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20 सितंबर का पवित्र वचन

 

20 सितंबर 2020
वर्ष का पच्चीसवाँ सामान्य सप्ताह, रविवार

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📒 पहला पाठ : इसायाह का ग्रन्थ 55:6-9

6) “जब तक प्रभु मिल सकता है, तब तक उसके पास चली जा। जब तक वह निकट है, तब तक उसकी दुहाई देती रह।

7) पापी अपना मार्ग छोड़ दे और दुष्ट अपने बुरे विचार त्याग दे। वह प्रभु के पास लौट आये और वह उस पर दया करेगा; क्योंकि हमारा ईश्वर दयासागर है।

8) प्रभु यह कहता है- तुम लोगों के विचार मेरे विचार नहीं हैं और मेरे मार्ग तुम लोगों के मार्ग नहीं हैं।

9) जिस तरह आकश पृथ्वी के ऊपर बहुत ऊँचा है, उसी तरह मेरे मार्ग तुम्हारे मार्गों से और मेरे विचार तुम्हारे विचारों से ऊँचे हैं।

दूसरा पाठ : फ़िलिप्पियों के नाम पत्र 1:20c,24,27a

20) मसीह मुझ में महिमान्वित होंगे।

24) किन्तु शरीर में मेरा विद्यमान रहना आप लोगों के लिए अधिक हितकर है।

27) आप लोग एक बात का ध्यान रखें- आपका आचरण मसीह के सुसमाचार के योग्य हो।

📙 सुसमाचार : सन्त मत्ती 20: 1-16a

1) ’’स्वर्ग का राज्य उस भूमिधर के सदृश है, जो अपनी दाखबारी में मज़दूरों को लगाने के लिए बहुत सबेरे घर से निकला।

2) उसने मज़दूरों के साथ एक दीनार का रोज़ाना तय किया और उन्हें अपनी दाखबारी भेजा।

3) लगभग पहले पहर वह बाहर निकला और उसने दूसरों को चैक में बेकार खड़ा देख कर

4) कहा, ’तुम लोग भी मेरी दाखबारी जाओ, मैं तुम्हें उचित मज़दूरी दे दूँगा’ और वे वहाँ गये।

5) लगभग दूसरे और तीसरे पहर भी उसने बाहर निकल कर ऐसा ही किया।

6) वह एक घण्टा दिन रहे फिर बाहर निकला और वहाँ दूसरों को खड़ा देख कर उन से बोला, ’तुम लोग यहाँ दिन भर क्यों बेकार खड़े हो’

7) उन्होंने उत्तर दिया, ’इसलिए कि किसी ने हमें मज़दूरी में नहीं लगाया’ उसने उन से कहा, ’तुम लोग भी मेरी दाखबारी जाओ।

8) ’’सन्ध्या होने पर दाखबारी के मालिक ने अपने कारिन्दों से कहा, ’मज़दूरों को बुलाओ। बाद में आने वालों से ले कर पहले आने वालों तक, सब को मज़दूरी दे दो’।

9) जब वे मज़दूर आये, जो एक घण्टा दिन रहे काम पर लगाये गये थे, तो उन्हें एक एक दीनार मिला।

10) जब पहले मज़दूर आये, तो वे समझ रहे थे कि हमें अधिक मिलेगा; लेकिन उन्हें भी एक-एक दीनार ही मिला।

11) उसे पाकर वे यह कहते हुए भूमिधर के विरुद्ध भुनभुनाते थे,

12) इन पिछले मज़दूरों ने केवल घण्टे भर काम किया। तब भी आपने इन्हें हमारे बराबर बना दिया, जो दिन भर कठोर परिश्रम करते और धूप सहते रहे।’

13) उसने उन में से एक को यह कहते हुए उत्तर दिया, ’भई! मैं तुम्हारे साथ अन्याय नहीं कर रहा हूँ। क्या तुमने मेरे साथ एक दीनार नहीं तय किया था?

14) अपनी मजदूरी लो और जाओ। मैं इस पिछले मजदूर को भी तुम्हारे जितना देना चाहता हूँ।

15) क्या मैं अपनी इच्छा के अनुसार अपनी सम्पत्ति का उपयोग नहीं कर सकता? तुम मेरी उदारता पर क्यों जलते हो?

