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20 मार्च 2022, इतवार चालीसे का तीसरा इतवार


20 मार्च 2022, इतवार

चालीसे का तीसरा इतवार



पहला पाठ : निर्गमन 3:1-8,13-15


1) मूसा अपने ससुर, मिदयान के याजक, यित्रों की भेडें चराया करता था। वह उन्हें बहुत दूर तक उजाड़ प्रदेश में ले जा कर ईश्वर के पर्वत होरेब के पास पहुँचा।

2) वहाँ उसे झाड़ी के बीच में से निकलती हुई आग की लपट के रूप में प्रभु का दूत दिखाई दिया। उसने देखा कि झाड़ी में तो आग लगी है, किन्तु वह भस्म नहीं हो रही है।

3) मूसा ने मन में कहा कि यह अनोखी बात निकट से देखने जाऊँगा और यह पता लगाऊँगा कि झाड़ी भस्म क्यों नहीं हो रही है।

4) निरीक्षण करने के लिए उसे निकट आते देख कर ईश्वर ने झाड़ी के बीच में से पुकार कर उससे कहा, ''मूसा! मूसा!'' उसने उत्तर दिया, ''प्रस्तुत हूँ।''

5) ईश्वर ने कहा, ''पास मत आओ। पैरों से जूते उतार दो, क्योंकि तुम जहाँ खड़े हो, वह पवित्र भूमि है।''

6) ईश्वर ने फिर उस से कहा, ''मैं तुम्हारे पिता का ईश्वर हूँ, इब्राहीम, इसहाक तथा याकूब का ईश्वर।'' इस पर मूसा ने अपना मुख ढक लिया; कहीं ऐसा न हो कि वह ईश्वर को देख ले।

7) प्रभु ने कहा, ''मैंने मिस्र में रहने वाली अपनी प्रजा की दयनीय दशा देखी और अत्याचारियों से मुक्ति के लिए उसकी पुकार सुनी है। मैं उसका दुःख अच्छी तरह जानता हूँ।

8) मैं उसे मिस्रियों के हाथ से छुड़ा कर और इस देश से निकाल कर, एक समृद्ध तथा विशाल देश ले जाऊँगा, जहॉँ दूध तथा मधु की नदियाँ बहती हैं, जहाँ कनानी, हित्ती, अमोरी, परिज्जी, हिव्वी और यबूसी बसते हैं।

13) मूसा ने झाड़ी में से प्रभु की वाणी सुन कर उस से कहा, ''जब मैं इस्राएलियों के पास पहुँच कर उन से यह कहॅूँगा - तुम्हारें पूर्वजों के ईश्वर ने मुझे तुम्हारे पास भेजा है, और वे मुझ से पूछेंगे कि उसका नाम क्या है, तो मैं उन्हें क्या उत्तर दूँगा?''

14) ईश्वर ने मूसा से कहा, ''मेरा नाम सत् है। उसने फिर कहा, ''तुम इस्राएलियों को यह उत्तर दोगे जिसका नाम "सत्" है, उसी ने मुझे भेजा है।''

15) इसके बाद ईश्वर मूसा से कहा, ''तुम इस्राएलियों से यह कहोगे - प्रभु तुम्हारे पूर्वजों के ईश्वर, इब्राहीम, इसहाक तथा याकूब के ईश्वर ने मुझे तुम लोगों के पास भेजा है। यह सदा के लिए मेरा नाम रहेगा और यही नाम ले कर सब पीढ़ियॉँ मुझ से प्रार्थना करेंगी।



दूसरा पाठ : 1 कुरिन्थियों 10:1-6,10-12



1) भाइयो! मैं आप लोगों को याद दिलाना चाहता हूँ कि हमारे सभी बाप-दादे बादल की छाया में चले, सबों ने समुद्र पार किया,

2) और इस प्रकार बादल और समुद्र का बपतिस्मा ग्रहण कर सब-के-सब मूसा के सहभागी बने।

3) सबों ने एक ही आध्यात्मिक भोजन ग्रहण किया

4) और एक ही आध्यामिक पेय का पान किया; क्योंकि वे एक आध्यात्मिक चट्टान का जल पीते थे, जो उनके साथ-साथ चलती थी और वह चट्टान थी - मसीह।

