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फरवरी 26, 2023 चालीसा काल का पहला इतवार



चालीसा काल का पहला इतवार



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📒 पहला पाठ : उत्पत्ति 2:7-9; 3:1-7


2:7) प्रभु ने धरती की मिट्ठी से मनुष्य को गढ़ा और उसके नथनों में प्राणवायु फूँक दी। इस प्रकार मनुष्य एक सजीव सत्व बन गया।

8) इसके बाद ईश्वर ने पूर्व की ओर, अदन में एक वाटिका लगायी और उस में अपने द्वारा गढ़े मनुष्य को रखा।

9) प्रभु-ईश्वर ने धरती से सब प्रकार के वृक्ष उगायें, जो देखने में सुन्दर थे और जिनके फल स्वादिष्ट थे। वाटिका के बीचोंबीच जीवन-वृक्ष था और भले-बुरे के ज्ञान का वृक्ष भी।

3:1) ईश्वर ने जिन जंगली जीव-जन्तुओं को बनाया था, उन में साँप सब से धूर्त था। उसने स्त्री से कहा, ''क्या ईश्वर ने सचमुच तुम को मना किया कि वाटिका के किसी वृक्ष का फल मत खाना''?

2) स्त्री ने साँप को उत्तर दिया, ''हम वाटिका के वृक्षों के फल खा सकते हैं।

3) परन्तु वाटिका के बीचोंबीच वाले वृक्ष के फलों के विषय में ईश्वर ने यह कहा - तुम उन्हें नहीं खाना। उनका स्पर्श तक नहीं करना, नहीं तो मर जाओगे।''

4) साँप ने स्त्री से कहा, ''नहीं! तुम नहीं मरोगी।''

5) ईश्वर जानता है कि यदि तुम उस वृक्ष का फल खाओगे, तो तुम्हारी आँखें खुल जायेंगी। तुम्हें भले-बुरे का ज्ञान हो जायेगा और इस प्रकार तुम ईश्वर के सदृश बन जाओगे।

6) अब स्त्री को लगा कि उस वृक्ष का फल स्वादिष्ट है, वह देखने में सुन्दर है और जब उसके द्वारा ज्ञान प्राप्त होता है, तो वह कितना लुभावना है! इसलिए उसने फल तोड़ कर खाया। उसने पास खड़े अपने पति को भी उस में से दिया और उसने भी खा लिया।

7) तब दोनों की आँखें खुल गयीं और उन्हें पता चला कि वे नंगे हैं। इसलिए उन्होंने अंजीर के पत्ते जोड़-जोड़ कर अपने लिए लंगोट बना लिये।


📕 दूसरा पाठ : रोमियों 5:12-19


12) एक ही मनुष्य द्वारा संसार में पाप का प्रवेश हुआ और पाप द्वारा मृत्यु का। इस प्रकार मृत्यु सब मनुष्यों में फैल गयी, क्योंकि सब पापी है।

13) मूसा की संहिता से पहले संसार में पाप था, किन्तु संहिता के अभाव में पाप का लेखा नहीं रखा जाता हैं।

14) फिर भी आदम से ले कर मूसा तक मृत्यु उन लोगों पर भी राज्य करती रही, जिन्होंने आदम की तरह किसी आज्ञा के उल्लंघन द्वारा पाप नहीं किया था। आदम आने वाले मुक्तिदाता का प्रतीक था।

15) फिर भी आदम के अपराध तथा ईश्वर के वरदान में कोई तुलना नहीं हैं। यह सच है कि एक ही मनुष्य के अपराध के कारण बहुत-से लोग मर गये; किंतु इस परिणाम से कहीं अधिक महान् है ईश्वर का अनुग्रह और वह वरदान, जो एक ही मनुष्य-ईसा मसीह-द्वारा सबों को मिला है।

16) एक ही मनुष्य के अपराध तथा ईश्वर के वरदान में कोई तुलना नहीं हैं। एक के अपराध के फलस्वरूप दण्डाज्ञा तो दी गयी, किंतु बहुत-से अपराधों के बाद जो वरदान दिया गया, उसके द्वारा पाप से मुक्ति मिल गयी हैं।

17) यह सच है कि मृत्यु का राज्य एक मनुष्य के अपराध के फलस्वरूप-एक ही के द्वारा- प्रारंभ हुआ, किंतु जिन्हें ईश्वर की कृपा तथा पापमुक्ति का वरदान प्रचुर मात्रा मे मिलेगा, वे एक ही मनुष्य-ईसा मसीह-के द्वारा जीवन का राज्य प्राप्त करेंगे।

