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Sunday, 1 August 2021 Mass Reading


Daily Mass Readings for Sunday, 1 August 2021

 New: Download Mass Readings in PDF – August 2021.


First Reading: Exodus 16: 2-4, 12-15


2 And all the congregation of the children of Israel murmured against Moses and Aaron in the wilderness.

3 And the children of Israel said to them: Would to God we had died by the hand of the Lord in the land of Egypt, when we sat over the flesh pots, and ate bread to the full. Why have you brought us into this desert, that you might destroy all the multitude with famine?

4 And the Lord said to Moses: Behold I will rain bread from heaven for you: let the people go forth, and gather what is sufficient for every day: that I may prove them whether they will walk in my law, or not.

12 I have heard the murmuring of the children of Israel: say to them: In the evening you shall eat flesh, and in the morning you shall have your fill of bread: and you shall know that I am the Lord your God.

13 So it came to pass in the evening, that quails coming up, covered the camp: and in the morning, a dew lay round about the camp.

14 And when it had covered the face of the earth, it appeared in the wilderness small, and as it were beaten with a pestle, like unto the hoar frost on the ground.

15 And when the children of Israel saw it, they said one to another: Manhu! which signifieth: What is this! for they knew not what it was. And Moses said to them: This is the bread, which the Lord hath given you to eat.


Responsorial Psalm: Psalms 78: 3-4, 23-24, 25, 54


R. (24b) The Lord gave them bread from heaven.

3 How great things have we heard and known, and our fathers have told us.

4 They have not been hidden from their children, in another generation. Declaring the praises of the Lord, and his powers, and his wonders which he hath done.

R. The Lord gave them bread from heaven.

23 And he had commanded the clouds from above, and had opened the doors of heaven.

24 And had rained down manna upon them to eat, and had given them the bread of heaven.

R. The Lord gave them bread from heaven.

25 Man ate the bread of angels: he sent them provisions in abundance.

54 And he brought them into the mountain of his sanctuary: the mountain which his right hand had purchased.

R. The Lord gave them bread from heaven.


Second Reading: Ephesians 4: 17, 20-24


17 This then I say and testify in the Lord: That henceforward you walk not as also the Gentiles walk in the vanity of their mind,

20 But you have not so learned Christ;

21 If so be that you have heard him, and have been taught in him, as the truth is in Jesus:

22 To put off, according to former conversation, the old man, who is corrupted according to the desire of error.

23 And be renewed in the spirit of your mind:

24 And put on the new man, who according to God is created in justice and holiness of truth.

Alleluia: Matthew 4: 4b

R. Alleluia, alleluia.

4b One does not live on bread alone, but by every word that comes forth from the mouth of God.

R. Alleluia, alleluia.

Gospel: John 6: 24-35


24 When therefore the multitude saw that Jesus was not there, nor his disciples, they took shipping, and came to Capharnaum, seeking for Jesus.

25 And when they had found him on the other side of the sea, they said to him: Rabbi, when camest thou hither?

26 Jesus answered them, and said: Amen, amen I say to you, you seek me, not because you have seen miracles, but because you did eat of the loaves, and were filled.

27 Labour not for the meat which perisheth, but for that which endureth unto life everlasting, which the Son of man will give you. For him hath God, the Father, sealed.

28 They said therefore unto him: What shall we do, that we may work the works of God?

29 Jesus answered, and said to them: This is the work of God, that you believe in him whom he hath sent.

30 They said therefore to him: What sign therefore dost thou shew, that we may see, and may believe thee? What dost thou work?

31 Our fathers did eat manna in the desert, as it is written: He gave them bread from heaven to eat.

32 Then Jesus said to them: Amen, amen I say to you; Moses gave you not bread from heaven, but my Father giveth you the true bread from heaven.

33 For the bread of God is that which cometh down from heaven, and giveth life to the world.

34 They said therefore unto him: Lord, give us always this bread.

35 And Jesus said to them: I am the bread of life: he that cometh to me shall not hunger: and he that believeth in me shall never thirst.


✍️Br. Biniush Topno

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Jai yesu 

इतवार, 01 अगस्त, 2021 वर्ष का अठारहवाँ सामान्य इतवार

 

इतवार, 01 अगस्त, 2021

वर्ष का अठारहवाँ सामान्य इतवार

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पहला पाठ : निर्गमन ग्रन्थ 16:2-4,12-15



2) इस्राएलियों का सारा समुदाय मरूभूमि में मूसा और हारून के विरुद्ध भुनभुनाने लगा।

3) इस्राएलियों ने उन से कहा, ''हम जिस समय मिस्र देश में मांस की हड्डियों के सामने बैठते थे और इच्छा-भर रोटी खाते थे, यदि हम उस समय प्रभु के हाथ मर गये होते, तो कितना अच्छा होता! आप हम को इस मरूभूमि में इसलिए ले आये हैं कि हम सब-के-सब भूखों मर जायें।''

4) प्रभु ने मूसा से कहा, ''मैं तुम लोगों के लिए आकाश से रोटी बरसाऊँगा। लोग बाहर निकल कर प्रतिदिन एक-एक दिन का भोजन बटोर लिया करेंगे। मैं इस तरह उनकी परीक्षा लूँगा और देखूँगा कि वे मेरी संहिता का पालन करते हैं या नहीं।

12) ''मैं इस्राएलियों का भुनभुनाना सुन चुका हूँ। तुम उन से यह कहना शाम को तुम लोग मांस खा सकोगे और सुबह इच्छा भर रोटी। तब तुम जान जाओगे कि मैं प्रभु तुम लोगों का ईश्वर हूँ।''

13) उसी शाम को बटेरों का झुण्डा उड़ता हुआ आया और छावनी पर बैठ गया और सुबह छावनी के चारों और कुहरा छाया रहा।

14) कुहरा दूर हो जाने पर मरुभूमि की जमीन पर पाले की तरह एक पतली दानेदार तह दिखाई पड़ी।

15) इस्राएली यह देखकर आपस में कहने लगे, ''मानहू'' अर्थात् ''यह क्या है?'' क्योंकि उन्हें मालूम नहीं था कि यह क्या था। मूसा ने उस से कहा, ''यह वही रोटी है, जिसे प्रभु तुम लोगों को खाने के लिए देता है।