16) इस प्रकार जो पिछले हैं, अगले हो जायेंगे।’’

📚 मनन-चिंतन

दाखखबारी में मज़दूरों को काम देने वाले मालिक के दृष्टांत में हम देखते हैं कि वह करीबन शाम के समय काम पर लगे लोगों के प्रति उदारता दिखता है और उन्हें भी उन लोगों के बराबर ही मज़दूरी देता है जो सुबह से काम कर रहे थे। इस पर जो पहले आये थे वे इसपर आपत्ति उठाते हैं। उन्हें मालिक की उदारता अन्यायपूर्ण लगती हैं।

यह दृष्टांत मुझे ऊडाऊ पुत्र के दृष्टांत की याद दिलाता है, जहाँ पर पिता अपने छोटे वाले बेटे के प्रति बड़ी दया व उदारता दिखता है। तब बड़े बेटे को इस पर आपत्ति होती है। इन दृष्टांतों में पहले आये मज़दूर और बड़ा बेटा दोनों धर्मी लोगों का प्रतिनिधित्व करते हैं, और बाद में आये मज़दूर तथा छोटा बेटा पापियों का। दोनों ही दृष्टांतो में पापियों के प्रति मालिक या पिताजी बहुत ही उदारता दिखाते हैं। ऐसी उदारता जिसके वे वास्तव में हकदार नहीं हैं। उन्हें जो मिलना चाहिए था उससे अधिक उन्हें दिया जाता है। उड़ाऊ बेटा यह सोचकर वापस जाता है कि उसका पिता उसे एक नौकर की तरह रख लें। और वे मज़दूर शाम तक चौक पर इसलिए नहीं खड़े थे कि कोई उन्हें पूरी मज़दूरी देकर काम पर लगाए। पर उन्हें उनकी उम्मीद से कहीं ज़्यादा ही मिल जाता है।

यहाँ पर हम ईश्वर के राज्य के मापदंड और दुनिया के मापदंड के बीच एक सपष्ट अंतर पाते हैं। दुनिया की धारणा यह है कि केवल धर्मी ही ईश्वर के प्यार के हकदार हैं। पर बाइबिल का ईश्वर यह स्पष्ट करता है कि उनकी रूचि पापियों में अधिक है। वे कहते हैं - "मैं धर्मियों को नहीं, पापियों को पश्चाताप के लिए बुलाने आया हूँ।" (लूकस 5:32)

हम पर इतनी दया और करुणा दिखने वाला ईश्वर हमारी ज़िन्दगी की शाम होने तक हमारे लौटने का इंतज़ार करता है। और हम सब को वही पुरस्कार देने को तैयार है जिसे उन्होंने याकूब, अब्राहम, मूसा, पेत्रुस, पौलुस, और संत फ्राँसिस असीसी आदि को दिया है। हम बिना वक्त जाया करे हमारे प्रभु के पास लौट आएं और उनकी उदारता से मुक्ति का उपहार प्राप्त करें.



📚 REFLECTION

In the parable of the employer who employs the workers in his vineyard, we see that he shows a lot of generosity to the people, who join the work late at evening hours, and they are given wages equal to those who were working since morning. Those who had worked the whole day object to this. They find the boss's generosity unjust.

This parable reminds me of the parable of the prodigal son, where the father shows great kindness and generosity to his younger son. Then the elder son objected to this. In these parables both the first workers and the elder son represent the righteous, and the workers and the younger son represent the sinners. In both instances, the owner or the father is very generous towards sinners. The prodigal son goes back thinking that his father should keep him as a servant and in the similar way the workers were not standing till evening with the expectation of being haired and paid the full wages at that point of time. But they get much more than they expected.

Here we find a clear distinction between the criteria of the kingdom of God and the criteria of the world. The belief of the world is that only the righteous are entitled to the love of God. But the God of the Bible makes it clear that He is more interested in sinners. He says - "I have come to call the sinners to repentance, not the righteous." (Luke 5:32)

The God, who looks upon us with so much compassion and awaits our return till the evening of our life; and is ready to give the same award to us which He have gave to Jacob, Abraham, Moses, Peter, Paul, and Saint, Augustine and Francis Assisi and all the saints etc. We go back to our Lord without delay and get the gift of salvation from His generosity. Amen.


मनन-चिंतन

ईर्ष्या एवं आपसी प्रतिस्पर्धा की भावना ने अनेक मानवीय त्रासदियों को जन्म दिया है। दूसरों को प्राप्त उपहारों एवं वरदानों के कारण मनुष्य ईर्ष्या की भावना से भर जाता है तथा इस दुर्भावना से प्रेरित उसके सोच विचार उसके पतन का कारण बनते हैं। यह मानवीय स्वाभाव हम हमारे आदि माता-पिता की संतानों में भी पाते हैं। जब ईश्वर ने हाबिल का चढावा स्वीकार किया तो काइन ईर्ष्या से भर गया। ’’प्रभु ने हाबिल पर प्रसन्न होकर उसकी भेंट स्वीकार की, किन्तु उसने काइन और उसकी भेंट को अस्वीकार किया। काइन बहुत कुद्ध हुआ और उसका चेहरा उतर गया।’’ (उत्पत्ति 4:4-5) इस दुर्भावना से प्रेरित होकर उसने हाबिल की हत्या कर दी। ईश्वर द्वारा ठुकराया जाना तथा अपने भाई की भेंट सुग्राहय पाये जाने के कारण काइन बहुत उत्तेजित हो जाता है। ईश्वर ने काइन को यह कहकर समझाने की कोशिश की, ’’तुम क्यों क्रोध करते हो और तुम्हारा चेहरा उतरा हुआ क्यों है? जब तुम भला करोगे, तो प्रसन्न होगे। (उत्पत्ति 4:6-7) हालॅाकि ईश्वर द्वारा काइन का चढावा अस्वीकार करने के लिए हाबिल जिम्मेदार नहीं था, फिर भी काइन ने अपने इस अपमान, ईर्ष्या और क्रोध को हाबिल पर उतारा।

