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बुधवार, 17 नवंबर, 2021

 

बुधवार, 17 नवंबर, 2021

वर्ष का तैंत्तीसवाँ सामान्य सप्ताह

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पहला पाठ: मक्काबियों का दूसरा ग्रन्थ 7:1,20-31

1) किसी अवसर पर सात भाई अपनी माता के साथ गिरफ्तार हो गये थे। राजा उन्हें कोड़े लगवा कर और यंत्रणा दिला कर बाध्य करना चाहता था कि वे सूअर का माँस खायें, जो संहिता में मना किया गया है।

20) माता विशेष रूप से प्रंशसनीय तथा प्रातः स्मरणीय है। एक ही दिन में अपने सात पुत्रों को अपनी आँखों के सामने मरते देखकर भी वह विचलित नहीं हुई; क्योंकि वह प्रभु पर भरोसा रखती थी।

21) वह अपने पूर्वजों की भाषा में हर एक का साहस बँधाती रही। उच्च संकल्प से प्रेरित हो कर तथा अपने नारी-हृदय में पुरुष का तेज भर कर, वह अपने पुत्रों से यह कहती थी,

22) ’’मुझे नहीं मालूम कि तुम कैसे मेरे गर्भ में आये। मैंने न तो तुम्हें प्राण तथा जीवन प्रदान किया और न तुम्हारे अंगों की रचना की।

23) संसार का सृष्टिकर्ता मानव जाति की रचना करता और सब कुछ उत्पन्न करता है। वह दया कर तुम्हें अवश्य ही फिर प्राण तथा जीवन प्रदान करेगा; क्योंकि तुम उसकी विधियों की रक्षा के लिए अपने जीवन का तिरस्कार कर रहे हो।’’

24) अंतियोख को लगा कि वह उसका तिरस्कार और निंदा कर रही है। अब केवल उसका सब से छोटा पुत्र जीवित रहा। अंतियोख ने उसे समझाया ही नहीं, बल्कि शपथ खा कर आश्वासन भी दिया कि ’’यदि तुम अपने पूर्वजों के रीति-रिवाजों का परित्याग करोगे, तो मैं तुम को धन और सुख प्रदान करूँगा, तुम्हें अपना मित्र बना कर उच्च पद पर नियुक्त करूँगा''।

25) जब नवयुवक ने उसकी बातों पर ध्यान ही नहीं दिया तो अंतियोख ने माता को बुला भेजा और उस से अनुरोध किया कि वह नवयुवक को समझाये, जिससे वह जीवित रह सके।

26) राजा के कई बार अनुरोध करने के बाद वह अपने पुत्र को समझाने को राजी हो गयी।

27) वह उस पर झुक गयी और क्रूर तानाशाह की अवज्ञा करते हुए उसके पूर्वजों की भाषा में उस से यह कहा, ’’बेटा! मुझ पर दया करो। मैंने तुम्हें नौ महीनों तक गर्भ में धारण किया और तीन वर्षों तक दूध पिलाया। मैंने तुम्हें खिलाया और तुम्हारी इस उमर तक तुम्हारा पालन-पोषण किया।

28) बेटा! मैं तुम से अनुरोध करती हूँ। तुम आकाश तथा पृथ्वी की ओर देखो- उन में जो कुछ है, उसका निरीक्षण करो और यह समझ लो कि ईश्वर ने शून्य से उसकी सृष्टि की है। मनुष्य भी इस प्रकार उत्पन्न हुआ है।

29) इस जल्लाद से मत डरो। अपने भाइयों के योग्य बनो और मृत्यु स्वीकार करो, जिससे मैं दया के दिन तुम्हें अपने भाइयों के साथ फिर पा सकूँ।’’

30) जब वह ऐसा कह चुकी थी, तो नवयुवक तुरंत बोल उठा ’’तुम देर क्यों करते हो? मैं राजा का आदेश नहीं मानूँगा। मैं अपने पुरखों को मूसा द्वारा प्रदत्त संहिता के नियमों का पालन करता हूँ।

