इतवार, 01 अगस्त, 2021
वर्ष का अठारहवाँ सामान्य इतवार
पहला पाठ : निर्गमन ग्रन्थ 16:2-4,12-15
2) इस्राएलियों का सारा समुदाय मरूभूमि में मूसा और हारून के विरुद्ध भुनभुनाने लगा।
3) इस्राएलियों ने उन से कहा, ''हम जिस समय मिस्र देश में मांस की हड्डियों के सामने बैठते थे और इच्छा-भर रोटी खाते थे, यदि हम उस समय प्रभु के हाथ मर गये होते, तो कितना अच्छा होता! आप हम को इस मरूभूमि में इसलिए ले आये हैं कि हम सब-के-सब भूखों मर जायें।''
4) प्रभु ने मूसा से कहा, ''मैं तुम लोगों के लिए आकाश से रोटी बरसाऊँगा। लोग बाहर निकल कर प्रतिदिन एक-एक दिन का भोजन बटोर लिया करेंगे। मैं इस तरह उनकी परीक्षा लूँगा और देखूँगा कि वे मेरी संहिता का पालन करते हैं या नहीं।
12) ''मैं इस्राएलियों का भुनभुनाना सुन चुका हूँ। तुम उन से यह कहना शाम को तुम लोग मांस खा सकोगे और सुबह इच्छा भर रोटी। तब तुम जान जाओगे कि मैं प्रभु तुम लोगों का ईश्वर हूँ।''
13) उसी शाम को बटेरों का झुण्डा उड़ता हुआ आया और छावनी पर बैठ गया और सुबह छावनी के चारों और कुहरा छाया रहा।
14) कुहरा दूर हो जाने पर मरुभूमि की जमीन पर पाले की तरह एक पतली दानेदार तह दिखाई पड़ी।
15) इस्राएली यह देखकर आपस में कहने लगे, ''मानहू'' अर्थात् ''यह क्या है?'' क्योंकि उन्हें मालूम नहीं था कि यह क्या था। मूसा ने उस से कहा, ''यह वही रोटी है, जिसे प्रभु तुम लोगों को खाने के लिए देता है।
दूसरा पाठ: एफ़ेसियों के नाम सन्त पौलुस का पत्र 4:17,20-24
17) मैं आप लोगों से यह कहता हूँ और प्रभु के नाम पर यह अनुरोध करता हूँ कि आप अब से गैर-यहूदियों-जैसा आचरण नहीं करें,
20) आप लोगों को मसीह से ऐसी शिक्षा नहीं मिली।
21) यदि आप लोगों ने उनके विषय में सुना और उस सत्य के अनुसार शिक्षा ग्रहण की है, जो ईसा में प्रकट हुई,
22) तो आप लोगों को अपना पहला आचरण और पुराना स्वभाव त्याग देना चाहिए, क्योंकि वह बहकाने वाली दुर्वासनाओं के कारण बिगड़ता जा रहा है।
23) आप लोग पूर्ण रूप से नवीन आध्यात्मिक विचारधारा अपनायें
24) और एक नवीन स्वभाव धारण करें, जिसकी सृष्टि ईश्वर के अनुसार हुई है और जो धार्मिकता तथा सच्ची पवित्रता में व्यक्त होता है।
सुसमाचार : सन्त योहन का सुसमाचार 6:24-35
24) जब उन्होंने देखा कि वहाँ न तो ईसा हैं और न उनके शिष्य ही, तो वे नावों पर सवार हुए और ईसा की खोज में कफरनाहूम चले गये।
25) उन्होंने समुद्र पार किया और ईसा को वहाँ पा कर उन से कहा, ‘‘गुरुवर! आप यहाँ कब आये?’’
