुदाय के अनुसार अपनी सम्पत्ति बेचकर पूरी कीमत प्रेरितों के चरणों में रखनी थी परंतु उन्होने एक अंश अपने पास रख लिया। इन सभी के जीवन में ईश्वर द्वारा या लोगो के माध्यम से ईश्वर द्वारा आज्ञा मिली थी परंतु लोभ या प्रलोभन या किसी कारणवश वे विपरीत कार्य करते हैं और उनके जीवन में भारी दुःख, संकट या परेशानियाँ आ जाती हैं।

एक बेटा पिता को न कहकर बाद में पश्चात्ताप करता है और उस कार्य को पूरा करता है। बाइबिल में हम निनीवे के लोगो को पाते हैं जिन्होने पश्चात्ताप किया और कुमार्ग छोड़ दिये (योना 3:5-10)। राजा दाउद ने अपने गलत कार्य पर पश्चात्ताप किया। पेत्रुस ने अपने अस्वीकार पर आँसू बहाकर पश्चाताप किया (लूकस 22:62)। येसु के साथ क्रूसित डाकू अपने पापो के प्रति पश्चाताप करता है और अपने लिए स्वर्ग का रास्ता सुनिश्चित कर लेता है (लूकस 23:40-43)। इन सभी ने अपने पापों के प्रति पश्चात्ताप किया और अपने जीवन में बदलाव लाया और इस कार्य के फलस्वरूप इन्हें जीवन में आनंद, शांति और मुक्ति मिली।

पश्चात्ताप हम सभी के लिए एक वरदान है क्योंकि हम सब पापी हैं। ‘‘कोई भी धार्मिक नहीं रहा - एक भी नहीं; कोई भी समझदार नहीं; ईश्वर की खोज में लगा रहने वाला कोई नहीं! सभी भटक गये, सब समान रूप से भ्रष्ट हो गये हैं। कोई भी भलाई नहीं करता - एक भी नहीं।’’ (रोमियो 3:10-12)। पश्चात्ताप प्रभु येसु का अपने मिशन कार्य का सबसे पहला उपदेश है। ‘‘समय पूरा हो चुका है। ईश्वर का राज्य निकठ आ गया है। पश्चात्ताप करो और सुसमाचार में विश्वास करो’’(मारकुस 1:15)। इससे पता चलता है पश्चात्ताप हमारे जीवन में इतना महत्वपूर्ण क्यों हैं। पश्चात्तापी हृदय के फलस्वरूप एक पापी संत बन सकता है तथा उसको एक नया जीवन मिल सकता है, परंतु अपश्चात्तापी ह्दय के कारण एक संत पापी बन सकता है तथा वह मृत्यु की ओर ले जा सकता है। ‘‘यदि कोई भला मनुष्य अपनी धार्मिकता त्याग कर अधर्म करने लगता और मर जाता है, तो वह अपने पाप के कारण मर जाता है। और यदि कोई पापी अपना पापमय जीवन त्याग कर धार्मिकता और न्याय के पथ पर चलने लगता है, तो वह अपने जीवन को सुरक्षित रखेगा।’’ (एज़ेकिएल 18:26-27)

आज का सुसमाचार हमें प्रेरित करता है कि हम सदैव ईश्वर की इच्छा को पूरी करें क्योंकि ‘‘जो लोग मुझे ‘प्रभु! प्रभु! कह कर पुकारते हैं, उन में सब के सब स्वर्ग राज्य में प्रवेश नहीं करेंगे। जो मेरे स्वर्गिक पिता की इच्छा पूरी करता है, वही स्वर्गराज्य में प्रवेश करेगा’’ (मत्ती 7:21)। और यदि हम भटक जाए तो ‘‘प्रभु यह कहता है - अपने वस्त्र फाड़ कर नहीं, बल्कि ह्दय से पश्चात्ताप करो और अपने प्रभु-ईश्वर के पास लौट जाओे’’ (योएल 2:13) क्योकि ‘‘एक पश्चात्तापी पापी के लिए स्वर्ग में अधिक आनन्द मनाया जायेगा’’ (लूकस 15:9)।