18) इस प्रकार हम देखते हैं कि जिस तरह एक ही मनुष्य के अपराध के फलस्वरूप सबों को दण्डाज्ञा मिली, उसी तरह एक ही मनुष्य के प्रायश्चित्त के फलस्वरूप सबों को पापमुक्ति और जीवन मिला।

19) जिस तरह एक ही मनुष्य के आज्ञाभंग के कारण सब पापी ठहराये गये, उसी तरह एक ही मनुष्य के आज्ञापालन के कारण सब पापमुकत ठहराये जायेंगे।


📙 सुसमाचार : मत्ती 4:1-11

प्रभु की परीक्षा


(1) उस समय आत्मा ईसा को निर्जन प्रदेश ले चला, जिससे शैतान उनकी परीक्षा ले ले।

(2) ईसा चालीस दिन और चालीस रात उपवास करते रहे। इसके बाद उन्हें भूख लगी

(3) और परीक्षक ने पास आ कर उन से कहा, "यदि आप ईश्वर के पुत्र हैं, तो कह दीजिए कि ये पत्थर रोटियाँ बन जायें"।

(4) ईसा ने उत्तर दिया, "लिखा है- मनुष्य रोटी से ही नहीं जीता है। वह ईश्वर के मुख से निकलने वाले हर एक शब्द से जीता है।"

(5) तब शैतान ने उन्हें पवित्र नगर ले जाकर मंदिर के शिखर पर खड़ा कर दिया।

(6) और कहा, यदि आप ईश्वर के पुत्र हैं तो नीचे कूद जाइए; क्योंकि लिखा है- तुम्हारे विषय में वह अपने दूतों को आदेश देगा। वे तुम्हें अपने हाथों पर सँभाल लेंगे कि कहीं तुम्हारे पैरों को पत्थर से चोट न लगे।"

(7) ईसा ने उस से कहा, "यह भी लिखा है- अपने प्रभु-ईश्वर की परीक्षा मत लो"।

(8) फिर शैतान उन्हें एक अत्यन्त ऊँचे पहाड़ पर ले गया और संसार के सभी राज्य और उनका वैभव दिखला कर

(9) बोला, "यदि आप दण्डवत् कर मेरी आराधना करें, तो मैं आपको यह सब दे दूँगा"!

(10) ईसा ने उत्तर दिया हट जा शैतान! लिखा है अपने प्रभु- ईश्वर की आराधना करो, और केवल उसी की सेवा करो।"

(11) इस पर शैतान उन्हें छोड़ कर चला गया, और स्वर्गदूत आ कर उनकी सेवा-परिचर्या करते रहे।


📚 मनन-चिंतन


आज के सुसमाचार में, येसु को निर्जन स्थान में ले जाया जाता है ताकि शैतान द्वारा उनकी परीक्षा ली जा सके, और वह पवित्रग्रंथ की सहायता से प्रत्येक प्रलोभन का विरोध और उसमें विजय होने में सक्षम होते है।

पहला प्रलोभन शारीरिक भूख का है, जहॉ शैतान येसु को पत्थरं को रोटी में बदलने के लिए प्रलोभित करता है। येसु ने विधीविवरण ग्रंथ 8ः3 को उद्धृत करते हुए उत्तर दिया, ’’मनुष्य केवल रोटी ही से नहीं जीता है, वह ईश्वर के मुख से निकलने वाले हर एक शब्द से जीता है।’’ इससे यह पता चलता है कि येसु जानते थे कि केवल भौतिक आहार ही महत्वपूर्ण नहीं, बल्कि ईश्वर के वचन से आध्यात्मिक पोषण भी कई अधिक महत्वपूर्ण है।

दूसरा प्रलोभन भगवान की सुरक्षा का परीक्षण करने का प्रलोभन है, शैतान ने येसु को मंदिर के शिखर से नीचे कूदने के लिए प्रलोभन दिया, लेकिन येसु ने विधीविवरण 6ः16 का हवाला देते हुए जवाब दिया, ‘‘अपने प्रभु ईश्वर की परीक्षा मत लो’’ इससे पता चलता है कि येस जानते थे कि हमें ईश्वर और उनकी सुरक्षा का परीक्षण नहीं करना चाहिए, बल्कि उन पर विश्वास करना चाहिए।

तीसरा प्रलोभन शक्ति का प्रलोभन है जहॉं शैतान येसु को दुनिया के सभी राज्यों के बदले उसकी पूजा करने के लिए लुभाता है। येसु ने विधीविवरण 6ः13 का हवाला देते हुए जवाब दिया, ‘‘अपने प्रभु-ईश्वर की आराधना करो, और केवल उसी की सेवा करो।’’ इससे पता चलता है कि येसु यह जानते थे कि केवल एक ही ईश्वर की आराधना की जानी चाहिए और हमारी परम निष्ठा उसके ही प्रति होनी चाहिए।

