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29 मई 2022, इतवार* *स्वर्गारोहण का पर्व*

 *CATHOLIC BIBLE MINISTRY ✞*


*29 मई 2022, इतवार*

*स्वर्गारोहण का पर्व*

*पहला पाठ*
प्रेरित-चरित 1:1-11



1 थेओफिलुस! मैंने अपनी पहली पुस्तक में उन सब बातों का वर्णन किया,

2) जिन्हें ईसा उस दिन तक करते और सिखाते रहे जिस दिन वह स्वर्ग में आरोहित कर लिये गये। उस से पहले ईसा ने अपने प्रेरितों को, जिन्हें उन्होंने स्वयं चुना था, पवित्र आत्मा द्वारा अपना कार्य सौंप दिया।

3) ईसा ने अपने दुःख भोग के बाद उन प्रेरितों को बहुत से प्रमाण दिये कि वह जीवित हैं। वह चालीस दिन तक उन्हें दिखाई देते रहे और उनके साथ ईश्वर के राज्य के विषय में बात करते रहे।

4) ईसा ने प्रेरितों के साथ भोजन करते समय उन्हें आदेश दिया कि वे येरुसालेम नहीं छोड़े, बल्कि पिता ने जो प्रतिज्ञा की, उसकी प्रतीक्षा करते रहें। उन्होंने कहा, ‘‘मैंने तुम लोगों को उस प्रतिज्ञा के विषय में बता दिया है।

5) योहन जल का बपतिस्मा देता था, परन्तु थोड़े ही दिनों बाद तुम लोगों को पवित्र आत्मा का बपतिस्मा दिया जायेगा’’।

6) जब वे ईसा के साथ एकत्र थे, तो उन्होंने यह प्रश्न किया- ‘‘प्रभु! क्या आप इस समय इस्राएल का राज्य पुनः स्थापित करेंगे ?’’

7) ईसा ने उत्तर दिया, ‘‘पिता ने जो काल और मुहूर्त अपने निजी अधिकार से निश्चित किये हैं, तुम लोगों को उन्हें जानने का अधिकार नहीं है।

8) किन्तु पवित्र आत्मा तुम लोगों पर उतरेगा और तुम्हें सामर्थ्य प्रदान करेगा और तुम लोग येरुसालेम, सारी यहूदिया और सामरिया में तथा पृथ्वी के अन्तिम छोर तक मेरे साक्षी होंगे।’’

9) इतना कहने के बाद ईसा उनके देखते-देखते आरोहित कर लिये गये और एक बादल ने उन्हें शिष्यों की आँखों से ओझल कर दिया।

10) ईसा के चले जाते समय प्रेरित आकाश की ओर एकटक देख ही रहे थे कि उज्ज्वल वस्त्र पहने दो पुरुष उनके पास अचानक आ खड़े हुए और

11) बोले, ‘‘गलीलियो! आप लोग आकाश की ओर क्यों देखते रहते हैं? वही ईसा, जो आप लोगों के बीच से स्वर्ग में आरोहित कर दिये गये हैं, उसी तरह लौटेंगे, जिस तरह आप लोगों ने उन्हें जाते देखा है।’’

💦 *दूसरा पाठ*
एफ़ेसियों के नाम सन्त पौलुस का पत्र 1:17-23

17) महिमामय पिता, हमारे प्रभु ईसा मसीह का ईश्वर, आप लोगों को प्रज्ञा तथा आध्यात्मिक दृष्टि प्रदान करे, जिससे आप उसे सचमुच जान जायें।

18) वह आप लोगों के मन की आँखों को ज्योति प्रदान करे, जिससे आप यह देख सकें कि उसके द्वारा बुलाये जाने के कारण आप लोगों की आशा कितनी महान् है और सन्तों के साथ आप लोगों को जो विरासत मिली है, वह कितनी वैभवपूर्ण तथा महिमामय है,

19) और हम विश्वासियों के कल्याण के लिए सक्रिय रहने वाले ईश्वर का वही सामर्थ्य कितना अपार है।

20) ईश्वर ने मसीह वही सामर्थ्य प्रदर्शित किया, जब उसने मृतकों में से उन्हें पुनर्जीवित किया और स्वर्ग में अपने दाहिने बैठाया।

21) स्वर्ग में कितने ही प्राणी क्यों न हों और उनका नाम कितना ही महान् क्यों न हो, उन सब के ऊपर ईश्वर ने इस युग के लिए और आने वाले युग के लिए मसीह को स्थान दिया।

22) उसने सब कुछ मसीह के पैरों तले डाल दिया और उन को सब कुछ पर अधिकर दे कर कलीसिया का शीर्ष नियुक्त किया।

23) कलीसिया मसीह का शरीर और उनकी परिपूर्णता है। मसीह सब कुछ, सब तरह से, पूर्णता तक पहुँचाते हैं।

अथवा

💦*दूसरा पाठ*
इब्रानियों 9:24-28, 10:19-23

24) क्योंकि ईसा ने हाथ के बने हुए उस मन्दिर में प्रवेश नहीं किया, जो वास्तविक मन्दिर का प्रतीक मात्र है। उन्होंने स्वर्ग में प्रवेश किया है, जिससे वह हमारी ओर से ईश्वर के सामने उपस्थित हो सकें।

25) प्रधानयाजक किसी दूसरे का रक्त ले कर प्रतिवर्ष परमपावन मन्दिर-गर्भ में प्रवेश करता है। ईसा के लिए इस तरह अपने को बार-बार अर्पित करने की आवश्यकता नहीं है।

26) यदि ऐसा होता तो संसार के प्रारम्भ से उन्हें बार-बार दुःख भोगना पड़ता, किन्तु अब युग के अन्त में वह एक ही बार प्रकट हुए, जिससे वह आत्मबलिदान द्वारा पाप को मिटा दें।

27) जिस तरह मनुष्यों के लिए एक ही बार मरना और इसके बाद उनका न्याय होना निर्धारित है,

28) उसी तरह मसीह बहुतों के पाप हरने के लिए एक ही बार अर्पित हुए। वह दूसरी बार प्रकट हो जायेंगे- पाप के कारण नहीं, बल्कि उन लोगों को मुक्ति दिलाने के लिए, जो उनकी प्रतीक्षा करते हैं।

19) भाइयो! ईसा का रक्त हमें निर्भय हो कर परमपावन मन्दिर-गर्भ में प्रवेश करने का आश्वासन देता है।

20) उन्होंने हमारे लिए एक नवीन तथा जीवन्त मार्ग खोल दिया, जो उनके शरीर-रूपी परदे से हो कर जाता है।

21) अब हमें एक महान् पुरोहित प्राप्त हैं, जो ईश्वर के घराने पर नियुक्त किये गये हैं।

22) इसलिए हम अपने हृदय को पाप के दोष से मुक्त कर और अपने शरीर को स्वच्छ जल से धो कर निष्कपट हृदय से तथा परिपूर्ण विश्वास के साथ ईश्वर के पास चलें।

23) हम अपने भरोसे का साक्ष्य देने में अटल एवं दृढ़ बने रहें, क्योंकि जिसने हमें वचन दिया है, वह सत्यप्रतिज्ञ है

💦 *सुसमाचार*
लूकस 24:46-53

46) और उन से कहा, "ऐसा ही लिखा है कि मसीह दुःख भोगेंगे, तीसरे दिन मृतकों में से जी उठेंगे

