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TWELFTH SUNDAY IN ORDINARY TIME Mass Reading Reflection for 20 June 2021


TWELFTH SUNDAY IN ORDINARY TIME

First Reading: Job 38: 1, 8-11
Responsorial Psalm: Psalms 107: 23-24, 25-26, 28-29, 30-31
Second Reading: Second Corinthians 5: 14-17
Alleluia: Luke 7: 16
Gospel: Mark 4: 35-41

Also Read: Mass Reading Reflection for 20 June 2021

Lectionary: 95

First Reading: Job 38: 1, 8-11

1 Then the Lord answered Job out of a whirlwind, and said:

8 Who shut up the sea with doors, when it broke forth as issuing out of the womb:

9 When I made a cloud the garment thereof, and wrapped it in a mist as in swaddling bands?

10 I set my bounds around it, and made it bars and doors:

11 And I said: Hitherto thou shalt come, and shalt go no further, and here thou shalt break thy swelling waves.


Responsorial Psalm: Psalms 107: 23-24, 25-26, 28-29, 30-31



R. (1b) Give thanks to the Lord, his love is everlasting.

or

R. Alleluia.

23 They that go down to the sea in ships, doing business in the great waters:

24 These have seen the works of the Lord, and his wonders in the deep.

R. Give thanks to the Lord, his love is everlasting.

or

R. Alleluia.

25 He said the word, and there arose a storm of wind: and the waves thereof were lifted up.

26 They mount up to the heavens, and they go down to the depths: their soul pined away with evils.

R. Give thanks to the Lord, his love is everlasting.

or

R. Alleluia.

28 And they cried to the Lord in their affliction: and he brought them out of their distresses.

29 And he turned the storm into a breeze: and its waves were still.

R. Give thanks to the Lord, his love is everlasting.

or

R. Alleluia.

30 And they rejoiced because they were still: and he brought them to the haven which they wished for.

31 Let the mercies of the Lord give glory to him, and his wonderful works to the children of men.

R. Give thanks to the Lord, his love is everlasting.

or

R. Alleluia.

Second Reading: Second Corinthians 5: 14-17



14 For the charity of Christ presseth us: judging this, that if one died for all, then all were dead.

15 And Christ died for all; that they also who live, may not now live to themselves, but unto him who died for them, and rose again.

16 Wherefore henceforth, we know no man according to the flesh. And if we have known Christ according to the flesh; but now we know him so no longer.

17 If then any be in Christ a new creature, the old things are passed away, behold all things are made new.

Alleluia: Luke 7: 16

R. Alleluia, alleluia.

16 A great prophet is risen up among us: and, God hath visited his people.

R. Alleluia, alleluia.


Gospel: Mark 4: 35-41


35 And he saith to them that day, when evening was come: Let us pass over to the other side.

36 And sending away the multitude, they take him even as he was in the ship: and there were other ships with him.

37 And there arose a great storm of wind, and the waves beat into the ship, so that the ship was filled.

38 And he was in the hinder part of the ship, sleeping upon a pillow; and they awake him, and say to him: Master, doth it not concern thee that we perish?

39 And rising up, he rebuked the wind, and said to the sea: Peace, be still. And the wind ceased: and there was made a great calm.

40 And he said to them: Why are you fearful? have you not faith yet?

41 And they feared exceedingly: and they said one to another: Who is this (thinkest thou) that both wind and sea obey him?


  ✍️-Br. Biniush Topno

इतवार, 20 जून, 2021 वर्ष का बारहवाँ इतवार

 

इतवार, 20 जून, 2021

वर्ष का बारहवाँ इतवार

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पहला पाठ : योब का ग्रन्थ 38:1,8-11



1) प्रभु ने आँधी में से अय्यूब को इस प्रकार उत्तर दिया:

8) जब समुद्र गर्त में से फूट निकलता था, तो किसने द्वार लगा कर उसे रोका था?