31) और तुम राजा, अंतियोख! जिसने इब्रानियों पर हर प्रकार का अत्याचार किया, तुम ईश्वर के हाथ से नहीं बच सकोगे।

सुसमाचार : सन्त लूकस 19:11-28

11) जब लोग ये बातें सुन रहे थे, तो ईसा ने एक दृष्टान्त भी सुनाया; क्योंकि ईसा को येरुसालेम के निकट पा कर वे यह समझ रहे थे कि ईश्वर का राज्य तुरन्त प्रकट होने वाला है।

12) उन्होंने कहा, ‘‘एक कुलीन मनुष्य राजपद प्राप्त कर लौटने के विचार से दूर देश चला गया।

13) उसने अपने दस सेवकों को बुलाया और उन्हें एक-एक अशर्फ़ी दे कर कहा, ‘मेरे लौटने तक व्यापार करो’।

14) ‘‘उसके नगर-निवासी उस से बैर करते थे और उन्होंने उसके पीछे एक प्रतिनिधि-मण्डल द्वारा कहला भेजा कि हम नहीं चाहते कि वह मनुष्य हम पर राज्य करे।

15) ‘‘वह राजपद पा कर लौटा और उसने जिन सेवकों को धन दिया था, उन्हें बुला भेजा और यह जानना चाहा कि प्रत्येक ने व्यापार से कितना कमाया है।

16) पहले ने आ कर कहा, ‘स्वामी! आपकी एक अशर्फ़ी ने दस अशर्फि़य़ाँ कमायी हैं’।

17) स्वामी ने उस से कहा, ‘शाबाश, भले सेवक! तुम छोटी-से-छोटी बातों में ईमानदार निकले, इसलिए तुम्हें दस नगरों पर अधिकार मिलेगा’।

18) दूसरे ने आ कर कहा, ‘स्वामी! आपकी एक अशर्फ़ी ने पाँच अशर्फि़याँ कमायी हैं’

19) और स्वामी ने उस से भी कहा, ‘तुम्हें पाँच नगरों पर अधिकार मिलेगा’।

20) अब तीसरे ने आ कर कहा, ’स्वामी! देखिए, यह है आपकी अशर्फ़ी। मैंने इसे अँगोछे में बाँध रखा था।

21) मैं आप से डरता था, क्योंकि आप कठोर हैं। आपने जो जमा नहीं किया, उसे आप निकालते हैं और जो नहीं बोया, उसे लुनते हैं।’

22) स्वामी ने उस से कहा, ‘दुष्ट सेवक! मैं तेरे ही शब्दों से तेरा न्याय करूँगा। तू जानता था कि मैं कठोर हूँ। मैंने जो जमा नहीं किया, मैं उसे निकालता हूँ और जो नहीं बोया, उसे लुनता हूँ।

23) तो, तूने मेरा धन महाजन के यहाँ क्यों नहीं रख दिया? तब मैं लौट कर उसे सूद के साथ वसूल कर लेता।’

24) और स्वामी ने वहाँ उपस्थित लोगों से कहा, ‘इस से वह अशर्फ़ी ले लो और जिसके पास दस अशर्फि़याँ हैं, उसी को दे दो’।

25) उन्होंने उस से कहा, ‘स्वामी! उसके पास तो दस अशर्फि़याँ हैं’।

26) "मैं तुम से कहता हूँ-जिसके पास कुछ है, उसी को और दिया जायेगा; लेकिन जिसके पास कुछ नहीं है, उस से वह भी ले लिया जायेगा, जो उसके पास है।

27) और मेरे बैरियों को, जो यह नहीं चाहते थे कि मैं उन पर राज्य करूँ, इधर ला कर मेरे सामने मार डालो’।