47) और उनके नाम पर येरूसालेम से ले कर सभी राष्ट्रों को पापक्षमा के लिए पश्चात्ताप का उपदेश दिया जायेगा।

48) तुम इन बातों के साक्षी हो।

49) देखों, मेरे पिता ने जिस वरदान की प्रतिज्ञा की है, उसे मैं तुम्हारे पास भेजूँगा। इसलिए तुम लोग शहर में तब तक बने रहो, जब तक ऊपर की शक्ति से सम्पन्न न हो जाओ।"

50) इसके बाद ईसा उन्हें बेथानिया तक ले गये और उन्होंने अपने हाथ उठा कर उन्हें आशिष दी।

51) आशिष देते-देते वह उनकी आँखों से ओझल हो गये और स्वर्ग में आरोहित कर लिये गये।

52) वे उन्हें दण्डवत् कर बड़े आनन्द के साथ येरूसालेम लौटे

53) और ईश्वर की स्तुति करते हुए सारा समय मन्दिर में बिताते थे।

💦 *मनन-चिंतन*
जब जीवन उल्टा और कठिन हो जाता है तो आप क्या करते हैं? आज के पहले पाठ में हम पाते हैं कि स्टीफ़न अँधेरे में फँस के उनका जीवन उलट गया था । लेकिन यह पूरी तरह सही नहीं है। आप यह भी कह सकते हैं कि स्टीफन का अंत हो गया ; स्टीफन का दिन खराब चल रहा है, लेकिन यह सच नहीं है। स्टीफन सबसे अच्छे दिन बिता रहे हैं। स्टीफन जीने के लिए मर रहा है। जब वह मरता है तो उसे स्वर्ग की ओर देखने और उस महिमा को देखने का सौभाग्य प्राप्त होता है जो विश्वासियों की प्रतीक्षा में है। सुसमाचार में, यीशु आपके और मेरे लिए प्रार्थना करते हैं। यीशु उन सभी के लिए प्रार्थना करते हैं जो सदियों से उन पर विश्वास करेंगे। वह एकता के लिए प्रार्थना करता है, एकरूपता के लिए नहीं। अगर यीशु हमारी एकता के लिए प्रार्थना कर रहे हैं तो वह उन सीमाओं और मतभेदों को भी पहचान और अस्वीकार कर रहे हैं जो हमें विभाजित करते हैं। एकता हमारे मतभेदों को दूर करने में है; यह प्यार के बारे में है। ईश्वर से, अपने पड़ोसी से, स्वयं से और अपने शत्रु से हमें प्रेम करना है ।

✍ - Br. Biniush Topno

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22 मई 2022, इतवार

*✞ GOD'S WORD ✞*
 *22 मई 2022, इतवार* *पास्का का छठवाँ इतवार*
*पहला पाठ* प्रेरित-चरित 15:1-2,22-30 1)

 कुछ लोग यहूदिया से अन्ताखि़या आये और भाइयों को यह शिक्षा देते रहे कि यदि मूसा से चली आयी हुई प्रथा के अनुसार आप लोगों का ख़तना नहीं होगा, तो आप को मुक्ति नहीं मिलेगी। 2) इस विषय पर पौलुस और बरनाबस तथा उन लोगों के बीच तीव्र मतभेद और वाद-विवाद छिड़ गया, और यह निश्चय किया गया कि पौलुस तथा बरनाबस अन्ताखि़या के कुछ लोगों के साथ येरूसालेम जायेंगे और इस समस्या पर प्रेरितों तथा अध्यक्षों से परामर्श करेंगे। 22) तब सारी कलीसिया की सहमति से प्रेरितों तथा अध्यक्षों ने निश्चय किया कि हम में कुछ लोगों को चुन कर पौलुस तथा बरनाबस के साथ अन्ताखि़या भेजा जाये। उन्होंने दो व्यक्तियों को चुना, जो भाइयों में प्रमुख थे, अर्थात् यूदस को, जो बरसब्बास कहलाता था, तथा सीलस को, 23) और उनके हाथ यह पत्र भेजा: "प्रेरित तथा अध्यक्ष, आप लोगों के भाई, अन्ताखि़या, सीरिया तथा किलिकिया के ग़ैर-यहूदी भाइयों को नमस्कार करते हैं। 24) हमने सुना है कि हमारे यहाँ के कुछ लोगों ने, जिन्हें हमने कोई अधिकार नहीं दिया था, अपनी बातों से आप लोगों में घबराहट उत्पन्न की और आपके मन को उलझन में डाल दिया है। 25) इसलिए हमने सर्वसम्मति से निर्णय किया है कि प्रतिनिधियों का चुनाव करें और उन को अपने प्रिय भाई बरनाबस और पौलुस के साथ, 26) जिन्होंने हमारे प्रभु ईसा मसीह के नाम पर अपना जीवन अर्पित किया है, आप लोगों के पास भेजें। 27) इसलिए हम यूदस तथा सीलस को भेज रहे हैं। वे भी आप लोगों को यह सब मौखिक रूप से बता देंगे। 28) पवित्र आत्मा को और हमें यह उचित जान पड़ा कि इन आवश्यक बातों के सिवा आप लोगों पर कोई और भार न डाला जाये। 29) आप लोग देवमूर्तियों पर चढ़ाये हुए मांस से, रक्त, गला घोंटे हुए पशुओं के मांस और व्यभिचार से परहेज़ करें। इन से अपने को बचाये रखने में आप लोगों का कल्याण है। अलविदा!" 30) वे विदा हो कर अन्ताखि़या चल दिये और वहाँ पहुँच कर उन्होंने भाइयों को एकत्र कर वह पत्र दिया। _




 *दूसरा पाठ*   - प्रकाशना 21:10-14,22-23 10) 

मैं आत्मा से आविष्ट हो गया और स्वर्गदूत ने मुझे एक विशाल तथा ऊँचे पर्वत पर ले जा कर पवित्र नगर येरूसालेम दिखाया। वह ईश्वर के यहाँ से आकाश में उतर रहा था। 11) वह ईश्वर की महिमा से विभूषित था और बहुमूल्य रत्न तथा उज्ज्वल सूर्यकान्त की तरह चमकता था। 12) उसके चारों ओर एक बड़ी और उँची दीवार थी, जिस में बारह फाटक थे और हर एक फाटक के सामने एक स्वर्गदूत खड़ा था। फाटकों पर इस्राएल के बारह वंशों के नाम अंकित थे। 13) पूर्व की आरे तीन, उत्तर की और तीन, पश्चिम की आरे तीन और दक्षिण की ओर तीन फाटक थे। 14) नगर की दीवार नींव के बारह पत्थरों पर खड़ी थी और उन पर मेमने के बारह प्रेरितों के नाम अंकित थे। 15) जो मुझ से बातें कर रहा था, उसके पास नगर, उसके फाटक और उसकी दीवार नापने के लिए एक मापक-दण्ड, सोने का सरकण्डा था। 16) नगर वर्गाकार था। उसकी लम्बाई उसकी चौड़ाई के बराबर थी। उसने सरकण्डे से नगर नापा, तो बारह हजार ुफरलांग निकला। उसकी लम्बाई, चौड़ाई और उंचाई बराबर थी। 17) उसने उसकी दीवार नापी, तो- मनुष्यों में प्रचिलत माप के अनुसार, जिसका स्वर्गदूत ने उपयोग किया- एक सौ चौवालीस हाथ निकला। 18) नगर की दीवार सूर्यकान्त की बनी थी, लेकिन नगर विशुद्ध स्वर्ण का बना था, जो स्फटिक जैसा चमकता था। 19) दीवार की नींव नाना प्रकार के रत्नों की बनी थी। पहली परत सूर्यकान्त की थी, दूसरी नीलम की, तीसरी गोदन्ती की, चौथी मरकत की, 20) पांचवी गोमेदक की, छठी रूधिराख्य की, सातवीं स्वर्णमणि की, आठवीं फीरोजे की, नवीं पुखराज की, दसवीं रूद्राक्षक की, ग्यारहवीं धूम्रकान्त की और बाहरवीं चन्द्रकान्त की। 21) बारह फाटक बारह मोतियों के बने थे, प्रत्येक फाटक एक-एक मोती का बना था। नगर का चौक पारदर्शी स्फटिक-जैसे विशुद्ध सोने का बना था। 22) मैंने उस में कोई मन्दिर नहीं देखा, क्योंकि सर्वशक्तिमान् प्रभु-ईश्वर उसका मन्दिर है और मेमना भी। 23) नगर को सूर्य अथवा चन्द्रमा के प्रकाश की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि ईश्वर की महिमा उसकी ज्योति और मेमना उसका प्रदीप है। _


