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गुरुवार, 14 अक्टूबर, 2021

 

गुरुवार, 14 अक्टूबर, 2021

वर्ष का अट्ठाईसवाँ सामान्य सप्ताह

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पहला पाठ :रोमियों के नाम सन्त पौलुस का पत्र 3:21-30a


21) ईश्वर का मुक्ति-विधान, जिसके विषय में मूसा की संहिता और नबियों ने साक्ष्य दिया था, अब संहिता के स्वतन्त्र रूप में प्रकट किया गया है।

22) यह मुक्ति ईसा मसीह में विश्वास करने से प्राप्त होती है। अब भेदभाव नहीं रहा। यह मुक्ति उन सबों के लिए है, जो विश्वास करते है;

23) क्योंकि सबों ने पाप किया और सब ईश्वर की महिमा से वंचित किये गये।

24) ईश्वर की कृपा से सबों को मुफ्त में पापमुक्ति का वरदान मिला है; क्योंकि ईसा मसीह ने सबों का उद्धार किया है।

25) ईश्वर ने चाहा कि ईसा अपना रक्त बहा कर पाप का प्रायश्चित्त करें और हम विश्वास द्वारा उसका फल प्राप्त करें। ईश्वर ने इस प्रकार अपनी न्यायप्रियता का प्रमाण दिया; क्योंकि उसने अपनी सहनशीलता के अनुरूप पिछले युगों के पापों को अनदेखा कर दिया था।

26) उसने युग में अपनी न्यायप्रियता का प्रमाण देना चाहा, जिससे यह स्पष्ट हो जाये कि वह स्वयं पवित्र है और उन सबों को पापमुक्त करता है, जो ईसा में विश्वास करते हैं।

27) इसलिए किसी को अपने पर गर्व करने का अधिकार नहीं रहा। किस विधान के कारण यह अधिकार जाता रहा? यह कर्मकाण्ड के विधान के कारण नहीं, बल्कि विश्वास के विधान के कारण हुआ।

28) क्योंकि हम मानते हैं कि मनुष्य संहिता के कर्मकाण्ड द्वारा नहीं, बल्कि विश्वास द्वारा पापमुक्त होता है।

29) क्या ईश्वर केवल यहूदियों का ईश्वर है? क्या वह गैर-यहूदियों का ईश्वर नहीं? वह निश्चय ही गैर-यहूदियों का भी ईश्वर है।

30) क्योंकि केवल एक ही ईश्वर है, जो खतने वालों को विश्वास द्वारा पापमुक्त करेगा और उसी विश्वास द्वारा बेखतने लोगों को भी।



सुसमाचार : सन्त लूकस 11:47-54



47) धिक्कार तुम लोगों को! क्योंकि तुम नबियों के लिए मक़बरे बनवाते हो, जब कि तुम्हारे पूर्वजों ने उनकी हत्या की।

48) इस प्रकार तुम अपने पूर्वजों के कर्मों की गवाही देते हो और उन से सहमत भी हो, क्योंकि उन्होंने तो उनकी हत्या की और तुम उनके मक़बरे बनवाते हो।

49) ’’इसलिए ईश्वर की प्रज्ञा ने यह कहा-मैं उनके पास नबियों और प्रेरितों को भेजूँगा; वे उन में कितनों की हत्या करेंगे और कितनो पर अत्याचार करेंगे।

50) इसलिए संसार के आरम्भ से जितने नबियों का रक्त बहाया गया है-हाबिल के रक्त से ले कर ज़करियस के रक्त तक, जो वेदी और मन्दिरगर्भ के बीच मारा गया था-

51) उसका हिसाब इस पीढ़ी को चुकाना पड़ेगा। मैं तुम से कहता हूँ, उसका हिसाब इसी पीढ़ी को चुकाना पड़ेगा।

52) ’’शास्त्रियों, धिक्कार तुम लोगों को! क्योंकि तुमने ज्ञान की कुंजी ले ली। तुमने स्वयं प्रवेश नहीं किया और जो प्रवेश करना चाहते थे, उन्हें रोका।’’