आज के सुसमाचार के दृष्टांत में दाखबारी का स्वामी सबको पूर्वनिश्चित एक समान मजदूरी देता हैं। किन्तु जिन मजदूरों ने पहले पहर से काम किया था जब उन्होंने देखा कि सभी को एक समान मजदूरी दी गयी है तो वे कुडकुडाने लगे। वे समय के अनुपात में मजदूरी चाहते थे जिससे उन्हें दूसरों से ज्यादा मिले या फिर दूसरों को उनसे कम मिले। इस दृष्टांत के माध्यम से येसु ने स्पष्ट कर दिया कि सर्वप्रथम, ईश्वर किसी के साथ अन्याय नहीं करते तथा सभी को उनका हक प्रदान करते हैं। दूसरा, ईश्वर का प्रेम सभी मानवीय गणनाओं से परे है। तीसरा, हमें पाये हुए उपहारों के लिए ईश्वर को धन्यवाद देना चाहिए तथा दूसरों को क्या हो रहा है या मिल रहा है इस बात को आधार बनाकर अपनी खुशी का निर्धारण नहीं करना चाहिए।

लगभग ऐसी ही भावना हम पेत्रुस में भी पाते है। येसु ने पेत्रुस को उनकी रेवड की देखभाल का महान कार्य सौंपा था। ’’मेरी भेडों को चराओ।’’ (देखिए योहन 21:15-17) किन्तु उसके तुरन्त बाद ’’पेत्रुस ने मुड कर उस शिष्य को पीछे-पीछे आते देखा, जिसे ईसा प्यार करते थे...’’। पेत्रुस को योहन का इस प्रकार प्रभु के पीछे खडा होना शायद अच्छा नहीं लगा हो या फिर ईर्ष्या की भावना उत्पन्न हुई होगी इसलिए वे प्रभु से पूछते है, ’’प्रभु! इनका क्या होगा!’’ इस प्रश्न से प्रभु येसु प्रसन्न नहीं होते। इस कारण वे पेत्रुस की बात का उत्तर न देकर उलटा उससे पूछते हैं, ’’यदि मैं चाहता हूँ कि यह मेरे आने तक रह जाये, तो इससे तुम्हें क्या? तुम मेरा अनुसरण करो। (योहन 21:21-22) दूसरों के जीवन पर नज़रे गडाये रखने से हम अपने जीवन के दानों को नज़रअंदाज कर देते हैं। पेत्रुस के साथ भी यही परेशानी थी।

नबी योना ने ईश्वर के निर्देश पर निनीवे के लोगों को पश्चात्ताप का उपदेश दिया। लोगों ने उसके उपदेश पर विश्वास करके घोर पश्चात्ताप किया। इस पर ईश्वर द्रवित हो गये और उन्होंने जिस विपत्ति की धमकी दी थी, उसे उन पर नहीं आने दिया। योना को यह बात बहुत बुरी लगी। प्रभु की इस दया के कारण योना रूठ जाता है क्योंकि ईश्वर ने निनीवे को नष्ट नहीं किया। योना के इस व्यवहार पर ईश्वर योना से पूछते हैं, ’’क्या तुम्हारा क्रोध उचित है?’’ ईश्वर योना को एक कुंडरू लता के द्वारा परिस्थितियों की वास्तविकता समझाते हैं। जब योना तेज धूप में बैठा था तो प्रभु ने उसे आराम पहुँचाने के उद्देष्य से एक कुंडरू लता उगायी। वह लता तुरंत ही उस छप्पर पर फैल गयी जिसके नीचे योना बैठा हुआ था। इससे योना को बहुत आराम पहुँचा। दूसरे दिन एक कीडा लता को काट देता है जिससे वह सूख जाती है। इससे भयंकर गर्मी पडने लगती तथा योना बेहोश हो जाता है। वह बहुत क्रोधित होकर कहता है, ’’जीवित रहने की अपेक्षा मेरे लिए मर जाना कहीं अच्छा है।’’(योना 4:8) ईश्वर योना से कहते हैं, ’’तुम तो उस लता की चिन्ता करते हो। तुमने उसके लिए कोई परिश्रम नहीं किया। तुमने उसे नहीं उगाया। वह एक रात में उग गयी और एक रात में नष्ट हो गयी। तो क्या मैं इस महान् नगर निनीवे की चिन्ता नहीं करूँ? उस में एक लाख बीस हजार से अधिक ऐसे मनुष्य रहते हैं, जो अपने दाहिने तथा बायें हाथ का अंतर नहीं जानते, और असंख्य जानवर भी।’’ (योना 4:10-11) इस प्रकार हम देखते हैं कि योना नबी होकर भी दूसरों के लिए की गयी प्रभु की दया एवं वरदानों पर ईर्ष्या करता था।

