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15 मई 2022, इतवार पास्का का पाँचवाँ इतवार
15 मई 2022, इतवार
पास्का का पाँचवाँ इतवार
👉पहला पाठ : प्रेरित-चरित 14:21-27
21) उन्होंने उस नगर में सुसमाचार का प्रचार किया और बहुत शिष्य बनाये। इसके बाद वे लुस्त्रा और इकोनियुम हो कर अन्ताखिया लौटे।
22) वे शिष्यों को ढारस बँधाते और यह कहते हुए विश्वास में दृढ़ रहने के लिए अनुरोध करते कि हमें बहुत से कष्ट सह कर ईश्वर के राज्य में प्रवेश करना है।
23) उन्होंने हर एक कलीसिया में अध्यक्षों को नियुक्त किया और प्रार्थना तथा उपवास करने के बाद उन लोगों को प्रभु के हाथों सौंप दिया, जिस में वे लोग विश्वास कर चुके थे।
24) वे पिसिदिया पार कर पम्फुलिया पहुँचे
25) और पेरगे में सुसमाचार का प्रचार करने के बाद अत्तालिया आये।
26) वहाँ से वे नाव पर सवार हो कर अन्ताखिया चल दिये, जहाँ से वे चले गये थे और जहाँ लोगों ने उस कार्य के लिए ईश्वर की कृपा माँगी थी, जिसे उन्होंने अब पूरा किया था।
27) वहाँ पहुँचकर और कलसिया की सभा बुला कर वे बताते रहे कि ईश्वर ने उनके द्वारा क्या-क्या किया और कैसे गै़र-यहूदियों के लिए विश्वास का द्वार खोला।
👉दूसरा पाठ : प्रकाशना 21:1-5
1) तब मैंने एक नया आकाश और एक नयी पृथ्वी देखी। पुराना आकाश तथा पुरानी पृथ्वी, दोनों लुप्त हो गये थे और समुद्र भी नहीं रह गया था।
2) मैंने पवित्र नगर, नवीन येरूसालेम को ईश्वर के यहाँ से आकाश में उतरते देखा। वह अपने दुल्हे के लिए सजायी हुई दुल्हन की तरह अलंकृत था।
3) तब मुझे सिंहासन से एक गम्भीर वाणी यह कहते सुनाई पड़ी, "देखो, यह है मनुष्यों के बीच ईश्वर का निवास! वह उनके बीच निवास करेगा। वे उसकी प्रजा होंगे और ईश्वर स्वयं उनके बीच रह कर उनका अपना ईश्वर होगा।
4) वह उनकी आंखों से सब आंसू पोंछ डालेगा। इसके बाद न मृत्यु रहेगी, न शोक, न विलाप और न दुःख, क्योंकि पुरानी बातें बीत चुकी हैं।"
5) तब सिंहासन पर विराजमान व्यक्ति ने कहा, "मैं सब कुछ नया बना देता हूँ"।
👉सुसमाचार : योहन 13:31-35
31) यूदस के चले जाने के बाद ईसा ने कहा, अब मानव पुत्र महिमान्वित हुआ और उसके द्वारा ईश्वर की महिमा प्रकट हुई।
32) यदि उसके द्वारा ईश्वर की महिमा प्रकट हुई, तो ईश्वर भी उसे अपने यहाँ महिमान्वित करेगा और वह शीघ्र ही उसे महिमान्वित करेगा।
33) बच्चों! मैं और थोडे ही समय तक तुम्हारे साथ हूँ। तुम मुझे ढूँढोगे और मैंने यहूदियों से जो कहा था, अब तुम से भी वही कहता हूँ - मैं जहाँ जा रहा हूँ, वहाँ तुम नहीं आ सकते।"
34) "मैं तुम लोगों को एक नयी आज्ञा देता हूँ- तुम एक दूसरे को प्यार करो। जिस प्रकार मैंने तुम लोगों को प्यार किया, उसी प्रकार तुम एक दूसरे को प्यार करो।
35) यदि तुम एक दूसरे को प्यार करोगे, तो उसी से सब लोग जान जायेंगे कि तुम मेरे शिष्य हो।
📚 मनन-चिंतन- 2