53) जब ईसा उस घर से निकले, तो शास्त्री, और फ़रीसी बुरी तरह उनके पीछे पड़ गये और बहुत-सी बातों के सम्बन्ध में उन को छेड़ने लगे।

54) वे इस ताक में थे कि ईसा के किसी-न-किसी कथन में दोष निकाल लें।



📚 मनन-चिंतन



नबी ईश्वर के मुखपत्र थे। उन्होंने वही बोला जो ईश्वर ने उन्हें दिखाया और उन्हें बोलने के लिए नियुक्त किया। उनकी भूमिका लोगों को उनके लिए ईश्वर की इच्छा के बारे में बताने की थी। उनके संदेश अक्सर लोगों को विशेष रूप से इस्राएल के शासक वर्ग को पसंद नहीं आते थे। भविष्यवक्ताओं ने लोगों के जीने के तरीके का खंडन किया और वे ईश्वर की वाणी बोलने में निडर और अजेय थे।

लोगों ने उन्हें चुप कराने का आसान तरीका ढूंढ निकाला। उन्हें मार डालना उनसे छुट्कारा पाने का सबसे आसान उपाय था । नबीओं को मारना इस्राएल के सबसे बड़े पापों में से एक था। नबियों को मारने या चुप कराने की उनकी कार्रवाई का इस्राएल के जीवन और इतिहास पर दूरगामी परिणाम हुआ। लोगों ने सच्चाई के अनुसार बदलने से इनकार कर दिया, इसलिए वे कभी नहीं सुधरे। वे अपने ही पापों और छल के जाल की ओर और अधिक गहराई में गिरते रहते हैं।

यह पतन की शुरुआत है जब हम सुनने और बदलने से इनकार करते हैं जिसे ईश्वर हमसे चाहते हैं। परिवर्तन कठिन है। यह साहस और पुष्टि की मांग करता है। और विश्वास हमें ये दोनों प्रदान करता है। यदि हम ईश्वर की वाणी पर ध्यान दें जो हमारे पास आती है तो हम स्वतः ही उसका अनुसरण करने और उसे पूरा करने का साहस पाएंगे। हम जितना अधिक साहस दिखाते हैं, उतनी ही अधिक पुष्टि हमारे पास आती है। इस तरह के परिवर्तन का परिणाम शक्तिशाली आशीर्वाद और व्यक्तित्व में पूर्ण परिवर्तन है।

इस्राएल ने नबीओं द्वारा बोले गए सत्य के प्रकाश में परिवर्तित होने के इस अवसर को गंवा दिया। ईश्वर की चुनी प्रजा ने ईश्वर के नबियों को मार डाला था, और येसु के समकालीनों ने उन पर उग्र हमला करके इसकी पुष्टि की और अंत में उन्हें भी मार डाला। हमारी पीढ़ी भी निर्दोष व्यक्तियों और लोगों के खिलाफ क्रूरता और उत्पीड़न के अकथनीय कृत्य करती है। हमें अपने चारों ओर अच्छाई और बुराई के बीच इस महान लड़ाई को देखने के लिए और अपने दिल में अपने तार्किक निष्कर्ष तक पहुंचने के लिए कार्य करना चाहिए। हमें हमेशा अच्छाई, सच्चाई और न्याय के पक्ष में रहने का चुनाव करने में सक्षम होना चाहिए।




📚 REFLECTION




Prophets were the mouthpiece of God. They spoke what God showed them and commissioned them to speak. Their role was to let the people know God’s will for them. Their messages were very often not pleasing to people especially the ruling class of Israel. The prophets disprove the way people had been living and they were fearless and unstoppable in speaking God’s voice.

The people found an easy way to silence them. It was to kill them. It was one of Israel’s biggest sins to kill the prophets. Their action of killing or silencing the prophets had far-reaching consequences on the life and history of Israel. People refused to change in accordance with the truth therefore they never improved. They continue to fall into greater depth of their own web of sins and guile.