26) ईसा ने उत्तर दिया, ‘‘मैं तुम लोगों से यह कहता हूँ- तुम चमत्कार देखने के कारण मुझे नहीं खोजते, बल्कि इसलिए कि तुम रोटियाँ खा कर तृप्त हो गये हो।
27) नश्वर भोजन के लिए नहीं, बल्कि उस भोजन के लिए परिश्रम करो, जो अनन्त जीवन तक बना रहता है और जिसे मानव पुत्र तुन्हें देगा ; क्योंकि पिता परमेश्वर ने मानव पुत्र को यह अधिकार दिया है।’’
28) लोगों ने उन से कहा, ‘‘ईश्वर की इच्छा पूरी करने के लिए हमें क्या करना चाहिए?’’
29) ईसा ने उत्तर दिया, ‘‘ईश्वर की इच्छा यह है- उसने जिसे भेजा है, उस में विश्वास करो’’।
30) लोगों ने उन से कहा, ‘‘आप हमें कौन सा चमत्कार दिखा सकते हैं, जिसे देख कर हम आप में विश्वास करें? आप क्या कर सकते हैं?
31) हमारे पुरखों ने मरुभूमि में मन्ना खाया था, जैसा कि लिखा है- उसने खाने के लिए उन्हें स्वर्ग से रोटी दी।’’
32) ईसा ने उत्तर दिया, ‘‘मै तुम लोगों से यह कहता हूँ- मूसा ने तुम्हें जो दिया था, वह स्वर्ग की रोटी नहीं थी। मेरा पिता तुम्हें स्वर्ग की सच्ची रोटी देता है।
33) ईश्वर की रोटी तो वह है, जो स्वर्ग से उतर कर संसार को जीवन प्रदान करती है।’’
34) लोगों ने ईसा से कहा, ‘‘प्रभु! आप हमें सदा वही रोटी दिया करें’’।
35) उन्होंने उत्तर दिया, ‘‘जीवन की रोटी मैं हूँ। जो मेरे पास आता है, उसे कभी भूख नहीं लगेगी और जो मुझ में विश्वास करता है, उसे कभी प्यास नहीं लगेगी।
📚 मनन-चिंतन
येसु आज के सुसमाचार में जब कहते हैं, 'उस भोजन के लिए परिश्रम करो जो अनन्त जीवन तक बना रहता है', तो भीड़ बहुत ही अच्छा एक सवाल उनसे करती है - आपने हमें अनन्त जीवन तक बने रहने वाले भोजन के लिए काम करने के लिए कहा है तो "ईश्वर की इच्छा पूरी करने के लिए हमें क्या करना चाहिए?" यह उन लोगों का सवाल है जो एक गहरी आध्यात्मिकता की खोज कर रहे हैं। अक्सर हमारा अपना सवाल होता है, 'हमें क्या करना है? वे कौन से काम हैं जो ईश्वर हमें करने को कह रहे हैं?' प्रश्नों के उत्तर में, येसु एक बहुत ही आधारभूत उत्तर देते हैं, 'ईश्वर का कार्य यह है - जिसे उस ने भेजा है उस पर विश्वास करना। पहली बात यीशु हमसे कहते हैं वो है कि हम उन पर विश्वास करें, याने हम उनके साथ एक रिश्ता कायम करें; यही एक काम है जो ईश्वर हमसे चाहता है। आज के सुसमाचार के अंत में, यीशु सम्बोधित करे हैं - 'जो कोई मेरे पास आता है...' ऐसा कह कर वे हमें अपने साथ एक व्यक्तिगत मित्रता के बंधन में आमंत्रित करते हैं। यह वही व्यक्तिगत सम्बन्ध है जो वास्तव में हमारी गहरी इच्छाओं को पूरा करेगा। यदि हमने येसु पे ईमान रखा और उनसे दोस्ती कर ली तो हमारे अच्छे काम स्वतः ही हमारे येसु के साथ इस रिश्ते फुट निकलेंगे निकलेंगे। आज के सुसमाचार में, येसु ने हम सभी को उनके साथ अपने व्यक्तिगत संबंधों पर अमल करने, उनके पास आने और उनमें विश्वास करने के लिए, आमंत्रित किया है। येसु के इस आमंत्रण के प्रति मेरा क्या जवाब है ?
