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गुरुवार, 18 नवंबर, 2021

 

गुरुवार, 18 नवंबर, 2021

वर्ष का तैंत्तीसवाँ सामान्य सप्ताह

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पहला पाठ: मक्काबियों का पहला ग्रन्थ 2:15-29


15) राजा के पदाधिकारी, जो लोगों को स्वधर्मत्याग के लिए बाध्य करते थे, बलिदानों का प्रबंध करने मोदीन नामक नगर पहुँचे।

16) बहुत-से इस्राएली उन से मिल गये किंतु मत्तथ्या और उसके पुत्र अलग रहे।

17) राजा के पदाधिकारो ने मत्तथ्या को सम्बोधित करते हुए कहा, ’’आप इस नगर के प्रतिष्ठित और शक्तिशाली नेता हैं। आप को अपने पुत्रों और भाइयों का समर्थन प्राप्त हैं।

18) आप सर्वप्रथम आगे बढ़ कर राजाज्ञा का पालन कीजिए, जैसा कि सभी राष्ट्र, यूदा के लोग और येरुसालेम के निवासी कर चुके हैं। ऐसा करने पर आपके पुत्र राजा के मित्र बनेंगे और सोना चाँदी और बहुत-से उपहारों द्वारा आपका और आपके पुत्रों का सम्मान किया जायेगा।’’

19) मत्तथ्या ने पुकार कर यह उत्तर दिया, ’’साम्राज्य के सभी राष्ट्र भले ही राजा की बात मान जायें, सभी आपने पुरखों का धर्म छोड़ दें और राजा के आदेशों का पालन करें,

20) किंतु मैं, मेरे पुत्र और मेरे भाई-हम अपने पुरखों के विधान के अनुसार ही चलेंगे।

21) ईश्वर हमारी रक्षा करे, जिससे हम उसकी संहिता और उसके नियमों का परित्याग न करें।

22) हम राजा की आज्ञाओं का पालन नहीं करेंगे और अपने धर्म का किसी भी प्रकार से उल्लंघन नहीं करेंगे।

23) मत्तथ्या ने इन शब्दों के तुरंत बाद एक यहूदी राजा के आदेशानुसार मोदीन की वेदी पर बलि चढ़ाने के लिए सब के देखते आगे बढा।

24) इस पर मत्तथ्या का धर्मोत्साह भड़क उठा और वह आगबबूला हो गया। उसने क्रोध के आवेग में आगे झपट कर उस यहूदी को वेदी पर मार डाला।

25) उसने बलि के लिए लोगों को बाध्य करने वाले पदाधिकारी का वध किया और वेदी का विध्वंस किया।

26) इस प्रकार मत्तथ्या ने पीनहास के सदृश संहिता के प्रति अपना उत्साह प्रदर्शित किया- पीनहास ने इसी तरह सालू के पुत्र ज़िम्री का वध किया था।

27) इसके बाद मत्तथ्या ने नगर भर में घूमते हुए ऊँचे स्वर से पुकार कर यह कहा, ’’जो संहिता के प्रति उत्साही हैं। और विधान को बनाये रखने के पक्ष में हैं, वे मेरे पीछे चले आयें’’।

28) इसके बाद वह और उसके पुत्र नगर में अपनी सारी संपत्ति छोड़ कर पहाड़ों पर भाग गये।

29) उस समय बहुत-से लोग, जिन्हें धर्म और न्याय प्रिय था, उजाड़ प्रदेश जा कर वहाँ बस गये।



सुसमाचार : सन्त लूकस 19:41-44



41) निकट पहुँचने पर ईसा ने शहर को देखा। वे उस पर रो पड़े

42) और बोले, ‘‘हाय! कितना अच्छा होता यदि तू भी इस शुभ दिन यह समझ पाता कि किन बातों में तेरी शान्ति है! परन्तु अभी वे बातें तेरी आँखों से छिपी हुई हैं।

43) तुझ पर वे दिन आयेंगे, जब तेरे शत्रु तेरे चारों ओर मोरचा बाँध कर तुझे घेर लेंगे, तुझ पर चारों ओर से दबाव डालेंगे,

44) तुझे और तेरे अन्दर रहने वाली तेरी प्रजा को मटियामेट कर देंगे और तुझ में एक पत्थर पर दूसरा पत्थर पड़ा नहीं रहने देंगे; क्योंकि तूने अपने प्रभु के आगमन की शुभ घड़ी को नहीं पहचाना।’’



