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शनिवार, 03 जुलाई, 2021 प्रेरित संत थॉमस

 

शनिवार, 03 जुलाई, 2021

प्रेरित संत थॉमस



पहला पाठ : प्रेरित-चरित 10:24-35



24) दूसरे दिन वह उनके साथ चल दिया और योप्पे के कुछ भाई भी उनके साथ हो लिये। वह अगले दिन कैसरिया पहुँचा। करनेलियुुस अपने संबंधियों और घनिष्ठ मित्रों को बुला कर उन लोगों की प्रतीक्षा कर रहा था।

25) जब पेत्रुस उनके यहाँ आया, तो करनेलियुस उस से मिला और उसने पेत्रुस के चरणों पर गिर कर उसे प्रणाम किया।

26) किंतु पेत्रुस ने उसे यह कहते हुए उठाया, ’’खड़े हो जाइए, मैं भी तो मनुष्य हूँ’’

27) और उसके साथ बातचीत करते हुए घर में प्रवेश किया। वहाँ बहुत-से लोगों को एकत्र देखकर

28) पेत्रुस ने उन से यह कहा, ’’आप जानते है कि गैर-यहूदी से संपर्क रखना या उसके घर में प्रवेश करना यहूदी के लिए सख्त मना है; किंतु ईश्वर ने मुझ पर यह प्रकट किया हैं कि किसी भी मनुष्य को अशुद्ध अथवा अपवित्र नहीं कहना चाहिए।

29) इसलिए आपके बुलाने पर मैं बेखटके यहाँ आया हूँ। अब मैं पूछना चाहता हूँ कि आपने मुझे क्यों बुलाया?’’

30) करनेलियुस ने उत्तर दिया, ’’चार दिन पहले इसी समय मैं अपने घर में सन्ध्या की प्रार्थना कर रहा था कि उजले वस्त्र पहने एक पुरुष मेरे सामने आ खड़ा हुआ।

31) उसने यह कहा, ’करनेलियुस! आपकी प्रार्थनाएँ सुनी गयी हैं और ईश्वर ने आपके भिक्षा-दानों को याद किया।

32) आप आदमियों को योप्पे भेजिए और सिमोन को, जो पेत्रुस कहलाते हैं, बुलाइए। वह चर्मकार सिमोन के यहाँ, समुद्र के किनारे, ठहरे हुए हैं।

33) मैंने आप को तुरंत बुला भेजा और आपने पधारने की कृपा की हैं। ईश्वर ने आप को जो-जो आदेश दिये हैं, उन्हें सुनने के लिए हम सब यहाँ आपके सामने उपस्थित हैं।’’

34) पेत्रुस ने कहा, ’’मैं अब अच्छी तरह समझ गया हूँ कि ईश्वर किसी के साथ पक्ष-पात नहीं करता।

35) मनुष्य किसी भी राष्ट्र का क्यों न हो, यदि वह ईश्वर पर श्रद्धा रख कर धर्माचरण करता है, तो वह ईश्वर का कृपापात्र बन जाता हैं।



दूसरा पाठ: एफ़ेसियों के नाम सन्त पौलुस का पत्र 2:19-22



19) आप लोग अब परेदशी या प्रवासी नहीं रहे, बल्कि सन्तों के सहनागरिक तथा ईश्वर के घराने के सदस्य बन गये हैं।

20) आप लोगों का निर्माण भवन के रूप में हुआ है, जो प्रेरितों तथा नबियों की नींव पर खड़ा है और जिसका कोने का पत्थर स्वयं ईसा मसीह हैं।

21) उन्हीं के द्वारा समस्त भवन संघटित हो कर प्रभु के लिए पवित्र मन्दिर का रूप धारण कर रहा है।

22) उन्हीं के द्वारा आप लोग भी इस भवन में जोड़े जाते हैं, जिससे आप ईश्वर के लिए एक आध्यात्मिक निवास बनें।



सुसमाचार : सन्त योहन का सुसमाचार 20:24-29



24) ईसा के आने के समय बारहों में से एक थोमस जो यमल कहलाता था, उनके साथ नहीं था।

25) दूसरे शिष्यों ने उस से कहा, ’’हमने प्रभु को देखा है’’। उसने उत्तर दिया, ’’जब तक मैं उनके हाथों में कीलों का निशान न देख लूँ, कीलों की जगह पर अपनी उँगली न रख दूँ और उनकी बगल में अपना हाथ न डाल दूँ, तब तक मैं विश्वास नहीं करूँगा।

26) आठ दिन बाद उनके शिष्य फिर घर के भीतर थे और थोमस उनके साथ था। द्वार बन्द होने पर भी ईसा उनके बीच आ कर खडे हो गये और बोले, ’’तुम्हें शांति मिले!’’

27) तब उन्होने थोमस से कहा, ’’अपनी उँगली यहाँ रखो। देखो- ये मेरे हाथ हैं। अपना हाथ बढ़ाकर मेरी बगल में डालो और अविश्वासी नहीं, बल्कि विश्वासी बनो।’’

28 थोमस ने उत्तर दिया, ’’मेरे प्रभु! मेरे ईश्वर!’’