_ *सुसमाचार*   योहन 14:23-29 23) 

ईसा ने उसे उत्तर दिया यदि कोई मुझे प्यार करेगा तो वह मेरी शिक्षा पर चलेगा। मेरा पिता उसे प्यार करेगा और हम उसके पास आकर उस में निवास करेंगे। 24) जो मुझे प्यार नहीं करता, वह मेरी शिक्षा पर नहीं चलता। जो शिक्षा तुम सुनते हो, वह मेरी नहीं बल्कि उस पिता की है, जिसने मुझे भेजा। 25) तुम्हारे साथ रहते समय मैंने तुम लोगों को इतना ही बताया है। 26) परन्तु वह सहायक, वह पवित्र आत्मा, जिसे पिता मेरे नाम पर भेजेगा तुम्हें सब कुछ समझा देगा। मैंने तुम्हें जो कुछ बताया, वह उसका स्मरण दिलायेगा। 27) मैं तुम्हारे लिये शांति छोड जाता हूँ। अपनी शांति तुम्हें प्रदान करता हूँ। वह संसार की शांति-जैसी नहीं है। तुम्हारा जी घबराये नहीं। भीरु मत बनो। 28) तुमने मुझ को यह कहते सुना- मैं जा रहा हूँ और फिर तुम्हारे पास आऊँगा। यदि तुम मुझे प्यार करते, तो आनन्दित होते कि मैं पिता के पास जा रहा हूँ, क्योंकि पिता मुझ से महान है। 29) मैंने पहले ही तुम लोगों को यह बताया, जिससे ऐसा हो जाने पर तुम विश्वास करो।


 *मनन-चिंतन*


 मुझे आश्चर्य होता है कभी कभी कि यीशु के समय की महिलाओं की सोच क्या होगी । क्योंकि प्रेरित, परिषद के प्रतिनिधि और चर्च के कमिटी के सभी पुरुष थे। पुरुषों को आधिकारिक तौर पर बारह प्रेरितों के रूप में चुना गया और उन्हें सुसमाचार के राजदूत और प्रेरित के रूप में भेजा गया। और फिर भी, हम जानते हैं कि यीशु के जीवन में महिलाएं अहम् भूमिका निभयीं । उसकी माँ, मैरी; मरियम मगदलीनी, जो कब्र के पास जी उठे हुए मसीह का दर्शन की और प्रेरितों को बताई ; समारिया की ओ स्त्री जो कुएं के पास थी और वह स्त्री जिसे पथराव होने से बचाया गया था। स्त्रियाँ भी यीशु को जानती और प्रेम करती थीं और सुसमाचार की वाहक थीं। वे हमें याद दिलाते हैं कि महिलाओं और पुरुषों को दुनिया में यीशु के प्रेम के जीवित गवाह, आशा के राजदूत और दया के प्रेरित और प्रेरक होने के लिए बुलाया गया है। चाहे हमें धार्मिक, विवाहित, अविवाहित, या किसी भी स्थिति में हो, हम सभी को यरूशलेम की परिषद के उस 'पत्र' द्वारा सुसमाचार की घोषणा करने और हमारे पुनर्जीवित मसीह के आनंद में जीने के लिए अनिवार्य किया गया है। 

 ✍ -Br. Biniush Topno
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21 मई 2022, शनिवार पास्का का पाँचवाँ सप्ताह*

