पेन्तेकोस्त रविवार
📒 पहला पाठ : प्रेरित-चरित 2:1-11
1) जब पेंतेकोस्त का दिन आया और सब शिष्य एक स्थान पर इकट्ठे थे,
2) तो अचानक आँधी-जैसी आवाज आकाश से सुनाई पड़ी और सारा घर, जहाँ वे बैठे हुए थे, गूँज उठा।
3) उन्हें एक प्रकार की आग दिखाई पड़ी जो जीभों में विभाजित होकर उन में से हर एक के ऊपर आ कर ठहर गयी।
4) वे सब पवित्र आत्मा से परिपूर्ण हो गये और पवित्र आत्मा द्वारा प्रदत्त वरदान के अनुसार भिन्न-भिन्न भाषाएं बोलने लगे।
5) पृथ्वी भर के सब राष्ट्रों से आये हुए धर्मी यहूदी उस समय येरुसालेम में रहते थे।
6) बहुत-से लोग वह आवाज सुन कर एकत्र हो गये। वे विस्मित थे, क्योंकि हर एक अपनी-अपनी भाषा में शिष्यों को बोेलते सुन रहा था।
7) वे बड़े अचम्भे में पड़ गये और चकित हो कर बोल उठे, ’’क्या ये बोलने वाले सब-के-सब गलीली नहीं है?
8) तो फिर हम में हर एक अपनी-अपनी जन्मभूमि की भाषा कैसे सुन रहा है?
9) पारथी, मेदी और एलामीती; मेसोपोतामिया, यहूदिया और कम्पादुनिया, पोंतुस और एशिया,
10 फ्रुगिया और पप्फुलिया, मिश्र और कुरेने के निकवर्ती लिबिया के निवासी, रोम के यहूदी तथा दीक्षार्थी प्रवासी,
11) क्रेत और अरब के निवासी-हम सब अपनी-अपनी भाषा में इन्हें ईश्वर के महान् कार्यों का बख़ान करते सुन रहे हैं।’’
📕 दूसरा पाठ : 1कुरिन्थियों 12:3-7,12-13
4) कृपादान तो नाना प्रकार के होते हैं, किन्तु आत्मा एक ही है।
5) सेवाएँ तो नाना प्रकार की होती हैं, किन्तु प्रभु एक ही हैं।
6) प्रभावशाली कार्य तो नाना प्रकार के होते हैं, किन्तु एक ही ईश्वर द्वारा सबों में सब कार्य सम्पन्न होते हैं।
7) वह प्रत्येक को वरदान देता है, जिससे वह सबों के हित के लिए पवित्र आत्मा को प्रकट करे
12) मनुष्य का शरीर एक है, यद्यपि उसके बहुत-से अंग होते हैं और सभी अंग, अनेक होते हुए भी, एक ही शरीर बन जाते हैं। मसीह के विषय में भी यही बात है।
13) हम यहूदी हों या यूनानी, दास हों या स्वतन्त्र, हम सब-के-सब एक ही आत्मा का बपतिस्मा ग्रहण कर एक ही शरीर बन गये हैं। हम सबों को एक ही आत्मा का पान कराया गया है।
📙 सुसमाचार : सन्त योहन 20:19-23
19) उसी दिन, अर्थात सप्ताह के प्रथम दिन, संध्या समय जब शिष्य यहूदियों के भय से द्वार बंद किये एकत्र थे, ईसा उनके बीच आकर खडे हो गये। उन्होंने शिष्यों से कहा, "तुम्हें शांति मिले!"
20) और इसके बाद उन्हें अपने हाथ और अपनी बगल दिखायी। प्रभु को देखकर शिष्य आनन्दित हो उठे। ईसा ने उन से फिर कहा, "तुम्हें शांति मिले!
21) जिस प्रकार पिता ने मुझे भेजा, उसी प्रकार मैं तुम्हें भेजता हूँ।"
22) इन शब्दों के बाद ईसा ने उन पर फूँक कर कहा, "पवित्र आत्मा को ग्रहण करो!