उडाऊँ पुत्र के दृष्टांत में जब पिता अपने पुत्र के लौटने पर बडे समारोह का आयोजन करता है तो उसके बडे लडके का दृष्टिकोण भी काइन, पेत्रुस, योना के समान होता है क्योंकि वह कहता है, ’’देखिए, मैं इतने बरसों से आपकी सेवा करता आया हूँ। मैंने कभी आपकी आज्ञा का उल्लंघन नहीं किया। फिर भी आपने कभी मुझे बकरी का बच्चा तक नहीं दिया, ताकि मैं अपने मित्रों के साथ आनन्द मनाऊँ। पर जैसे ही आपका यह बेटा आया, जिसने वेश्याओं के पीछे आपकी सम्पत्ति उड़ा दी है, आपने उसके लिए मोटा बछड़ा मार डाला है।’’ (लूकस 15:29-30) बडे लडके को परेशानी तब होती है जब उसके भाई के लिए आनन्द मनाया जा रहा है। इससे उसकी अपने भाई के प्रति ईर्ष्या की दुर्भावना प्रदर्षित होती है।

संत पौलुस इस असमानता को ईश्वर की स्वतंत्रता तथा प्रज्ञा बताते हुये कहते हैं, ’’अरे भई! तुम कौन हो, जो ईश्वर से विवाद करते हो? क्या प्रतिमा अपने गढ़ने वाले से कहती है, ’तुमने मुझे ऐसा क्यों बनाया?’ क्या कुम्हार को यह अधिकार नहीं कि वह मिट्टी के एक ही लौंदे से एक पात्र ऊँचे प्रयोजन के लिए बनाये और दूसरा पात्र साधारण प्रयोजन के लिए? यदि ईश्वर ने अपना क्रोध प्रदर्शित करने तथा अपना सामर्थ्य प्रकट करने के उद्देश्य से बहुत समय तक कोप के उन पात्रों को सहन किया, जो विनाश के लिए तैयार थे, तो कौन आपत्ति कर सकता है? उसने ऐसा इसलिए किया कि वह दया के उन पात्रों पर अपनी महिमा का वैभव प्रकट करना चाहता है, जिन्हें अपने प्रारम्भ से ही उस महिमा के लिए तैयार किया था।’’ (रोमियों 9:20-23)

जब योहन बपतिस्ता के शिष्यों ने उनसे कहा, ‘‘गुरुवर! देखिए, जो यर्दन के उस पार आपके साथ थे और जिनके विषय में आपने साक्ष्य दिया, वह बपतिस्मा देते हैं और सब लोग उनके पास जाते हैं’’। तब योहन इस बात में ईश्वर की प्रज्ञा तथा योजना को समझते हुए कहते हैं, ‘‘मनुष्य को वही प्राप्त हो सकता हे, जो उसे स्वर्ग की ओर से दिया जाये।’’ (योहन 3:26-27) हमें भी जीवन में दूसरों की उन्नति को ईश्वर की योजना का हिस्सा मानकर ईश्वर को इसके लिए धन्यवाद देना चाहिए न कि ईर्ष्या। धर्मग्रंथ हमें सिखाता है कि ईश्वर को यह ईर्ष्या पंसद नहीं है। जैसे कि नबी इसायाह के द्वारा ईश्वर कहते हैं, ’’तुम लोगों के विचार मेरे विचार नहीं हैं और मेरे मार्ग तुम लोगों के मार्ग नहीं हैं। जिस तरह आकश पृथ्वी के ऊपर बहुत ऊँचा है, उसी तरह मेरे मार्ग तुम्हारे मार्गों से और मेरे विचार तुम्हारे विचारों से ऊँचे हैं।’’ (इसायाह 55:8-9) आइये हम भी दूसरों के प्रति अपने जीवन के दृष्टिकोण को बदले तथा उन्हें ईश्वर के विचार के अनुसार ढालें। ऐसा करने से हमारा जीवन भी शांत, सौम्य एवं सरल बन जायेगा।