21 मई 2022, शनिवार पास्का का पाँचवाँ सप्ताह 🚥🚥🚥🚥🚥🚥🚥🚥 पहला पाठ : प्रेरित-चरित 16:1-10 1) इसके बाद वह देरबे और लुस्त्रा पहुँचा। वहाँ तिमथी नामक एक शिष्य था, जो ईसाई यहूदी माता तथा यूनानी पिता का पुत्र था। 2) लुस्त्रा और इकोनियुम के भाइयों में उसका अच्छा नाम था। 3) पौलुस चाहता था कि वह यात्रा में उसका साथी बने। उस प्रदेश में रहने वाले यहूदियों के कारण उसने तिमथी का ख़तना कराया, क्योंकि सब जानते थे कि उसका पिता यूनानी है। 4) वे नगर-नगर जा कर येरुसालेम में प्रेरितों तथा उनके पालन का आदेश देते थे। 5) इस प्रकार कलीसियाओं का विश्वास दृढ़ होता जा रहा था और उनकी संख्या दिन-दिन बढ़ रही थी। 6) जब पवित्र आत्मा ने उन्हें एशिया में वचन का प्रचार करने से मना किया, तो उन्होंने फ्रुगिया तथा गलातिया का दौरा किया। 7) मुसिया के सीमान्तों पर पहुँच कर वे बिथुनिया जाने की तैयारी कर रहे थे कि ईसा के आत्मा ने उन्हें अनुमति नहीं दी। 8) इसलिए वे मुसिया पार कर त्रोआस आये। 9) वहाँ पौलुस ने रात को एक दिव्य दर्शन देखा। एक मकेदूनी उसके सामने खड़ा हो कर यह अनुरोध कर रहा था, ’’आप समुद्र पार कर मकेदूनिया आइए और हमारी सहायता कीजिए’’। 10) इस दर्शन के बाद हमने यह समझ कर तुरन्त मकेदूनिया जाने का प्रयत्न किया कि ईश्वर ने वहाँ सुसमाचार का प्रचार करने के लिए हमें बुलाया है। * सुसमाचार : योहन 15:18-21 18) यदि संसार तुम लोगों से बैर करे, तो याद रखो कि तुम से पहले उसने मुझ से बैर किया। 19) यदि तुम संसार के होते, तो संसार तुम्हें अपना समझ कर प्यार करता। परन्तु तुम संसार के नहीं हो, क्योंकि मैंने तुम्हें संसार में से चुन लिया हैं। इसीलिये संसार तुम से बैर करता है। 20) मैंनें तुम से जो बात कही, उसे याद रखो- सेवक अपने स्वामी से बडा नहीं होता। यदि उन्होंने मुझे सताया, तो वे तुम्हें भी सतायेंगे। यदि उन्होंने मेरी शिक्षा का पालन किया तो वे तुम्हारी शिक्षा का भी पालन करेंगे। 21) वे यह सब मेरे नाम के कारण तुम लोगो के साथ करेंगे क्योंकि जिसने मुझे भेजा, उसे वे नहीं जानते। 📚 मनन-चिंतन- 2 नफरत एक ऐसा शब्द है जिससे मैं आमतौर पर बचने की कोशिश करता हूं क्योंकि यह मेरे मुंह में एक बुरा स्वाद छोड़ देता है और मेरे दिल के सिकुड़ने और मेरी आत्मा पर काले बादल छाने की शारीरिक अनुभूति को भड़का सकता है। हालाँकि, जब मैं कहता हूँ या सोचता हूँ कि 'मैं किसी से घृणा नहीं करता' या 'मैं घृणा से प्रभावित नहीं हूँ', संत पापा फ्राँसिस मुझे याद दिलाते हैं कि प्रेम का विपरीत घृणा नहीं है, बल्कि उदासीनता है। यह 'मैं संतुष्ट हूं' का रवैया है। मुझे किसी चीज की कमी नहीं है। मेरे पास सब कुछ है। मैंने इस जीवन और अगले जीवन में अपना स्थान सुनिश्चित किया है, क्योंकि मैं हर रविवार को मिस्सा में जाता हूं। मैं एक अच्छा ईसाई हूं। लेकिन होटेल से निकलते हुए, मैं दूसरी तरफ देखता हूँ [भीख माँगने के लिए हाथ उठाने वाली बेघर महिला की उपेक्षा करते हुए]।' आज मैं प्रार्थना करता हूँ कि मेरे दिल में किसी भी नफरत या उदासीनता को दूर करने का साहस हो ताकि मैं सहानुभूति और सांत्वना देने दूसरों तक पहुँच सकूँ और करुणा दिखाता रहूं । 📚 REFLECTION Jesus in today’s gospel warns us when He said: “If the world hates you, realize that it hated me first…. If they persecuted me, they will also persecute you,” (vv. 18, 20). What does Jesus mean when he says “the world?” The “world” in Scripture refers to that society of people who are hostile towards God and opposed to His will. When Jesus talks of persecutions also, He was referring to the sufferings and persecutions His disciples would undergo at the hands of the Jews and the Romans in proclaiming His teachings. The “world” that rejects Jesus and His disciples can expect the same treatment. Jesus leaves no middle ground for his followers. We are either for Him or against Him, for His kingdom of light or for the kingdom of darkness. Why have been Christians persecuted in the course of the centuries? When Christians say that Jesus Christ is Lord, they are saying that nobody else and nothing else is lord, and that creates enemies. Suffering is part of human existence. It is because a life with Jesus is not a bed of roses. Thus, we should not pray for an easy life. Instead, we pray to become stronger persons in facing challenges of life and bring out the best that God has given us. But today except in hostile non-Christian countries, the persecutions referred to by the Lord are no longer felt. In day-to-day life these may take the form of being ostracized. 📚 मनन-चिंतन - 2 प्रभु येसु ने अपने कार्यों और विशेष करके स्वर्गराज्य के फैलाव के लिए शिष्यों को चुनते है। वे उनके कार्य, रंग, रूप या धन दौलत को देखकर नहीं अपितु उनका ह्दय और उनके सरल जीवन का देखकर उन्हें चुनते है। आज के सुसमाचार में प्रभु येसु कहते है कि ‘मैने तुम्हें संसार से चुन लिया है’। सभी शिष्यगण अपने अपने कार्यो और जीवन में जी रहें थे। जब येसु उन्हें बुलाते है तो वे अपने कार्यों को छोड़कर उनके पीछे हो लेते है, येसु उन्हे उनके संसारिक कार्यो से छुड़ाकर एक नयें आध्यात्मिक कार्य के लिए चुनता है। परंतु जब वे उन्हें चुनते है और स्वर्गराज्य के कार्यो में आगे लगाने की बात कहते है तो वे बताते है कि वे इस संसार के होते हुए भी इस संसार के नहीं होंगे अर्थात् उनका मन, विचार, बातचीत, रहन सहन इस संसार से परे हो जाएगा और इस कारण उन्हें संसार से घृणा और बैर सहना पड़ेगा। प्रभु का संसार से लोगों का चुनना आज भी जारी है, वे सरल ह्दय और अपना जीवन उनको समर्पित करने वाले व्यक्तियों को चुनते है जिससे वे ईश्वर के कार्य में अपना जीवन दे सकें। हम प्रार्थना करें कि अधिक से अधिक लोग ईश्वर के द्वारा चुने जायें जिससे संसार में ईश्वर राज्य निरंतर फैलता जाये। आमेन! ✍फ़ादर डेनिस तिग्गा 📚 REFLECTION In order to carry forward his work especially the spreading of God’s Kingdom Jesus chooses the disciples. He doesn’t choose them by seeing their work, colour, stature or wealth but he chose them by seeing their hearts and simple lives. In today’s gospel Jesus says, “I have chosen you out of the world.” All the disciples were living in their own world doing their own works. When Jesus calls them they leave their works and start following him. Jesus chooses them for the new spiritual work by making them to leave the worldly works. But when he chooses and leads them for the work of Kingdom of heaven, he tells them that they being of this world will not be of this world, in other words their mind, thoughts, conversation, livelihood will be different from the others and because of this they have to bear the hostility and enemity from this world. God continue to choose people even today, He chooses the people with simple hearts and lives so that they can surrender their lives for the work of God. Let’s pray that more and more people may be chosen by God so that God’s Kingdom may continue to spread in the world. Amen! ✍ -Br.Biniush Topno  Copyright © www.catholicbibleministry1.blogspot.com Praise the Lord!