इस पूरे पद्यांष के दौरान, येसु हमें प्रलोभन का प्रतिरोेध या सामना करने के लिए ग्रंथ का ज्ञान और ग्रंथ की शक्ति के महत्व को सिखाते है। इसी तरह से, हम प्रलोभनों और जीवन की चुनौतियों के दौरान हम पवित्रग्रंथ के वचन पर हमारे मार्गदर्शन हेतु भरोसा कर सकते हैं। हमें न केवल धर्मग्रंथ को जानना चाहिए, बल्कि इसे अपने दैनिक जीवन में भी लागू करना चाहिए, ताकि हम शैतान के प्रलोभन का विरोध कर सकें और ईश्श्वर के प्रति वफादार बने रहें।

अंततः यह पद्यांष हमें याद दिलाता है कि हम अपने संघर्षों में अकेले नहीं हैं, तथा हमें ईश्वर के वचनों में वह सामर्थ्य और मार्गदर्शन मिल सकता है जिसकी हमें आवश्यकता है। आइए हम परीक्षा के समय और अपने जीवन के सभी क्षणों में बाइबल की ओर मुड़ें, और हमारे रास्ते में आने वाली किसी भी बाधा को दूर करने के लिए साहस और लचीलापन पाएं।



📚 REFLECTION



In today’s gospel, Jesus is led into the wilderness to be tempted by Satan, and he is able to resist each temptation by quoting scripture.

The first temptation is that of physical hunger and Satan tempts Jesus to turn stones into bread. Jesus responds by quoting Deuteronomy 8:3, "Man shall not live by bread alone, but by every word that comes from the mouth of God." This shows that Jesus understands that physical sustenance is not the only thing that is important, but also spiritual nourishment from God's word.

The second temptation is that of testing God's protection, Satan tempts Jesus to throw himself down from the pinnacle of the temple, but Jesus responds by quoting Deuteronomy 6:16, "You shall not put the Lord your God to the test." This shows that Jesus understands that we should not test God and his protection, but have faith in him.

The third temptation is the temptation of power and Satan tempts Jesus to worship him in exchange for all the kingdoms of the world. Jesus responds by quoting Deuteronomy 6:13, "You shall worship the Lord your God and him only shall you serve." This shows that Jesus understands that the only one to be worshiped is God and that our ultimate allegiance should be to him.

Throughout this passage, Jesus teaches us the importance of having knowledge of scripture and the power of scripture in resisting temptation. In the same way, we can rely on the words of scripture to guide us through life's challenges and temptations. We must not only know the scripture, but also apply it in our daily lives, so that we can resist the temptation of Satan and remain faithful to God.

In the end, this passage reminds us that we are not alone in our struggles, and that we can find the strength and guidance we need in God's word. Let us turn to the Bible, in times of temptation and in all moments of our lives, and find the courage and resilience to overcome any obstacle that comes our way.



📚 मनन-चिंतन - 2


प्रलोभन हमारे जीवन में परीक्षा की घडी होते हैं। इस दौरान हमें ईश्वर पर विश्वास करते हुये दृढ़ता दिखानी चाहिये कि जो ईश्वर ने कहा है उसी में हमारी भलाई है। पवित्र धर्मग्रंथ हमें सिखाता है कि किस प्रकार अनेक लोगों ने प्रलोभन के दौरान विश्वास तथा आज्ञा में दृढ रहकर उन पर विजय पायी तथा इसके विपरीत कितनों ने प्रलोभन में गिर कर आज्ञा भंग का पाप किया।

हमारे आदि माता-पिता, आदम और हेवा प्रलोभन में गिरने वालों का उदाहरण है। उन्होंने ईश्वर की आज्ञा - इस ’’वृक्ष का फल नहीं खाना, क्योंकि जिस दिन तुम उसका फल खाओगे, तुम अवश्य मर जाओगे’’ (उत्पति 2:17) - को तोडा। यदि वे केवल इसी बात पर दृढ रहते कि ईश्वर ने जो कहा है उसी में भलाई है तो वे संशय और प्रलोभन में नहीं पडते। राजाओं क प्रथम ग्रंथ अध्याय 13 में हम यूदा के नबी के पतन की घटना पाते हैं। वह कहता हैं ’’प्रभु की वाणी द्वारा मुझे यह आज्ञा मिली है कि तुम न तो खाओगे, न पियोगे और न उस मार्ग से लौटोगे, जिस पर से तुम चल कर आये हो।’’ (1राजाओं 13:9) किन्तु आगे बढने पर उसे दूसरा व्यक्ति झूठ बोलकर फुसलाता है। इस प्रकार वह आज्ञा के विरूद्ध कार्य कर बैठता है और सिंह द्वारा रास्ते में मार डाला जाता है। लोट की पत्नी भी पीछे मुड कर देखने के अपने प्रलोभन से बच नहीं पाती है और नमक का खंभा बन जाती है।