दूसरा पाठ: एफ़ेसियों के नाम सन्त पौलुस का पत्र 4:17,20-24



17) मैं आप लोगों से यह कहता हूँ और प्रभु के नाम पर यह अनुरोध करता हूँ कि आप अब से गैर-यहूदियों-जैसा आचरण नहीं करें,

20) आप लोगों को मसीह से ऐसी शिक्षा नहीं मिली।

21) यदि आप लोगों ने उनके विषय में सुना और उस सत्य के अनुसार शिक्षा ग्रहण की है, जो ईसा में प्रकट हुई,

22) तो आप लोगों को अपना पहला आचरण और पुराना स्वभाव त्याग देना चाहिए, क्योंकि वह बहकाने वाली दुर्वासनाओं के कारण बिगड़ता जा रहा है।

23) आप लोग पूर्ण रूप से नवीन आध्यात्मिक विचारधारा अपनायें

24) और एक नवीन स्वभाव धारण करें, जिसकी सृष्टि ईश्वर के अनुसार हुई है और जो धार्मिकता तथा सच्ची पवित्रता में व्यक्त होता है।




सुसमाचार : सन्त योहन का सुसमाचार 6:24-35



24) जब उन्होंने देखा कि वहाँ न तो ईसा हैं और न उनके शिष्य ही, तो वे नावों पर सवार हुए और ईसा की खोज में कफरनाहूम चले गये।

25) उन्होंने समुद्र पार किया और ईसा को वहाँ पा कर उन से कहा, ‘‘गुरुवर! आप यहाँ कब आये?’’

26) ईसा ने उत्तर दिया, ‘‘मैं तुम लोगों से यह कहता हूँ- तुम चमत्कार देखने के कारण मुझे नहीं खोजते, बल्कि इसलिए कि तुम रोटियाँ खा कर तृप्त हो गये हो।

27) नश्वर भोजन के लिए नहीं, बल्कि उस भोजन के लिए परिश्रम करो, जो अनन्त जीवन तक बना रहता है और जिसे मानव पुत्र तुन्हें देगा ; क्योंकि पिता परमेश्वर ने मानव पुत्र को यह अधिकार दिया है।’’

28) लोगों ने उन से कहा, ‘‘ईश्वर की इच्छा पूरी करने के लिए हमें क्या करना चाहिए?’’

29) ईसा ने उत्तर दिया, ‘‘ईश्वर की इच्छा यह है- उसने जिसे भेजा है, उस में विश्वास करो’’।

30) लोगों ने उन से कहा, ‘‘आप हमें कौन सा चमत्कार दिखा सकते हैं, जिसे देख कर हम आप में विश्वास करें? आप क्या कर सकते हैं?

31) हमारे पुरखों ने मरुभूमि में मन्ना खाया था, जैसा कि लिखा है- उसने खाने के लिए उन्हें स्वर्ग से रोटी दी।’’

32) ईसा ने उत्तर दिया, ‘‘मै तुम लोगों से यह कहता हूँ- मूसा ने तुम्हें जो दिया था, वह स्वर्ग की रोटी नहीं थी। मेरा पिता तुम्हें स्वर्ग की सच्ची रोटी देता है।

33) ईश्वर की रोटी तो वह है, जो स्वर्ग से उतर कर संसार को जीवन प्रदान करती है।’’

34) लोगों ने ईसा से कहा, ‘‘प्रभु! आप हमें सदा वही रोटी दिया करें’’।

35) उन्होंने उत्तर दिया, ‘‘जीवन की रोटी मैं हूँ। जो मेरे पास आता है, उसे कभी भूख नहीं लगेगी और जो मुझ में विश्वास करता है, उसे कभी प्यास नहीं लगेगी।



📚 मनन-चिंतन



येसु आज के सुसमाचार में जब कहते हैं, 'उस भोजन के लिए परिश्रम करो जो अनन्त जीवन तक बना रहता है', तो भीड़ बहुत ही अच्छा एक सवाल उनसे करती है - आपने हमें अनन्त जीवन तक बने रहने वाले भोजन के लिए काम करने के लिए कहा है तो "ईश्वर की इच्छा पूरी करने के लिए हमें क्या करना चाहिए?" यह उन लोगों का सवाल है जो एक गहरी आध्यात्मिकता की खोज कर रहे हैं। अक्सर हमारा अपना सवाल होता है, 'हमें क्या करना है? वे कौन से काम हैं जो ईश्वर हमें करने को कह रहे हैं?' प्रश्नों के उत्तर में, येसु एक बहुत ही आधारभूत उत्तर देते हैं, 'ईश्वर का कार्य यह है - जिसे उस ने भेजा है उस पर विश्वास करना। पहली बात यीशु हमसे कहते हैं वो है कि हम उन पर विश्वास करें, याने हम उनके साथ एक रिश्ता कायम करें; यही एक काम है जो ईश्वर हमसे चाहता है। आज के सुसमाचार के अंत में, यीशु सम्बोधित करे हैं - 'जो कोई मेरे पास आता है...' ऐसा कह कर वे हमें अपने साथ एक व्यक्तिगत मित्रता के बंधन में आमंत्रित करते हैं। यह वही व्यक्तिगत सम्बन्ध है जो वास्तव में हमारी गहरी इच्छाओं को पूरा करेगा। यदि हमने येसु पे ईमान रखा और उनसे दोस्ती कर ली तो हमारे अच्छे काम स्वतः ही हमारे येसु के साथ इस रिश्ते फुट निकलेंगे निकलेंगे। आज के सुसमाचार में, येसु ने हम सभी को उनके साथ अपने व्यक्तिगत संबंधों पर अमल करने, उनके पास आने और उनमें विश्वास करने के लिए, आमंत्रित किया है। येसु के इस आमंत्रण के प्रति मेरा क्या जवाब है ?




📚 REFLECTION


When Jesus says in today's gospel, 'Work hard for the food that lasts for eternal life', the crowd asks him a very good question - you have made us work for the food that lasts eternal life, so - “What must we do to do the will of God?" This is a question for those who are searching for a deeper spirituality. Often, we have our own question, 'What are we supposed to do? What are the things that God is asking us to do?' In answer to that question, Jesus gives the very basic answer, 'This is the work of God; Believe in the one whom he sent. The first thing Jesus asks of us is to trust Him, and enter into a peronal relationship with Him; This is the only thing God wants us to do. At the end of today's gospel, Jesus addresses - 'Whoever comes to me..."