9) मैंने उसे बादल की चादर पहना दी थी और कुहरे के वस्त्रों में लपेट लिया था।

10) मैंने उसकी सीमाओं को निश्चित किया था और द्वार एवं सिटकिनी लगा कर

11) उस से यह कहा था, "तू यहीं तक आ सकेगा, आगे नहीं। तेरी तरंगों का घमण्ड यहीं चूर कर दिया जायेगा"।



दूसरा पाठ : 2 कुरिन्थियों 5:14-17



14) क्योंकि मसीह का प्रेम हमें प्रेरित करता है। हम यह समझ गये हैं, कि जब एक सबों के लिए मर गया, तो सभी मर गये हैं।

15) मसीह सबों के लिए मरे, जिससे जो जीवित है, वे अब से अपने लिए नहीं, बल्कि उनके लिए जीवन बितायें, जो उनके लिए मर गये और जी उठे हैं।

16) इसलिए हम अब से किसी को भी दुनिया की दृष्टि से नहीं देखते। हमने मसीह को पहले दुनिया की दृष्टि से देखा, किन्तु अब हम ऐसा नहीं करते।

17) इसका अर्थ यह है कि यदि कोई मसीह के साथ एक हो गया है, तो वह नयी सृष्टि बन गया है। पुरानी बातें समाप्त हो गयी हैं और सब कुछ नया हो गया है।



सुसमाचार : सन्त मारकुस का सुसमाचार 4:35-41



35) उसी दिन, सन्ध्या हो जाने पर, ईसा ने अपने शिष्यों से कहा, "हम उस पार चलें"।

36) लोगों को विदा करने के बाद शिष्य ईसा को उसी नाव पर ले गये, जिस पर वे बैठे हुए थे। दूसरी नावें भी उनके साथ चलीं।

37) उस समय एकाएक झंझावात उठा। लहरें इतने ज़ोर से नाव से टकरा नहीं थीं कि वह पानी से भरी जा रही थी।

38) ईसा दुम्बाल में तकिया लगाये सो रहे थे। शिष्यों ने उन्हें जगा कर कहा, "गुरुवर! हम डूब रहे हैं! क्या आप को इसकी कोई चिन्ता नहीं?"

39) वे जाग गये और उन्होंने वायु को डाँटा और समुद्र से कहा, "शान्त हो! थम जा!" वायु मन्द हो गयी और पूर्ण शान्ति छा गयी।

40) उन्होंने अपने शिष्यों से कहा, "तुम लोग इस प्रकार क्यों डरते हो ? क्या तुम्हें अब तक विश्वास नहीं हैं?"

41) उन पर भय छा गया और वे आपस में यह कहते रहे, "आखिर यह कौन है? वायु और समुद्र भी इनकी आज्ञा मानते हैं।"



📚 मनन-चिंतन



आज वर्ष का 12वाँ इतवार है। आज सारा विश्व कोरोना महामारी की मार झेल रहा है। सारे विश्व में कोरोना महामारी के कारण लोगों का जीवन उथल-पुथल हो गया है। कई लोग नौकरी गवाँ चुके हैं, तो कई लोग बेघरवार हो गये हैं और सोचने के लिए मजबूर हो गयें हैं कि किसके पास जायें? इस परिस्थिति में भय और चिन्ता के कारण लोग ईश्वर की शक्ति को भी कम आंकने लगे हैं कि क्या ईश्वर उनके लिए कुछ कर सकता है? लोग अपने शक्ति और बल पर अधिक विश्वास करने लगे हैं और ईश्वर की उपस्थिति को नकारने लगे हैं। लोगों का ऐसी परिस्थिति का अनुभव करने लागे हैं कि ईश्वर की आवश्यकता भारी लगती है। लेकिन हमें याद करना है कि जिस ईश्वर ने तूफान और सब कुछ की सृष्टि की है, सब कुछ उसके नियत्रण में है। ईश्वर ही हमारे जीवन के तुफान को शांत कर सकते हैं यदि हमारे पास छोटी विश्वास हो। हम अपने जीवन में कई प्रकार के तूफानों को अनुभव करते है, जैसे बीमारी, असफलता, दुर्घटना, निराशा, आशाहीनता, नौकरी गवाँना इत्यादि। हम सोचने लगते हैं कि क्या ईश्वर हमारे लिए कुछ कर सकता है? लेकिन जब हम ईश्वर के पहचान को अनुभव करते हैं तब हम अपना सर्वस्व उन्हें सौंप सकते हैं।

प्रभु येसु के सार्वजनिक जीवन का उदेश्य अपने शिष्यों एवं लोगों को यह दिखाना था कि ईश्वर कौन हैं? और उन्हें ईश्वर के पास पहुँचाना । इसे हम सुसमाचार में पाते हैं, जब प्रभु येसु पाँच हजार लोगों को पाँच रोटियाँ और दो मछलियों से तृप्त करते हैं, जब वे पानी के ऊपर चलते हैं, जब वे विकलांग को स्वस्थ्य करते हैं, उस स्त्री को स्वतः स्पर्श करने देते हैं, ये सब ईश्वर की उपस्थिति को दिखाता है, और वे उनके बीच एक मनुष्य की तरह चलते है।

