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सोमवार, 18 अक्टूबर, 2021 वर्ष का उन्तीसवाँ सामान्य सप्ताह सन्त लूकस सुसमाचार लेखक : पर्व

 

सोमवार, 18 अक्टूबर, 2021

वर्ष का उन्तीसवाँ सामान्य सप्ताह

सन्त लूकस सुसमाचार लेखक : पर्व

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पहला पाठ : तिमथी के नाम सन्त पौलुस का दूसरा पत्र 4:10-17b


10) क्योंकि देमास इस संसार की ओर आकर्षित हो गया और वह मुझे छोड़ कर थेसलनीके चला गया है। क्रेसेन्स गलातिया चला गया और तीतुस, दलमातिया।

11) केवल लूकस मेरे साथ है। मारकुस को अपने साथ ले कर आओ, क्योंकि मुझे सेवाकार्य में उन से बहुत सहायता मिलती है।

12) मैंने तुखिकुस को एफ़ेसुस भेजा है।

13) आते समय लबादा, जिसे मैंने त्रोआस में कारपुस के यहाँ छोड़ दिया था, और पुस्तक, विशेष कर चर्मपत्र लेते आओ।

14) सिकन्दर सुनार ने मेरे साथ बहुत अन्याय किया। प्रभु उस को उसके कर्मों का फल देगा।

15) तुम भी उस से सावधान रहो, क्योंकि उसने हमारी शिक्षा का बहुत विरोध किया।

16) जब मुझे पहली बार कचहरी में अपनी सफाई देनी पड़ी, तो किसी ने मेरा साथ नहीं दिया -सब ने मुझे छोड़ दिया। आशा है, उन्हें इसका लेखा देना नहीं पड़ेगा।

17) परन्तु प्रभु ने मेरी सहायता की और मुझे बल प्रदान किया, जिससे मैं सुसमाचार का प्रचार कर सकूँ और सभी राष्ट्र उसे सुन सकें।



सुसमाचार : सन्त लूकस 10:1-9



1) इसके बाद प्रभु ने अन्य बहत्तर शिष्य नियुक्त किये और जिस-जिस नगर और गाँव में वे स्वयं जाने वाले थे, वहाँ दो-दो करके उन्हें अपने आगे भेजा।

2) उन्होंने उन से कहा, ’’फ़सल तो बहुत है, परन्तु मज़दूर थोड़े हैं; इसलिए फ़सल के स्वामी से विनती करो कि वह अपनी फ़सल काटने के लिए मज़दूरों को भेजे।

3) जाओ, मैं तुम्हें भेडि़यों के बीच भेड़ों की तरह भेजता हूँ।

4) तुम न थैली, न झोली और न जूते ले जाओ और रास्तें में किसी को नमस्कार मत करो।

5) जिस घर में प्रवेश करते हो, सब से पहले यह कहो, ’इस घर को शान्ति!’

6) यदि वहाँ कोई शान्ति के योग्य होगा, तो उस पर तुम्हारी शान्ति ठहरेगी, नहीं तो वह तुम्हारे पास लौट आयेगी।

7) उसी घर में ठहरे रहो और उनके पास जो हो, वही खाओ-पियो; क्योंकि मज़दूर को मज़दूरी का अधिकार है। घर पर घर बदलते न रहो।

8) जिस नगर में प्रवेश करते हो और लोग तुम्हारा स्वागत करते हैं, तो जो कुछ तुम्हें परोसा जाये, वही खा लो।

9) वहाँ के रोगियों को चंगा करो और उन से कहो, ’ईश्वर का राज्य तुम्हारे निकट आ गया है’।


📚 मनन-चिंतन



लोगों की एक सामान्य प्रवृत्ति होती है कि वे यात्रा के दौरान होने वाली किसी भी घटना का सामना करने के लिए उन चीजों की एक सूची तैयार करते हैं जिन्हें उन्हें ले जाने की आवश्यकता होती है। जब येसु ने अपने शिष्यों को भेजा तो उन्होंने उन्हें निर्देश दिए कि उन्हें अपनी मिशन यात्रा में क्या करना चाहिए। उन्हें बीमारों को चंगा करके लोगों को प्रभु के लिए तैयार करना था, यह प्रचार करना था कि ईश्वर का राज्य निकट आ गया है, उन्हें शांति प्रदान करना, आदि। ऐसा करने से वे दुनिया के दुर्व्यवहार और हिंसा का सामना करेंगे। वे असुरक्षित हो जाएंगे लेकिन यह चिंता की बात नहीं है। प्रभु जिस बात को बताने की कोशिश कर रहे हैं वह यह है कि कार्य, संदेश और मिशन किसी भी अन्य तैयारी से अधिक महत्वपूर्ण हैं। उसके एकमात्र संसाधन येसु के द्रारा भेजा जाना है। ज्यादातर समय हम बड़ी चीजों की योजना बनाते हैं जिन्हे हम बहुत कम पूरा कर पाते हैं। हमें केवल येसु के प्रति एक स्पष्ट दृष्टि, ईश्वर द्रारा प्रद्त्त आंतरिक उपहार और विश्वास में खुले दिल के अलावा कोई संसाधन रखने की आवश्यकता नहीं है।



