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Catholic Bible readings for today Third Sunday of Advent 13 December 2020

 Daily Mass Readings for Sunday, 13 December 2020

THIRD SUNDAY OF ADVENT

First Reading: Isaiah 61: 1-2a, 10-11

1 The spirit of the Lord is upon me, because the Lord hath anointed me: he hath sent me to preach to the meek, to heal the contrite of heart, and to preach a release to the captives, and deliverance to them that are shut up.

2 To proclaim the acceptable year of the Lord, and the day of vengeance of our God: to comfort all that mourn:

10 I will greatly rejoice in the Lord, and my soul shall be joyful in my God: for he hath clothed me with the garments of salvation: and with the robe of justice he hath covered me, as a bridegroom decked with a crown, and as a bride adorned with her jewels.

11 For as the earth bringeth forth her bud, and as the garden causeth her seed to shoot forth: so shall the Lord God make justice to spring forth, and praise before all the nations.

Responsorial Psalm: Luke 1:46-48, 49-50, 53-54

46 And Mary said: My soul doth magnify the Lord.

47 And my spirit hath rejoiced in God my Saviour.

48 Because he hath regarded the humility of his handmaid; for behold from henceforth all generations shall call me blessed.

49 Because he that is mighty, hath done great things to me; and holy is his name.

50 And his mercy is from generation unto generations, to them that fear him.

53 He hath filled the hungry with good things; and the rich he hath sent empty away.

54 He hath received Israel his servant, being mindful of his mercy:

Second Reading: First Thessalonians 5: 16-24

16 Always rejoice.

17 Pray without ceasing.

18 In all things give thanks; for this is the will of God in Christ Jesus concerning you all.

19 Extinguish not the spirit.

20 Despise not prophecies.

21 But prove all things; hold fast that which is good.

22 From all appearance of evil refrain yourselves.

23 And may the God of peace himself sanctify you in all things; that your whole spirit, and soul, and body, may be preserved blameless in the coming of our Lord Jesus Christ.

24 He is faithful who hath called you, who also will do it.

Gospel: John 1: 6-8, 19-28

6 There was a man sent from God, whose name was John.

7 This man came for a witness, to give testimony of the light, that all men might believe through him.

8 He was not the light, but was to give testimony of the light.

19 And this is the testimony of John, when the Jews sent from Jerusalem priests and Levites to him, to ask him: Who art thou?

20 And he confessed, and did not deny: and he confessed: I am not the Christ.

21 And they asked him: What then? Art thou Elias? And he said: I am not. Art thou the prophet? And he answered: No.

22 They said therefore unto him: Who art thou, that we may give an answer to them that sent us? What sayest thou of thyself?

23 He said: I am the voice of one crying out in the wilderness, make straight the way of the Lord, as said the prophet Isaias.

24 And they that were sent, were of the Pharisees.

25 And they asked him, and said to him: Why then dost thou baptize, if thou be not Christ, nor Elias, nor the prophet?

26 John answered them, saying: I baptize with water; but there hath stood one in the midst of you, whom you know not.

27 The same is he that shall come after me, who is preferred before me: the latchet of whose shoe I am not worthy to loose.

28 These things were done in Bethania, beyond the Jordan, where John was baptizing.

✍️-Biniush Topno

http://www.atpresentofficial.blogspot.com

Praise the lord

आज का पवित्र वचन 13 दिसंबर 2020 आगमन का तीसरा रविवार

13 दिसंबर 2020

आगमन का तीसरा रविवार


📒 पहला पाठ: इसायाह का ग्रन्थ 61:1-2a.10-11

1) प्रभु का आत्मा मुझ पर छाया रहता है, क्योंकि उसने मेरा अभिशेक किया है। उसने मुझे भेजा है कि मैं दरिद्रों को सुसमाचार सुनाऊँ, दुःखियों को ढारस बँधाऊँ; बन्दियों को छुटकारे का और कैदियों को मुक्ति का सन्देश सुनाऊँ;