29) ईसा ने उस से कहा, ’’क्या तुम इसलिये विश्वास करते हो कि तुमने मुझे देखा है? धन्य हैं वे जो बिना देखे ही विश्वास करते हैं।’’



📚 मनन-चिंतन



आज माता कलीसिया प्रेरित सन्त थॉमस का पर्व मनाती है, लेकिन हमारे देश की कलीसिया के लिए यह बहुत ही खास पर्व है, क्योंकि भारत में प्रभु येसु का सुसमाचार सबसे पहले सन्त थॉमस ही पहली सदी में लेकर आये थे. केरल राज्य में इस बात के प्रमाण हैं. लेकिन जब हम आज के सुसमाचार को पढ़ते हैं तो हमें सन्त थॉमस की अलग ही छवि मिलती है. कुछ लोग सन्त थॉमस को ठीक से समझ नहीं पाते और उन्हें शंकी थॉमस (शक करने वाला सन्त) कहते हैं, क्योंकि जब प्रभु येसु अपने पुनुरुत्थान के बाद सन्त थॉमस की अनुपस्थिति में दूसरे शिष्यों को दिखाई दिये तो सन्त थॉमस को यकीन नहीं हुआ. उन्होंने कहा कि "जब तक मैं हाथों में कीलों का निशान न देख लूँ, कीलों की जगह पर अपनी ऊँगली न रख दूँ और उनकी बगल में अपना हाथ न डाल दूँ, तब तक मैं विश्वास नहीं करूँगा" (योहन 20:25). उनका इस तरह से कहना स्वाभाविक ही था.

यहूदी लोग पुनुरुत्थान में विश्वास तो करते थे, लेकिन प्रभु येसु से पहले किसी का भी पुनुरुत्थान नहीं हुआ था, अर्थात् प्रभु येसु के पुनुरुत्थान की यह घटना विस्मयकारी और बहुत अजीब थी. शुरू में दूसरे शिष्यों को भी विश्वास नहीं हुआ था. सन्त थॉमस अपने विश्वास को समझना चाहते थे. विश्वास को समझना और समझकर विश्वास करना दोनों एक दूसरे के पूरक हैं. विश्वास के बिना समझदारी व्यर्थ है और बिना समझे विश्वास करना अन्धविश्वास है.

जब उन्होंने अपने विश्वास को जाँचा-परखा तब उनका विश्वास इतना मजबूत हो गया कि उन्होंने अपने विश्वास का सबसे बड़ा साक्ष्य दिया. सबसे पहले उन्होंने प्रभु येसु को प्रभु और ईश्वर कहकर पुकारा. उनके विश्वास की वह घोषणा हमारे लिए आदर्श घोषणा बन गई और हमारी मुक्ति का कारण भी. तभी तो सन्त पौलुस कहते हैं, “क्योंकि यदि आप लोग मुख से स्वीकार करते हैं कि ईसा प्रभु हैं और ह्रदय से विश्वास करते हैं कि ईश्वर ने उन्हें मृतकों में से जिलाया है, तो आपको मुक्ति प्राप्त होगी.” (रोमियों 10:9). सन्त थॉमस हमारे लिए इसी का प्रमाण और देते हैं. उनका यह कहना "मेरे प्रभु और मेरे ईश्वर" प्रभु येसु के ईश्वर और प्रभु होने की घोषणा है और प्रभु येसु के पुनुरुत्थान में विश्वास का साक्ष्य है. क्या हमारा विश्वास मजबूत है, क्या हम निडर होकर प्रभु येसु को कह सकते हैं, “मेरे प्रभु मेरे ईश्वर?” आमेन.



📚 REFLECTION




Today mother Church celebrates the feast of St. Thomas, the apostle to India, therefore this feast is more important to the Church of India then elsewhere. It was St. Thomas who first brought the Gospel to our country in the 1st century, it was he who first introduced Jesus to our land. There are historical evidences to this in Kerala and other southern states. But today’s Gospel passage gives us a different picture of this great apostle. Some people misunderstood St. Thomas and called him ‘doubting’ Thomas, because when Jesus appeared to his disciples and Thomas was not there, so when other disciples told him about the appearance of the Lord, he could not believe it, and he said, “Unless I see the mark of the nails in his hands, and put my finger in the mark of the nails and my hand in his side, I will not believe.” (John 20:25b). This was his natural response as would be for any normal person.

Jews though believed in the resurrection, the generation of Jesus’ time had not seen anybody’s resurrection like Jesus. This was perhaps the most unique and extraordinary event. Even other disciples could not believe initially. St. Thomas wanted to understand his faith. Reasoning and faith are complimentary to each other. Reasoning without faith is meaningless and faith without reasoning becomes superstition.

When he understood hi faith, he became a great disciple that gave greatest witness about the divinity of Jesus. He was the first one to call Jesus as God, though others had called him Lord and Master. This is one of the greatest confession of faith after the death of Jesus. The confession of St. Thomas became ideal confession worth emulating. That's why St. Paul says, “because if you confess with your lips that Jesus is Lord and believe in your heart that God raised him from the dead, you will be saved.” (Rom 10:9). St. Thomas testifies to this statement. His confession of saying “My Lord and my God” is proclamation of Jesus being Lord and God and this also is expression of his faith in the resurrection of Jesus. Is our faith strong enough? Can we also make a bold confession of our faith with St. Thomas, saying “My Lord and my God.?” Amen.



 -Br Biniush Topno


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Praise the Lord!

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