By saying this, he invites us to a personal friendship with him. It is this personal relationship that will truly satisfy our deepest desires. once we have this personal relationship with the Lord our good deeds will automatically follow from this relationship. In today's gospel, Jesus invites all of us to be bound with him in our personal relationship with Him, to come to Him, and to believe in Him. What is my answer to this invitation from Jesus?



मनन-चिंतन - 2



आज के सुसमाचार में लोग येसु से पूछते है कि ईश्वर की इच्छा पूरी करने के लिए हमें क्या करना चाहिए?’’ तो वे उत्तर देते हैं, ’’ईश्वर की इच्छा यह है, उसने जिसे भेजा है उस में विश्वास करो।’’ संत पौलुस हमें समझाते हैं कि विश्वास सुनने से उत्पन्न होता है और जो सुनाया जाता है, वह मसीह का वचन है। (देखिए रोमियों 10:17) यानि ईश्वर का वचन सुनने से विश्वास उत्पन्न होता है। संत लूकस के सुसमाचार हम यह पाते हैं कि प्रभु येसु के रूपान्तरण के समय पिता ईश्वर की आवाज सुनाई देती है, “यह मेरा परमप्रिय पुत्र है। इसकी सुनो।’’ (लूकस 9:35) प्रभु में विश्वास करने के लिए हमें उनके वचनों को सुनना एवं उनका पालन करना पडता है। बपतिस्मा संस्कार या कलीसिया के अन्य संस्कारों को ग्रहण करना ईसा में विश्वास की निशानी है। लेकिन येसु में हमारे विश्वास की यह अभिव्यक्ति तभी वास्तविकता बनेगी जब हम इन संस्कारों की प्रतिज्ञाओं को हमारे जीवन में जीने की कोशिश करेंगे।

यह हमारे विश्वास की अनिवार्यता है कि हम ’’अपने मनोभावों को ईसा के मनोभावों के अनुसार बना ले।’’ (फिलिप्पियों 2:5) ख्रीस्तीय विश्वास की अभिन्नता को एफेसियों के नाम पत्र में समझाते हुए संत पौलुस कहते हैं, ’’तो आप लोगों को अपना पहला आचरण और पुराना स्वभाव त्याग देना चाहिए, क्योंकि वह बहकाने वाली दुर्वासनाओं के कारण बिगड़ता जा रहा है। आप लोग पूर्ण रूप से नवीन आध्यात्मिक विचारधारा अपनायें और एक नवीन स्वभाव धारण करें, जिसकी सृष्टि ईश्वर के अनुसार हुई है और जो धार्मिकता तथा सच्ची पवित्रता में व्यक्त होता है।’’(एफेसियों 4:22-24)

हमारा पुराना आचरण क्या है? मसीह में विश्वास के पूर्व शायद हम हमारे जीवन को सांसारिक समझ कर या भोग-विलास के अनुसार जी रहे थे। हमारे उस जीवन का एकमात्र उद्देश्य सुख प्राप्ति था। सच्चाई, नैतिकता, ईमानदारी, त्याग, क्षमा, आत्मसंयम, प्रेम आदि ईश्वरीय गुण हमारे लिए दूर की बातें थी। हमारे पुराने आचरण से केवल दुर्वासना एवं दुख उत्पन्न होती थी। यदि हम अपने पापमय जीवन की आदतों को जारी रखे और अपने को ख्रीस्त विश्वासी भी कहें तो यह गलत बात होगी। साथ ही साथ ऐसे विश्वास से हमारे जीवन में ज्यादा सकारात्मक असर नहीं पडेगा। हमें मसीह की उस शिक्षा के अनुसार जीवन ढालना चाहिए जिसकी शिक्षा हमें सुसमाचार में मिलती है। यदि हम ऐसा करेंगे तो अवश्य ही हम ईश्वर की इच्छा को भी पूरी करेंगे।

जकेयुस के जीवन में हम पुराने स्वाभाव को त्याग कर नवीन स्वाभाव धारण करने के जीवंत उदाहरण को पाते हैं। नाकेदार जकेयुस धन के लोभ में लोगों के साथ धोखाधडी कर सम्पत्ति अर्जित किया करता था। पैसा उसके लिए सबकुछ था। किन्तु येसु के सम्पर्क में आने तथा उनमें अपने विश्वास के कारण वह अपने पुराने स्वाभाव को त्यागते हुए कहता है, ’’प्रभु! देखिए मैं अपनी आधी सम्पत्ति गरीबों को दूँगा और जिन लोगों के साथ बेईमानी की है उन्हें उसका चौगुना लौटा दूँगा।’’ (लूकस 19:8) इसके विपरीत जब धनी युवक से कहा जाता कि ’’अपना सबकुछ बेचकर गरीबों में बांट दो और...तब आकर मेरा अनुसरण करो’’ (लूकस 18:22) तो वह ऐसा नहीं करता। धनी युवक अपने जीवन को येसु में विश्वास के अनुसार नही बदल पाता है। इसलिए वह अपने विश्वास की पूर्णता नहीं पहुँच पाता है। प्रभु की शिक्षा को सुनकर उनके अनेक अनुयायी कहते हैं, ’’यह तो कठोर शिक्षा है। इसे कौन मान सकता है?’’.....इसके बाद बहुत-से शिष्य अलग हो गये और उन्होंने उनका साथ छोड़ दिया।’’ (योहन 6:60,66) उनके इस कथन का अर्थ स्पष्ट है कि वे उनके जीवन को येसु की शिक्षा के अनुसार नहीं जी सकते।

