शनिवार, 30 अक्टूबर, 2021
वर्ष का तीसवाँ सामान्य सप्ताह
पहला पाठ: रोमियों के नाम सन्त पौलुस का पत्र 11; 1-2, 11-12, 25-29
1) इसलिए मन में यह प्रश्न उठता है, ‘‘क्या ईश्वर ने अपनी प्रजा को त्याग दिया है?’’ निश्चय ही नहीं! मैं भी तो इस्राएली, इब्राहीम की सन्तान और बेनयामीन-वंशी हूँ
2) ईश्वर ने अपनी उस प्रजा को, जिसे उसने अपनाया, नहीं त्यागा है। क्या आप नहीं जानते कि धर्मग्रन्थ एलियस के विषय में क्या कहता है, जब वह ईश्वर के सामने इस्राइल पर यह अभियोग लगाते हैं?
11) इसलिए मन में यह प्रश्न उठता है, क्या वे अपराध के कारण सदा के लिए पतित हो गये हैं? निश्चय ही नहीं! उनके अपराध के कारण ही गैर-यहूदियों को मुक्ति मिली है, जिससे वे गैर-यहूदियों की स्पर्धा करें।
12) जब उनके अपराध तथा उनकी अपूर्णता से समस्त गैर-यहूदी संसार की समृद्धि हो गयी है, तो उनकी परिपूर्णता से कहीं अधिक लाभ होगा!
25) भाइयो! आप घमण्डी न बनें। इसलिए मैं आप लोगों पर यह रहस्य प्रकट करना चाहता हूँ -इस्राएल का एक भाग तब तक अन्धा बना रहेगा, जब तक गैर यहूदियों की पूर्ण संख्या का प्रवेश न हो जाये।
26) ऐसा हो जाने पर समस्त इस्राएल को मुक्ति प्राप्त होगी। जैसा कि लिखा है- सियोन में मुक्तिदाता उत्पन्न होगा और वह याकूब से अधर्म को दूर कर देगा।
27) जब मैं उनके पाप हर लूँगा, तो यह उनके लिए मेरा विधान होगा।
28) सुसमाचार के विचार से, वे तो आप लोगों के कारण ईश्वर के शत्रु हैं; किन्तु चुनी हुई प्रजा के विचार से, वे पूर्वजों के कारण ईश्वर के कृपापात्र हैं;
29) क्योंकि ईश्वर न तो अपने वरदान वापस लेता और न अपना बुलावा रद्द करता है।
सुसमाचार : सन्त लूकस 14:1,7-11
1) ईसा किसी विश्राम के दिन एक प्रमुख फ़रीसी के यहाँ भोजन करने गये। वे लोग उनकी निगरानी कर रहे थे।
7) ईसा ने अतिथियों को मुख्य-मुख्य स्थान चुनते देख कर उन्हें यह दृष्टान्त सुनाया,
8) ’’विवाह में निमन्त्रित होने पर सब से अगले स्थान पर मत बैठो। कहीं ऐसा न हो कि तुम से प्रतिष्ठित कोई अतिथि निमन्त्रित हो
9) और जिसने तुम दोनों को निमन्त्रण दिया है, वह आ कर तुम से कहे, ’इन्हें अपनी जगह दीजिए’ और तुम्हें लज्जित हो कर सब से पिछले स्थान पर बैठना पड़े।
10) परन्तु जब तुम्हें निमन्त्रण मिले, तो जा कर सब से पिछले स्थान पर बैठो, जिससे निमन्त्रण देने वाला आ कर तुम से यह कहे, ’बन्धु! आगे बढ़ कर बैठिए’। इस प्रकार सभी अतिथियों के सामने तुम्हारा सम्मान होगा;
11) क्योंकि जो अपने को बड़ा मानता है, वह छोटा बनाया जायेगा और जो अपने को छोटा बनाया जायेगा और जो अपने को छोटा मानता है, वह बड़ा बनाया जायेगा।’’
📚 मनन-चिंतन
कुच्छ हासिल करने या दूसरों से सम्मान अर्जित करने की इच्छा होना स्वाभाविक है। हालांकि, यह आत्म-प्रचार अधिकांश तह दूसरों की कीमत पर हासिल किया जाता है। येसु का दृष्टान्त नीतिवचन की शिक्षा पर बल देता है: "राजा के सामने डींग मत मारो और बड़े लोगों के स्थान पर मत बैठो; क्योंकि किसी उच्चाधिकारी के सामने नीचा दिखाये जाने की अपेक्षा अच्छा यह है, कि राजा तुम से कहे, "यहाँ, आगे बढ़ कर बैठिए", (नीति० 25:6-7)।
सच्ची विनम्रता यह नहीं है कि आप अपने बारे में कम राय रखते हैं, या खुद को दूसरों से कमतर समझते हैं। वास्तव में, सच्ची नम्रता हमें अपने आप में व्यस्तता से मुक्त करती है। स्वयं को सच्चाई एवं वास्त्विकता से देखने का, सही निर्णय के साथ, स्वयं को उस रूप में देखने का अर्थ है जिस तरह से ईश्वर हमें देखता है (स्तोत्र १३९:१-४)। नम्रता अन्य सभी सद्गुणों की नींव है क्योंकि यह हमें परमेश्वर की दृष्टि से सही ढंग से देखने और न्याय करने में सक्षम बनाती है। विनम्रता ज्ञान, ईमानदारी, यथार्थवाद, शक्ति और समर्पण की ओर ले जाती है। इसी नम्रता को येसु हमें गले लगाने के लिए आमंत्रित कर रहे हैं।
📚 REFLECTION
It is natural to desire to achieve and to get respect and to earn esteem from others. However, self-promotion is most often achieved at the expense of others. Jesus' parable emphasizes the teaching of Proverbs: Do not put yourself forward in the king's presence or stand in the place of the great; for it is better to be told, "Come up here," than to be put lower in the presence of the prince (Prov. 25:6-7).
True humility is not having a low opinion of yourself, or thinking of yourself as inferior to others. In fact, true humility lets us free from preoccupation with ourselves. Viewing ourselves truthfully, with right judgment, means seeing ourselves the way God sees us (Psalm 139:1- 4). Humility is the foundation of all the other virtues because it enables us to see and judge correctly, the way God sees. Humility leads to knowledge, honesty, realism, strength, and dedication to give ourselves to something greater than ourselves. It is this humility that Jesus is inviting us to embrace.
✍ -Br Biniush Topno
No comments:
Post a Comment