इस प्रकार प्रलोभनों के दौरान हमें ईश्वर की आज्ञाओं की वैधता तथा उपयोगिता पर नहीं सोचना चाहिये बल्कि इस पर ध्यान देना चाहिये कि जो ईश्वर ने कहा है वह मेरे लिये उचित है। कई बार हम सोचते हैं, ’ऐसा करने से क्या हो जायेगा?’ या ’थोडा करके देखते है!’ किन्तु यही कमजोर सोच आगे जाकर हमारे पतन का कारण बनती है।


📚 REFLECTION


“Temptations are the tests of life. During such occasions we need to be firm that our redemption lies in believing that following God will be in our favour. Holy Scripture teaches us how many people have survived the storms of temptation and at the same time how many have fallen from grace.

Our first parents Adam and Eve are the examples of failure in temptation. They were told a very simple rule, “…of the tree of the knowledge of good and evil you shall not eat, for in the day that you eat of it you shall die.” (Genesis 2:17) If they were to remain firm in this principle that following God is better than anything else then they could have triumphed. First book of the Kings chapter 13 presents before us a very interesting case of a prophet who told, “You shall not eat food, or drink water, or return by the way that you came”. However, he was duped and thus was devoured by a lion. The wife of Lot could not control her curiosity to look back and was turned into a pillar of sault.

During the temptations we don’t have to think about the legality and the vitality of the command but just keep our focus on God’s promise that he will do no harm. Often we think ‘what is the use of following it? Or ‘Little bit of liberty is okay.’ But such thoughts prove make us losers.



प्रवचन - 01


प्रलोभन मानवीय जीवन का अभिन्न अंग है। प्रभु मानवीय जीवन की इस सच्चाई को स्वीकारते हुये कहते हैं, ’’प्रलोभन तो अनिवार्य है।’’ देखने में आता है कि अधिकांशः मनुष्य अपनी संपन्नता में प्रलोभन में पड जाते हैं। पवित्र बाइबिल में अनेक धर्मियों के अपनी संपन्नता और समृद्धि के दौरान प्रलोभन में गिरने की घटनायें देखने को मिलती है। ’’सावधान रहो-तुम अपने प्रभु ईश्वर को मत भूलो....कहीं ऐसा न हो कि जब तुम खा कर तृप्त हो जाओगे, जब तुम सुन्दर भवन बना कर उन में निवास करोगे, जब तुम्हारे गाय-बैलों और भेड़-बकरियों की संख्या बढ़ जायेगी, जब तुम्हारे पास बहुत सोना-चाँदी और धन सम्पत्ति एकत्र हो जायेगी’ तो तुम घमण्डी बन जाओ और अपने प्रभु ईश्वर को भूल जाओ।’’ (विधि-विवरण 8:11-14)

जब आदम और हेवा आनन्द के साथ अदन की वाटिका में जी रहे थे तो उन्हें किसी बात का अभाव नहीं था। ईश्वर ने उन्हें सारी स्वतंत्रता प्रदान की थी। इस दौरान शैतान अपनी धूर्तता से उनमें आज्ञा तोडने का विचार उत्पन्न करता है। अपनी संपन्नता में वे ईश्वर की एकमात्र आज्ञा को तोड देते हैं।

जब राजा दाउद ने उरिया की पत्नी बतशेबा से व्यभिचार किया तो वह अपनी सत्ता और समृद्धि में संपन्न था। नाथान अपने इस कथन ’’धनी के पास बहुत-सी भेड-बकरियॉ और गाय-बैल थे’’ (2 समुएल 12:2) से राजा दाउद की विपुलता इंगित करते हुये बताता कि किस प्रकार दाउद ने अपनी विपुलता में इन व्यभिचार और हत्या की बुराई के कार्य किये हैं। सुलेमान भी अपनी संपन्नता तथा सुखलोलुपता की पराकाष्ठा पर पहूँच कर मूर्तिपूजा आदि के घोर पाप करता है। मूर्ख धनी के दृष्टांत द्वारा प्रभु भी यही समझाते है कि धनी अपनी अच्छी फसल को देखकर ईश्वर को भूल गया था। धनी युवक येसु का अनुसरण इस कारण नहीं कर सका कि वह धनी एवं संपन्न था।

