पहला पाठ: दानिएल का ग्रन्थ 1:1-6,8-20
1) यूदा के राजा यहोयाकीम के राज्यकाल के तीसरे वर्ष बाबुल के राजा नबूकदनेज़र ने येरुसालेम आ कर उसके चारों ओर घेरा डाला।
2) प्रभु ने यूदा के राजा यहोयाकीम को और ईश्वर के मन्दिर के कुछ पात्रों को नबूकदनेज़र के हाथ जाने दिया। उसने उन्हें शिनआर देश भिजवाया और पात्रों को अपने देवताओं के कोष में रखवा दिया।
3) राजा ने खोजों के अध्यक्ष अशपनज को कुछ ऐसे इस्राएली नवयुवकों को ले आने का आदेश दिया, जो राजवंशी अथवा कुलीन हों,
4) शारीरिक दोषरहित, सुन्दर, समझदार, सुशिक्षित, प्रतिभाशाली और राज-दरबार में रहने योग्य हों। अशपनज ने उन्हें खल्दैयियों का साहित्य और भाषा पढायी।
5) राजा ने राजकीय भोजन और अंगूरी में से उनके लिए खाने-पीने का दैनिक प्रबंध किया। उन्हें तीन वर्ष का प्रशिक्षण दिया जाने वाला था और उसके बाद वे राजा की सेवा में नियुक्त किये जाने वाले थे।
6) उन में यूदावंशी दानिएल, हनन्या, मीशाएल और अज़र्या थे।
8) दनिएल ने निश्चय किया कि वह राजकीय भोजन और अंगूरी खा-पी कर अपने को अशुद्ध नहीं करेगा और उसने खोजों के अध्यक्ष से निवेदन किया कि वह उसे उस दूषण से बचाये रखें।
9) ईश्वर की कृपा से खोजों का अध्यक्ष दानिएल के साथ अच्छा और सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार करता था।
10) उसने दानिएल से कहा, ’’मैं राजा, अपने स्वामी से डरता हूँ। उन्होंने तुम्हारा खानपान निश्चित किया है। यदि वह देखेंगे कि समवयस्क नवयुवकों की तुलना में तुम्हारा चेहरा उतरा हुआ है, तो मेरा जीवन जोखिम में पड़ जायेगा।’’
11) उसके बाद दानिएल ने भोजन के प्रबन्धक से, जिसे खोजों के अध्यक्ष ने दानिएल, हनन्या, मीशाएल और अजर्या पर नियुक्त किया था, कहा,
12) ’’आप कृपया दस दिन तक अपने सेवकों की परीक्षा ले- हमें खाने के लिए तरकारी और पीने के लिए पानी दिलायें।
13) इसके बाद आप हमारा और राजकीय भोजन का सेवन करने वाले युवकों का चेहरा देख लें और जो आप को उचित जान पड़े, वही हमारे साथ करें।’’
14) उसने उनका निवेदन स्वीकार कर लिया और दस दिन तक उनकी परीक्षा ली।
15) दस दिन बाद के राजकीय भोजन खाने वाले युवकों की तुलना में अधिक स्वस्थ और हष्ट-पुष्ट दीख पड़े।
16) उस समय से प्रबन्धक उनके लिए निर्धारित किया हुआ खान-पान हटा कर उन्हें तरकारी देता रहा।
17) ईश्वर ने उन चार नवयुवकों को ज्ञान, समस्त साहित्य की जानकारी और प्रज्ञा प्रदान की। दानिएल को दिव्य दृश्यों और हर प्रकार के स्वप्नों की व्याख्या करने का वरदान प्र्राप्त था।
18) राजा द्वारा निर्धारित अवधि की समाप्ति पर खाजों के अध्यक्ष ने नवयुवकों को नबूकदनेज़र के सामने प्रस्तुत किया।
19) राजा ने उनके साथ वार्तालाप किया और उन में कोई भी दानिएल, हनन्य, मीशाएल और अजर्या की बराबरी नहीं कर सका। वे राजा की सेवा में नियुक्त हो गये।
20) जब जब राजा ने किसी समस्या पर उन से परामर्श लिया, तो उसने पाया कि समस्त राज्य के किसी भी ज्योतिषी अथवा ओझा से उनकी प्रज्ञा और विवेक दसगुना श्रेष्ठ था।
सुसमाचार : सन्त लूकस 21:1-4
1) ईसा ने आँखें ऊपर उठा कर देखा कि धनी लोग ख़ज़ाने में अपना दान डाल रहे हैं।
2) उन्होंने एक कंगाल विधवा को भी दो अधेले डालते हुए देखा
3) और कहा, ‘‘मैं तुम लोगों से यह कहता हूँ-इस कंगाल विधवा ने उन सबों से अधिक डाला है।
4) उन्होंने तो अपनी समृद्धि से दान दिया, परन्तु इसने तंगी में रहते हुए भी जीविका के लिए अपने पास जो कुछ था, वह सब दे डाला।’’
मनन-चिंतन
पूर्ण चढ़ावाः सुसमाचार में विधवा ने अपना सब कुछ ईश्वर को अर्पित किया। उसने अपने लिए कुछ भी पीछे नहीं रखा। यह एक पूर्ण चढ़ावा था। प्रेरित चरित 5ः1-11 में, हम अनानीयस और सफीरा के बारे में सुनते हैं, जिन्होंने खेत की कीमत का एक अंश वापस रखा और पेत्रुस से झूठ बोलकर अपनी जान गंवा दी। संत अगस्तीन कहते हैं, ‘‘जहाँ तुम्हारा आनंद है, वहाँ तुम्हारा खजाना है; जहाँ तुम्हारा खजाना है, वहाँ तुम्हारा दिल है; जहाँ तुम्हारा दिल है, वहाँ तुम्हारी खुशी है’’। हमें उस खजाने का आनंद लेने के लिए खुद को पूरी तरह से देने की जरूरत है। विलियम बार्कले लिखते हैं, ‘‘क्या प्रकृति का पूरा क्षेत्र मेरा था, वह एक भेंट थी जो बहुत छोटी थी। प्रेम इतना अद्भुत, इतना दिव्य जो मेरी आत्मा, मेरा जीवन, मेरा सब कुछ मांगता है।’’
ईश्वर बलिदान को महत्व देता हैः ईश्वर देने वाले के बलिदान को महत्व देता है। दी गई राशि से अधिक वह उस हृदय या प्रेम को देखता है जिसके साथ कोई उसे देता है, मदर तेेरेसा कहती है ‘‘यदि आप वह देते हैं जिसकी आपको आवश्यकता नहीं है, तो वह देना नहीं होता,’’ ईश्वर को इस बात में कोई दिलचस्पी नहीं है कि हम कितना देते हैं, लेकिन हम कैसे देते हैं। ईश्वर उपहार की मात्रा को नहीं बल्कि देने वाले के मनोभाव को देखता है।
