शुक्रवार, 19 नवंबर, 2021
वर्ष का तैंत्तीसवाँ सामान्य सप्ताह
पहला पाठ: मक्काबियों का पहला ग्रन्थ 4:36-37,52-59
36) उस समय यूदाह और उसके भाइयों ने यह कहा, ’’हमारे शत्रु हार गये। हम जा कर मंदिर का शुद्धीकरण और प्रतिष्ठान करें।’’
37) समस्त सेना एकत्र हो गयी और सियोन के पर्वत की ओर चल पड़ी।
52) एक सौ अड़तालीसवें वर्ष के नौंवे महीने-अर्थात् किसलेव-के पच्चीसवें दिन, लोग पौ फटते ही उठे
53) और उन्होंने होम की जो नयी वेदी बनायी थी, उस पर विधिवत् बलि चढ़ायी।
54) जिस समय और जिस दिन गैर-यहूदियों ने वेदी को अपवत्रि कर दिया था, उसी समय और उसी दिन भजन गाते और सितार, वीणा तथा झाँझ बजाते हुए उन्होंने वेदी का प्रतिष्ठान किया।
55) सब लोगों ने दण्डवत् कर आराधना की और ईश्वर को धन्य कहा, जिसने उन्हें सफलता दी थी।
56) वे आनंद के साथ होम, शांति तथा धन्यवाद का यज्ञ चढा कर आठ दिन तक वेदी के प्रतिष्ठान का पर्व मनाते रहें।
57) उन्होंने मंदिर का अग्रभाग सोने की मालाओं तथा ढालों से विभूशित किया, फाटकों तथा याजकों की शालाओं को मरम्मत किया और उनमें दरवाजे लगाये।
58) लोगों में उल्लास था और उन पर लगा हुआ गैर-यहूदियों का कलंक मिट गया।
59) यूदाह ने अपने भाइयों तथा इस्राएल के समस्त समुदाय के साथ यह निर्णय किया कि प्रति वर्ष इसी समय, अर्थात् किसलेव के पच्चीसवें दिन से ले कर आठ दिन तक वेदी के पुनः प्रतिष्ठान का पर्व उल्लास तथा आन्नद के साथ मनाया जायेगा।
सुसमाचार : सन्त लूकस 19:45-48
45) ईसा मन्दिर में प्रवेश कर बिक्री करने वालों को यह कहते हुए बाहर निकालने लगे,
46) ‘‘लिखा है-मेरा घर प्रार्थना का घर होगा, परन्तु तुम लोगों ने उसे लुटेरों का अड्डा बनाया है’’।
47) वे प्रतिदिन मन्दिर में शिक्षा देते थे। महायाजक, शास्त्री और जनता के नेता उनके सर्वनाश का उपाय ढूँढ़ रहे थे,
48) परन्तु उन्हें नहीं सूझ रहा था कि क्या करें; क्योंकि सारी जनता बड़ी रुचि से उनकी शिक्षा सुनती थी।
मनन-चिंतन
जब प्रभु येसु ने पवित्र वचन की घोषणा की, तब गरीबों और आम लोगों ने उनकी प्रशंसा की और उनके संदेश को स्वीकार किया, लेकिन शक्तिशाली और प्रभावशाली लोगों ने उन्हें अस्वीकार किया और उनका विरोध किया। जरूरतमंद लोग आसानी से ईश्वर को स्वीकार कर लेते हैं, लेकिन जिन लोगों की जरूरतें पहले से पूरी हो जाती हैं, उन्हें अपने जीवन में ईश्वर की भूमिका स्वीकार करना मुश्किल हो जाता है। येसु स्वर्गिक पिता द्वारा उनके लिए निर्धारित किए गए मार्ग पर ही चलते थे। वे लोकप्रियता या विरोध के कारण पीछे नहीं हटते थे। वे ईश्वर की इच्छा को पूरा करने के सीधे मार्ग पर चलते रहते थे। जब शैतान उन्हें अपने रास्ते से हटाने की कोशिश करता है, तब वे शैतान की चालों को समझ सकते हैं और उसे अपने सामने से निष्कासित करते हैं। स्वर्गराज्य के लिए सब कुछ नया करने के मकसद से, वे मंदिर की पवित्रता पर जोर देते हैं जिसे उनके समय के लोगों ने बाजार या लुटेरों के अड्डे में बदल दिया था। क्या हम येसु की तरफ हैं या फरीसियों और सदूकियों की तरफ?
REFLECTION
When Jesus preached the Word, the poor and ordinary people acclaimed him and accepted his message, but the powerful and the influential rejected and opposed him. The people in need easily accept God but the people whose needs are already met find it difficult to accept the role of God in their lives. Jesus simply keeps himself on the path marked out for him by the heavenly Father. He does not get diverted by popularity or by opposition. He keeps going straight in doing the will of God. When Satan tries to divert him from his path, he is quick to sense the tricks of Satan and expel him from his presence. In an exercise of renewing everything for the Kingdom, he insists on the sanctity of the temple which the people of his time had turned into a market or den of robbers. Are we on the side of Jesus or on the side of the Pharisees and the Scribes?
✍ -Br. Biniush topno
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