परमेश्वर के प्रेम से भरे हुए, पौलुस और बरनबास बहुतों के लिए 'विश्वाोस का द्वार खोल दिया' जिनसे उनका सामना उन नगरों में हुआ जहाँ वे गए थे। ईश्वर के प्रति उनके प्रेम, आनंद और उत्साह से बहुतों के आंख, कान और हृदय खुल गए। वे स्पष्ट रूप से यीशु की नई आज्ञा का पालन कर रहे हैं कि 'एक दूसरे से प्रेम करो जैसा मैं ने तुम से प्रेम किया है'। जैसे यीशु ने किया, उन्होंने भी लोगों के बीच परमेश्वर का सुसमाचार फैलाया। उन्होंने भी अपने कार्यों से अपने हृदय में परमेश्वर के प्रेम और उपस्थिति को देखा। यह दर्शाता है कि, परमेश्वर के प्रेम से मुझ पर कितना गहरा प्रभाव पड़ा है? क्या दूसरे लोग जानते हैं कि मैं दूसरों के साथ जो प्रेम साझा करता हूं, उससे मैं यीशु का शिष्य हूं? क्या लोग मुझ में यीशु को पहचानते हैं? क्या मैं दूसरों में यीशु को पहचानता हूँ? मैं प्रार्थना करता हूं कि मैं आज दुनिया में परमेश्वर के प्रेम का एक जीवंत संकेत हो सकता हूं, कि मैं वह हो सकूँ जो आने वाले लोगों के लिए विश्वास और प्रेम का द्वार खोल दूँ।
📚 REFLECTION
There was an article in Money Saver magazine many years ago entitled: “Loving another Is Loving Yourself.” In that article, the author said: “If you are asked what qualities you want in partners, what will they be? Actually, these qualities are the ones you desire for yourself. You want your partner to be an extension of yourself.”
I don’t know if these words of this author can be applied to Jesus by which he said in today’s gospel: “Love one another, as I have loved you,” (v.34). What do you think; can these words of the author I mentioned be applied to Jesus? May be they can, since the command of Jesus to love others because he loved us first is for the good of us.
First, it is a Command. It is not an invitation. It is not a request and it is not an option. First and foremost, it is a command or an order. Being a command, it calls for total obedience on our part. In other words, it is an obligation to love one another.
Second, the Lord says to us: “Love one another.” “Love one another,” without any conditions or limitations. In other words, to love is forever.
Third, the Lord says: “Love one another as I have loved you.” In this statement, once again, Jesus reminds us that love is the soul of our Christian life.
Our Lord Jesus Christ gave us an example of a love without measure. He did not condemn Mary Magdalene. He called St. Matthew to be His apostle even though Matthew was a tax collector and a sinner. He even was not afraid to touch and heal the sick and stretched out his hands to the lepers who were considered as ‘untouchables’ during that time because nobody wanted to touch them and be near to them.
This Christian principle of love is applied even to our enemies. Do you make love as the soul of your life? Do you love enough to give life to your Christian commitment?
