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शुक्रवार, 24 सितम्बर, 2021

 

शुक्रवार, 24 सितम्बर, 2021

वर्ष का पच्चीसवाँ सामान्य सप्ताह

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पहला पाठ : हग्गय का ग्रन्थ 2 :1-9


1) राज दारा के शासनकाल के द्वितीय वर्ष, सातवें महीने के इक्कीसवें दिन नबी हग्गय को प्रभु की यह वाणी सुनाई पड़ीः

2) "शअलतीएल के पुत्र, यूदा के राज्यपाल ज़रुबबाबेल से, योसादाक के पुत्र प्रधानयाजक योशुआ और राष्ट्र के शेष लोगों से यह कहो-

3) क्या तुम लोगों में कोई ऐसा व्यक्ति जीवित है, जिसने इस मन्दिर की पूर्व महिमा देखी है? और अब तुम क्या देख रहे हो? क्या तुम्हें ऐसा नहीं लगता कि कुछ भी नहीं बचा है?

4) फिर भी, ज़रुबबाबेल! धीरज रखो! यह प्रभु की वाणी है। योसादाक के पुत्र, प्रधानयाजक योशुआ! धीरज रखो! समस्त देश के निवासियों! धीरज रखो! यह प्रभु की वाणी है।

5) निर्माण-कार्य प्रारंभ करो। मैं तुम लोगों के साथ हूँ। यह विश्वमण्डल के प्रभु की वाणी है। जब तुम मिस्र से निकल रहे थे, उस समय मैंने तुम से जो प्रतिज्ञा की है, मैं उसे पूरा करूँगा। मेरा आत्मा तुम्हारे बीच निवास करेगा। मत डरो!

6) क्योंकि विश्वमण्डल का प्रभु यह कहता है, "मैं थोड़े समय बाद आकाश और पृथ्वी को, जल और थल को हिलाऊँगा,

7) मैं सभी राष्ट्रों को हिला दूँग। तब सब राष्ट्रों की सम्पत्ति यहाँ आयेगी और मैं इस मन्दिर को वैभव से भर दूँगा - विश्वमण्डल का प्रभु यह कहता है।

8) चाँदी मेरी है और सोना मेरा है- यह विश्वमण्डल के प्रभु की वाणी है।

9) इस पिछले मन्दिर का वैभव पहले से बढ़ कर होगा- विश्वमण्डल का प्रभु यह कहता है। और मैं इस स्थान पर शान्ति प्रदान करूँगा- यह विश्वमण्डल के प्रभु की वाणी है।"



सुसमाचार : सन्त लूकस 9:18-22


18) ईसा किसी दिन एकान्त में प्रार्थना कर रहे थे और उनके शिष्य उनके साथ थे। ईसा ने उन से पूछा, "मैं कौन हूँ, इस विषय में लोग क्या कहते हैं?"

19) उन्होंने उत्तर दिया, "योहन बपतिस्ता; कुछ लोग कहतें-एलियस; और कुछ लोग कहते हैं-प्राचीन नबियों में से कोई पुनर्जीवित हो गया है"।

20) ईसा ने उन से कहा, "और तुम क्या कहते हो कि मैं कौन हूँ?" पेत्रुस ने उत्तर दिया, "ईश्वर के मसीह"।

21) उन्होंने अपने शिष्यों को कड़ी चेतावनी दी कि वे यह बात किसी को भी नहीं बतायें।

22) उन्होंने अपने शिष्यों से कहा, "मानव पुत्र को बहुत दुःख उठाना होगा; नेताओं, महायाजकों और शास्त्रियों द्वारा ठुकराया जाना, मार डाला जाना और तीसरे दिन जी उठना होगा"।



मनन-चिंतन



‘‘और तुम क्या कहते हो कि मैं कौन हूॅं?’’ यह प्रश्न येसु ने पेत्रुस से पूछा और इस प्रश्न पर हमने कई बार मनन चिंतन किया होगा। यह प्रश्न हम सब के लिए व्यक्तिगत रूप से सवाल करता है कि आखिर येसु ‘मेरे’ लिए कौन है? इस प्रश्न का हम ख्रीस्तीयों का जवाब यहीं होगा कि येसु प्रभु है, जिसकों कभी हम दोस्त के रूप में, सहायक के रूप में या एक मुक्तिदाता के रूप में या किसी अन्य रूप में जानते है। मान लिजिए यदि हम किसी अन्य धर्म में पैदा होते और हम येसु के बारे में दूसरों से सुनते तब हमारा जवाब क्या यही होता कि येसु ही प्रभु है। आइये हम दूसरों के कहने से नहीं परंतु अपने अंर्ततम से विश्वास करें कि येसु ही प्रभु है।




📚 REFLECTION



“But who do you say that I am?” This is the question Peter was asked by Jesus and we too might have reflected on this many times. This question asks us personally that who is Jesus for ‘me’. The answer to this question for us Christians will be Jesus is the God whom we know as a friend, a helper, a Saviour or any other. Imagine if we would have born in some other religion and we would have heard about Jesus from others then whether our answer would have been same that Jesus is the Lord. Let’s believe not by the sayings of others but by our own conviction that Jesus is the Lord.



मनन-चिंतन - 2


प्रभु येसु यह जानना चाहते थे कि तीन साल उनके साथ रहने, उनकी शिक्षा सुनने तथा उनके कार्य देखने के बाद शिष्यों का उनके बारे में क्या विचार था। पेत्रुस ने सभी शिष्यों की ओर से कहा कि आप ईश्वर के मसीह हैं। उस समय के लोग यह सोच रहे थे कि योहन बपतिस्ता, एलियस या पुराने नबियों में कोई येसु के रूप में वापस आया है। उस सोच से हट कर जब शिष्यों ने उनको मसीह के रूप में देखा, तब प्रभु को पता था कि यह पिता ईश्वर ने ही उन पर प्रकट किया है। उस सच्चाई का एक और महत्वपूर्ण पहलू था जिसका ज्ञान शिष्यों के लिए जरूरी था। वह था दुख-भोग का पहलू। मसीह को दुख भोगना, मार डाला जाना तथा तीसरे दिन जी उठना होगा। वे शायद एक विजेता मसीह की ही कल्पना कर पा रहे थे। लेकिन दुख-भोग मसीह के जीवन का अभिन्न अंग था। हम येसु को क्रूस से अलग नहीं कर सकते हैं। हम क्रूसित प्रभु को ही मानते हैं और उन्हीं की हम घोषणा करते हैं।



Jesus wanted to know what the disciples had thought about him after having stayed with him, listened to him and seen his works. Peter, on behalf of the disciples, told him that he was the Christ. The people of that time thought John the Baptist, or Elijah or one of the prophets had come back to life in the person of Jesus. Differing from them when Peter proclaimed him as the Christ of God Jesus understood that the Father had revealed this to them. Yet he wanted them to grasp an important aspect of his messiahship – that of suffering. So he told them that the messiah is to suffer, to die and rise again on the third day. The disciples could think only of a triumphant messiah. But suffering was an indispensable aspect of the life of the messiah. We cannot separate Jesus from the Cross. We believe and proclaim the crucified Lord.


 -Br Biniush Topno


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Praise the Lord!