2) प्रभु के अनुग्रह का वर्ष घोषित करूँ;


10) मैं प्रभु में प्रफुल्लित हो उठता हूँ, मेरा मन अपने ईश्वर में आनन्द मनाता है। जिस प्रकार वह याजक की तरह मौर बाँध कर और वधू आभूषण पहन कर सुशोभित होते हैं, उसी प्रकार प्रभु ने मुझे मुक्ति के वस्त्र पहनाये और मुझे धार्मिकता की चादर ओढ़ा दी है।


11) जिस प्रकार पृथ्वी अपनी फ़सल उगाती है और बाग़ बीजों को अंकुरित करता है, उसी प्रकार प्रभु-ईश्वर सभी राष्ट्रों में धार्मिकता और भक्ति उत्पन्न करेगा।


📕 दूसरा पाठ : थेसलनीकियों के नाम सन्त पौलुस का पहला पत्र 5:16-24

16) आप लोग हर समय प्रसन्न रहें,


17) निरन्तर प्रार्थना करते रहें,


18) सब बातों के लिए ईश्वर को धन्यवाद दें; क्योंकि ईसा मसीह के अनुसार आप लोगों के विषय में ईश्वर की इच्छा यही है।


19) आत्मा की प्रेरणा का दमन नहीं करें


20) और भविष्यवाणी के वरदान की उपेक्षा नहीं करें;


21) बल्कि सब कुछ परखें और जो अच्छा हो, उसे स्वीकार करें।


22) हर प्रकार की बुराई से बचते रहें।


23) शान्ति का ईश्वर आप लोगों को पूर्ण रूप से पवित्र करे। आप लोगों का मन, आत्मा तथा शरीर हमारे प्रभु ईसा मसीह के दिन निर्दोष पाये जायें।


24) ईश्वर यह सब करायेगा, क्योंकि उसने आप लोगों को बुलाया और वह सत्यप्रतिज्ञ है।


📙 सुसमाचार : सन्त योहन 1:6-8.19-28

6) ईश्वर को भेजा हुआ योहन नामक मनुष्य प्रकट हुआ।


7) वह साक्षी के रूप में आया, जिससे वह ज्योति के विषय में साक्ष्य दे और सब लोग उसके द्वारा विश्वास करें।


8) वह स्वयं ज्यांति नहीं था; उसे ज्योति के विषय में साक्ष्य देना था।


19) जब यहूदियों ने येरुसालेम से याजकों और लेवियों को योहन के पास यह पूछने भेजा कि आप कोन हैं,


20) तो उसने यह साक्ष्य दिया- उसने स्पष्ट शब्दों में यह स्वीकार किया कि मैं मसीह नहीं हूँ।


21) उन्होंने उस से पूछा, ‘‘तो क्या? क्या आप एलियस हैं?’’ उसने कहा, ‘‘में एलियस नहीं हूँ’’। ‘‘क्या आप वह नबी हैं?’’ उसने उत्तर दिया, ‘‘नहीं’’।


22) तब उन्होंने उस से कहा, ‘‘तो आप कौन हैं? जिन्होंने हमें भेजा, हम उन्हें कौनसा उत्तर दें? आप अपने विषय में क्या कहते हैं?’’


23) उसने उत्तर दिया, ‘‘मैं हूँ- जैसा कि नबी इसायस ने कहा हैं- निर्जन प्रदेश में पुकारने वाले की आवाज़ः प्रभु का मार्ग सीधा करो’’।


24) जो लोग भेजे गये है, वे फ़रीसी थे।


25) उन्होंने उस से पूछा, ‘‘यदि आप न तो मसीह हैं, न एलियस और न वह नबी, तो बपतिस्मा क्यों देते हैं?’’