सांसारिक संपन्नता मानव के जीवन में इस प्रलोभन को जन्म देती है कि वह जीवन के नियमों के साथ खिलवाड करने में सक्षम है। अति-आत्मविश्वास उसे गलत धारणाओं की ओर ले जाता है। पैसा उसे इस बात का अहसास कराता है कि जोड-तोड कर हर गलत काम को ढाका जा सकता है। यह जुगाड की मानसिकता उसे ईश्वर के विधान और उसके पालन से दूर ले जाती है। सूक्तिग्रंथ में भक्त प्रभु से कहता है, ’’....कहीं ऐसा न हो कि मैं धनी बन कर तुझे अस्वीकार करते हुए कहूँ ’प्रभु कौन है?’’ (सुक्ति ग्रंथ 30:9) हमें भी अपनी संपन्नता के दौरान ईश्वर पर अपनी श्रद्धा का हास नहीं होने देना चाहिये। तिमथी के नाम पत्र में संत पौलुस चेतावनी देते हुये कहते हैं, “इस संसार के धनियों से अनुरोध करो कि वे घमण्ड न करे और नश्वर धन-सम्पत्ति पर नही, बल्कि ईश्वर पर भरोसा रखें।’’ (1तिमथी 6:17)

इसके विपरीत प्रभु येसु चालीस दिन के उपवास एवं प्रार्थना के बाद जब शैतान येसु की परीक्षा लेता है तब येसु निर्धन एवं भूखे है। ऐसी स्थिति में वह उन्हें अनेक प्रलोभन देता है। येसु की भूख पर निशाना कर वह उन्हें रोटी का लालच देते हुये कहता है, ’’यदि आप ईश्वर के पुत्र हैं, तो कह दीजिए कि ये पत्थर रोटियाँ बन जायें’’। (3) जब प्रभु क्षीण थे तो उन्हें खुद को बचाने की बात कहकर फुसलाता है। ’’यदि आप ईश्वर के पुत्र हैं तो नीचे कूद जाइए, क्योंकि लिखा है- तुम्हारे विषय में वह अपने दूतों को आदेश देगा। वे तुम्हें अपने हाथों पर सँभाल लेंगे कि कहीं तुम्हारे पैरों को पत्थर से चोट न लगे।’’(6) प्रभु निर्धन थे तो वह उन्हें वैभव का प्रलोभन देता है। ’’शैतान संसार के सभी राज्य और उनका वैभव दिखला कर बोला, ’यदि आप दण्डवत् कर मेरी आराधना करें, तो मैं आपको यह सब दे दूँगा!’’(9)

अपनी निर्धनता में भी प्रभु शैतान एवं उसके प्रपंचों पर विजय प्राप्त करते हैं। सांसारिक संपत्ति एवं आराम के नाम पर उनके पास कुछ नहीं था किन्तु प्रार्थना एवं उपवास की आध्यात्मिक शक्ति का अपार बल उन में था। वे न सिर्फ प्रलोभनों से बचते हैं बल्कि शैतान को निरूतर कर उन्हें हरा देते हैं। येसु के पास प्रार्थना एवं उपवास का बल था।

प्रार्थना के द्वारा मनुष्य ईश्वर के करीब होता जाता है। और जो ईश्वर के करीब होता है उन्हें ईश्वर अपना आध्यात्मिक बल एवं संरक्षण प्रदान करते हैं। प्रार्थना के द्वारा मनुष्य ईश्वर के सामर्थ्य एवं प्रकृति में सहभागी बनता है। येसु ने अपने व्यवस्त दिनचर्या के दौरान भी प्रार्थना निंरतर प्रार्थना करते रहे। सुसमाचार में अनके स्थानों पर येसु के प्रार्थना करते होने का जिक्र है। येसु ने अपने जीवन के सभी महत्वपूर्ण अवसरों पर प्रार्थना की।