📚 REFLECTION



There is a general tendency for people to prepare a list of the things that they need to carry during the journey to cover any eventualities that may occur. However, the Lord Jesus sent out his disciples with the bare essential from that point of view. He gave them instructions so as to what they ought to be doing in their mission journeys. They were to prepare the people for the Lord by healing the sick, preaching that the kingdom of God has come near, giving them peace, etc. In doing so they would be exposed to abuse and violence of the world. They would be rendered vulnerable but it is not a thing to be worried about. The point the Lord is driving at home is that the work, the message, and the mission are more important than any other preparation. The only resource is being sent by him. Most of the time we plan big things which end up doing substantially very little. We need to carry no resources only a clear vision, unique interior gifts, and an open heart.



मनन-चिंतन - 2



प्रभु येसु ने अपने आगे उन गाँवों और शहरों में बहत्तर शिष्यों को दो-दो करके भेजा जहाँ वे स्वयं जाने वाले थे। भेजे जाने से पहले, उन्हें याद दिलाया जाता है कि फसल समृद्ध है, लेकिन मजदूर कम हैं। हम जानते हैं कि अगर समय पर फसल की कटाई नहीं की गई तो वह बर्बाद हो सकती है। प्रभु उम्मीद करते हैं कि वे बिना किसी समय या प्रयास को बर्बाद किए ईमानदारी से कठोर परिश्रम करें। इस प्रकार येसु ईश्वर के राज्य के संदेश को फैलाने के कार्य की तात्कालिकता पर जोर देते हैं। हमें ईमानदारी से कड़ी मेहनत करने की आवश्यकता है और बाकी येसु पर छोड़ दें जो उन लोगों से मिलने जाएंगे, जिनसे हम पहले ही मिल चुके हैं। हमारे प्रयासों में जो भी कमी है, वे उसे दूर करेंगे।

अनुदेशों में प्रभु येसु कहते हैं, “यदि वहाँ कोई शान्ति के योग्य होगा, तो उस पर तुम्हारी शान्ति ठहरेगी, नहीं तो वह तुम्हारे पास लौट आयेगी।”। ईश्वर के उपहार उन लोगों पर ठहरेंगे जो उनके योग्य हैं। बाइबल में हम ईश्वर के कई वादे पाते हैं लेकिन उन वादों से लाभ उठाने के लिए हमें उनके योग्य बनने की आवश्यकता है। एसाव ने पहलौठे के लिए प्रतिज्ञात कृपाओं के लिए खुद को योग्य साबित नहीं किया; लेकिन याकूब हर तरह से प्रभु की कृपा पाना चाहता था। वह प्रभु से कहता है, "जब तक तुम मुझे आशीर्वाद नहीं दोगे, तब तक मैं तुम्हें नहीं जाने दूँगा" (उत्पत्ति 32:27)। क्या मैं प्रभु के आशीर्वाद के योग्य बनने के लिए प्रयास करता हूँ?



SHORT REFLECTION



Jesus sent seventy-two disciples in pairs ahead of him to towns and villages he himself would be visiting. After their visit Jesus would visit those towns and villages. Before they are sent, they are reminded that the harvest is rich but the labourers are few. We are aware that if the harvest is not reaped in time, it can go waste. It follows that they are expected to work hard sincerely without wasting any time or effort. Thus Jesus insists on the urgency of the work of spreading the message of the Kingdom of God. We need to sincerely do our best and leave the rest to Jesus who would be visiting those whom we have already visited. We will supplement for whatever is lacking in our efforts.

In the instructions Jesus says, “If a man of peace lives there, your peace will go and rest on him; if not, it will come back to you”. The gifts of God will rest on people who are worthy of them. In the Bible we find many promises of God but in order to benefit from those promises we need to become worthy of them. Esau did not prove himself worthy to receive the gifts promised to the first-born; but Jacob wanted to get the gifts of God by all means. He says to the Lord, “I will not let you go, unless you bless me” (Gen 32:26). Do I make efforts to become worthy of the blessings of the Lord?


 -Br Biniush Topno


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Praise the Lord!

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