5) फिर भी उन में अधिकांश लोग ईश्वर के कृपा पात्र नहीं बन सके और मरुभूमि में ढेर हो गये।

6) ये घटनाएँ हम को यह शिक्षा देती हैं कि हमें उनके समान बुरी चीजों का लालच नहीं करना चाहिए।

10) आप लोग नहीं भुनभुनायें, जैसा कि उन में कुछ भुनभुनाये और विनाशक दूत ने उन्हें नष्ट कर दिया।

11) यह सब दृष्टान्त के रूप में उन पर बीता और हमें चेतावनी देने के लिए लिखा गया है, जो युग के अन्त में विद्यमान है।

12) इसलिए जो यह समझता है कि मैं दृढ़ हूँ, वह सावधान रहे। कहीं ऐसा न हो कि वह विचलित हो जाये।



सुसमाचार : सन्त लूकस का सुसमाचार 13:1-9



1) उस समय कुछ लोग ईसा को उन गलीलियों के विषय में बताने आये, जिनका रक्त पिलातुस ने उनके बलि-पशुओं के रक्त में मिला दिया था।

2) ईसा ने उन से कहा, "क्या तुम समझते हो कि ये गलीली अन्य सब गलीलियों से अधिक पापी थे, क्योंकि उन पर ही ऐसी विपत्ति पड़ी?

3) मैं तुम से कहता हूँ, ऐसा नहीं है; लेकिन यदि तुम पश्चात्ताप नहीं करोगे, तो सब-के-सब उसी तरह नष्ट हो जाओगे।

4) अथवा क्या तुम समझते हो कि सिल़ोआम की मीनार के गिरने से जो अठारह व्यक्ति दब कऱ मर गये, वे येरुसालेम के सब निवासियों से अधिक अपराधी थे?

5) मैं तुम से कहता हूँ, ऐसा नहीं है; लेकिन यदि तुम पश्चात्ताप नहीं करोगे, तो सब-के-सब उसी तरह नष्ट हो जाओगे।"

6) तब ईसा ने यह दृष्टान्त सुनाया, "किसी मनुष्य की दाखबारी में एक अंजीर का पेड़ था। वह उस में फल खोजने आया, परन्तु उसे एक भी नहीं मिला।

7) तब उसने दाखबारी के माली से कहा, ’देखो, मैं तीन वर्षों से अंजीर के इस पेड़ में फल खोजने आता हूँ, किन्तु मुझे एक भी नहीं मिलता। इसे काट डालो। यह भूमि को क्यों छेंके हुए हैं?’

8) परन्तु माली ने उत्तर दिया, ’मालिक! इस वर्ष भी इसे रहने दीजिए। मैं इसके चारों ओर खोद कर खाद दूँगा।

9) यदि यह अगले वर्ष फल दे, तो अच्छा, नहीं तो इसे काट डालिएगा’।"



