गुरुवार, 11 नवंबर, 2021
वर्ष का बत्तीसवाँ सामान्य सप्ताह
पहला पाठ: प्रज्ञा-ग्रन्थ 7:22-8:1
22) प्रज्ञा में एक आत्मा विद्यमान है, जो विवेकशील, पवत्रि अद्वितीय, बहुविध, सूक्ष्म, गतिमय, प्रत्यक्ष, निष्कलंक, स्वच्छ, अपरिवर्तनीय, हितकारी, तत्पर,
23) अदम्य, उपकारी, जनहितैषी, सुदृढ़, आश्वस्त, प्रशान्त, सर्वशक्तिमान् और सर्वनिरीक्षक है। वह सभी विवेकशील, शुद्ध तथा सूक्ष्म जीवात्माओें में व्याप्त है;
24) क्योंकि प्रज्ञा किसी भी गति से अधिक गतिशील है। वह इतनी परिशुद्ध है कि वह सब कुछ में प्रवेश करती और व्याप्त रहती है।
25) वह ईश्वर की शक्ति का प्रसव है, सर्वशक्तिमान् की महिमा की परिशुद्ध प्रदीप्ति है, इसलिए कोई अशुद्धता उस में प्रवेश नहीं कर पाती।
26) वह शाश्वत ज्योति का प्रतिबिम्ब है, ईश्वर की सक्रियता का परिशुद्ध दर्पण और उसकी भलाई का प्रतिरूप है।
27) वह अकेली होते हुए भी सब कुछ कर सकती है। वह अपरिवर्तनीय होते हुए भी सब कुछ को नवीन बनाती रहती है। वह पीढ़ी-दर-पीढ़ी पवत्रि जीवात्माओं में प्रवेश कर उन्हें ईश्वर के मित्र और नबी बनाती है;
28) क्योंकि ईश्वर केवल उसी को प्यार करता है, जो प्रज्ञा के साथ निवास करता है।
29) प्रज्ञा सूर्य से भी रमणीय है, सभी नक्षत्रों से श्रेष्ठ है और प्रकाश से भी बढ़ कर है;
30) क्योंकि प्रकाश रात्रि के सामने दूर हो जाता है, किन्तु प्रज्ञा पर दुष्टता का वष नहीं चलता।
1) प्रज्ञा की शक्ति पृथ्वी के एक छोर से दूसरे छोर तक सक्रिय है और वह सुचारू रूप से विश्वका संचालन करती है।
सुसमाचार : सन्त लूकस 17:20-25
20) जब फ़रीसियों ने उन से पूछा कि ईश्वर का राज्य कब आयेगा, तो ईसा ने उन्हें उत्तर दिया, ‘‘ईश्वर का राज्य प्रकट रूप से नहीं आता।
21) लोग नहीं कह सकेंगे, ‘देखो-वह यहाँ है’ अथवा, ‘देखो-वह वहाँ है’; क्योंकि ईश्वर का राज्य तुम्हारे ही बीच है।’’
22) ईसा ने अपने शिष्यों से कहा, ‘‘ऐसा समय आयेगा, जब तुम मानव पुत्र का एक दिन भी देखना चाहोगे, किन्तु उसे नहीं देख पाओगे।
23) लोग तुम से कहेंगे, ’देखो-वह यहाँ है’, अथवा, ‘देखो-वह वहाँ है’, तो तुम उधर नहीं जाओगे, उनके पीछे नहीं दौड़ोगे;
24) क्योंकि जैसे बिजली आकाश के एक छोर से निकल कर दूसरे छोर तक चमकती है, वैसे ही मानव पुत्र अपने दिन प्रकट होगा।
25) परन्तु पहले उसे बहुत दुःख सहना और इस पीढ़ी द्वारा ठुकराया जाना है।
मनन-चिंतन
आज का सुसमाचार दो प्रश्नों के उत्तर देने का प्रयास करता है -
1. ईश्वर का राज्य कहॉं है ?
2. ईश्वर का राज्य कब स्थापित होगा ?
1. ईश्वर का राज्य कहॉं है ?
ईश्वर का राज्य लूकस के सुसमाचार में आमतौर पर इस्तेमाल की जाने वाली अभिव्यक्ति है । ईश्वर का राज्य क्या है, यह स्वयं येसु ने सुसमाचार में कई स्थानों पर व्यक्त किया है । इन सभी अभिव्यक्तियों से हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि यह कोई विशेष स्थान या क्षेत्र नहीं है जैसा कि हम आमतौर पर सोचते है ।
संत पौलुस लिखते है, “क्योंकि ईश्वर का राज्य खाने-पीने का नही, बल्कि वह न्याय शांति और पवित्र आत्मा द्वारा प्रदत्त आनन्द का विषय है।रोम 14ः17
ईश्वर का राज्य भीतर से शुरू होता है और हमारे हृदयों को ईश्वर के हृदय में बदल देता है । इसलिए ईश्वर का राज्य पहले मानव हृदय में और फिर समाज में स्थापित होता है ।
2. ईश्वर का राज्य कब स्थापित होगा ?