15 मई 2022, इतवार पास्का का पाँचवाँ इतवार

15 मई 2022, इतवार पास्का का पाँचवाँ इतवार
👉पहला पाठ : प्रेरित-चरित 14:21-27 21) उन्होंने उस नगर में सुसमाचार का प्रचार किया और बहुत शिष्य बनाये। इसके बाद वे लुस्त्रा और इकोनियुम हो कर अन्ताखिया लौटे। 22) वे शिष्यों को ढारस बँधाते और यह कहते हुए विश्वास में दृढ़ रहने के लिए अनुरोध करते कि हमें बहुत से कष्ट सह कर ईश्वर के राज्य में प्रवेश करना है। 23) उन्होंने हर एक कलीसिया में अध्यक्षों को नियुक्त किया और प्रार्थना तथा उपवास करने के बाद उन लोगों को प्रभु के हाथों सौंप दिया, जिस में वे लोग विश्वास कर चुके थे। 24) वे पिसिदिया पार कर पम्फुलिया पहुँचे 25) और पेरगे में सुसमाचार का प्रचार करने के बाद अत्तालिया आये। 26) वहाँ से वे नाव पर सवार हो कर अन्ताखिया चल दिये, जहाँ से वे चले गये थे और जहाँ लोगों ने उस कार्य के लिए ईश्वर की कृपा माँगी थी, जिसे उन्होंने अब पूरा किया था। 27) वहाँ पहुँचकर और कलसिया की सभा बुला कर वे बताते रहे कि ईश्वर ने उनके द्वारा क्या-क्या किया और कैसे गै़र-यहूदियों के लिए विश्वास का द्वार खोला। 👉दूसरा पाठ : प्रकाशना 21:1-5 1) तब मैंने एक नया आकाश और एक नयी पृथ्वी देखी। पुराना आकाश तथा पुरानी पृथ्वी, दोनों लुप्त हो गये थे और समुद्र भी नहीं रह गया था। 2) मैंने पवित्र नगर, नवीन येरूसालेम को ईश्वर के यहाँ से आकाश में उतरते देखा। वह अपने दुल्हे के लिए सजायी हुई दुल्हन की तरह अलंकृत था। 3) तब मुझे सिंहासन से एक गम्भीर वाणी यह कहते सुनाई पड़ी, "देखो, यह है मनुष्यों के बीच ईश्वर का निवास! वह उनके बीच निवास करेगा। वे उसकी प्रजा होंगे और ईश्वर स्वयं उनके बीच रह कर उनका अपना ईश्वर होगा। 4) वह उनकी आंखों से सब आंसू पोंछ डालेगा। इसके बाद न मृत्यु रहेगी, न शोक, न विलाप और न दुःख, क्योंकि पुरानी बातें बीत चुकी हैं।" 5) तब सिंहासन पर विराजमान व्यक्ति ने कहा, "मैं सब कुछ नया बना देता हूँ"। 👉सुसमाचार : योहन 13:31-35 31) यूदस के चले जाने के बाद ईसा ने कहा, अब मानव पुत्र महिमान्वित हुआ और उसके द्वारा ईश्वर की महिमा प्रकट हुई। 32) यदि उसके द्वारा ईश्वर की महिमा प्रकट हुई, तो ईश्वर भी उसे अपने यहाँ महिमान्वित करेगा और वह शीघ्र ही उसे महिमान्वित करेगा। 33) बच्चों! मैं और थोडे ही समय तक तुम्हारे साथ हूँ। तुम मुझे ढूँढोगे और मैंने यहूदियों से जो कहा था, अब तुम से भी वही कहता हूँ - मैं जहाँ जा रहा हूँ, वहाँ तुम नहीं आ सकते।" 34) "मैं तुम लोगों को एक नयी आज्ञा देता हूँ- तुम एक दूसरे को प्यार करो। जिस प्रकार मैंने तुम लोगों को प्यार किया, उसी प्रकार तुम एक दूसरे को प्यार करो। 35) यदि तुम एक दूसरे को प्यार करोगे, तो उसी से सब लोग जान जायेंगे कि तुम मेरे शिष्य हो। 📚 मनन-चिंतन- 2 परमेश्वर के प्रेम से भरे हुए, पौलुस और बरनबास बहुतों के लिए 'विश्वाोस का द्वार खोल दिया' जिनसे उनका सामना उन नगरों में हुआ जहाँ वे गए थे। ईश्वर के प्रति उनके प्रेम, आनंद और उत्साह से बहुतों के आंख, कान और हृदय खुल गए। वे स्पष्ट रूप से यीशु की नई आज्ञा का पालन कर रहे हैं कि 'एक दूसरे से प्रेम करो जैसा मैं ने तुम से प्रेम किया है'। जैसे यीशु ने किया, उन्होंने भी लोगों के बीच परमेश्वर का सुसमाचार फैलाया। उन्होंने भी अपने कार्यों से अपने हृदय में परमेश्वर के प्रेम और उपस्थिति को देखा। यह दर्शाता है कि, परमेश्वर के प्रेम से मुझ पर कितना गहरा प्रभाव पड़ा है? क्या दूसरे लोग जानते हैं कि मैं दूसरों के साथ जो प्रेम साझा करता हूं, उससे मैं यीशु का शिष्य हूं? क्या लोग मुझ में यीशु को पहचानते हैं? क्या मैं दूसरों में यीशु को पहचानता हूँ? मैं प्रार्थना करता हूं कि मैं आज दुनिया में परमेश्वर के प्रेम का एक जीवंत संकेत हो सकता हूं, कि मैं वह हो सकूँ जो आने वाले लोगों के लिए विश्वास और प्रेम का द्वार खोल दूँ। 📚 REFLECTION There was an article in Money Saver magazine many years ago entitled: “Loving another Is Loving Yourself.” In that article, the author said: “If you are asked what qualities you want in partners, what will they be? Actually, these qualities are the ones you desire for yourself. You want your partner to be an extension of yourself.” I don’t know if these words of this author can be applied to Jesus by which he said in today’s gospel: “Love one another, as I have loved you,” (v.34). What do you think; can these words of the author I mentioned be applied to Jesus? May be they can, since the command of Jesus to love others because he loved us first is for the good of us. First, it is a Command. It is not an invitation. It is not a request and it is not an option. First and foremost, it is a command or an order. Being a command, it calls for total obedience on our part. In other words, it is an obligation to love one another. Second, the Lord says to us: “Love one another.” “Love one another,” without any conditions or limitations. In other words, to love is forever. Third, the Lord says: “Love one another as I have loved you.” In this statement, once again, Jesus reminds us that love is the soul of our Christian life. Our Lord Jesus Christ gave us an example of a love without measure. He did not condemn Mary Magdalene. He called St. Matthew to be His apostle even though Matthew was a tax collector and a sinner. He even was not afraid to touch and heal the sick and stretched out his hands to the lepers who were considered as ‘untouchables’ during that time because nobody wanted to touch them and be near to them. This