28) इतना कह कर ईसा येरुसालेम की ओर आगे बढ़े।


मनन-चिंतन



प्रतिभा व्यक्ति की क्षमता के अनुसार दी जाती हैः प्रबंधकीय पद ईश्वर के मापदंडों को पूरा करने के बारे में है न कि दूसरों से अपनी तुलना करने के बारे में। महत्वपूर्ण यह नहीं है कि हम क्या प्राप्त करते हैं बल्कि यह महत्वपूर्ण है कि हम उसका उपयोग कैसे करते हैं। बोने वाले के दृष्टांत में अच्छी मिट्टी द्वारा साठ और तीस के कम उत्पादन के लिए कोई आपत्ति नहीं उठाई जाती है। (मत्ती 13ः8)। व्यक्ति जितना अधिक प्रतिभाशाली होता है, उसे उतनी ही अधिक जिम्मेदारियां दी जाती हैं। ‘‘जिसे बहुत दिया गया है, उस से बहुत माँगा जायेगा’’(लूकस 12ः48)।

प्रतिभाओं में वृद्धि की उम्मीदः एक बार प्रतिभाओं को दिए जाने के बाद प्राप्तकर्ता से प्रतिभाओं को बढ़ाने के लिए परिकलित जोखिम के साथ कड़ी मेहनत करने की अपेक्षा की जाती है। प्रतिभा जन्मजात होती है या अर्जित की जाती है। अकादमिक उत्कृष्टता, कला और संस्कृति, खेल और खेल आदि में जन्मजात प्रतिभाएँ होती हैं। प्रतिभाएँ भी वे गुण हैं जो ईश्वर हमें अलौकिक स्तर पर देते हैं, उदाहरण के लिए, प्रार्थना करने की कृपा, विभिन्न आवश्यकताओं के लिए हस्तक्षेप करना, लोगों को सलाह देना , ईश्वर के प्यार के लिए दान करना और इसी प्रकार से अन्य। प्रतिभाओं का दृष्टांत हमें चुनौती देता है कि हम अच्छे फल पैदा करने के लिए नियमित रूप से और दृढ़ता से हमारे ईश्वर द्वारा दी गई प्रतिभा, गुण और अनुग्रह को विकसित करें। एक बगीचे की तरह जिसे फूल पैदा करने के लिए नियमित रूप से देखभाल की जाती है, हमारी प्रतिभा को व्यक्तिगत या गुप्त रूप से नहीं रखा जाना चाहिए, बल्कि उन्हें साझा करना चाहिए और जरूरतमंद भाइयों और बहनों के लाभ के लिए उपयोग किया जाना चाहिए।

निष्क्रियता के कारण नुकसान और सजाः पुरानी कहावत है ‘‘यदि आप इसका उपयोग नहीं करते हैं, तो आप इसे खो देते हैं’’। जो कुछ उसे डर के मारे दिया गया था, उससे उसने कुछ नहीं किया। उपहारों और प्रतिभाओं के हमारे उपयोग में हम असफल हो सकते हैं और गलतियाँ कर सकते हैं, लेकिन दृष्टांत बताता है कि भयभीत निष्क्रियता से विफलता बेहतर है। यह इस बात की भी वकालत करता है कि भय कभी भी प्रभु के साथ हमारे संबंधों को नियंत्रित नहीं करना चाहिए। रिश्ते को प्यार से चलाना चाहिए। 1 योहन 4ः18 कहता है, ‘‘प्रेम में भय नहीं होता। पूर्ण प्रेम भय दूर कर देता है’’।

दृष्टान्त में व्यक्ति को जो कुछ उसे सौंपा गया है उसका कोई पहल या लाभ नहीं लेने के लिए दंडित किया जाता है। प्रकाश्ना 3ः16 में हम पढ़ते हैं, ‘‘लेकिन न तो तुम गर्म हो और न ठंडे, बल्कि कुनकुने हो, इसलिए मैं तुम को अपने मुख से उगल दूँगा’’।

आइए हम ईश्वर प्रदत्त प्रतिभाओं और अनुग्रहों के लिए आभारी हों और उन्हें दूसरों के लाभ के लिए उपयोग करने के लिए उनका गुणा करने का संकल्प लें, ऐसा न हो कि हम उन्हें खो न दें या हमारी निष्क्रियता के लिए दंडित न हों।



REFLECTION

Talents are given according to the capacity of the person: Stewardship is about meeting God’s standards and not about comparing ourselves to others. What is important is not what we receive but how we make use of it. In the parable of the sower no objection is raised for the under production of sixty and thirty by the good soil. (Mat. 13:8). The more talented the person the more responsibilities are given. “More will be asked of a man to whom more has been entrusted” (Lk 12:48).