कई बार हम सोचते हैं कि हम येसु में विश्वास करते हैं तथा हमारी मुक्ति के लिये यही काफी है। किन्तु हमें इस बात की विवेचना करना चाहिए कि क्या मेरा ख्रीस्तीय विश्वास जींवत विश्वास है जो मेरे दैनिक आचरण पर प्रभाव डालता है। हमें सोचना चाहिए कि क्या हम अपने दैनिक जीवन के निर्णयों को येसु की इच्छानुसार करने का प्रयास करते हैं? क्या हम हमारे सोच-विचारों में ईश्वर की बातों पर मनन करते हैं? हमारे आपसी संबंधों को क्या हम ईश्वर की दृष्टि से देखते हैं? पेत्रुस जब येसु को दुखभोग से दूर रहने की सलाह देते हैं तो येसु कहते हैं, ’’तुम ईश्वर की बातें नहीं, बल्कि मनुष्यों की बातें सोचते हो।’’ (मत्ती 16:23) पेत्रुस शायद हमारी तरह इस सोच में था कि उसके विचार ईश्वर की इच्छा है किन्तु येसु पेत्रुस को ईश्वर की इच्छा के अनुसार सोचने की सीख देते हैं। आज शायद कलीसिया भी हमसे पूछती हैं, ’क्या हमारा जीवन ख्रीस्तीय विश्वास के अनुरूप है’।


Br. Biniush Topno


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शनिवार, 31 जुलाई, 2021 सत्रहवाँ सामान्य सप्ताह

 

शनिवार, 31 जुलाई, 2021

सत्रहवाँ सामान्य सप्ताह



पहला पाठ : लेवी 25:1, 8-17



1) प्रभु ने सीनई पर्वत पर मूसा से कहा,

8) वर्षों के सात सप्ताह, अर्थात् सात बार सात वर्ष, तदनुसार उनचास वर्ष बीत जाने पर

9) तुम सातवें महीने के दसवें दिन, प्रायश्चित के दिन, देश भर में तुरही बजवाओगे।

10) यह पचासवाँ वर्ष तुम दोनों के लिए एक पुष्प-वर्ष होगा और तुम देश में यह घोषित करोगे कि सभी निवासी अपने दासों को मुक्त कर दें। यह तुम्हारे लिए जयन्ती-वर्ष होगा - प्रत्येक अपनी पैतृक सम्पत्ति फिर प्राप्त करेगा और प्रत्येक अपने कुटुम्ब में लौटेगा।

11) पचासवाँ वर्ष तुम्हारे लिए जयन्ती-वर्ष होगा। इसमें तुम न तो बीच बोओगे, न पिछली फ़सल काटोगे और न अनछँटी दाखलताओं के अंगूर तोड़ोगे,

12) क्योंकि यह जयन्ती-वर्ष हैं तुम इसे पवित्र मानोगे और खेत में अपने आप उगी हुई उपज खाओगे।

13) इस जयन्ती-वर्ष में प्रत्येक अपनी पैतृक सम्पत्ति फ़िर प्राप्त करेगा।

14) जब तुम किसी देश-भाई के हाथ कोई जमीन बेचते हो अथवा उस से ख़रीद लेते हो, तो तुम एक दूसरे के साथ बेईमानी मत करो।

15) जब तुम किसी देश-भाई से कोई ज़मीन ख़रीदते हो, तो इसका ध्यान रखो कि पिछले जयन्ती-वर्ष के बाद कितने वर्ष बीत गये हैं और बाकी फ़सलों की संख्या के अनुसार बेचने वाले को विक्रय-मूल्य निर्धारित करना चाहिए।

16) जब अधिक वर्ष बाकी हों, तो मूल्य अधिक होगा और यदि कम वर्ष बाकी हों, तो मूल्य कम होगा; क्योंकि वह तुम्हें फसलों की एक निश्चित संख्या बेचता है।

17) तुम अपने देश-भाई के साथ बेईमानी मत करो, बल्कि अपने ईश्वर पर श्रद्वा रखो; क्योंकि मैं तुम्हारा प्रभु, ईश्वर हूँ।



सुसमाचार : मत्ती 14:1-12



1) उस समय राजा हेरोद ने ईसा की चर्चा सुनी।

2) और अपने दरबारियों से कहा, ’’यह योहन बपतिस्ता है। वह जी उठा है, इसलिए वह महान् चमत्कार दिखा रहा है।’’

3) हेरोद ने अपने भाई फि़लिप की पत्नी हेरोदियस के कारण योहन को गिरफ़्तार किया और बाँध कर बंदीगृह में डाल दिया था;

4) क्योंकि योहन ने उस से कहा था, ’’उसे रखना आपके लिए उचित नहीं है’’।

5) हेरोद योहन को मार डालना चाहता था; किन्तु वह जनता से डरता था, जो योहन को नबी मानती थी।

6) हेरोद के जन्मदिवस के अवसर पर हेरोदियस की बेटी ने अतिथियों के सामने नृत्य किया और हेरोद को मुग्ध कर दिया।

7) इसलिए उसने शपथ खा कर वचन दिया कि वह जो भी माँगेगी, उसे दे देगा।

8) उसकी माँ ने उसे पहले से सिखा दिया था। इसलिए वह बोली, ’’मुझे इसी समय थाली में योहन बपतिस्ता का सिर दीजिए’’।

9) हेरोद को धक्का लगा, परन्तु अपनी शपथ और अतिथियों के कारण उसने आदेश दिया कि उसे सिर दे दिया जाये।

10) और प्यादों को भेज कर उसने बंदीगृह में योहन का सिर कटवा दिया।

11) उसका सिर थाली में लाया गया और लड़की को दिया गया और वह उसे अपनी माँ के पास ले गयी।

12) योहन के शिष्य आ कर उसका शव ले गये। उन्होंने उसे दफ़नाया और जा कर ईसा को इसकी सूचना दी।



📚 मनन-चिंतन



जब हमारे मन में बुराई घर बना लेती है तो वह और दूसरी ऐसी चीज़ों को जन्म देती है जो हमें और अधिक गहरे पापों में धकेल देती हैं, दूसरी ओर जब हम निडरता से सत्य के साथ खड़े होते हैं, तो बुराई भी हमसे डरने लगती है. इसका जीता-जागता उदाहरण हम आज के सुसमाचार में देखते हैं. सन्त योहन बप्तिस्ता सत्य का जीवन जीते थे, अपने वचनों द्वारा निडर होकर ईश्वर का साक्ष्य देते थे, अपने जीवन द्वारा अपनी शिक्षाओं को प्रमाणित भी करते थे. वहीँ दूसरी ओर राजा हेरोद जिसके मन में बुराई ने घर कर लिया था, पाप ने उसे अपने चंगुल में फँसा लिया था, वह राजा होते हुए भी एक साधारण से दिखने वाले मामूली से इन्सान से डरता था.