26) योहन ने उन्हें उत्तर दिया, ‘‘मैं तो जल में बपतिस्मा देता हूँ। तुम्हारे बीच एक हैं, जिन्हें तुम नहीं पहचानते।


27) वह मेरे बाद आने वाले हैं। मैं उनके जूते का फीता खोलने योग्य भी नहीं हूँ।’’


28) यह सब यर्दन के पास बेथानिया में घटित हुआ, जहाँ योहन बपतिस्मा देता था।


📚 मनन-चिंतन

आज फिर से एक बार सुसमाचार संत योहन बपतिस्ता की भूमिका का वर्णन करता है। उन्हें प्रकाश के साक्षी के रूप में प्रस्तुत किया गया है। उन्होंने इस बात से साफ़ इनकार किया कि वे मसीह या एलिय्याह या नबी थे जिनके लिए इस्राएली लोग इंतज़ार कर रहे थे। तब उन्होंने अपनी पहचान "रेगिस्तान में पुकारने वाली आवाज: प्रभु के लिए मार्ग तैयार करो" उनकी राह सीधी करो।” के रूप में वर्णित की।


मनोवैज्ञानिकों के अनुसार जब कोई अपनी पहचान को सही ढंग से जानने लगता है, तब उसका आत्म-सम्मान बढ़ता है और उसकी चिंता कम होती है। कभी-कभी हम देखते हैं कि लोग दूसरों को प्रभावित करने तथा लोकप्रिय बनने के लिए खुद को गलत तरीके से पेश करते हैं। संत योहन बपतिस्ता एक विनम्र व्यक्ति थे। मसीह के विषय में योहन 3:30 में वे कहते हैं, "यह उचित है कि वे बढ़ते जायें और मैं घटता जाऊँ।"। वे लोगप्रियता नहीं चाहते थे। वे बस इस जीवन में उन्हें सौंपे गए कार्य को पूरा करना चाहते थे और वे उसे पूरा करके वे इस दुनिया से चले गये। इसलिए जब उनके श्रोताओं को लगा कि वे मसीह या एलिय्याह या नबी हैं, तब उन्होंने सीधे और सशक्त रूप से इनकार करते हुए कहा, "मैं नहीं हूँ"। इसके बजाय उन्होंने हमेशा खुद को प्रकाश के साक्षी के रूप में प्रस्तुत किया।


संत योहन बपतिस्ता की एक विशेषता यह है कि उन्होंने अपनी पहचान प्रभु मसीह के संबंध में प्रकट की। एक सच्चा ख्रीस्तीय विश्वासी हमेशा मसीह के संबंध में खुद को पहचानता है।


संत योहन बपतिस्ता खुद को "एक आवाज" कहता है। ऐसा नहीं कि उनकी एक आवाज़ थी, बल्कि यह कि वे ईश्वर की आवाज़ थे। उनका पूरा अस्तित्व लोगों को पश्चाताप करने और हृदय परिवर्तन करने के लिए रेगिस्तान में निमंत्रण देने वाले ईश्वर की आवाज़ है। प्रत्येक ख्रीस्तीय विश्वासी ईश्वर की आवाज़ है क्योंकि प्रत्येक विश्वासी ख्रीस्त को घोषित करने के लिए बुलाया गया है।


📚 REFLECTION

Today once again the role of St. John the Baptist is described in the Gospel passage. He is presented as one who witnessed to the light. He denied that he was the Messiah or Elijah or the Prophet whom the Israelites awaited. Then he described his identity as “A voice of the one that cries in the desert: Prepare a way for the Lord. Make his paths straight.”


According to psychologists knowing one’s identity accurately increases self-esteem and reduces depression and anxiety. Sometimes we find people misrepresenting themselves to impress others and to become popular. St. John the Baptist was a humble man. Regarding Christ, in Jn 3:30 he says, “He must increase, but I must decrease”. He did not want limelight. He just wanted to complete the task entrusted to him in this life and then disappear from the scene. Therefore when his listeners thought he was the Messiah or Elijah or the prophet, he simply and emphatically said, “I am not”. Instead he always presented himself as one witnessing to the light, the light of Christ.


One of the specialties of St. John the Baptist is that he identified himself in relation to Christ. A true Christian always identifies himself/ herself in relation to Christ.