23) तुम जिन लोगों के पाप क्षमा करोगे, वे अपने पापों से मुक्त हो जायेंगे और जिन लोगों के पाप क्षमा नहीं करोगे, वे अपने पापों से बँधे रहेंगे।
📚 मनन-चिंतन
आज माता कलिसिया पेंटेकॉस्ट का महापर्व मनाती है। यह कलिसिया के इतिहास के सबसे महत्वपूर्ण दिनों में से एक है। आज के दिन ही कलिसिया का जन्म हुआ, एक नये युग की शुरुआत हुई, पवित्र आत्मा के युग की शुरुआत। पेंटेकोस्ट का शाब्दिक अर्थ है पचासवाँ दिन या ईस्टर का सातवाँ रविवार। पेंटेकोस्ट के इस पर्व के साथ ही पास्का काल समाप्त होता है और हम सामान्य काल में प्रवेश करते हैं। इसे न केवल कैथोलिक कलिसिया में मनाया जाता है बल्कि अनेकों गैर-कैथोलिक कलिसियाओं में भी मनाया जाता है। पुराने व्यवस्थान में यह त्यौहार नई उपज या नई फसल के त्यौहार के रूप में मनाया जाता था। सभी लोग एक साथ इकट्ठे होकर ईश्वर की आशीष के लिए धन्यवाद देते हुए खुशी मानते थे। नये व्यवस्थान में यह त्यौहार ईश्वर की उस प्रतिज्ञा को पूरा होने का पर्व जब उन्होंने सारी मानवजाति पर अपना आत्मा उड़ेलने का वादा किया था (देखें योएल 3:1-2)। योहन बपतिस्ता ने भी लोगों को बताया था कि आने वाले मसीह लोगों को पवित्र आत्मा और आग से बपतिस्मा प्रदान करेंगे (देखें मत्ती 3:11)। स्वयं प्रभु येसु ने अपने शिष्यों के लिए एक सहायक भेजने का वादा किया था। आज उसी पवित्र आत्मा और आग से बपतिस्मा का दिन है। उसी सहायक पवित्र आत्मा के उतरने का दिन है। आज के पहले पाठ में हम देखते हैं कि जब शिष्य लोग एक साथ प्रार्थना में लीन थे तभी पवित्र आत्मा आग के रूप में उन पर उतर आया और वे भिन्न-भिन्न भाषाएं बोलने लगे। पवित्र आत्मा के आगमन के साथ ही हमारे लिए एक नई जिम्मेदारी शुरू हो जाती है। हम सबने भी उसी पवित्र आत्मा में बपतिस्मा लिया है। वही आत्मा हमें ईश्वर से जुड़े रहने के लिए प्रेरित करता है। हमें अपने जीवन के द्वारा ईश्वर के प्रेम और ईश्वरीय राज्य का साक्ष्य देना है। पवित्र आत्मा के वरदान और फल हमें ईश्वरीय राज्य के मूल्यों को अपने जीवन में उतारने का साहस देते हैं बल्कि संसार के सामने ईश्वरीय राज्य का साक्ष्य देने की शक्ति भी प्रदान करते हैं। पवित्र आत्मा सदैव हमारे साथ है, हमें पवित्र जीवन जीने में मदद करने के लिए सदैव तैयार है लेकिन क्या हम अपने जीवन में पवित्र आत्मा की उपस्थिति की ओर ध्यान देते हैं?
📚 REFLECTION
Today, Mother Church celebrates the Solemnity of the Feast of Pentecost. This is one of the most important days in the history and beginning of the Church. It is on this day that the Church was born, a whole new era began, an era of the Spirit. The literal meaning of the word ‘Pentecost’ is fiftieth or Seventh Sunday of Easter. The Feast of Pentecost marks the completion of Easter season and we enter into the Ordinary season of the liturgy. This feast is celebrated all over the world by both Catholics and many other Protestant churches. In the Old Testament, this was a harvest feast where all people gathered and celebrated the prosperity with gratitude to God. In the New Testament, it is the Feast of fulfilment of God’s promise of pouring his Spirit upon whole humanity (Ref. Joel 3:1-2). Even John the Baptist indicated that the one who comes after me, will baptise you with Fire and the Holy spirit (Matthew 3:11). Jesus himself promised to send an Advocate. Today is the day of that baptism by fire and Spirit. The first reading of today tells us that when the apostles were gathered together and praying, the Spirit came upon them in the form of tongues of fire. The descent of the Holy Spirit upon the Church brings a new responsibility upon each member. We all have been baptised into the same Spirit. It is the same Spirit that motivates us to unite with God. We need to bear witness to God’s love and Kingdom of Heaven through our lives. The gifts and fruits of the Holy Spirit not only help us to live according to the values of God’s kingdom but, also give us strength and courage to bear witness before the world. The holy Spirit is always with us to strengthen us and inspire us, but are we ready to feel the presence of the Spirit within us?
