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सोमवार, 29 नवंबर, 2021

 

सोमवार, 29 नवंबर, 2021

आगमन का पहला सप्ताह

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📒 पहला पाठ: इसायाह का ग्रन्थ 2:1-5


1) येरुसालेम तथा यूदा के विषय में आमोस के पुत्र इसायाह का देखा हुआ दिव्य दृश्य।

2) अन्तिम दिनों में - ईश्वर के मन्दिर का पर्वत पहाड़ों से ऊपर उठेगा और पहाड़ियों से ऊँचा होगा। सभी राष्ट्र वहाँ इकट्ठे होंगे;

3) असंख्य लोग यह कहते हुए वहाँ जायेंगे, “आओ! हम प्रभु के पर्वत पर चढ़ें, याकूब के ईश्वर के मन्दिर चलें, जिससे वह हमें अपने मार्ग दिखाये और हम उसके पथ पर चलते रहें“; क्योंकि सियोन से सन्मार्ग की शिक्षा प्रकट होगी और येरुसालेम से प्रभु की वाणी।

4) वह राष्ट्रों के बीच न्याय करेगा और देशों के आपसी झगड़े मिटायेगा। वे अपनी तलवार को पीट-पीट कर फाल और अपने भाले को हँसिया बनायेंगे। राष्ट्र एक दूसरे पर तलवार नहीं चालायेंगे और युद्ध-विद्या की शिक्षा समाप्त हो जायेगी।

5) याकूब के वंश! आओ, हम प्रभु की ज्योति में चलते रहें।



📒 सुसमाचार : सन्त मत्ती 8:5-11



5) ईसा कफरनाहूम में प्रवेश कर ही रहे थे कि एक शतपति उनके पास आया और उसने उन से यह निवेदन किया,

6) ’’प्रभु! मेरा नौकर घर में पड़ा हुआ है। उसे लक़वा हो गया है और वह घोर पीड़ा सह रहा है।’’

7) ईसा ने उस से कहा, ’’मैं आ कर उसे चंगा कर दूँगा’’।

8) शतपति नें उत्तर दिया, ’’प्रभु! मैं इस योग्य नहीं हूँ कि आप मेरे यहाँ आयें। आप एक ही शब्द कह दीजिए और मेरा नौकर चंगा हो जायेगा।

9) मैं एक छोटा-सा अधिकारी हूँ। मेरे अधीन सिपाही रहते हैं। जब मैं एक से कहता हूँ- ’जाओ’, तो वह जाता है और दूसरे से- ’आओ’, तो वह आता है और अपने नौकर से-’यह करो’, तो वह यह करता है।’’

10) ईसा यह सुन कर चकित हो गये और उन्होंने अपने पीछे आने वालों से कहा, ’’मैं तुम लोगों से यह कहता हूँ-इस्राएल में भी मैंने किसी में इतना दृढ़ विश्वास नहीं पाया’’।

11) ’’मैं तुम से कहता हूँ- बहुत से लोग पूर्व और पश्चिम से आ कर इब्राहीम, इसहाक और याकूब के साथ स्वर्गराज्य के भोज में सम्मिलित होंगे,



📚 मनन-चिंतन



आज के सुसमाचार में शतपति हमारे अनुसरण के लिए एक अच्छा उदाहरण प्रस्तुत करता है। यह शतपति के आध्यात्मिक यात्रा की प्रक्रिया को दर्शाता है।

विश्वासः वृत्तांत की शुरुआत शतपति का येसु में भरोसा और विश्वास के साथ होती है। वह येसु के चंगााई-शक्ति में दृढ़ता से विश्वास करता था। इसलिए वह येसु से अपने सेवक की चंगाई के लिए अनुरोध करने आता है। हमें भी इस बात की बहुत चिंता होती है कि क्या ईश्वर हमारी प्रार्थना सुनेगा और हमारे अनुरोध को पूरा करेगा। इसके साथ ही हम ईश्वर की शक्ति और उसके प्रेम और प्रावधान पर भरोसा करने में भी असफल होते हैं। एक गैरइस्राएली होने के बावजूद भी शतपति को येसु में विश्वास था। विश्वास बढ़ाने की हमारी इच्छा केवल हमारी मौखिक प्रार्थनाओं तक समाप्त नहीं होनी चाहिए, बल्कि हमें कार्य करने के लिए प्रेरित करना चाहिए। हमें अपना सर्वश्रेष्ठ प्रयास करना चाहिए और बाकी सब चीज़ ईश्वर के हाथों में छोड़ देना चाहिए।

नौकर के लिए सम्मान और गरीमाः आम तौर पर नौकरों को मालिक की संपत्ति माना जाता था। वह नौकर के साथ जो चाहे कर सकता था। उससे सवाल करने वाला कोई नहीं था। लेकिन फिर भी शतपति ने अपने सेवक के लिए अपनी चिंता और परवाह दिखाई। शतपति के मन में अपने सेवक के प्रति बहुत सम्मान था। वह नहीं चाहता था कि उसका नौकर कष्ट भुगतेे। शतपति हमें सिखाता है कि अपने साथियों की भले ही समाज में उनकी स्थिति कुछ भी हो, उनकी देखभाल और चिंता कैसे की जाए।

येसु के अधिकार को स्वीकारनाः शतपति कोई साधारण सैनिक नहीं था। वह एक अधिकारी था। अधिकार की शक्ति होने के कारण वह येसु को अपने घर पहुँचने और अपने सेवक को चंगा करने का आदेश दे सकता था। लेकिन उसने कृपापूर्वक उस अधिकार और विशेष रूप से उस चंगाई-शक्ति को स्वीकार किया जो येसु के पास थी। इसलिए उसने येसु के पास आने और अपने सेवक की चंगाई के लिए प्रार्थना करने का कष्ट उठाया। हमें शतपति से सभी लोगों के वरदानों और प्रतिभाओं का सम्मान करना और उन्हें स्वीकार करना सीखना होगा।

यह शतपति हमारे विश्वास, मानवीय गरिमा के सम्मान और अधिकार को स्वीकार करने जैसे मामलों में हमारी आध्यात्मिक यात्रा में एक मार्गदर्शक बने।




📚 REFLECTION



In today’s gospel centurion presents a good example for us to follow. It shows the process of centurion’s spiritual journey.

Faith: The episode begins with Centurion’s faith and trust in Jesus. He believed strongly in the healing power of Jesus. Therefore he comes to request Jesus for the healing of his servant. We too have lot of worries as to whether God would hear our prayer and grand our request. At the same time we also fail to trust in God’s power and in His love and providence. The centurion in spite of being a gentile had faith in Jesus. Our desire to increase the faith should not end with our vocal prayers alone but should lead us to action. We should do make our best effort and leave everything into the hands of God to do the rest.

Dignity and respect for the servant: Normally the servants were considered as the property of the master. He could do to the servant whatever he wanted. There was no one to question him. But still the centurion showed his concern and care for his servant. The centurion had good respect for his servant. He didn’t want his servant to suffer. The centurion teaches us how to show care and concern for our fellowmen regardless of their standing in our society.

Acceptance of the authority of Jesus: Centurion was not an ordinary soldier. He was an officer. Having power of authority he could order Jesus to reach his house and heal his servant. But he gracefully accepted the authority and especially the healing power that Jesus had. Therefore he took the trouble to come to Jesus and request for the healing of his servant. We need to learn from centurion to respect and accept the gifts and talents of everyone.

May this centurion be a guide in our spiritual journey in the matters of our faith, respect for human dignity and in the acceptance of authority.


 -Br. Biniush topno


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Praise the Lord!