आज के पहले पाठ योब के ग्रन्थ में दैवी शक्ति के विषय में अभिव्यक्त किया गया है। सभी इस्राइली पुर्ण रूप से अवगत थे कि केवल ईश्वर ही सृष्टि को नियंत्रित कर सकते हैं। योब का ग्रन्थ इस संसार में कई प्रकार के बुराई की समस्या पर प्रश्न करता है। हम लोग इस संसार में निर्दोष लोगों की पीड़ा को सोचने लगते हैं। क्यों निर्दोष लोगों को दुःख भोगना पड़ता है? योब जो निर्दोष था क्यों अपने ही मित्रों द्वारा तिरस्कृत किया गया? लेकिन फिर भी वह ईश्वर पर भारोसा रखता है और अंत में सभी शक्तियों पर ईश्वर की विजय होती है।

आज के दुसरे पाठ में संत पौलुस धर्मान्तरियों से कहते हैं कि उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि ख्रीस्तीय होने का क्या तात्पार्य है। उन्हें एक नया जीवन दिया गया है जब प्रभु येसु उनके लिए मरे और जी उठे हैं। वे उन्हें आशानविंत करते हैं कि किसी का प्रेम इससे बढ़कर नहीं जो अपना जीवन दुसरों के लिए गंवा दें। प्रभु येसु स्वंय इस प्रेम की चर्चा संत योहन के सुसमाचार में अपने अंतिम वार्तालाप में करते हैं।

आज के सुसमाचार में प्रभु येसु अपने पहचान को क्रमशः प्रदर्शित करते हैं। जब वे कफरनाहुम में (उपदेश) बीमारों को चंगा कर रहे थे, जहाँ भीड़ उनके उपदेश को सुनकर आश्चर्य चकित हो जाते हैं। लेकिन उनके शिष्य हतोसाहित थे वे प्रभु को जगाते हुए कहते हैं ’’प्रभु, क्या आप को हमारी चिंता नहीं। हम लोग डूब रहें है।’’ आइये हम आज प्रभु से प्रार्थना करें कि जब जीवन में तूफान आती है उस समय हम प्रभु का शरण लें सकें।



📚 REFLECTION



Today is the twelfth Sunday of the year. Today the whole world is suffering from corona pandemic; there is a great upheaval in the life of the people because of corona pandemic, people have lost their jobs, and have become homeless and they are compelled to think where to go? In this situation of fear and anxiety, they experience and underestimate God’s power and ask what he can do for us. People began to believe in their power and strength and begin to ignore the presence of God. Often we feel the situation in which we find ourselves in is too big for God. But we must remember that God created the storm and everything in nature. Only God can calm the storms in our lives if we have a little faith. In our lives we can experience many forms of storms like sickness, failure, accident, hopelessness, loss of job etc. We begin to think can God do anything for us? But when we realise the identity of God, then we can entrust him our whole life.

During the public ministry the whole aim of Jesus was to show to his disciples and the people who he was and that he had been sent to bring them to God. We find it in the gospels, when he fed the five thousand with five loaves and two fish, when he walked on the water, when he healed the cripple with a word or permitting the woman simply to touch him, showing himself to be the Lord, and walked in their midst as a man.

The theme of Divine power is manifested in the first reading of today from the book of Job. All the Israelites were fully aware that it is only God who has total control over the elements of the universe. The book of Job raises several questions concerning the problem of evil in the world. Job, the innocent person suffers and is accused of guilty by his own friends; yet he trusts in God and at the end final victory belongs to God.

In today’s second reading Paul urges the converts not to forget what it means to be a Christian. They have been given a new life and called to live for Christ who died and rose from the dead for them. He convinces them, there is no greater love than the love of one who dies for someone else. Jesus himself told of such love in his final discourse as given in gospel of St John.

In today’s gospel passage Jesus leads us through the process by which we come to know his identity and gradually revealed. When he was healing the sick in Capernaum, the crowd was astounded. The disciples were desperate and, they woke him up: “Master, do you not care? We are going down”! Let us pray that when storms come in our life, may we be able to shelter in God’s protection.



 -Br. Biniush Topno


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Praise the Lord!