सत्य के निडर सिपाही योहन बपतिस्ता का डर राजा हेरोद के मन में इस कदर समाया था, कि उसको अन्याय पूर्ण तरीके से मार डालने के बावजूद उसकी याद उसके मन में बनी हुई थी, इसलिए जब वह उसी सत्य के निडर सिपाही के दर्शन प्रभु येसु में करता है तो एक बार फिर डर जाता है. उसका डर उसके इन्ही शब्दों से बाहर आता है - कहीं यह योहन तो नहीं जिसे मैंने मरवा डाला था! हम जब भी कुछ गलत करते हैं, पाप करते हैं, अपनी अन्तरात्मा के विरुद्ध जाते हैं तो हम चैन से नहीं जी सकते. हमारा अपराध किसी न किसी रूप में हमें परेशान करता ही रहता है. मन की शान्ति पाने का एकमात्र उपाय है, अपनी गलती मानते हुए पश्चातापी करुणामय पिता के पास अपने पाप स्वीकार कर क्षमा माँगनी है.



📚 REFLECTION



When evil makes it dwelling place within us, then it gives birth to many other things that push us deeper into sin, whereas when we boldly stand with truth, the evil cannot withstand us. We see a living example of this in the gospel today. St. John the Baptist lived a life of Truth, he boldly bore witness to God through his life, and lived what he taught. On the other hand Herod being a king, whose heart was filled with darkness and evil, who was fully under the clutches of sin, was afraid of an ordinary homeless man.

The fear of the brave soldier of Truth, St. John the Baptist, was so much in his heart that, even after killing him unjustly, was afraid even of his memory. When saw same boldness and life of Truth in Jesus, he recalled John the Baptist. His fear is expressed in his own words from his mouth – “This is John the Baptist; he has been raised from the dead.” Whenever we commit sin or do wrong or go against our conscience, our heart cannot remain at peace. The guilt of sin keeps on bothering us, making us restless. There is only one way to attain the peace of mind, and that is, to accept the sinfulness, repent and turn to God and implore forgiveness, perhaps He may forgive us and accept us. Amen.


 -Br. Biniush Topno



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शुक्रवार, 30 जुलाई, 2021 सत्रहवाँ सामान्य सप्ताह

 

शुक्रवार, 30 जुलाई, 2021

सत्रहवाँ सामान्य सप्ताह

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पहला पाठ : लेवी 23:1, 4-11, 15-16, 27, 34-37


1) प्रभु ने मूसा से कहा,

4) प्रभु के पुण्य-पर्व, जिन्हें समारोह के साथ निश्चित समय पर मनाना चाहिए, इस प्रकार हैं।

5) पहले महीने के चौदहवें दिन संध्या समय प्रभु के आदर में पास्का है

6) और उस महीने के पन्द्रहवें दिन प्रभु के आदर में बेख़मीर रोटियों का पर्व है। तुम सात दिन बेख़मीर रोटियाँ खाओगे।

7) पहले दिन तुम लोगों के लिए एक धर्म-सभा का आयोजन किया जाएगा और तुम किसी प्रकार का काम नहीं करोगे।

8) तुम सात दिन तक प्रभु को अन्न-बलि चढ़ाओगे। सातवें दिन एक धर्म-सभा का आयोजन किया जाएगा, और तुम किसी प्रकार का काम नहीं करोगे।''

9) प्रभु ने मूसा से कहा,

10) ''इस्राएलियों से यह कहो - जब तुम उस देश में पहुँच जाओगे, जिसे में तुम्हें देने जा रहा हूँ और तुम वहाँ फ़सल काटोगे, तो तुम अपनी फ़सल का पहला पूला याजक के पास ले आओगे।

11) वह विश्राम-दिवस के दूसरे दिन उसे प्रभु के सामने प्रस्तुत करेगा, जिससे तुम्हें ईश्वर की कृपा दृष्टि प्राप्त हो जाये।

15) ''विश्राम-दिवस के दूसरे दिन, जब तुम चढ़ावे का पूला लाते हो, उस दिन से तुम पूरे सात सप्ताह गिनोगे।

16) सातवें सप्ताह के दूसरे दिन अर्थात् पचासवें दिन से तुम प्रभु को नये अनाज का अन्न-बलि चढ़ाओगे।

27) ''सातवें महिने का दसवाँ दिन प्रायश्चित-दिवस है। उस दिन तुम लोगों के लिए धर्म-सभा का आयोजन किया जाएगा। तुम उपवास करोगे और प्रभु को होम-बलि चढ़ाओगे।

34) वह सात दिन तक मनाया जायेगा।

35) उसके प्रथम दिन धर्म-सभा का आयोजन किया जायेगा और तुम किसी प्रकार का काम नहीं करोगे।

36) तुम सात दिन प्रभु को होम-बलि चढ़ाओगे। आठवें दिन लोगों के लिए एक धर्म-सभा का आयोजन किया जायेगा और तुम प्रभु को होम-बलि चढ़ाओगे। उस दिन समापन समारोह होगा और तुम किसी प्रकार का काम नहीं करोगे।

37) ये प्रभु के पर्व हैं, जिन में तुम धर्म सभा का आयोजन करोगे और प्रत्येक की विधि के अनुसार प्रभु को होम-बलि, अन्न-बलि, शान्ति-बलि और अर्घ चढ़ाओगे।

38) इसके अतिरिक्त प्रभु को अर्पित सामान्य विश्राम दिवसों के बलिदान, मन्नत के कारण या स्वेच्छिक बलिदान चढ़ाओगे।



सुसमाचार : मत्ती 13:54-58


54) वे अपने नगर आये, जहाँ वे लोगों को उनके सभाग्रह में शिक्षा देते थे। वे अचम्भे में पड़ कर कहते थे, ’’इसे यह ज्ञान और यह सामर्थ्य कहाँ से मिला?