It is the beginning of fall when we refuse to listen and change that God demands from us. the change is difficult. It demands courage and confirmation. And faith provides us both. If we heed to the voice of God that comes to us we will automatically find the courage to follow it and fulfill it. the more courage we show the more confirmation comes to us. the result of such change is the mighty blessing and a complete transformation in the personality.

Israel missed this opportunity to be transformed in the light of the truth spoken by the prophets. The chosen people had killed God’s prophets, and the contemporaries of Jesus ratify this by attacking him furiously and finally kill him too. Our generation too commits unspeakable acts of cruelty and oppression against innocent persons and peoples. We must act to see this great battle between good and evil around us and in our own hearts to reach its logical conclusion. We should be able to choose to be always on the side of good, truth, and justice.


मनन-चिंतन - 2



प्रभु येसु शास्त्रियों से नाराज़ थे क्योंकि वे चरनी में कुत्ते की तरह थे। कुत्ता घास नहीं खाएगा; न ही वह अन्य जानवरों को उसे खाने देता। थॉमस के अप्रमाणिक सुसमाचार (Apocryphal Gospel of Thomas) के 102 वें कथन में हम इस तरह पढ़ते हैं - "येसु ने कहा, 'धिक्कार, फरीसियों को, वे बैलों की चरनी में सोने वाले कुत्ते की तरह हैं, न तो वह स्वयं खाता है और न ही बैलों को खाने देता है।" शास्त्रियों से येसु कहते हैं, “शास्त्रियों, धिक्कार तुम लोगों को! क्योंकि तुमने ज्ञान की कुंजी ले ली। तुमने स्वयं प्रवेश नहीं किया और जो प्रवेश करना चाहते थे, उन्हें रोका।’’। संत मत्ती का थोड़ा अलग संस्करण है। “ढोंगी शास्त्रियों और फरीसियों! धिक्कार तुम लोगों को! तुम मनुष्यों के लिए स्वर्ग का राज्य बन्द कर देते हो। तुम स्वयं प्रवेश नहीं करते और जो प्रवेश करना चाहते हैं, उन्हें रोक देते हो।" (मत्ती 23:13-14)। अगर जो अधिकार रखता है, वह भ्रष्ट है, वह न केवल खुद का विनाश करता है, बल्कि उसको देखभाल के लिए सौंपे गए लोगों के भविष्य को नष्ट करता है। ईश्वर नबियों को समाज को शुद्ध करने के लिए भेजते हैं, लेकिन फरीसियों ने ऐसे नबियों को सताया और उन्हें सुधारों को आगे बढ़ाने से रोका। फरीसियों का कर्तव्य था कि वे प्रभु ईश्वर के सुधार के सूत्रधार के रूप में कार्य करें, लेकिन वे उस कार्य को बिगाड़ने में लगे थे। हम अपने दैनिक जीवन में प्रभु ईश्वर के साथ सहयोग कैसे करते हैं?



SHORT REFLECTION



Jesus was angry with the lawyers because they were like dog in the manger. The dog would not eat grass; neither would he allow other animals to eat it. Saying 102 of the Apocryphal Gospel of Thomas reads like this - "Jesus said, 'Woe to the Pharisees, for they are like a dog sleeping in the manger of oxen, for neither does he eat nor does he let the oxen eat”. About the lawyers Jesus says, “Alas for you lawyers who have taken away the key of knowledge! You have not gone in yourselves and have prevented others from going in who wanted to.” St. Matthew has a slightly different version. “But woe to you, scribes and Pharisees, hypocrites! For you lock people out of the kingdom of heaven. For you do not go in yourselves, and when others are going in, you stop them” (Mt 23:13-14). If people sitting in places of authority are corrupt, they not only destroy themselves, but destroy also the future of people entrusted to their care. The prophets were sent by God to purify the society, but the Pharisees persecuted such prophets and prevented them from carrying out the reforms. The Pharisees were to act as facilitators of God’s reforms, but they turned out to be spoilers. How do we respond to God in our daily lives?


 -Br Biniush Topno


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Praise the Lord!

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