सुख का खोज फादर पौल vc

सुख का खोज 

ईश्वर अनन्द ज्ञानी और परम भला है यदि यह किसी सृष्ट जीव का निर्माण करता है तो उसका कोई उदेश्य होता है जब उसने हमें विवेकशील और स्वतंत्र प्राणी बनाया तो उसका उदेश्य अपनी महिमा बढ़ाना नहीं था क्योंकि उसकी महिमा तो अनन्त है। असीम भला ईश्वर का एक ही उदेश्य हो सकता है। अपना जीवन और सुख हमें बाँटना चाहिए। इस दृढ़ विश्वास से हम आनन्द मना सकता है कि ईश्वर हम में से प्रत्येक को अपने जीवन और सुख का भागी बनाने के लिए हमारी सृष्टि की है, सभी मनुष्य धन, प्रसिद्धि या अधिकार नहीं चाहते किन्तु सभी सुख के लिए बनाये गये है। हम सुख के लिए बनाये गए है क्योंकि संसार में इतना दुःख होता है। दुःख एक समस्या है। कोई आचार्य इस समस्या का हल यह कह कर करना चाहता है कि संसार का अधिकांश बुराई ईश्वर के क्रोध का परिणाम नहीं किन्तु मनुष्यों के पापों और उनके दुष्टता का फल है। ईश्वर स्वतंत्रता को मानते है किन्तु पूर्ण रूप से आनन्त दायक नहीं क्योंकि बहुत सा दुःख, रोग और प्राकृतिक विपत्तियों से उत्पन्न होती है। मनुष्यों से उत्पन्न दु:ख के संबंध में हम ईश्वर से यह सवाल करते है कि क्यों हमारी जीवन में ऐसे होते है ? ईश्वर जो बुराई होने देते है उस से उच्चतम भलाई निकल सकते है। लेकिन यह पूर्णत: सन्तोष जनक समाधान नहीं। हम बुराई की समस्या के रहस्य के साथ स्थिर मन से और शांति पूर्वक जीने का संकल्प कर के हमें दुःख कष्ट का और अपने चारों और फैली हुई बुराई का सामना उनके यथार्थ रूप में समभाव से करना चाहिए और उदार मन से यहाँ तक आये हुये दुःख और बुराई को कम करने की अभिलाषा रखनी और परिश्रम भी करनी चाहिए। यदि हम विश्वास के साथ ईश्वर की योजना स्वीकार कर ले वह स्पष्ट हो आथ्वा रहस्यमय, तो हम बुराई की समस्या को अच्छा दिल से देख सकेंगे। ईश्वरीय वचन हमें सांत्वना देता है कि विपत्ती के समय तुम्हारा जी घबराये नहीं। ईश्वर से लिपटे रहो, उसे मन त्यागो जिससे अन्त में तुम्हारा कलयाण हो । जो कुछ तुम पर बीतेगा उसे स्वीकार करो तथा दुःख और विपत्ती में धीर बने रहो। (प्रवक्ता 2:2-4) आनन्द और खुशी से जीने केलिए ईश्वर ही हमें शक्ति देता । प्रभु कहता है कि धन्य हो तुम जब लोग मेरे कारण तुम्हारा अपमान करते है तुम पर अत्याचार करते और तरह-तरह के झूठे दोष लगते है। खुश हो और आनन्द मनाओ स्वर्ग में तुम्हें महान पुरस्कार प्राप्त होगा। स्तोत्र ग्रन्थ कार अनुभव करता था कि जो आनन्द तु मुझे प्रदान करता है वह उस आनन्द से गहरा है जो लोगों को अंगूर और गेहूँ की अच्छी फसल से मिलता है। (स्त्रोत्र 4:7) संत योहन के सुसमाचार द्वारा प्रभु हमसे कहते है कि हम ईश वचन पर ध्यान देता तभी हमें आनंद मिलेगा। मैं तुम लोगों से यह इसलिए कहा है कि तुम मेरे आनन्द के भागी बनो और तुम्हारा आनन्द पूर्ण हो । (योहन 15:11)। संत पौलूस और सीलास सुसमाचार की घोषण करके नगर पहूँचा। वहाँ उनको पकड कर खूब पिटवाकर बन्दीग्रह में डलवा दिया। पौलूस और सीलास प्रार्थना करते हुए ईश्वर की स्तुति गा रहे थे। उन लोग सुसमाचार के लिए पिटवाये गये, बन्दी हो गये, वे रोथे नहीं, खुशी से ईश्वर की स्तुति कर रहे थे। ईश्वर उनके मुक्ति के लिए आयें। (प्रेरित चरित 16:25) इस जीवन के दुःख संकट में हम लोग भी ईश्वर से शक्ति पाकर संकट का सामना करना चाहिए।       