📚 REFLECTION
When Jesus says in today's gospel, 'Work hard for the food that lasts for eternal life', the crowd asks him a very good question - you have made us work for the food that lasts eternal life, so - “What must we do to do the will of God?" This is a question for those who are searching for a deeper spirituality. Often, we have our own question, 'What are we supposed to do? What are the things that God is asking us to do?' In answer to that question, Jesus gives the very basic answer, 'This is the work of God; Believe in the one whom he sent. The first thing Jesus asks of us is to trust Him, and enter into a peronal relationship with Him; This is the only thing God wants us to do. At the end of today's gospel, Jesus addresses - 'Whoever comes to me..."
By saying this, he invites us to a personal friendship with him. It is this personal relationship that will truly satisfy our deepest desires. once we have this personal relationship with the Lord our good deeds will automatically follow from this relationship. In today's gospel, Jesus invites all of us to be bound with him in our personal relationship with Him, to come to Him, and to believe in Him. What is my answer to this invitation from Jesus?
मनन-चिंतन - 2
आज के सुसमाचार में लोग येसु से पूछते है कि ईश्वर की इच्छा पूरी करने के लिए हमें क्या करना चाहिए?’’ तो वे उत्तर देते हैं, ’’ईश्वर की इच्छा यह है, उसने जिसे भेजा है उस में विश्वास करो।’’ संत पौलुस हमें समझाते हैं कि विश्वास सुनने से उत्पन्न होता है और जो सुनाया जाता है, वह मसीह का वचन है। (देखिए रोमियों 10:17) यानि ईश्वर का वचन सुनने से विश्वास उत्पन्न होता है। संत लूकस के सुसमाचार हम यह पाते हैं कि प्रभु येसु के रूपान्तरण के समय पिता ईश्वर की आवाज सुनाई देती है, “यह मेरा परमप्रिय पुत्र है। इसकी सुनो।’’ (लूकस 9:35) प्रभु में विश्वास करने के लिए हमें उनके वचनों को सुनना एवं उनका पालन करना पडता है। बपतिस्मा संस्कार या कलीसिया के अन्य संस्कारों को ग्रहण करना ईसा में विश्वास की निशानी है। लेकिन येसु में हमारे विश्वास की यह अभिव्यक्ति तभी वास्तविकता बनेगी जब हम इन संस्कारों की प्रतिज्ञाओं को हमारे जीवन में जीने की कोशिश करेंगे।
यह हमारे विश्वास की अनिवार्यता है कि हम ’’अपने मनोभावों को ईसा के मनोभावों के अनुसार बना ले।’’ (फिलिप्पियों 2:5) ख्रीस्तीय विश्वास की अभिन्नता को एफेसियों के नाम पत्र में समझाते हुए संत पौलुस कहते हैं, ’’तो आप लोगों को अपना पहला आचरण और पुराना स्वभाव त्याग देना चाहिए, क्योंकि वह बहकाने वाली दुर्वासनाओं के कारण बिगड़ता जा रहा है। आप लोग पूर्ण रूप से नवीन आध्यात्मिक विचारधारा अपनायें और एक नवीन स्वभाव धारण करें, जिसकी सृष्टि ईश्वर के अनुसार हुई है और जो धार्मिकता तथा सच्ची पवित्रता में व्यक्त होता है।’’(एफेसियों 4:22-24)