अपनी शिक्षाओं में प्रभु इस पर अधिक जोर देते हुये कहते हैं, ’’जागते रहो और प्रार्थना करते रहो, जिससे तुम परीक्षा में न पडो।’’ (मती 26:41) प्रार्थना हमें शैतान की धूर्तता के प्रति सजग बनाये रखती है। जब ईसा के शिष्य गूँगे-बहरे अपदूत को लडके से नहीं निकाल सके तो उन्होंने एकांत में ईसा से पूछा, ’हम लोग उसे क्यों नहीं निकाल सके?’ उन्होंने उत्तर दिया, ’प्रार्थना और उपवास के सिवा और किसी उपाय से यह जाति नहीं निकाली जा सकती।’’ (मारकुस 9:28-29) ’हे पिता हमारी’ प्रार्थना में भी येसु शिष्यों को परीक्षा में गिरने से बचने के लिये प्रार्थना करना सिखाते हैं।

प्रार्थना हमें ईश्वर पर निर्भर रहना सिखाती है। हम प्रार्थना में अपना जीवन, जीवन की सारी आवश्यकतायें तथा अभावों को ईश्वर को चढाते हैं। हम विश्वास करते हैं कि चाहे जैसी भी परिस्थितियां हो ईश्वर हमारी मदद करेंगे। ऐसी मानसिकता हमें सांसारिक जोड़-तोड वाली दुर्भावनाओं से बचाये रखती है। संपन्नता में मनुष्य अपने धन-बल पर अधिक ध्यान देता है। वह समझता है कि धन सबकुछ खरीदने में समक्ष है। इसलिये ईश्वर पर भरोसा स्वाभाविक तौर पर कम रहता है। यही कारण है कि लोग परीक्षा में पड जाते है।

प्रलोभन में हमें याद रखना चाहिये कि ईश्वर हमें अकेला नहीं छोडते हैं। ईश्वर पर हमारा भरोसा अटल रहना चाहिये क्योंकि येसु ’’प्रभु धर्मात्माओं को संकटों से छुड़ाने....में समर्थ है।’’(2 पेत्रुस 2:9) ईश्वर प्रार्थना के द्वारा हमारा मनोबल बढाते तथा हर प्रकार के प्रलोभन पर विजयी होने का आश्वासन देते हैं। संत पौलुस यही सत्य बताते हैं, ’’आप लोगों को अब तक ऐसा प्रलोभन नहीं दिया गया है, जो मनुष्य की शक्ति से परे हो। ईश्वर सत्यप्रतिज्ञ है। वह आप को ऐसे प्रलोभन में पड़ने नहीं देगा, जो आपकी शक्ति से परे हो। वह प्रलोभन के समय आप को उससे निकलने का मार्ग दिखायेगा और इस प्रकार आप उस में दृढ़ बने रह सकेंगे।’’ (1कुरि.10:13)

आइये हम भी प्रभु को अपना आदर्श मानते हुये अपने प्रलोभनों पर प्रार्थना तथा उपवास के द्वारा विजय प्राप्त करे।



प्रवचन - 02


प्रलोभन बहुत ही मनमोहक और आकर्षक लगता है। यह सच्चा व अच्छा प्रतीत होता है पर ऐसा है नहीं। प्रलोभन एक जालसाज है। यह झूटा, छल-कपट और खोखला है। यह सच्चाई को छुपाता और मिथ्यात्व को सच्चाई व अच्छाई के रूप में पेश करता है। यहॉं तक कि प्रलोभन कोई अच्छाई को पेश कर हमें उन्हें गलत तरिके या अपनी स्वार्थ के लिए उपयोग करने को प्रेरित कर सकता है। परन्तु यह हमें विनाश की ओर ले जाता है। प्रलोभन हमारे जीवन में आते रहते हैं विभिन्न रूपों में। इस प्रकार यह हमारे जीवन का अभिन्न अंग है। कई बार हम इसकी ओर झूकते व इनके शिकार बनते हैं। अंग्रजी में कहा जाता है “self is selfish by nature”। इसलिए तो येसु कहते हैं-‘‘यदि कोई मेरा अनुसरण करना चाहे तो वह आत्म त्याग करे।” क्योंकि उसने स्वयं आत्म त्याग किया है। उसने अपने आत्म पर विजय हासिल किया है। अतः वे आत्मविजयी बन गये।