सुसमाचार में विधवा को हमारे लिए अपने जीवन को ईश्वर के प्रति पूर्ण समर्पण और हमारे दैनिक जीवन में किए जाने वाले बलिदानों के लिए एक आदर्श बनने दें।
REFLECTION
Complete offering: The widow in the gospel offered to God all that she had. She did not hold back anything for her. It was a complete offering. In Acts. 5:1-11 we hear about Ananias and Sapphira, who kept back part of the proceeds of the land and lying to Peter losing their life. St. Augustine says “Where your pleasure is, there is your treasure; where your treasure is, there is your heart; where your heart is, there is your happiness”. We need to give ourselves completely to enjoy that that treasure. William Barclay writes “Were the whole realm of nature mine, that were an offering far too small. Love so amazing, so divine demands my soul, my life, my all”.
God values the Sacrifice: God values the sacrifice of the giver. More than the amount given he sees the heart or the love with which one gives Mother Theresa says “If you give what you do not need, it isn’t giving,” God is not interested in how much we give, but in how we give. God does not look at the amount of the gift but at the spirit of the giver.
Let the widow in the gospel become a model for us in total surrendering of our life to God and the sacrifices that we need to make in our daily life.
मनन-चिंतन - 2
प्रभु ईश्वर के सामने जो बात मायने रखती है वह भेंट की मात्रा नहीं है, बल्कि उसकी गुणवत्ता है। उत्पत्ति 4:3-4 में कहा गया है, " काइन ने भूमि उपज का कुछ अंश प्रभु को अर्पित किया। हाबिल ने भी अपनी सर्वोत्तम भेड़ों के पहलौठे मेमनों को प्रभु को अर्पित किया।" यह स्पष्ट है कि काइन ने अपनी भेंट की गुणवत्ता पर ध्यान नहीं दिया। उसने “कुछ अंश” अर्पित किया, जैसे वह एक औपचारिकता पूरी कर रहा हो। लेकिन हाबिल ने चुने हुए उपहारों की भेंट चढ़ायी; उसने प्रभु को सर्वश्रेष्ठ वस्तुएं अर्पित की। बलिदान की भावना चढ़ावे की गुणवत्ता को बढ़ाती है। 2समुएल 24:24 में दाऊद ने जोर देकर कहा, "मैं प्रभु, अपने ईश्वर को मुफ़्त में प्राप्त होम-बलियाँ नहीं चढ़ाना चाहता"। जब हमारे पास ज़रूरत से ज़्यादा सम्पत्ति होती है और उसका एक अंश प्रभु को चढ़ाते हैं, तो वह कोई महान कार्य नहीं होता है, लेकिन अगर हमारे पास अपनी ज़रूरत की पूर्ती के लिए पर्याप्त संपत्ति है या उससे भी कम है, तो उनमें से कुछ ईश्वर को अर्पित करना एक महान हो जाता है। अगर ईश्वर की या दूसरों की सेवा में हमें अपनी जान की कुर्बानी देनी पड़ती है, तो वह सबसे बड़ा कार्य बनता है। संत लूकस 21:1-4 में बताया गया है कि उस गरीब विधवा ने “तंगी में रहते हुए भी जीविका के लिए अपने पास जो कुछ था, वह सब दे डाला”। वह सब कुछ देती है। ऐसा करने को सक्षम होने के लिए, वह एक ऐसी महिला होनी चाहिए, जो पूरी तरह ईश्वर के लिए समर्पित हो, जो ईश्वर की उदारता में विश्वास करती हो और यह मानती हो कि ईश्वर को कुछ चढ़ाते समय हिस्साब नहीं लगाना चाहिए।
REFLECTION
What matters before God is not quantity of the offering, but the quality of it. Gen 4:3-4 says, “Cain brought to the Lord an offering of the fruit of the ground, and Abel for his part brought of the firstlings of his flock, their fat portions”. It is evident that Cain did not bother about the quality of his offering to God. He offered something, as if he was fulfilling a formality. But Abel offered chosen gifts; he offered the best to God. One of the things that adds to the quality greatly is the sacrifice involved in the offerings. In 2Sam 24:24 David insists, “I will not offer burnt offerings to the Lord my God that cost me nothing”. When we offer from what we have in excess, there is nothing great about, but if we offer to the point of being hurt, it becomes great. If it means dying, that is the greatest offering. The poor widow at the temple, mentioned by Lk in 21:1-4, put in “all she had to live on”. She gives everything. To be able to do that, she should be a woman who has single-minded devotion in her heart for God, believes in the generosity of God and does not count when it is a matter of offering something to God.
✍ -Br. Biniush topno
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