Christian principle of love is applied even to our enemies. Do you make love as the soul of your life? Do you love enough to give life to your Christian commitment? मनन-चिंतन -2 प्रभु येसु कहते हैं ‘‘पूर्ण बनो जैसे कि तुम्हारा स्वर्गिक पिता पूर्ण है’’ (मत्ती 5:48)। इस संसार में मनुष्य कितना ही कमजोर क्यों न हो वह ईश्वर के समान पूर्ण बनने के लिए बुलाया गया है। पूर्ण बनना अर्थात् प्रभु ईश्वर के समान बनना है। पिता ईश्वर और पुत्र येसु एक है- (देखिए योहन 10:30)। प्रभु येसु कहते हैं जिसने मुझको देखा है, उसने पिता को देखा है (योहन 14:9)। अर्थात् येसु के समान बनना, ईश्वर के समान बनना है। प्रभु येसु के कई सारे गुण हैं जैसे प्रेम, क्षमा, संवेदनशीलता, दया आदि। आज हम उनके उस गुण पर मनन चिंतन करेंगे जिसके कारण उन्होंने अपने प्राण दूसरों की खातिर कुर्बान कर दिया, जिसके कारण उन्होंने अपने जीवन में दर्दनाक, भयानक और असहनीय दुख उठाया, जिसके कारण उन्होंने अपने मिशन को कभी भी नष्ट नहीं होने दिया परन्तु उसे पूर्णता तक पहुँचाया। यह सब हुआ उनके एक गुण के कारण और वह है - उनकी आज्ञाकारिता, ‘‘उन्होंने मनुष्य का रूप धारण करने का बाद मरण तक, हाँ क्रूस पर मरण तक, आज्ञाकारी बन कर अपने को और भी दीन हीन बना लिया’’ (फिलिप्पियों 2:7-8)। येसु ने सदा अपने जीवन में प्रभु ईश्वर की इच्छाओं एव्मआज्ञाओं का पालन किया। उनका इस संसार में आने का मकसद ही पिता ईश्वर की इच्छा को पूरी करना था, ‘‘जिसने मुझे भेजा, उसकी इच्छा पर चलना और उसका कार्य पूरा करना, यही मेरा भोजन है।’’ (योहन 4:34) उनकी आज्ञाकारिता के कारण ही उन्होंने गेथसेमनी बारी में अपना आखिरी चुनाव प्रभु की इच्छा को पूरी करना महत्वपूर्ण समझा। ‘‘मेरी नहीं, बल्कि तेरी ही इच्छा पूरी हो।’’ (मारकुस 14:36)। अंतिम ब्यारी में प्रभु ने विदा होने से पूर्व एक नयी आज्ञा दी। आज प्रभु हमें अपनी इच्छा नहीं अपितु एक नयी आज्ञा देते है, ‘‘मै तुम लोगों को एक नयी आज्ञा देता हूँ - तुम एक दूसरे को प्यार करो। जैसे मैंने तुम्हें प्यार किया, वैसे ही तुम भी एक दूसरे को प्यार करो।’’ (योहन 13:34)। यह आज्ञा है प्रेम करने की आज्ञा, किसी और के प्रेम की तरह नहीं परन्तु जिस प्रकार प्रभु येसु ने प्रेम किया, ठीक उसी प्रकार प्रेम करने की आज्ञा। प्रभु येसु के प्रेम में पिता ईश्वर का प्रेम झलकता है। जिस प्रकार “ईश्वर ने संसार से इतना प्यार किया कि उसने उसके लिए अपने एकलौते पुत्र को अर्पित कर दिया।’’ (योहन 3:16), ठीक उसी प्रकार प्रभु येसु ने हम सब से इतना प्यार किया कि उसने हम सब के लिए अपने प्राण दे दिया। ‘‘इस से बड़ा प्रेम किसी का नहीं कि कोई अपने मित्रों के लिए अपने प्राण अर्पित कर दे।’’ (योहन 15:13)। ‘‘मैं भेड़ों के लिए अपना जीवन अर्पित करता हूँ।’’(योहन 10:15) प्रभु का प्रेम क्षमा से भरा प्रेम है। उन्होंने व्यभिचार में पकडी गयी स्त्री से कहा, ‘‘मैं भी तुम्हें दण्ड नहीं दूँगा। जाओ और अब से फिर पाप नहीं करना’’(योहन 8:11)। उनका प्रेम पापियों के मन फिराव के लिए क्षमा से परिपूर्ण प्रेम है। उन्होंने जकेयुस को क्षमा करते हुए उसके साथ भोजन किया – इस में उनका प्रेम पापियों नाकेदारों के प्रति प्रकट होता है। ‘‘नीरोगियों को नहीं परन्तु रोगियों की वैद्य की जरूरत होती है’’ (लूकस 5:32)। प्रभु का प्रेम असीमित और पूर्ण प्रेम है, ‘‘तुम लोगों ने सुना है कि कहा गया है- अपने पड़ोसी से प्रेम करो और अपने बैरी से बैर; परन्तु मैं तुम से कहता हूँ- अपने शत्रुओं से प्रेम करो ....यदि तुम उन्हीं से प्रेम करते हो, जो तुम से प्रेम करते हैं, तो पुरस्कार का दावा कैस कर सकते हो?’’(मत्ती 5:44,46)। उन्होंने अपना प्रेम सब के लिए प्रकट किया है चाहे वे बड़े हो या बच्चे या स्त्रियाँ; धर्मी हो या पापी; यहूदी हो या गैर-यहूदी, दोस्त हो या दुश्मन; अपना हो या पराया; उनका भला चाहने वाला हो या बुरा चाहने वाला। इस प्रकार उनका प्रेम असीमित और पूर्ण है। प्रभु का प्रेम संवेदनशील प्रेम है, ‘‘लोगों को देख कर ईसा को उन पर तरस आया, क्योंकि वे बिना चरवाहे की भेड़ों की तरह थके-माँदे पड़े हुए थे’’ (मत्ती 9:36)। ‘‘निकट पहुँचने पर ईसा ने शहर को देखा; वे उस पर रो पडे़’’(लूकस 19:41)। ‘‘ईसा, उसे और उसके साथ आये हुए यहूदियों को रोते देख कर, बहुत व्याकुल हो उठे....कब्र के पास पहुँचने पर ईसा फिर बहुत व्याकुल हो उठे’’(योहन 11:33,38)। प्रभु येसु का प्रेम सच्चा प्रेम है जिसकी व्याख्या संत पौलुस ने अपने पत्र में की है, ‘‘प्रेम सहनशील और दयालु है। प्रेम न तो ईर्ष्या करता है, न डींग मारता, न घमण्ड करता है। प्रेम अशोभनीय व्यवहार नहीं करता। वह अपना स्वार्थ नहीं खोजता। प्रेम न तो झुँझलाता है और न बुराई का लेखा रखता है। वह दूसरों के पाप से नहीं, बल्कि उनके सदाचरण से प्रसन्न होता है। वह सब कुछ ढाँक देता है, सब कुछ पर विश्वास करता है, सब कुछ की आशा करता और सब कुछ सह लेता है।’’(1कुरि0 13:4-7) इस प्रकार का प्रेम प्रभु येसु ने इस संसार से, हम प्रत्येक से किया है और उनकी आज्ञा है कि हम सब भी उनके समान एक दूसरे से प्यार करें - उनके समान क्षमा पूर्ण प्रेम, असीमित और पूर्ण प्रेम, संवेदनशील प्रेम और सच्चा प्रेम। इस प्रकार के प्रेम के बारे में सुनकर हमारे मन में शायद यह विचार आयेगा कि इस प्रकार का प्रेम असंभव है। परन्तु प्रभु येसु हमारे लिए उदाहरण छोड़ गये है और उन्होंने अपने जीवन में इसे पूर्ण कर हमें बताया है कि यह सम्भव है। ‘‘इसलिए तो आप बुलाये गये हैं, क्योंकि मसीह ने आप लोगों के लिए दुःख भोगा और आप को उदाहरण दिया, जिससे आप उनका अनुसरण करें (1 पेत्रुस 2:21)। आइए हम पूर्ण बनें जैसे कि हमारा स्वर्गिक पिता पूर्ण है और उनके शिष्य सिद्ध हो जायें। ✍ -Biniush Topno  Copyright © www.catholicbibleministry1..blogspot.com Praise the Lord!