आज के प्रथम पाठ और सुसमाचार में हम प्रलोभन के बारे में सुनते है। ईश्वर की इच्छा व योजना रही कि मनुष्य ईश्वर के अधीनस्त रहे, उसके प्रति आज्ञाकारी एवं विश्वस्त रहे। मनुष्य पूर्ण रूप से ईश्वर पर निर्भर रहे। ईश्वर ने मनुष्य के लिए अदन वाटिका के रूप में एक सुन्दर दुनिया रची। इस सुन्दर दुनिया में आदम और हेवा को किसी प्रकार की कोई कमी नहीं थी। बस उन्हें वाटिका के बीचोबीच वाले वृक्ष का फल खाने से मना था। उसे स्पर्श तक नहीं करना था। परन्तु सॉंप ने हेवा से कहा कि वे उस वृक्ष के फल को खाने से ईश्वर के सदृश बन जायेंगे। शायद यही इच्छा थी उनमें कि वे ईश्वर के सदृश बने। उनकी यह इच्छा ईश्वर की इच्छा व योजना के विरूद्ध थी। उनकी इस इच्छा के कारण उन्हें अदन वाटिका से बाहर होना पड़ा। उनकी इस इच्छा के कारण वे ईश्वर के विरुद्ध बन गये। उनकी इस इच्छा से आज समस्त मानव जाति विभुषित है जिसे उसने अपने प्रथम माता-पिता से दाय के रूप में पाया है। इसलिए हर मनष्य में अच्छाई और बुराई का संघर्ष चलता रहता है।

हम विश्वास करते हैं कि येसु में मानव व दिव्य दोनों ही गुण रहा है। अतः वह पूर्ण रूप से मानुष्य व ईश्वर थे। एक निश्चित काल एंव स्थान में उसकी जन्म हुई। उसकी अपनी इतिहास रही है। उन्होंने हमारी ही तरह कठिनाइयॉं झेली। उसने एक आम मानुष्य के भॉति असहनीय दुःख व दर्द महसूस किया। उसे भी भूख व प्यास लगी। उसे भी परीक्षा व प्रलोभन झेलना पड़ा। उसे भी आपनी आत्मन् और ईश्वरता के बीच संधर्ष करनी पड़ी।

हम अधिकतम लोग उसकी मनुष्यता को अनदेखा कर देते या देखना नहीं चाहते हैं। हम सिर्फ उन्हे एक ईश्वर के रूप में देखते हैं। और जब हम उसे केवल ईश्वर के रूप में देखते हैं तो हमारे लिए उसका अनुसरण करना नमुकिन लगता है। तब हम उसका अनुसरण करने के स्थान में उसकी आराधना करते हैं। हम उसकी पूजा करते है। हम उसकी प्रशंसा करते हैं। लेकिन येसु ने बहुत ही स्पष्ट रूप से कहा है कि हमें उसका अनुसरण करना हैं। येसु ईश्वर ही है। पर हमें येसु को एक मनुष्य के रूप में भी देखना चाहिए। जब हम येसु को एक मनुष्य के रूप में देखेंगे तब हम उसका अनुसरण करेंगे। क्योंकि एक मनुष्य का अनुसरण किया जाना संभव हो सकता है पर ईश्वर अनुसरण करना शायद उतना सहज नहीं होगा। तो आवश्यता है येसु को एक मनुष्य के रूप में देखने व उसका अनुसरण करने की।

डाग हमारस्कजोल्ड स्वाडेशी राजनयिक या कूटनीतिज्ञ एवं लेखक था। वे सयुक्त राष्ट्र के द्वितीय महासचिव रहे हैं। सिर्फ यही एकल व्यक्ति है जिसके मरणोपरान्त नोबल प्राइस फोर पीस दिया गया था। 1961 में जब डाग युद्ध-विराम की समझोता के लिए कोन्गो जा रहा था तो विमान दुर्घटना में मारा गया। जब उसके कमरे की सफाई की गयी तब मारकिन्गस नाम से व्यक्तिगत डायरी या पत्रिका पायी गयी। इसे जुड़े हुए एक पेपर था जिसमें लिखा गया था कि यह प्रकाशित किया जा सकता है। अतः उसे प्रकाशित किया गया। और यह सर्वाधिक बिकाऊ बन गया। उस डायरी या पत्रिका के अन्दर प्रभु येसु के प्रार्थना का बहुत सारा जिक्र है। उन में से सबसे अधिक हृदयस्पर्शी है-‘‘आप का नाम पवित्र माना जाये मेरा नही, आपका राज्य आये मेरा नहीं, आपकी इच्छा पूरी होवे मेरी नहीं।’’