हमारा पुराना आचरण क्या है? मसीह में विश्वास के पूर्व शायद हम हमारे जीवन को सांसारिक समझ कर या भोग-विलास के अनुसार जी रहे थे। हमारे उस जीवन का एकमात्र उद्देश्य सुख प्राप्ति था। सच्चाई, नैतिकता, ईमानदारी, त्याग, क्षमा, आत्मसंयम, प्रेम आदि ईश्वरीय गुण हमारे लिए दूर की बातें थी। हमारे पुराने आचरण से केवल दुर्वासना एवं दुख उत्पन्न होती थी। यदि हम अपने पापमय जीवन की आदतों को जारी रखे और अपने को ख्रीस्त विश्वासी भी कहें तो यह गलत बात होगी। साथ ही साथ ऐसे विश्वास से हमारे जीवन में ज्यादा सकारात्मक असर नहीं पडेगा। हमें मसीह की उस शिक्षा के अनुसार जीवन ढालना चाहिए जिसकी शिक्षा हमें सुसमाचार में मिलती है। यदि हम ऐसा करेंगे तो अवश्य ही हम ईश्वर की इच्छा को भी पूरी करेंगे।
जकेयुस के जीवन में हम पुराने स्वाभाव को त्याग कर नवीन स्वाभाव धारण करने के जीवंत उदाहरण को पाते हैं। नाकेदार जकेयुस धन के लोभ में लोगों के साथ धोखाधडी कर सम्पत्ति अर्जित किया करता था। पैसा उसके लिए सबकुछ था। किन्तु येसु के सम्पर्क में आने तथा उनमें अपने विश्वास के कारण वह अपने पुराने स्वाभाव को त्यागते हुए कहता है, ’’प्रभु! देखिए मैं अपनी आधी सम्पत्ति गरीबों को दूँगा और जिन लोगों के साथ बेईमानी की है उन्हें उसका चौगुना लौटा दूँगा।’’ (लूकस 19:8) इसके विपरीत जब धनी युवक से कहा जाता कि ’’अपना सबकुछ बेचकर गरीबों में बांट दो और...तब आकर मेरा अनुसरण करो’’ (लूकस 18:22) तो वह ऐसा नहीं करता। धनी युवक अपने जीवन को येसु में विश्वास के अनुसार नही बदल पाता है। इसलिए वह अपने विश्वास की पूर्णता नहीं पहुँच पाता है। प्रभु की शिक्षा को सुनकर उनके अनेक अनुयायी कहते हैं, ’’यह तो कठोर शिक्षा है। इसे कौन मान सकता है?’’.....इसके बाद बहुत-से शिष्य अलग हो गये और उन्होंने उनका साथ छोड़ दिया।’’ (योहन 6:60,66) उनके इस कथन का अर्थ स्पष्ट है कि वे उनके जीवन को येसु की शिक्षा के अनुसार नहीं जी सकते।
कई बार हम सोचते हैं कि हम येसु में विश्वास करते हैं तथा हमारी मुक्ति के लिये यही काफी है। किन्तु हमें इस बात की विवेचना करना चाहिए कि क्या मेरा ख्रीस्तीय विश्वास जींवत विश्वास है जो मेरे दैनिक आचरण पर प्रभाव डालता है। हमें सोचना चाहिए कि क्या हम अपने दैनिक जीवन के निर्णयों को येसु की इच्छानुसार करने का प्रयास करते हैं? क्या हम हमारे सोच-विचारों में ईश्वर की बातों पर मनन करते हैं? हमारे आपसी संबंधों को क्या हम ईश्वर की दृष्टि से देखते हैं? पेत्रुस जब येसु को दुखभोग से दूर रहने की सलाह देते हैं तो येसु कहते हैं, ’’तुम ईश्वर की बातें नहीं, बल्कि मनुष्यों की बातें सोचते हो।’’ (मत्ती 16:23) पेत्रुस शायद हमारी तरह इस सोच में था कि उसके विचार ईश्वर की इच्छा है किन्तु येसु पेत्रुस को ईश्वर की इच्छा के अनुसार सोचने की सीख देते हैं। आज शायद कलीसिया भी हमसे पूछती हैं, ’क्या हमारा जीवन ख्रीस्तीय विश्वास के अनुरूप है’।
✍Br. Biniush Topno
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