📚 मनन-चिंतन


मत्ती 4:17 के अनुसार, येसु ने अपना सार्वजनिक जीवन शुरू करते हुए कहा, “पश्चात्ताप करो। स्वर्ग का राज्य निकट आ गया है”। जब ईश्वर का राज्य निकट है, हमें उसे पश्चाताप के साथ अपनाना होगा। आज के सुसमाचार में येसु पश्चाताप की तात्कालिकता और आवश्यकता पर जोर देते हैं। प्रभु अपनी दया से हमें अपनी क्षमा प्रदान करते हैं। हमें अपने पश्चाताप के द्वारा ईश्वर की क्षमा को प्राप्त करना चाहिए। वे हमें चेतावनी देते हैं कि अगर हम पश्चात्ताप नहीं करेंगे, तो हमारा सर्वनाश होगा। स्कॉटिश इतिहासकार, आलोचक और समाजशास्त्रीय लेखक थॉमस कार्लाइल कहते हैं, "मनुष्य के सभी कृत्यों में पश्चाताप सबसे दिव्य है। सभी दोषों में सबसे बड़ा दोष किसी के प्रति सचेत न रहना है।" येसु हमें चेतावनी देते हैं कि यदि हम पश्चाताप नहीं करते हैं तो हमारा विनाश होना अनिवार्य है। संत योहन क्रिसोस्टॉम कहते हैं, "क्या आपने अपनी आत्मा को बूढ़ा बना दिया है? निराश न हों, हताश न हों, बल्कि पश्चाताप, और आँसू, और पाप-स्वीकार, और अच्छे कामों के द्वारा अपनी आत्मा को नवीनीकृत करें। और ऐसा करना कभी न छोड़ें।" वे यह भी कहते हैं, "पश्चाताप की बात करना पाप को नज़रअंदाज़ करना पसंद करने वाली आज की दुनिया में फैशन नहीं है, फिर भी हम जो मसीह के हैं, इस बात की गवाही दे सकते हैं कि पश्चाताप - क्षमा और स्वतंत्रता का मार्ग है। यह वह कुंजी है जो ईश्वर की दया को खोल देती है! पश्चात्ताप करने का आह्वान हमेशा पहले स्वयं को संबोधित किया जाता है, क्योंकि हम सभी लोगों को लगातार गहरे परिवर्तन की आवश्यकता होती है।”



📚 REFLECTION



According to Mt 4:17, Jesus began his public ministry preaching, “Repent, for the kingdom of heaven has come near”. While the kingdom of God is near, one has to approach it with repentance. In today’s Gospel, Jesus emphasizes the urgency and necessity of repentance. God in his mercy offers his forgiveness to us. We need to receive this forgiveness by our repentance. He warns, “unless you repent, you will all likewise perish”. The Scottish historian, critic, and sociological writer Thomas Carlyle says, “Of all acts of man repentance is the most divine. The greatest of all faults is to be conscious of none.” Jesus warns us that if we do not repent what awaits us is destruction. St. John Chrysostom says, “Have you made your soul old? Do not despair, do not despond, but renew your soul by repentance, and tears, and Confession, and by doing good things. And never cease doing this.” He also says, “To speak of repentance is not fashionable today in a world that prefers to ignore sin, yet we who belong to Christ can testify that repentance is the way to forgiveness and freedom. It is the key that unlocks the mercy of God! The call to repentance is always addressed to ourselves first, since all of us are continually in need of deeper conversion.”



मनन-चिंतन -2


ईश्वर की इच्छा किसी को भी नष्ट करने की नहीं है। वे सभी से प्रेम करते हैं तथा उन्हें बचाना चाहते हैं क्योंकि सबकुछ का सृष्टिकर्ता ईश्वर ही है। किन्तु यदि मनुष्य अपने पाप के मार्ग पर हठी बन जाता है और अपने जीवन को ईश्वर के इच्छानुसार नहीं सुधार पाता है तो उसका विनाश निश्चित हो जाता है। किन्तु उसके अंत से पहले ईश्वर सभी को सुधरने या सकारात्मक बदलाव लाने का अवसर देते हैं।