St. John the Baptist calls himself “a voice”. Not that he had a voice, but that he was the voice of God. His whole being is God’s voice in the desert calling people to repentance and conversion of heart. Every Christian is called upon to be the voice of God because every Christian is called to proclaim Christ.


मनन-चिंतन - 2

क्या आप गोलपोस्ट के बिना फुटबॉल खेल का अनुमान कर सकते हैं? कभी नहीं, क्योंकि गोलपोस्ट के बिना फुटबॉल खेलना अर्थहीन है। ठीक इसी प्रकार लक्ष्य हीन जीवन अर्थ शून्य है। दार्शनिक सुकरात (Socrates) ने कहा है कि चिंतन के बिना जीवन अधूरा है।


हमारे सृष्टिकर्ता प्रभु ने हमें सब कुछ दिया है। उन्होंने हमें अपना प्रतिरूप बनाया (उत्पत्ति 1:27), हमें अलग पहचान दी (स्तोत्र 139:14) और हमारे लिए एक अलग योजना भी बनायी है। (यिरमियाह 29:11) इतना ही नहीं, ईश्वर ने हमें सब कुछ पर अधिकार भी दिया हैं। (उत्पत्ति 1:28)


जीवन अनमोल है और अल्पकालिक है। इस बहुमूल्य जीवन को जीने के लिए सब को एक ही अवसर मिलता है। इसलिए हमें हमारी जिंदगी को जी भर के जीना चाहिए।


इस के लिए हमें यह खोजना चाहिए कि इस क्षणभंगुर जीवन को हम कैसे और किन कार्यो के द्रारा सार्थक बनाये। क्योंकि हमें अलग पहचान देने वाले ईश्वर ने हमें एक अलग काम भी जरूर सौंपा है। इस दुनिया को और सुन्दर बनाने में हमारी भी एक अलग भूमिका है। इसलिए हरेक को इस उद्देश्य का ज्ञान होना चाहिए। इसके लिए हमें सृष्टिकर्ता प्रभु के पास जाकर प्रार्थना में समय बिताना होगा। तब हमे मालूम होगा कि हमारे लिए उनकी इच्छा क्या है?


आज के सुसमाचार में हम पढते हैं कि योहन बपतिस्ता से जब पूछा जाता है कि वह कौन है तो उनके पास जवाब देने के लिए एक स्पष्ट उत्तर है। योहन को पता है कि इस दुनिया में उनको करना क्या है। इसलिए वे कहते हैं “मैं हूँ –जैसे कि नबी इसायाह ने कहा है- निर्जन प्रदेश में पुकारने वाले की आवाज : प्रभु का मार्ग सीधा करो।” (योहन 1:23) प्रभु येसु भी हमें इस दुनिया में आने का उद्देश्य साफ-साफ बताते हैं। नबी इसायाह के ग्रन्थ से, जो आज का पहला पाठ है, पढते हुए येसु बताते हैं, “प्रभु का आत्मा मुझ पर छाया रहता है, क्योंकि उसने मेरा अभिषेक किया है। उसने मुझे भेजा है, जिससे मैं दरिद्रों को सुसमाचार सुनाऊॅ, बन्दियों को मुक्ति का और अन्धों को दृष्टिदान का सन्देश दूँ, दलितों को स्वतन्त्र करूँ और प्रभु के अनुग्रह का वर्ष घोषित करूँ।” (लूकस 4:18-19) संत पौलुस कहते हैं कि प्रभु ने उनको गैर-यहूदियों में प्रचार करने का कार्य सौंपा है। (रोमि 11:13) और वे बडी उत्सुकता से उनके लक्ष्य की ओर दौड रहे हैं। (फिलिप्पि 3:14) इस बात का तात्पर्य यह है कि इन सबको यह जानकारी थी कि वे कौन हैं और इस जीवन में उनको क्या करना चाहिए। अब सवाल यह है कि यह जानकारी उनको कैसे प्राप्त हुई? इसे खोजने के लिए उन्होंने क्या किया?