                                                                            

                                                                              फादर पौल vc

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क्रूस का शिक्षा फादर येशुदास vc

                                                          


                                                                     क्रूस का शिक्षा                            

सितम्बर 14 तारिख कलीसिया पवित्र कूस का विजयोत्सव मनाती है। यह पर्व काथलिक लोगों के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। क्योंकि यह मानवमुक्ति का यादगारी का दिन है। इस पर्व के पीछे कुछ ऐतिहासिक बातें जुड़ी हुई है। कहा जाता है कि जो कूस, जिस पर येसु अपना जीवन मानव मुक्ति के लिए चढाया, अधिकारियों द्वारा वह छिपा दिया गया था। सन् 326 में पवित्र आत्मा की विशेष प्रेरणा से संत हेलेना की अगुवाई में येसु के कूस को खोजना शुरू किये और यूदस नामक एक यहूदी को जानकारी मिला कि यह कहाँ छिपाया गया और पवित्र कूस पाया गया। उसके बाद सन् 335 में येसु के कब्र एवं कलवारी में सितम्बर 13 और 14 में गिरजाघर बनवाये गये। उसी समय से कलीसिया में यह पर्व मनाया जाता है। लोगों के अंदर एक ऐसा सवाल आता हैं, कि येसु के पुनरूत्थान के बाद क्रूस का क्या महत्व है? इसमें कोई संदेह नही है कि ईसाई की आशा येसु की पुनरूत्थान है। ऐसे है तो कूस का क्या महत्तव है। संत पौलुस हमें बताते है, “जो विनाश के मार्ग पर चलते है, वे कूस की शिक्षा को 'मूर्खता' समझते हैं। किन्तु हम लोगों के लिए, जो मुक्ति के मार्ग पर चलते है, वह ईश्वर का सामर्थ्य हैं” (कुरिन्थि 1:18) जी हाँ, ईसाई लोगों के लिए या येसु के मार्ग पर चलने वालों के लिए कूस की शिक्षा 'मूर्खता' नहीं है बल्कि वह ईश्वर का सामर्थ्य है। इसके लिए कूस की शिक्षा क्या है यह समझना अनिवार्य है। जीवन में होने वाले दुःख-दर्दो को प्यार से बिना भुन-भुनाये उठाना ही कूस की शिक्षा है। लेकिन मनुष्य का मनोभाव यही है कि जीवन की पीड़ाओ से तुरंत बच निकलना चाहते है। जब येसु ने अपने पीड़ासहन के बारे में शिष्यों को समझाने लगे तो पेत्रुस ने पूरे मानव जाति के कष्ट के प्रति मनोभाव इसी शब्दो में प्रकट किया, “ईश्वर ऐसा न करे। प्रभु! यह आप पर कभी नहीं बीतेगी” (संत मत्ती 16:22) तब येसु ने पेत्रुस को समझाते हुए कहा, तुम ईश्वर की बाते नही मनुष्यों की बाते सोचते हो” (संत मत्ती 16:23) येसु हमें समझाते हैं कि कष्टो से भागना मानवीय है बल्कि कष्टों को स्वीकार करना ईश्वरीय स्वभाव है। वही पेत्रुस, जिसके लिए कष्ट की बात समझ में नही आता था, बाद में पवित्र आत्मा से प्रेरित हो कर लिखता है, “ यदि ईश्वर की यही इच्छा है, तो बुराई करने की अपेक्षा भलाई करने के कारण दुःख  भोगना कहीं अच्छा है।”(1 पेत्रुस 3:17) हमारे जीवन के रोग- बिमारियाँ, मानसिक पीड़ाये, दूसरे लोगो से मिलने वाले अत्याचार ये सब का स्त्रोत ईश्वर नहीं बल्कि शैतान है। इसलिए कूस की शिक्षा का अर्थ यह है कि शैतान या संसार से मिलने-वाले कष्टों को ईश्वर की इच्छा के अनुसार स्वीकार करना है। इसलिए संत पेत्रुस लिखते है, “ इसलिए तो आप बुलाये गये हैं, क्योंकि मसीह ने आप लोगों के लिए दुःख भोगा और आप को उदाहरण दिया,                                                                                                                

                                            
                                                                                    फादर येशुदास vc