55) क्या यह बढ़ई का बेटा नहीं है? क्या मरियम इसकी माँ नहीं? क्या याकूब, यूसुफ, सिमोन और यूदस इसके भाई नहीं?

56) क्या इसके सब बहनें हमारे बीच नहीं रहतीं? तो यह सब इसे कहाँ से मिला?’’

57) पर वे ईसा में विश्वास नहीं कर सके। ईसा ने उन से कहा, ’’अपने नगर और अपने घर में नबी का आदर नहीं होता।’’

58) लोगों के अविश्वास के कारण उन्होंने वहाँ बहुत कम चमत्कार दिखाये।


📚 मनन-चिंतन


हर व्यक्ति में अच्छाईयां और बुराइयाँ दोनों होती हैं. लोग उसी अच्छाई या बुराई को देखते और समझते हैं. लेकिन कभी-कभी लोगों के हृदय पर कुछ ऐसा पर्दा पड़ जाता है कि वे एक अच्छे इन्सान में भी सिर्फ बुराइयाँ खोजते हैं, और अच्छाई को भूल जाते हैं. आज के सुसमाचार में जब प्रभु येसु अपने गृह नगर आते हैं, तो लोग उनकी बातें सुनकर और उनके महान चमत्कारों के बारे में सुनकर चकित हो जाते हैं और उनके बारे में अजीब बातें करने लगते हैं. वे उनके भाई-बहनों, माता-पिता आदि के बारे में बातें करते हैं और इस बात पर यकीन नहीं कर पाते कि उनके बीच में रहा, पला-बढ़ा यह व्यक्ति ईश्वर का पुत्र भी हो सकता है. वे प्रभु येसु की ईश्वरता को नहीं पहचान पाते.

हम जानते हैं कि प्रभु येसु पूर्ण रूप से मनुष्य और पूर्ण रूप से ईश्वर हैं. पूर्ण रूप से मनुष्य होने का अर्थ है कि जो भी एक मनुष्य के अनुभव के रूप में उन्हें अनुभव करना था वह सब उन्होंने अनुभव किया. वे साधारण मानव माता-पिता के अधीन रहे, उनसे सीखा और दुःख-दर्द को महसूस किया. वहीँ दूसरी ओर वह पूर्ण रूप से ईश्वर भी थे, मानव जाति के दुःख-दर्द को दूर करने का प्रयास किया, विभिन्न प्रकार के चिन्ह और चमत्कारों द्वारा अपने ईश्वर होने का प्रमाण दिया. उनके गृह नगर के लोगों की यह कमी थी कि वे प्रभु येसु की मनुष्यता से बढ़कर उनकी ईश्वरता को नहीं पहचान पाए. कभी-कभी हम भी अपने आस-पास लोगों में ईश्वर के निवास को नज़रन्दाज़ कर उनकी कमियों पर ही अपना ध्यान केन्द्रित करते हैं. हम दूसरों के अन्दर ईश्वर के दर्शन करने की कृपा माँगें. आमेन.


📚 REFLECTION


Every person has good things and also some short comings within themselves. People observe this goodness or weaknesses. But sometimes some people become so much veiled by their prejudiced mind set that they see only one aspect of a person’s life and ignore the other. When Jesus comes to his home town, people are surprised at the words and wisdom of Jesus, they had heard about the mighty works and miracles of Jesus, but still they talk strangely about Jesus. They talk about his parents, his brothers and sisters and are unable to accept and believe that this boy who grew amidst them and lived with them, could be the Son of God. They could not recognise the divinity of Jesus.

Our faith teaches us, that Jesus is fully human and fully God. To be fully human means, he experienced the joys and sorrows of human life. As a human he lived and obeyed human parents, he learnt the scriptures and underwent the pain and happiness like any ordinary human being. On the other hand, as God, he healed people, cast away the demons, changed the lives of people with his teachings and mighty works that proved him to be God. The people of his home town lacked the ability to see beyond the humanity of Jesus. They could not see God in Jesus. We have people around us in whom we look for shortcomings and weaknesses than to see the face of God in them. May God bless us with the grace to recognise the dwelling of divine within all. Amen.


 -Br. Biniush Topno



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गुरुवार, 29 जुलाई, 2021 सत्रहवाँ सामान्य सप्ताह

 

गुरुवार, 29 जुलाई, 2021

सत्रहवाँ सामान्य सप्ताह

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पहला पाठ : 1 योहन 4:7-16



7) प्रिय भाइयो! हम एक दूसरे को प्यार करें, क्योंकि प्रेम ईश्वर से उत्पन्न होता है।

8) जौ प्यार करता है, वह ईश्वर की सन्तान है और ईश्वर को जानता है। जो प्यार नहीं करता, वह ईश्वर को नहीं जानता; क्येोंकि ईश्वर प्रेम है।

9) ईश्वर हम को प्यार करता है। यह इस से प्रकट हुआ है कि ईश्वर ने अपने एकलौते पुत्र को संसार में भेजा, जिससे हम उसके द्वारा जीवन प्राप्त करें।

10) ईश्वर के प्रेम की पहचान इस में है कि पहले हमने ईश्वर को नहीं, बल्कि ईश्वर ने हम को प्यार किया और हमारे पापों के प्रायश्चित के लिए अपने पुत्र को भेजा।

11) प्रयि भाइयो! यदि ईश्वर ने हम को इतना प्यार किया, तो हम को भी एक दूसरे को प्यार करना चाहिए।

12) ईश्वर को किसी ने कभी नहीं देखा। यदि हम एक दूसरे को प्यार करते हैं, तो ईश्वर हम में निवास करता है और ईश्वर के प्रति हमारा प्रेम पूर्णता प्राप्त करता है।

13) यदि वह इस प्रकार हमें अपना आत्मा प्रदान करता है, तो हम जान जाते हैं कि हम उस में और वह हम में निवास करता है।

14) पिता ने अपने पुत्र को संसार के मुक्तिदाता के रूप में भेजा। हमने यह देखा है और हम इसका साक्ष्य देते हैं।

15) जो यह स्वीकार करता है कि ईसा ईश्वर के पुत्र हैं, ईश्वर उस में निवास करता है और वह ईश्वर में।