मनन-चिंतन



आंसू हमारे अपने जीवन का हिस्सा है । हमारी ऑंखों में ऑंसू तब आते है जब कोई चीज हमारी ऑंखों में चली जाती है या दिलो में । आंसू भी सुसमाचार के वृतांतों का हिस्सा है । चारों सुसमाचार में, ऑंसू बहाने या विलाप के 26 संदर्भ है: पिता बीमार बेटी के लिए विलाप करता है, विधवा अपने इकलौते बेटे के लिए आंसू बहाती है, पापी स्त्री येसु के चरणों में रोती है, येसु का इनकार करने के कारण पेत्रुस फूट-फूट कर रोता है और इसी तरह अन्य संदर्भ है ।

येसु क्रूस को ढोते समय या क्रूस पर लटके हुए और कोड़ों की मार पर भी नही रोए, लेकिन उन्होंने समय-समय पर अपना दुख व्यक्त किया क्योंकि उन्हें उन लोगों के लिए सहानुभूति थी जिन्हें वे प्यार करते तथा जिनकी देखभाल करते थे । सहानुभूति सिर्फ दूसरों के लिए एक भावना नहीं है बल्कि खुद को दूसरे के स्थान पर रखना है । उन्होने अपने भाई लाजरूस को जीवित करके रोते हुए मार्था और मरियम को दिलासा दिया और मरियम मगदलेना के ऑसुओं को आनन्द में बदल दिया जब वे उनसे खाली कब्र पर मिलें । यीशु ने रोनेवालो को यह कहकर आशीष दी कि वे शान्ति प्राप्त करेंगे । संत पौलुस रोमियों को इसी समान मनोवृति रखने की सलाह देते है जब वे कहते है, “15) आनन्द मनाने वालों के साथ आनन्द मनायें, रोने वालों के साथ रोयें।“ (रोमियों 12ः15)

सुसमाचार दो अवसरों को दर्ज करते है जब येसु ने विलाप कियाः पहला अपने मित्र लाजरूस की मृत्यु पर (योहन 11ः35), दूसरा उस अवसर पर जब उन्होंने यंरूसालेम शहर के भविष्य के विनाश को देखा (लूकस 19ः41)।ष्

येसु येरूसालेम शहर के लिए उनके प्रेम के कारण रोते है । येरूसालेम दो प्रतिद्वंदी वंशजों बेनयामीन (साऊल का वंशज) और यूदा (दाऊद का वंशज) के बीच स्थित है। इसे शांति का शहर माना जाता था । लेकिन येसु को अस्वीकार करके वे पश्चाताप करने और उसे परमेश्वर के पुत्र के रूप में पहचानने में विफल रहे । उन्होंने शांति का एक मौका गंवा दिया और शहर के लिए तबाही लेकर आये ।

येसु ने लोगोें के अविश्वास पर विलाप किया । वे मसीह के प्रति उदासीन थे क्योंकि जीवन में सब चीजें ठीक चल रही थी । उन्होंने येसु को सार्वजनिक व्यवस्था या उनके आरामदायक जीवन के लिए एक खतरे के रूप में देखा । ईश्वर यह अपेक्षा करता है कि हम पूरे मन से उसकी पवित्र इच्छा के प्रति समर्पण करें

आइए हम लोगों के प्रति सहानुभूति रखें और ईश्वर के प्रति उदासीन होने से बचें ।



REFLECTION



Tears are part of our own lives. Tears form in our eyes when something gets into our eyes or when something gets into our hearts. Tears are part of the Gospel accounts as well. In four Gospels, there are 26 references to weeping: father weeping for ailing daughter, widow shedding tears for her only son, sinful woman weeping at the foot of Jesus, Peter weeping bitterly for denying Jesus and so on.

Jesus did not weep at the scourging, while carrying the cross or hanging on the cross, but he expressed his sorrow at times because he had an empathy for the people he loved and cared for. Empathy is not just a feeling for others but putting oneself in the place of another. St. Paul admonishes Romans to have the same attitude when he says, “Rejoice with those who are joyful; and weep with those who weep” (Rom 12:15)

The Gospels record two occasions when Jesus wept: the first at the death of his friend Lazarus (Jn.11:35), second on the occasion when he saw the future destruction of the City of Jerusalem (Lk.19:41).

Jesus weeps because of His love for the city of Jerusalem. Jerusalem is situated between two rivalry tribes Benjamin (tribe of Saul) and Judah (tribe of David). It was supposed to be the city of peace. But by rejecting Jesus they failed to repent and recognize him as son of God. They missed an opportunity for peace and brought destruction to the city.

Jesus lamented over the unbelief of the people. They were indifferent to Christ because things in life seemed to be going well. They saw Jesus as a threat to public order or their comfort zones. God expects that we surrender to His holy will with whole heart.

Let us be empathetic towards people and avoid being indifferent to God


 -Br. Biniush topno


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Praise the Lord!

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