मनन-चिंतन -2
प्रभु येसु कहते हैं ‘‘पूर्ण बनो जैसे कि तुम्हारा स्वर्गिक पिता पूर्ण है’’ (मत्ती 5:48)। इस संसार में मनुष्य कितना ही कमजोर क्यों न हो वह ईश्वर के समान पूर्ण बनने के लिए बुलाया गया है। पूर्ण बनना अर्थात् प्रभु ईश्वर के समान बनना है। पिता ईश्वर और पुत्र येसु एक है- (देखिए योहन 10:30)। प्रभु येसु कहते हैं जिसने मुझको देखा है, उसने पिता को देखा है (योहन 14:9)। अर्थात् येसु के समान बनना, ईश्वर के समान बनना है। प्रभु येसु के कई सारे गुण हैं जैसे प्रेम, क्षमा, संवेदनशीलता, दया आदि।
आज हम उनके उस गुण पर मनन चिंतन करेंगे जिसके कारण उन्होंने अपने प्राण दूसरों की खातिर कुर्बान कर दिया, जिसके कारण उन्होंने अपने जीवन में दर्दनाक, भयानक और असहनीय दुख उठाया, जिसके कारण उन्होंने अपने मिशन को कभी भी नष्ट नहीं होने दिया परन्तु उसे पूर्णता तक पहुँचाया। यह सब हुआ उनके एक गुण के कारण और वह है - उनकी आज्ञाकारिता, ‘‘उन्होंने मनुष्य का रूप धारण करने का बाद मरण तक, हाँ क्रूस पर मरण तक, आज्ञाकारी बन कर अपने को और भी दीन हीन बना लिया’’ (फिलिप्पियों 2:7-8)। येसु ने सदा अपने जीवन में प्रभु ईश्वर की इच्छाओं एव्मआज्ञाओं का पालन किया। उनका इस संसार में आने का मकसद ही पिता ईश्वर की इच्छा को पूरी करना था, ‘‘जिसने मुझे भेजा, उसकी इच्छा पर चलना और उसका कार्य पूरा करना, यही मेरा भोजन है।’’ (योहन 4:34) उनकी आज्ञाकारिता के कारण ही उन्होंने गेथसेमनी बारी में अपना आखिरी चुनाव प्रभु की इच्छा को पूरी करना महत्वपूर्ण समझा। ‘‘मेरी नहीं, बल्कि तेरी ही इच्छा पूरी हो।’’ (मारकुस 14:36)।
अंतिम ब्यारी में प्रभु ने विदा होने से पूर्व एक नयी आज्ञा दी। आज प्रभु हमें अपनी इच्छा नहीं अपितु एक नयी आज्ञा देते है, ‘‘मै तुम लोगों को एक नयी आज्ञा देता हूँ - तुम एक दूसरे को प्यार करो। जैसे मैंने तुम्हें प्यार किया, वैसे ही तुम भी एक दूसरे को प्यार करो।’’ (योहन 13:34)। यह आज्ञा है प्रेम करने की आज्ञा, किसी और के प्रेम की तरह नहीं परन्तु जिस प्रकार प्रभु येसु ने प्रेम किया, ठीक उसी प्रकार प्रेम करने की आज्ञा। प्रभु येसु के प्रेम में पिता ईश्वर का प्रेम झलकता है। जिस प्रकार “ईश्वर ने संसार से इतना प्यार किया कि उसने उसके लिए अपने एकलौते पुत्र को अर्पित कर दिया।’’ (योहन 3:16), ठीक उसी प्रकार प्रभु येसु ने हम सब से इतना प्यार किया कि उसने हम सब के लिए अपने प्राण दे दिया। ‘‘इस से बड़ा प्रेम किसी का नहीं कि कोई अपने मित्रों के लिए अपने प्राण अर्पित कर दे।’’ (योहन 15:13)। ‘‘मैं भेड़ों के लिए अपना जीवन अर्पित करता हूँ।’’(योहन 10:15)