16) इस प्रकार हम अपने प्रति ईश्वर का प्रेम जान गये और इस में विश्वास करते हैं। ईश्वर प्रेम है और जो प्रेम में दृढ़ रहता है, वह ईश्वर में निवास करता है और ईश्वर उस में।



सुसमाचार योहन 11:19-27



19) इसलिये भाई की मृत्यु पर संवेदना प्रकट करने के लिये बहुत से यहूदी मरथा और मरियम से मिलने आये थे।

20) ज्यों ही मरथा ने यह सुना कि ईसा आ रहे हैं, वह उन से मिलने गयी। मरियम घर में ही बैठी रहीं।

21) मरथा ने ईसा से कहा, “प्रभु! यदि आप यहाँ होते, तो मेरा भाई नही मरता

22) और मैं जानती हूँ कि आप अब भी ईश्वर से जो माँगेंगे, ईश्वर आप को वही प्रदान करेगा।“

23) ईसा ने उसी से कहा “तुम्हारा भाई जी उठेगा“।

24) मरथा ने उत्तर दिया, “मैं जानती हूँ कि वह अंतिम दिन के पुनरुथान के समय जी उठेगा“।

25) ईसा ने कहा, "पुनरुथान और जीवन में हूँ। जो मुझ में विश्वास करता है वह मरने पर भी जीवित रहेगा

26) और जो मुझ में विश्वास करते हुये जीता है वह कभी नहीं मरेगा। क्या तुम इस बात पर विश्वास करती हो?"

27) उसने उत्तर दिया, "हाँ प्रभु! मैं दृढ़ विश्वास करती हूँ कि आप वह मसीह, ईश्वर के पुत्र हैं, जो संसार में आने वाले थे।"



अथवा लूकस 10:38-42



38) ईसा यात्रा करते-करते एक गाँव आये और मरथा नामक महिला ने अपने यहाँ उनका स्वागत किया।

39) उसके मरियम नामक एक बहन थी, जो प्रभु के चरणों में बैठ कर उनकी शिक्षा सुनती रही।

40) परन्तु मरथा सेवा-सत्कार के अनेक कार्यों में व्यस्त थी। उसने पास आ कर कहा, ’’प्रभु! क्या आप यह ठीक समझते हैं कि मेरी बहन ने सेवा-सत्कार का पूरा भार मुझ पर ही छोड़ दिया है? उस से कहिए कि वह मेरी सहायता करे।’’

41) प्रभु ने उसे उत्तर दिया, ’’मरथा! मरथा! तुम बहुत-सी बातों के विषय में चिन्तित और व्यस्त हो;

42) फिर भी एक ही बात आवश्यक है। मरियम ने सब से उत्तम भाग चुन लिया है; वह उस से नहीं लिया जायेगा।’’



📚 मनन-चिंतन


आज माता कलीसिया सन्त मारथा का स्मृति दिवस मनाती है. हम जानते हैं कि सन्त मारथा मरियम और लज़ारस की बहन थी. वे येरुसालेम से कुछ ही दूर बेथानी नामक गॉंव में रहते थे. आज का सुसमाचार उस समय का दृश्य है जब मारथा और मरियम का भाई लाजरुस मर गया था, और प्रभु येसु मारथा और मरियम से मिलने उनके गॉंव आते हैं. मारथा रोती हुई उनसे मिलने के लिए बाहर जाती है, जबकि मरियम घर में ही बैठी रहती है. सन्त मारथा हमारे लिए इसलिए महत्वपूर्ण हैं क्योंकि उनके आंसुओं को देखकर प्रभु के मुख से एक महान शिक्षा हमें मिली. प्रभु येसु मारथा से कहते हैं, “पुनरुत्थान और जीवन मैं हूँ. जो मुझमें विश्वास करता है वह मरने पर भी जीवित रहेगा और जो मुझमें विश्वास करते हुए जीता है, वह कभी नहीं मरेगा.” प्रभु येसु अनन्त जीवन पाने का मन्त्र हमें देते हैं.

प्रभु येसु जीवन और पुनरुत्थान के बारे में दो चीज़ें समझाते हैं - प्रभु येसु में विश्वास करना और विश्वास करते हुए जीना. यह दो तरह के लोगों को इंगित करता है - एक वे जो प्रभु येसु में विश्वास करते हैं, लेकिन उनकी भक्ति अधिक गहरी नहीं है, लेकिन फिर भी मृत्यु के बाद प्रभु येसु उन्हें अनन्त जीवन देने का वादा करते हैं. और दूसरे वे लोग हैं, जिनमें प्रभु येसु के प्रति गहरी भक्ति है, इतनी गहरी कि उनके जीवन का हर पहलु प्रभु येसु में विश्वास के अनुसार है. उनका व्यवहार, उबकी बात-चीत, उनका स्वाभाव सब कुछ में प्रभु येसु और उनकी शिक्षाओं की झलक दिखती है. ऐसे लोग अमर हैं, वे मरने पर भी जीवित रहते हैं. ऐसे लोगों को हम सन्त कहते हैं. वे मरने के बाद भी हमारे बीच में जिंदा हैं. हमारे जीवन का उद्देश्य भी मरने के बाद भी सदा जीवित रहने में हो. आमेन.



📚 REFLECTION



Today we celebrate the memoria of St. Martha. St. Martha was the sister of Lazarus and Mary. They lived in a village called Bethany, little away from the Holy City Jerusalem. Today’s gospel shows the situation when Lazarus, the brother of Mary and Martha had died and Jesus comes their village to console Mary and Martha. Martha comes out to Jesus, crying while Mary remained in the house. St. Martha is important for us because it is through her pleading that Jesus utters very important words about christian faith. Jesus tells Martha, “I am the resurrection and the life. Those who believe in me, even though, they die, will live, and everyone who lives and believes in me will never die.” Jesus gives us the formula to enter into the eternal life.

Jesus explains two things about life and the resurrection – to believe in Jesus and to live a life believing in Jesus. This indicates two kinds of people – those who believe in Jesus, but their faith in Jesus is not so deep, but still Jesus promises eternal life to them after death. Second kind of people are the ones who have deeper faith in Jesus, every aspect of their life is governed by their faith in Jesus. Their behaviour, their talking, their nature, every aspect of their life expresses the teachings of Christ. Such people never die, even if they die, they still live forever. These are called the saints, they are very much alive even if they have physically died centuries ago. Our ultimate aim of life also should be to live forever, even after death. Amen.