आज के सुसमाचार में ईसा विभिन्न घटनाओं द्वारा ईश्वर की चेतावनी तथा बचने के अवसरों को बताते हैं। पिलातुस ने कुछ गलीलियों का रक्त बलि-पशुओं के रक्त के साथ मिला दिया था। इस घटना ने यहूदियों को हिला दिया था। यहूदियों में यह धारणा थी कि यदि किसी के जीवन में कुछ बीमारी, असमय या आकस्मिक मृत्यु, विपत्ति आती थी तो इसका कारण उसके या उसके पूर्वजों के पाप रहे होंगे। यहूदियों की सोच की इस पृष्ठभूमि को समझ कर प्रभु उनसे पूछते हैं, “क्या तुम समझते हो कि ये गलीली अन्य सब गलीलियों से अधिक पापी थे, क्योंकि उन पर ही ऐसी विपत्ति पड़ी? मैं तुम से कहता हूँ, ऐसा नहीं है लेकिन यदि तुम पश्चात्ताप नहीं करोगे, तो सब-के-सब उसी तरह नष्ट हो जाओगे।” इसका तात्पर्य है उन मरे गलीलियों से अधिक पापी लोग भी वहाँ जीवित थे जिन्हें ईश्वर बदलने का अवसर प्रदान करते हैं। अपने इसी सिद्धांत को अधिक स्पष्ट करते हुये येसु आगे सिलोआम की मीनार गिरने की दुर्घटना जिसमें दबकर अठारह व्यक्ति मर गये थे का जिक्र करते हुये भी इसी सच्चाई को दोहराते हैं कि जो मर गये वे अधिक पापी नहीं थे और जो जीवित हैं वे अधिक नेक लोग नहीं है। जीवितों को पश्चाताप का मार्ग अपनाते हुये जीवन बदलना चाहिए अन्यथा उनका अंत भी बुरा होगा। हरेक व्यक्ति अपने जीवन के प्रति उत्तरदायी है तथा उसके कर्मों का परिणाम उसे भी भुगतना पडेगा। संत पौलुस हमें समझाते हैं – “हम सबों को मसीह के न्यायासन के सामने पेश किया जायेगा। प्रत्येक व्यक्ति ने शरीर में रहते समय जो कुछ किया है, चाहे वह भलाई हो या बुराई, उसे उसका बदला चुकाया जायेगा।” (2 कुरिन्थियों 5:10)

कई बार हम भ्रष्ट, अन्यायी, कुकर्मी व्यक्तियों को फलते-फूलते देखते हैं तो सोचते हैं जो वे कर रहे हैं उसका परिणाम उन्हें भुगतना नहीं पडेगा। उनके फलते-फूलते दिन वास्तव में ईश्वर द्वारा प्रदान वह अवधि है जिसमें वे चाहे तो अपने कुकर्मों को त्याग कर सच्चाई का मार्ग अपना सकते हैं। यदि वे ऐसा नहीं करते तो अचानक ही विपति एवं मृत्यु का दिन उन पर आ पडता है और वे नष्ट हो जाते हैं।

कई बार हम दूसरों के जीवन की विपत्ति को देखकर सोचते हैं कि वे अपने कर्मों का फल भोग रहे हैं। यह शायद सच भी हो लेकिन इसी दौरान हमें भी अपने जीवन का अवलोकन करना चाहिये तथा दूसरों की विपत्ति से सीख लेकर अपने जीवन की बुराईयों को हटाना चाहिये।

फलहीन अंजीर को काटने के आदेश पर माली कहता है, “मालिक! इस वर्ष भी इसे रहने दीजिए। मैं इसके चारों ओर खोद कर खाद दूँगा। यदि यह अगले वर्ष फल दे, तो अच्छा, नहीं तो इसे काट डालिएगा’।” माली की इस प्रकार अंजीर के पेड को बचाने की गुहार वास्तव में ईश्वर की सोच है, हर उस व्यक्ति के लिए है जो अपने जीवन को व्यर्थ ही जी रहा है।

यदि हम भी अपने फलहीन जीवन में फल उत्पन्न करना चाहते हैं तो माली के समान हमें भी जीवन को उपजाऊ बनाने के लिये विभिन्न प्रयत्न करने चाहिये। फलदायी बनने के लिए येसु के कहते हैं, “मैं दाखलता हूँ और तुम डालियाँ हो। जो मुझ में रहता है और मैं जिसमें रहता हूँ वही फलता है क्योंकि मुझ से अलग रहकर तुम कुछ भी नहीं कर सकते।” (योहन 15:5) येसु के साथ एक हो जाने से तात्पर्य है हमें येसु की शिक्षाओं से एकमत होकर उनके अनुसार जीवन जीना चाहिये। जो व्यक्ति अपने जीवन को ईश्वचन के अनुसार ढालता है वह अधिक फलताफूलता है। प्रभु स्वयं यह वादा करते हैं – “यदि तुम मुझ में रहो और तुम में मेरी शिक्षा बनी रहती है तो चाहे जो माँगो, वह तुम्हें दिया जायेगा।” आइये हम भी अपने जीवन को फलदायी बनाये तथा येसु की शिक्षा को अपनाये।


 -Br. Biniush Topno


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Praise the Lord!