यदि हम येसु की परीक्षा या प्रलोभन पर गहन चिन्तन करेंगे तो हम पायेंगे कि येसु की परीक्षा या प्रलोभन इन्ही बातों पर आधारित है- नाम, राज्य, और इच्छा। सर्वप्रथम हमें यह स्वीकार करना जरूरी है कि येसु एक मनुष्य भी थे। और इसलिए शैतान ने उसकी परीक्षा ली। यह परीक्षा येसु के लिए एक कठिन संघर्ष था। संघर्ष इसलिए कि वह पूर्ण रूप से मानव भी था। बपतिस्मा के पश्चात् आत्मा येसु को निर्जन प्रदेश ले चला जहॉं सुसमाचार के अनुसार उसकी परीक्षा ली गयी। उसकी परीक्षा उसके सर्वजनिक कार्य के प्रारम्भ करने के पूर्व हुआ। अतः येसु की परिक्षा एक तरह से येसु के अंतरिक संघर्ष को दर्शाता है कि वह किस प्रकार अपने मिशन कार्य को पूरा करे। उसके पास विकल्प था कि वह ईश्वर की इच्छा व योजना के अनुसार पूरा करे या फिर अपनी इच्छा के अनुसार या शैतान के प्रभाव में आ कर अपनी दिव्य शक्ति का उपयोग कर। बपतिस्मा में पिता ईश्वर ने यह घोषित किया था कि येसु ईश्वर के पुत्र हैं। शैतान आकर येसु से कहता है-‘‘यदि आप ईश्वर के पुत्र हों, तो कह दीजिए कि ये पत्थर रोटियॉं बन जायें।’’ शैतान उसे अपने दिव्य शक्ति अपने भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति करने के लिए कह रहा है। अगर येसु शैतान की बात मान लेता तो उसकी स्वार्थ की आवश्यकताएं पूरी हो जाती। साथ ही यह बहुत बड़ा चमत्कार होता। उसकी ख्याति एकदम से फैल जाता। उसका नाम होता, लोग उनपर विश्वास करते। पर यह ईश्वर की इच्छा व योजना के विरूद्ध था। येसु ने इसे नकारा। अपनी इच्छा या आत्मन् को त्याग देकर ईश्वर की इच्छा व योजना को अपनाया।

दूसरी बार में शैतान येसु को मंदिर के शिखर पर खड़ा कर कहता है-‘‘यदि आप ईश्वर के पुत्र हों, तो नीचे कूद जाइए, क्योंकि लिखा है....।’’ यह परीक्षा येसु की महत्त्वाकांक्षा के लिए एक विकाल्प है। आदम और हेवा महत्त्वाकांक्षी थे। वे ईश्वर के समान बनना चाहते थे। वे अपने इच्छानुसार चले और ईश्वर की आज्ञा का उलंघन किये। मंदिर के शिखर से कूद जाना बहुत ही भव्य एवं अपूर्व चमत्कार होता। लोगों को येसु पर विश्वास कराने में उत्प्रेरक होता। शैतान येसु को ईश्वर के पुत्र होने का शक्ति-प्रादर्शन कर ईश्वर के पुत्र साबित करने का एक मौका देता है। परन्तु येसु का उत्तर यह प्रमाणित करता है कि येसु अपने पिता ईश्वर पर विश्वास करता है और ऐसे कुछ मुर्खता कर अपने पिता ईश्वर के वचनों का परीक्षण नहीं करेगा। एक और बार येसु अपने मानवीय आत्मन् या शैतान पर विजय हासिल करते है।

तीसरी बार शैतान येसु को संसार के सभी राज्य और उनका वैभव दिखलाता है और संसारिक राज्य की स्थापना करने के लिए अहवान देता है। बस आवश्यकता थी कि येसु इसके लिए तैयार हो जाएं, इस प्रस्ताव को स्वीकार करे। परन्तु पिता ईश्वर की योजाना थी कि येसु स्वर्ग राज्य की स्थापना करे। येसु ने शैतान के या अपने आत्मन् के प्रस्ताव को ठुकराया। उसने संसारिक राज्य के स्थान पर स्वर्गराज्य को चुना। येसु ने शैतान पर या अपने आत्मन् पर पुनः विजय हासिल किया। आदम और हेवा ने आज्ञा-उलंघन द्वारा विनाश लाया। येसु ने आज्ञापालन द्वारा जीवन लाया।

प्रिय भाइयो-बहनों शैतान बाहर से आया या फिर प्रलोभन या परीक्षा येसु के आत्मन् का प्रतिफल है कहा नहीं सकता। पर एक बात तो सच व सामान्य है कि हरएक इन्सान इस तरह का संघर्ष महसूस करता है। शैतान हमारी आत्मन् की ओर हमें आकर्षित करता है तो येसु ईश्वर की ओर आने के लिए अहवान देता है। इस तरह से हम कभी ईश्वर की ओर झूकते हैं तो कभी आत्मन् की ओर। यह खिंच-तान हम अपने जीवन में हर कदम पर हर क्षण महसूस करते है। तो आवश्यकता है हमें अपने आत्मन् को जीतने की।


 -Br. Biniush Topno


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