📚 मनन-चिंतन-2
आज हम पेन्तेकोस्त का महापर्व मनाते हैं। पेन्तेकोस्त का शाब्दिक अर्थ है - ५०वाँ दिन और दोनों नए व्यवस्थान और पुराने व्यवस्थान में इसके अलग- अलग मायने हैं। पुराने व्यवस्थान के समय में इस त्योहार को नई फसल के त्योहार के रूप में मनाया जाता था, नवजीवन और आनंद का प्रतीक था। नये व्यवस्थान के समय यह पवित्र आत्मा के प्रेरितों पर उतरने का त्योहार है जब प्रभु येसु की मृत्यु, पुनरुत्थान एवं स्वर्गारोहण के बाद जब शिष्य एक साथ प्रार्थना में एकत्र थे तो पवित्र आत्मा उन अग्निरूपी जीवों के रूप में उतरा था।(प्रेरित चरित २:१-४)। दरअसल यह कलिसिया के जन्मदिन का त्योहार है और इसलिए हम सभी के लिए अपर उल्लास और हर्ष का समय है।
मानवजाति के मुक्ति का इतिहास तीन कालों में बाँटा जा सकता है: पुराने व्यवस्थान का काल, नये व्यवस्थान का काल और नये व्यवस्थान के पश्चात का काल। हालाँकि मानव मुक्ति के कार्य में पवित्र त्रित्व के तीनों जन सब समय एक साथ सक्रिय हैं, लेकिन फिर भी ऐसा लगता है जैसे इन तीनों कालों में एक-एक व्यक्ति ही सक्रिय है। ऐसा लगता है जैसे पुराने व्यवस्थान में पिता ईश्वर ही सब कुछ करते नज़र आते हैं, इसरएलियों को सम्भालते हैं, उनकी रक्षा करते हैं और उनके जीवन में महान कार्य करते हैं। नया व्यवस्थान मुख्यतः पुत्र ईश्वर के क्रिया-कलापों से पूर्ण प्रतीत होता है, जहाँ हम देखते हैं प्रभु येसु गलिलिया से लेकर एरूसलेम तक घूम-घूम कर ईश्वर के राज्य का प्रचार करते, लोगों को शिक्षा देते और उनकी बीमारियाँ और कष्ट दूर करते हैं। जब पृथ्वी पर प्रभु येसु का निवास काल समाप्त हुआ, और अपनी मृत्यु, पुनरुत्थान एवं स्वर्गारोहण के बाद वह पिता ईश्वर के दाहिने विराजमान हो गए तो पवित्र आत्मा का काल प्रारम्भ हुआ।
हम पवित्र आत्मा के काल में हैं। पवित्र त्रित्व के तीनों जन सब समय, सब जग उपस्थित हैं, और कोई भी काल एकमात्र किसी एक ही व्यक्ति का मुख्य काल नहीं है। जब हम कहते हैं कि अब यह पवित्र आत्मा का काल है, तो इसका यह मतलब क़तई नहीं है कि पिता और पुत्र ईश्वर निष्क्रिय हैं, वे भी बराबर रूप से सक्रिय हैं। पवित्र आत्मा अपनी उपस्थिति से इस संसार को पवित्र करता है, वह कलिसिया को नई दिशा में प्रेरित करता है, वह प्रभु येसु द्वारा हमें दिए गए मिशन को पूरा करने में सहायता करता है। जब तक हम आत्मा में जन्म ना लें तब तक हम ईश्वर के राज्य में प्रवेश नहीं कर पाएँगे। ही स्वर्गीय पिता, हमें अपने आत्मा से भर दे, हे पावन आत्मा आओ और हमें अपनी शक्ति से भर दो, हमें नया बना दो, ईश्वर की संतानें बना दो। आमेन।
📚 REFLECTION
Today we celebrate the solemnity of Pentecost. Pentecost literally means the 50th day and it has different connotations both in Old Testament and New Testament. In the Old Testament time this festival was known as the harvest feast and a feast which symbolised newness and joy. In the New Testament it is the feast of the descent of the Holy Spirit upon the apostles, where after the death, resurrection and ascension of the Lord, the apostles were in prayer in upper room and Holy Spirit descended on them in the form of tongues and wind. (Ref. 2:1-4). It is in fact the birthday of the church, therefore a very happy occasion for all of us to rejoice and thank and praise God.
The salvation history of mankind can be divided into three time periods: the period of the Old Testament, the period of the New Testament and the period after the New Testament. Although all three persons of the Holy Trinity are active together all the time in the work of human salvation yet we see apparent domination of one each in each of these period. It seems that Old Testament is the period of the Father, where He is very visibly active, taking care of the Israelites, the chosen people, and performing great wonders in their lives. The New Testament seems to be dominated by the presence of the Son where he goes all over from Galilee to Jerusalem, teaching, preaching and healing the people. When he finishes his earthly course, after his ascension the third person of the Trinity, the Holy Spirit comes in play and there begins the period of the Holy Spirit.
We are now in the era of the Holy Spirit. All the three persons of the Trinity are present at all times, always and it is not that only one person of the Trinity is exclusively active at a time. When we say it is the period of the Holy Spirit, it means that the Father and Son are also equally active. The Holy Spirit sanctifies the world with its presence, it guides the Church into new horizons, it leads us towards the mission entrusted to us by Jesus. Pentecost is the time to be re-born in the spirit. We cannot enter in the kingdom of heaven unless we are born with the Spirit. Heavenly Father ! fill us with your Spirit! O, Holy Spirt, come and take over us, recharge us and help us to be re-born in you as the children of God. Amen.
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Praise the Lord!
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