संत योहन बपतिस्ता को यह जानकारी इसलिए प्राप्त हुई कि उन्होंने निर्जन प्रदेश में ईश्वर की संगति में अपना जीवन बिताया। प्रभु येसु ने भी उनके जीवन काल में पिता ईश्वर के साथ गहरा संबन्ध बनाया रखा। इसी प्रकार जितनों ने दुनिया से दूर रह कर प्रार्थना में अपना जीवन बिताया हो उन सबको यह पता चला कि उनके जीवन में ईश्वर की योजना क्या है। ईश्वर का वचन कहता है- “आप इस संसार के अनुकूल न बनें, बल्कि सब कुछ नयी दृष्टि से देखें और अपना स्वभाव बदल लें। इस प्रकार आप जान जायेंगे कि ईश्वर क्या चाहता है और उसकी दृष्टि में क्या भला, सुग्राह्य तथा सर्वोत्तम है।” (रोमियों 12:2) जब हम इस संसार से दूर और प्रभु के पास रहते हैं तो वे हमें समस्त प्रज्ञा तथा आध्यात्मिक अन्तर्दृष्टि प्रदान करते हैं जिस से हम उसकी इच्छा पूर्ण रूप से समझ पाते हैं। (कलोसियों 1:9) संत पेत्रुस विश्वासियों से कहते हैं कि आप लोग जो पहले सान्सारिक लोगों की जीवनचर्या के अनुसार जीवन बिता रहे थे। अब आप लोग येसु को जान गये हैं। इसलिए आप लोगों को शेष जीवन मानवीय वासनाओं के अनुसार नहीं, बल्कि ईश्वर की इच्छानुसार बिताना चाहिए। (1पेत्रुस 4:2-3)


जीवन में ईश्वर की इच्छा जानने के बाद हमें केवल वही कार्य करना चाहिए जिसके लिए प्रभु ने हमें बुलाया है। इसके अलावा हमें जीवन में केवल वही रिश्ते और चीजें रखनी चाहिये जो प्रभु के कार्य करने के लिए मददगार हो। संत पौलुस कहते है- “मैं जिन बातों को लाभ समझता था, उन्हें मसीह के कारण हानि समझने लगा हॅू। इतना ही नहीं, मैं प्रभु ईसा मसीह को जानना सर्वश्रेष्ठ लाभ मानता हॅू और इस ज्ञान की तुलना में हर वस्तु को हानि ही मानता हॅू। उन्हीं के लिए मैं ने सब कुछ छोड दिया है और उसे कूडा समझता हॅू, जिससे मैं मसीह को प्राप्त करूँ और उनके साथ पूर्ण रूप से एक हो जाऊॅ।” (फिलिप्पियों 3:7-9)


संसार की मोहमाया को त्याग कर एवं शरीर की वासनाओं को जो आत्मा के विरूध संघर्ष करती है, दमन करते हुए (1पेत्रुस2:11), ईश्वर की इच्छा के अनुसार जीवन बिताने के लिए निरन्तर प्रार्थना करने की आवश्यकता है। प्रार्थना करने से हम ईश्वर की आत्मा से भर जाते हैं और जब वह सत्य का आत्मा आयेगा, वह हमें सब कुछ समझा देगा (योहन 14:26) और पूर्ण सत्य तक ले जायेगा। (योहन 16:13)


धन्य है वह जो इस प्रकार अपना जीवन बिता पा रहे हैं। क्योंकि वे अपना मन आत्मा तथा शरीर प्रभु ईसा मसीह के दिन के लिए निर्दोष रख पायेगे। ईश्वर का वचन कहता है- “संसार में जो शरीर की वासना, ऑखों का लोभ और धन-सम्पत्ति का घमण्ड है, वह सब पिता से नहीं, बल्कि संसार से आता है। संसार और उसकी वासना समाप्त हो रही है; किन्तु जो ईश्वर की इच्छा पूरी करता है, वह युग-युगों तक बना रहता है।” (1योहन 2:16-17)


- Br. Biniush Topno

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