08 मई 2022, इतवार पास्का का चौथा इतवार

08 मई 2022, इतवार पास्का का चौथा इतवार 🚥🚥🚥🚥🚥🚥🚥🚥
पहला पाठ :प्रेरित-चरित . 13:14,43-52 14) पौलुस और बरनाबस पेरगे से आगे बढ़ कर पिसिदिया के अंताखिया पहुँचे। वे विश्राम के दिन सभागृह में जा कर बैठ गये। 43) सभा के विसर्जन के बाद बहुत-से यहूदी और भक्त नवदीक्षित पौलुस और बरनाबस के पीछे हो लिये। पौलुस और बरनाबस ने उन से बात की और आग्रह किया कि वे ईश्वर की कृपा में दृढ़ बने रहें। 44) अगले विश्राम-दिवस नगर के प्रायः सब लोग ईश्वर का वचन सुनने के लिए इकट्ठे हो गये। 45) यहूदी इतनी बड़ी भीड़ देख कर ईर्ष्या से जल रहे थे और पौलुस की निंदा करते हुए उसकी बातों का खण्डन करते रहे। 46) पौलुस और बरनाबस ने निडर हो कर कहा, "यह आवश्यक था कि पहले आप लोगों को ईश्वर का वचन सुनाया जाये, परन्तु आप लोग इसे अस्वीकार करते हैं और अपने को अनंत जीवन के योग्य नहीं समझते; इसलिए हम अब गैर-यहूदियों के पास जाते हैं। 47) प्रभु ने हमें यह आदेश दिया है, मैंने तुम्हें राष्ट्रों की ज्योति बना दिया हैं, जिससे तुम्हारे द्वारा मुक्ति का संदेश पृथ्वी के सीमांतों तक फैल जाये।" 48) गैर-यहूदी यह सुन कर आनन्दित हो गये और ईश्वर के वचन की स्तृति करते रहे। जितने लोग अनंत जीवन के लिए चुने गये थे, उन्होंने विश्वास किया 49) और सारे प्रदेश में प्रभु का वचन फैल गया। 50) किंतु यहूदियों ने प्रतिष्ठित भक्त महिलाओं तथा नगर के नेताओ को उभाड़ा, पौलुस तथा बरनाबस के विरुद्ध उपद्रव खड़ा कर दिया और उन्हें अपने इलाके से निकाल दिया। 51) पौलुस और बरनाबस उन्हें चेतावनी देने के लिए अपने पैरों की धूल झाड़ कर इकोनियुम चले गये। 52) शिष्य आनन्द और पवित्र आत्मा से परिपूर्ण थे। दूसरा पाठ : प्रकाशना 7:9, 14-17 9) इसके बाद मैंने सभी राष्ट्रों, वंशों, प्रजातियों और भाषाओं का एक ऐसा विशाल जनसमूह देखा, जिसकी गिनती कोई भी नहीं कर सकता। वे उजले वस्त्र पहने तथा हाथ में खजूर की डालियाँ लिये सिंहासन तथा मेमने के सामने खड़े थे 10) और ऊँचे स्वर से पुकार-पुकार कर कह रहे थे, "सिंहासन पर विराजमान हमारे ईश्वर और मेमने की जय!" 11) तब सिंहासन के चारों ओर खड़े स्वर्गदूत, वयोवृद्ध और चार प्राणी, सब-के-सब सिंहासन के सामने मुँह के बल गिर पड़े और उन्होंने यह कहते हुए ईश्वर की आराधना की, 12) "आमेन! हमारे ईश्वर को अनन्त काल तक स्तुति, महिमा, प्रज्ञा, धन्यवाद, सम्मान, सामर्थ्य और शक्ति ! आमेन !" 13) वयोवृद्धों में एक ने मुझ से कहा, "ये उजले वस्त्र पहने कौन हैं और कहाँ से आये हैं? 14) मैंने उत्तर दिया, "महोदय! आप ही जानते हैं" और उसने मुझ से कहाँ, "ये वे लोग हैं, जो महासंकट से निकल कर आये हैं। इन्होंने मेमने के रक्त से अपने वस्त्र धो कर उजले कर लिये हैं। 15) इसलिए ये ईश्वर के सिंहासन के सामने ख़ड़े रहते और दिन-रात उसके मन्दिर में उसकी सेवा करते हैं । वह, जो सिंहासन पर विराजमान है, इनके साथ निवास करेगा। 16) इन्हें फिर कभी न तो भूख लगेगी और न प्यास, इन्हें न तो धूप से कष्ष्ट होगा और न किसी प्रकार के ताप से; 17) क्योंकि सिंहासन के सामने विद्यमान मेमना इनका चरवाहा होगा और इन्हें संजीवन जल के स्रोत के पास ले चलेगा और ईश्वर इनकी आँखों से सब आँसू पोंछ डालेगा।" ***सुसमाचार : योहन 10:27-30 27) मेरी भेडें मेरी आवाज पहचानती है। मै उन्हें जानता हँ और वे मेरा अनुसरण करती हैं। 28) मै उन्हें अनंत जीवन प्रदान करता हूँँ। उनका कभी सर्वनाश नहीं होगा और उन्हें मुझ से कोई नहीं छीन सकेगा। 29) उन्हें मेरे पिता ने मुझे दिया है वह सब से महान है। उन्हें पिता से कोई नहीं छीन सकता। 30) मैं और पिता एक हैं। 📚 मनन-चिंतन- 2 ऐसी कई आवाजें हैं जो हर व्यक्ति हर दिन सुनता है। इतनी सारी आवाजों के बीच, लोग कैसे बता सकते हैं कि वे वास्तव में कौन सी आवाज सुन रहे हैं? वे आवाजें जो वास्तव में सुनी जाती हैं, उनका अनुसरण किया जाता है और हम भेद कर सकते हैं कि वे किस प्रकार की आवाजें हैं। क्या हम उन्हें पहचान सकते हैं? पास्का काल के दौरान चौथे रविवार को गुड शेफर्ड रविवार कहा जाता है क्योंकि सुसमाचार भला गड़ेरिया के बारे में प्रकाश डालता है जो यीशु है। आज हमारे सुसमाचार में, यीशु ने कहा: “मेरी भेड़ें मेरी आवाज़ पहचानती हैं, मैं उन्हें जानता हूं और वे मेरे पीछे पीछे चलती हैं। मैं उन्हें अनन्त जीवन देता हूं, और वे कभी नाश न होंगी" (पद 27-28)। यहाँ इस मार्ग में, इसका अर्थ है कि यीशु एक चरवाहे की तरह प्यार करता है और हमारी परवाह करता है और हमें उसे भेड़ों की तरह उस पर भरोसा करना चाहिए और उसका अनुसरण करना चाहिए। यीशु को अच्छे चरवाहे के रूप में दर्शाया गया है। संक्षेप में, यह रविवार किसी भी व्यक्ति के लिए है जो किसी भी समूह या उपक्रम का मुखिया या नेता है।हम सब अपने भला गड़ेरिया यीशु के समान बनें। आइए हम भी शिष्यों की तरह अच्छे अनुयायी बनें . 📚 REFLECTION The fourth Sunday during Easter Season is called the Good Shepherd Sunday because the gospel talks about good shepherd who is Jesus. In our gospel today, Jesus said: “My sheep hear my voice, I know them and they follow me. I give them eternal life and they shall never perish,” (vv. 27-28). But it does mean that we are dumb animals who blindly led by another. Just like what a lady had said: “I am a person not a sheep,” when she attended a Bible class. The Bible is filled with different forms of literary styles. Like for example: “I am the vine you are the branches” or “fishers of men”. Here in this passage, it means that Jesus loves and cares for us like a shepherd and must trust and follow Him like sheep. Jesus is depicted as the Good Shepherd. But