Expectation to increase the talents: Once the talents are given the receiver is expected to work hard with calculated risk to increase the talents. Talents are inborn or acquired. There are inborn talents in academic excellence, art and culture, sports and games etc.. Talents are also the graces which God gives to us on the supernatural level, for example, the grace to pray, to intercede for various needs, to counsel people, to do charity for the love of God and so on. The parable of the talents challenges us to cultivate regularly and perseveringly our God given talents, qualities and graces to produce good fruits. Like a garden that is taken care of regularly in order to produce flowers our talents are not to be kept personally or secretly, but they must be shared and used for the benefit of brothers and sisters in need.

Loss and Punishment for inactivity: The old saying goes “If you don’t use it, you lose it”. He did nothing with what was given to him out of fear. In our use of gifts and talents we may fail and make mistakes, but the parable suggests that failure is preferable to fearful inactivity. It also advocates that fear should never govern our relationship with the Lord. The relationship should be governed by love. 1Jn. 4:18 says, “There is no fear in love but perfect love casts out fear”.

The person in the parable is punished for not taking any initiative or advantage of what has been entrusted to him. In Rev. 3:16 we read “So because you are lukewarm, and neither cold nor hot, I am about to spit you out of my mouth”.

Let us thankful for God-given talents and graces and vow to multiply them using them for benefit of others, lest we may not lose them or be punished for our inactivity.



मनन-चिंतन - 2


आज के सुसमाचार में हम अशर्फ़ियों का दृष्टांत पाते हैं। प्रथम सेवक ने उसे प्राप्त एक अशर्फ़ी ले कर व्यापार किया और दस अशर्फ़ियाँ कमा लीं और दूसरे ने व्यापार करके पाँच अशर्फ़ियाँ कमा ली। दोनों की सराहना करते हुए उनको उनके स्वामी ने पुरस्कृत किया। लेकिन तीसरे सेवक ने न केवल अपनी अशर्फ़ियों को छिपा कर रखा, बल्कि उसने यह कहते हुए स्वामी को दोषी ठहराया, “आप कठोर हैं। आपने जो जमा नहीं किया, उसे आप निकालते हैं और जो नहीं बोया, उसे लुनते हैं”। इस नौकर को फल उत्पन्न न करने के कारण स्वामी द्वारा दंडित किया गया। येसु के कई दृष्टांतों में हम पा सकते हैं कि वे हमें उत्पादक और फलदायी बनने की माँग करते हैं। उत्पादकता और फलदायकता अच्छे जीवन और विकास के संकेत हैं। प्रभु हममें अनुग्रह और सद्भाव के बीज बोते हैं। यह हमारा कर्तव्य बनता है कि हम उन बीजों को फलने-फूलने और उत्पादक बनने के लिए सक्षम करें।



REFLECTION



In today’s Gospel we find the parable of the talents. The first servant traded with the talent he received and made ten talents and the second made five talents by trading. Both of them were appreciated and rewarded by the master. But the third servant not only did not multiply the talents, but he also blamed the master saying, “you are a harsh man; you take what you did not deposit, and reap what you did not sow”. This servant was punished by the master for not being productive. In many of the parables of Jesus we can find Jesus demanding us to be productive and fruitful. Productivity and fruitfulness are signs of good life and growth. God sows seeds of graciousness and goodness in us. It is for us to enable those seeds to sprout, flourish and become productive.

 -Br. Biniush topno


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Praise the Lord!