दुनिया के अंत के विषय में केवल ईश्वर जानता है यह एक वर्तमान घटना और वासतविकता है और इसकी समाप्ति समय के अंत में होगी । इसलिए हम ईश्वर के राज्य की प्रकृति के विषय में पहले से ही और अभी तक नहीं के संदर्भ में बात करते है ।
धर्म शिक्षा स्पष्ट रूप से ईसा मसीह के अवतार में सुसमाचार मंे पवित्र यूख्रीस्त में और कलीसिया में ईश्वर के राज्य की पहले से मौजूद प्रकृति को स्पष्ट रूप से बताती है ।
लेकिन साथ ही इसके अप्रत्याशित आगमन की प्रतीक्षा कर रहे एक उम्मीदवार की भी भविष्यवाणी की जाती है । येसु ने चेतावनी दी है कि झूठे भविष्य वक्ताओं का अनुसरण न करें जो हमें । भटकाते है । आइए हम अपने दिल में राज्य की अच्छाई का अनुभव करें और इसके मूल्यों को अपने और अपनंे आसपास फैलाएॅ ।
REFLECTION
Today’s gospel tries to answer two questions
1. Where is the Kingdom of God?
2. When will the Kingdom of God be established?
Where is the Kingdom of God?
Kingdom of God is a commonly used expression in the gospel of Luke. From all these expressions we can conclude that it is not a particular place or a region as we normally tend to think. St. Paul writes “Kingdom of God is not eating and drinking but righteousness, peace and joy in the heart” Rom. 4:17. The Kingdom of God begins from within and transforms our hearts to be like God. Therefore Kingdom of God is established first in the human heart and then in the society
When will Kingdom of God be established?
Only God knows about the end of the world. It is a present event and reality and its completion will take place at the end of time. That is why we speak of the nature of kingdom of God as Already and Not yet.
The teaching of the Catechism of the Catholic Church clearly spells out the Already Present nature of the Kingdom of God in the person of Jesus Christ the incarnate word, in the Gospel, in the Eucharist and in the Church. But at the same time an expectant waiting for its unexpected arrival is also foreseen. Jesus warns not to follow the false prophets who can mislead us.
Let us experience the goodness of the kingdom in our heart and spread its values in and around us.
मनन-चिंतन - 2
फरीसियों के सवाल के जवाब में, प्रभु येसु ने उन्हें बताया कि ईश्वर का राज्य पहले ही आ चुका था और यह उनके बीच था। येसु ने ईश्वर के राज्य का उद्घाटन किया। प्रभु ने अपने देहधारण, दुखभोग और मृत्यु के माध्यम से ईश्वर के राज्य का उद्घाटन किया। उन्होंने हम में स्वर्गराज्य का उद्घाटन किया। हमें उसके पूर्ण एहसास करने के लिए उनका साथ देना होगा। हममें से हरेक को अपने जीवन में स्वर्गराज्य के फल पैदा करना चाहिए। संत पौलुस फिलिप्पियों से कहते हैं, "जिसने आप लोगों में यह शुभ कार्य आरम्भ किया, वह उसे ईसा मसीह के आगमन के दिन तक पूर्णता तक पहुँचा देगा।" (फिलिप्पियों 1:6) ईश्वर का राज्य जीवन, प्रकाश, विकास और फलदायकता के बारे में है। हमारे भीतर बोया गया शब्द अंकुरित होकर, विकसित होकर प्रेम और सेवा के फल पैदा करने के लिए सक्षम बने। यह हम केवल येसु से जुड़े हो कर ही हासिल कर सकते हैं। प्रभु कहते हैं, "जो मुझ में रहता है और मैं जिसमें रहता हूँ वही फलता है क्योंकि मुझ से अलग रहकर तुम कुछ भी नहीं कर सकते"। (योहन 15: 5)
REFLECTION
In reply to the question of the Pharisees, Jesus tells them the Kingdom of God had already come and that it was among them. Jesus inaugurated the Kingdom of God. It is through his incarnation, suffering and death that Jesus inaugurated the Kingdom of God. He inaugurated the Kingdom in us, we have to co-operate with him in bringing it to its full realisation. Each one of us is expected to produce the fruits of Kingdom in our own lives. St. Paul tells the Philippians, “I am confident of this, that the one who began a good work among you will bring it to completion by the day of Jesus Christ” (Phil 1:6). The Kingdom of God is about life, light, growth and fruitfulness. The Word that is sown in us needs to take root, grow and become capable of producing fruits of love and service. This we can facilitate only by clinging on to Jesus. Jesus says, “Those who abide in me and I in them bear much fruit, because apart from me you can do nothing” (Jn 15:5)
✍ -Br Biniush Topno
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