the term ‘shepherd’ embraces all who have executive powers and have something to do with administration, direction, management or guidance of people. In short, this Sunday is for anyone who is the head or leader of any group or undertaking. Leaders, are to be pro-God, pro-people, pro-country, pro-environment; a person with integrity and transparency; a person of peace, justice and love and many more which are related to Christian principles. It is to become a leader after the heart of Jesus or Christ like. मनन-चिंतन 2 जब ईसा गलीलिया में घूम-घूमकर लोगों को उपदेश देते थे, विभिन्न चमत्कार करते थे, तो बहुत सारे लोग आश्चर्य में पड़ जाते थे और सब के मन में यही प्रश्न होता था कि यह कौन है? (मारकुस 4:41 लूकस 4:22) इस प्रकार का प्रश्न पिलातुस के मन में भी था इसलिए वह सत्य को जानना चाहता था (देखिए योहन18:38)। प्रभु येसु ने संत योहन के सुसमाचार के द्वारा अपने विषय में कई सारी बातें इस विषय में बताई है कि वे कौन हैं। वे कहते हैं, ’’जीवन की रोटी मैं हूँ’’, ‘‘संसार की ज्योति मैं हूँ’’, ‘‘पुनरूत्थान और जीवन मैं हूँ,’’ ’’मार्ग, सत्य और जीवन मैं हूँ,’’ ’’मैं दाखलता हूँ,’’ और ’’भला गडेरिया मैं हूँ,’’। आज का सुसमाचार हमें चरवाहा और भेड़ों के बीच के रिश्ते पर मनन चिंतन करने के लिए आह्वान करता है। प्रभु येसु संत योहन के सुसमाचार 10:11 में कहते हैं कि भला गडेरिया मैं हूँ। भले गडेरिये के कुछ गुण होते हैं जैसे- भला गडेरिया अपनी भेड़ों के लिए अपने प्राण दे देता है, अपने भेड़ों को जानता है, भेड़ों को हरे मैदानों में बैठाता और शांत जल के पास ले जा कर उनमें नवजीवन का संचार करता है। भला चरवाहा एक भेड़ के भटक जाने पर निन्यानवे भेडों को छोड़ उस भटकी हुई भेड़ को खोजने जाता है। ये सब गुण हम प्रभु येसु के जीवन में पाते हैं। प्रभु येसु सचमुच में भले गडेरिये है जो अपनी भेड़ों के लिए अपने प्राण अर्पित करते है। वे भटकी हुई भेड़ की खोज में जाते है। प्रभु ने अपने जीवन के द्वारा यह सिद्ध किया कि वे सचमुच में भले गडेरिया है। लेकिन आज का सुसमाचार भले गडेरिये के ऊपर नहीं परन्तु भली भेड़ के ऊपर है। आज हम सब के लिए बड़ा प्रश्न यह है कि प्रभु येसु तो सचमुच में भले गडेरिये हैं परंतु क्या हम उस भले गडेरिये की भली भेड़ें हैं। वे हम सभी भेड़ों को नाम से जानते हैं और सदा हमें अपने पास बुलाते हैं, पर क्या हम भली भेड़ के समान अपना जीवन व्यतीत करते हैं? भली भेड़ या सच्ची भेड़ का चिन्ह क्या है? आज का सुसमाचार के अनुसार सच्ची भेड़ भले चरवाहे की आवाज़ पहचानती है तथा उनका अनुसरण करती है। प्रभु येसु या ईश्वर की आवाज़ पहचानना एक सच्ची भेड़ की अहम निशानी है। बाइबिल में हम देखते हैं कि कौन-कौन ईश्वर की आवाज़ पहचानता एवं सुनता था। बाइबिल में हम नूह, इब्राहिम, इसहाक, याकूब, युसूफ, मूसा, योशुआ, कई न्यायकर्ताओं, कई नबियों को जानते हैं जो ईश्वर की आवाज़ सुनते और उनका अनुसरण करते थे। हम अपने जीवन में किसकी आवाज़ बहुत अच्छी से पहचानते है? जाहिर सी बात है कि हम अपने जीवन में अपने माता-पिता या परिवार वालों की आवाज़ अच्छे से पहचानते हैं। वह किस लिए? क्योंकि हम अपना ज्यादातार समय अपने परिवार के साथ बिताते हैं तथा उनकी आवाज़ को सुनते रहते हैं। इसी तरह हम किसी व्यक्ति को पंसद करते हैं तथा रोजाना उससे बात करते हैं - आमने सामने या मोबाईल पर - तब हम उसकी आवाज़ को पहचानने लगेंगे। अर्थात् जितना ज्यादा सम्पर्क हम किसी भी व्यक्ति से बनाते हैं - चाहे वह परिवार का हो या परिवार से दूर का हो - उतना ज्यादा हम उसकी आवाज़ को पहचानते हैं। इसलिए अगर वे किसी अन्जान नम्बर से फोन करेंगे तब भी हम उनकी आवाज़ पहचान जायेंगें। आज के इस आधुनिक युग में क्या हम येसु की आवाज़ पहचानते हैं? येसु की आवाज़ कौन पहचान पायेगा? वही जो येसु के साथ ज्यादा सम्पर्क में रहा है। येसु के साथ सम्पर्क में रहने का तात्पर्य है उसके साथ प्रार्थना में जुडे रहना, रोजाना प्रार्थना करना, बाइबिल पठन करना, वचनों पर मनन चिंतन करना, यूखारिस्त में भाग लेना। इन सबके द्वारा हम येसु के सम्पर्क में बने रहते हैं। और जितना ज्यादा हम उनसे जुड़े रहेंगे उतने स्पष्ट रूप से हम येसु की आवाज़ सुन पायेंगे और पहचान पायेंगे। येसु की आवाज़ सुनना ही काफी नहीं परन्तु उनका अनुसरण करना ही हमें स्च्ची भेड़ होने का दर्जा देता है। हम प्रभु की आवाज़ बाइबिल से, पवित्र आत्मा से, अभिषिक्त पुरोहितों से, प्रार्थनामय इंसान से सुन सकते हैं। परंतु उनका पालन करना या न करना हम पर निर्भर करता हैं। प्रभु कहते हैं कि जो मेरा अनुसरण करना चाहता है वह आत्मत्याग करे, अपना क्रूस उठायें और मेरे पीछे हो ले। प्रभु की वाणी के अनुसार चलने के लिए हमें सर्वप्रथम आत्मत्याग की जरूरत है। जब तक हम अपने शरीर की इच्छाओं का दमन नहीं करेंगे तब तक हम आत्मा के अनुसार नही चल पायेंगे क्योंकि ‘‘आत्मा और शरीर एक दूसरे के विरोधी है’’ (गलातियों 5:17)। इसलिए हमें हमेशा प्रार्थना करते रहना चाहिए क्योंकि आत्मा तो तत्पर है परन्तु शरीर दुर्बल है (देखिए मारकुस 14:38)। हम सब प्रभु की सच्ची भेड़ बनने के लिए बुलाये गये हैं। प्रभु कहते हैं, ‘‘मैं द्वार के सामने खड़ा हो कर खटखटाता हूँ। यदि कोई मेरी वाणी सुन कर द्वार खोलेगा, तो मैं उसके यहाँ आ कर उसके साथ भोजन करूँगा और वह मेरे साथ’’ (प्रकाशना 3:20)। आज हम सब को उनकी आवाज़ पहचानते हुए उनका अनुसरण करने की जरूरत हैं जिससे हम उनके सच्चे शिष्य, सच्ची भेड़ सिद्ध हो जाएँ। ’’यदि तुम मेरी शिक्षा पर दृढ़ रहोगे, तो सचमुच मेरे शिष्य सिद्ध होगे’’ (योहन 8:31) ✍ -Biniush Topno  Copyright © www.catholicbibleministry1.blogspot.com Praise the Lord!