प्रभु का प्रेम क्षमा से भरा प्रेम है। उन्होंने व्यभिचार में पकडी गयी स्त्री से कहा, ‘‘मैं भी तुम्हें दण्ड नहीं दूँगा। जाओ और अब से फिर पाप नहीं करना’’(योहन 8:11)। उनका प्रेम पापियों के मन फिराव के लिए क्षमा से परिपूर्ण प्रेम है। उन्होंने जकेयुस को क्षमा करते हुए उसके साथ भोजन किया – इस में उनका प्रेम पापियों नाकेदारों के प्रति प्रकट होता है। ‘‘नीरोगियों को नहीं परन्तु रोगियों की वैद्य की जरूरत होती है’’ (लूकस 5:32)।
प्रभु का प्रेम असीमित और पूर्ण प्रेम है, ‘‘तुम लोगों ने सुना है कि कहा गया है- अपने पड़ोसी से प्रेम करो और अपने बैरी से बैर; परन्तु मैं तुम से कहता हूँ- अपने शत्रुओं से प्रेम करो ....यदि तुम उन्हीं से प्रेम करते हो, जो तुम से प्रेम करते हैं, तो पुरस्कार का दावा कैस कर सकते हो?’’(मत्ती 5:44,46)। उन्होंने अपना प्रेम सब के लिए प्रकट किया है चाहे वे बड़े हो या बच्चे या स्त्रियाँ; धर्मी हो या पापी; यहूदी हो या गैर-यहूदी, दोस्त हो या दुश्मन; अपना हो या पराया; उनका भला चाहने वाला हो या बुरा चाहने वाला। इस प्रकार उनका प्रेम असीमित और पूर्ण है।
प्रभु का प्रेम संवेदनशील प्रेम है, ‘‘लोगों को देख कर ईसा को उन पर तरस आया, क्योंकि वे बिना चरवाहे की भेड़ों की तरह थके-माँदे पड़े हुए थे’’ (मत्ती 9:36)। ‘‘निकट पहुँचने पर ईसा ने शहर को देखा; वे उस पर रो पडे़’’(लूकस 19:41)। ‘‘ईसा, उसे और उसके साथ आये हुए यहूदियों को रोते देख कर, बहुत व्याकुल हो उठे....कब्र के पास पहुँचने पर ईसा फिर बहुत व्याकुल हो उठे’’(योहन 11:33,38)।
प्रभु येसु का प्रेम सच्चा प्रेम है जिसकी व्याख्या संत पौलुस ने अपने पत्र में की है, ‘‘प्रेम सहनशील और दयालु है। प्रेम न तो ईर्ष्या करता है, न डींग मारता, न घमण्ड करता है। प्रेम अशोभनीय व्यवहार नहीं करता। वह अपना स्वार्थ नहीं खोजता। प्रेम न तो झुँझलाता है और न बुराई का लेखा रखता है। वह दूसरों के पाप से नहीं, बल्कि उनके सदाचरण से प्रसन्न होता है। वह सब कुछ ढाँक देता है, सब कुछ पर विश्वास करता है, सब कुछ की आशा करता और सब कुछ सह लेता है।’’(1कुरि0 13:4-7)
इस प्रकार का प्रेम प्रभु येसु ने इस संसार से, हम प्रत्येक से किया है और उनकी आज्ञा है कि हम सब भी उनके समान एक दूसरे से प्यार करें - उनके समान क्षमा पूर्ण प्रेम, असीमित और पूर्ण प्रेम, संवेदनशील प्रेम और सच्चा प्रेम। इस प्रकार के प्रेम के बारे में सुनकर हमारे मन में शायद यह विचार आयेगा कि इस प्रकार का प्रेम असंभव है। परन्तु प्रभु येसु हमारे लिए उदाहरण छोड़ गये है और उन्होंने अपने जीवन में इसे पूर्ण कर हमें बताया है कि यह सम्भव है। ‘‘इसलिए तो आप बुलाये गये हैं, क्योंकि मसीह ने आप लोगों के लिए दुःख भोगा और आप को उदाहरण दिया, जिससे आप उनका अनुसरण करें (1 पेत्रुस 2:21)।
आइए हम पूर्ण बनें जैसे कि हमारा स्वर्गिक पिता पूर्ण है और उनके शिष्य सिद्ध हो जायें।
✍ -Biniush Topno
Copyright © www.catholicbibleministry1..blogspot.com
Praise the Lord!
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