 Br. Biniush Topno


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बुधवार, 28 जुलाई, 2021 सत्रहवाँ सामान्य सप्ताह

 

बुधवार, 28 जुलाई, 2021

सत्रहवाँ सामान्य सप्ताह

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पहला पाठ : निर्गमन 34:29-35


29) जब मूसा नियम की दोनों पाटियाँ हाथ में लिये सीनई पर्वत से उतरा, तो उसे यह पता नहीं था कि ईश्वर से बातें करने के फलस्वरूप उसका मुखमण्डल देदीप्यमान है।

30) हारून और दूसरे इस्राएली मूसा का देदीप्यमान मुखमण्डल देख कर उसके निकट जाने से डरने लगे।

31) मूसा ने उन्हें बुलाया। इस पर हारून और समुदाय के नेता उसके पास आये और मूसा ने उन्हें सम्बोधित किया।

32) इसके बाद सभी इस्राएली उसके पास आये और मूसा ने उन्हें वे सब आदेश सुनाये, जिन्हें प्रभु ने सीनई पर्वत पर उसे दिया था।

33) लोगों को सम्बोधित करने के बाद मूसा ने अपना मुख परदे से ढक लिया।

34) जब-जब मूसा प्रभु से बातें करने तम्बू में प्रवेश करता था, तो वह बाहर निकलने तक वह परदा हटा दिया करता था। बाहर निकलने के बाद जब वह ईश्वर से मिले आदेश इस्राएलियों को सुनाता था,

35) तो इस्राएली मूसा का देदीप्यमान मुखमण्डल देखा करते थे। इसके बाद प्रभु से बात करने के लिए तम्बू में प्रवेश करने के समय तक, मूसा फिर अपना मुख परदे से ढक लिया करता था।



सुसमाचार : मत्ती 13:44-46



44) ’’स्वर्ग का राज्य खेत में छिपे हुए ख़ज़ाने के सदृश है, जिसे कोई मनुष्य पाता है और दुबारा छिपा देता है। तब वह उमंग में जाता और सब कुछ बेच कर उस खेत को ख़रीद लेता है।

45) ’’फिर, स्वर्ग का राज्य उत्तम मोती खोजने वाले व्यापारी के सदृश है।

46) एक बहुमूल्य मोती मिल जाने पर वह जाता और अपना सब कुछ बेच कर उस मोती को मोल ले लेता है।


📚 मनन-चिंतन


आज माता कलीसिया भारत की प्रथम महिला सन्त जो केरल में जन्मी, सन्त अलफोंसा का पर्व (स्मृति दिवस) मनाती है. आज के सुसमाचार में प्रभु येसु ईश्वरीय राज्य के बारे में दो और उदाहरण देते हैं. प्रभु येसु कहते हैं, ईश्वर का राज्य खेत में छिपे हुए खजाने के समान है. प्रभु येसु दूसरा उदाहरण अनमोल मोती का देते हैं. दोनों ही तरह के खजाने को पाने वाले अपना सब कुछ बेचकर उस खजाने को प्राप्त करते हैं. अर्थात एक तरफ उनकी सारी सम्पत्ति, और धन-दौलत और दूसरी तरफ ईश्वर का राज्य. लेकिन जो ईश्वर के राज्य को नहीं समझते हैं उनके लिए उसका कोई मूल्य नहीं है, ठीक उसी तरह जिस तरह नासमझ व्यक्ति के लिए बहुमूल्य हीरे-मोती किसी सामान्य पत्थर जैसे हैं.

प्रभु येसु के इन दोनों उदाहरणों को हम बहुत से लोगों के जीवन में पूरा होते देखते हैं. एक उदाहरण आज की सन्त अलफोंसा हैं जिन्होंने बचपन से अपने जीवन की हर ख़ुशी को ईश्वर के समर्पित कर दिया. उन्होंने ईश्वर को पाने के लिए अपनी पत्रिक सम्पत्ति दान कर दी और एक धर्म बहन के रूप में ईश्वर की शरण में आ गयी. ऐसे अनेक संतों के उदाहरण हैं जिन्होंने ईश्वर के राज्य की खातिर इस संसार की बड़ी से बड़ी दौलत त्याग दी और अपना जीवन ईश्वरीय राज्य के लिए दे दिया, जैसे कि असीसी के सन्त फ्रांसिस, लोयोला के सन्त इग्नेशियस, सन्त फ्रांसिस ज़ेवियर, सन्त मदर टेरेसा आदि. अगर हम ऐसे लोगों की लिस्ट बनाएं तो वास्तव में एक बहुत लम्बी लिस्ट बन जाएगी. आइये हम ईश्वर से प्रार्थना करें कि ईश्वर हमें भी स्वर्गराज्य का महत्त्व और मूल्य समझने की कृपा प्रदान करे.आमेन.



📚 REFLECTION



We celebrate the feast (memorial) of St. Alphonsa, the first Indian woman saint from Kerala. Jesus gives us two more examples about the nature of the kingdom of God. Jesus tells that the kingdom of God is like a treasure hidden in field. Second example is that of specious pearl of great price. Those who desire to have both of these types of treasures, have to sell everything and own the treasure. In other words on one side is their all wealth and possessions and on the other side is the treasure of the kingdom of God. But those who do not know the kingdom of God, for them it has no value. It is like a person who has no understanding of diamonds and precious stones, for him they are like any other ordinary stones.

We can see these examples beings fulfilled in the lives of many. One such example is today’s saint Alphonsa who sacrificed all her joys and sorrows and offered them to God from her very childhood. She donated all her inheritance and dedicated her life for God as a nun. There are numerous examples of great saints who when found the treasure, gave up all their wordly wealth and possessions in order to own this pearl of great price, they gave their everything including their lives for the kingdom of God. Some of such examples are, St. Francis of Assisi, St. Ignatius of Loyola, St. Francis Xavier, St. Mother Teresa etc. If we make a list of such people, it will be very very long list of names. Let us pray to God to give us the grace to understand the price and importance of the Kingdom of God. Amen.


 -Br. Biniush Topno


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