2 मई, 2021
पास्का का पाँचवाँ इतवार
पहला पाठ :प्रेरित-चरित . 9:26-31
26) जब साऊल येरुसालेम पहुँचा, तो वह शिष्यों के समुदाय में सम्मिलित हो जाने की कोशिश करता रहा, किन्तु वे सब उसे से डरते थे, क्योंकि उन्हें विश्वास नहीं हो रहा था कि वह सचमुच ईसा का शिष्य बन गया है।
27) तब बरनाबस ने उसे प्रेरितों के पास ले जा कर उन्हें बताया कि साऊल ने मार्ग में प्रभु के दर्शन किये थे और प्रभु ने उस से बात की थी और यह भी बताया कि साऊल ने दमिश्क में निर्भीकता से ईसा के नाम का प्रचार किया था।
28) इसके बाद साऊल येरुसालेम में प्रेरितों के साथ आता-जाता रहा
29) और निर्भीकता से ईसा के नाम का प्रचार करता रहा। वह यूनानी-भाषी यहूदियों से बातचीत और बहस किया करता था, किन्तु वे लोग उसे मार डालना चाहते थे।
30) जब भाइयों को इसका पता चला, तो उन्होंने साऊल को कैसरिया ले जा कर तरसुस भेजा।
31) उस समय समस्त यहूदिया, गलीलिया तथा समारिया में कलीसिया को शान्ति मिली। उसका विकास होता जा रहा था और वह, प्रभु पर श्रद्धा रखती हुई और पवित्र आत्मा की सान्त्वना द्वारा बल प्राप्त करती हुई, बराबर बढ़ती जाती थी।
दूसरा पाठ :1 योहन 3:18-2
18) बच्चो! हम वचन से नहीं, कर्म से, मुख से नहीं, हृदय के एक दूसरे को प्प्यार करें।
19) इसी से हम जान जायेंगे कि हम सत्य की सन्तान हैं और जब कभी हमारा अन्तः करण हम पर दोष लगायेगा, तो हम ईश्वर के सामने अपने को आश्वासन दे सकेंगे;
20) क्योंकि ईश्वर हमारे अन्तःकरण से बड़ा हौ और वह सब कुछ जानता है।
21) प्यारे भाइयो! यदि हमारा अन्तः करण हम पर दोष नहीं लगाता है, तो हम ईश्वर पर पूरा भरोसा रख सकते हैं।
22) हम उस से जो कुछ माँगेंगे, वह हमें वहीं प्रदान करेगा; क्योंकि हम उसकी आज्ञाओं को पालन करते हंa और वही करते हैं, जो उसे अच्छा लगता है।
23) और उसकी आाज्ञा यह है कि हम उसके पुत्र ईसा मसीह के नाम में विश्वास करें और एक दूसरे को प्यार करें, जैसा कि मसीह ने हमें आदेश दिया।
24) जो ईश्वर की आज्ञाओं का पालन करता है, वह ईश्वर में निवास करता है और ईश्वर उस में और हम जानते हैं कि वह हम में निवास करता है; क्योंकि उसने हम को आपना आत्मा प्रदान किया है।
सुसमाचार : योहन 15:1-8.
1) मैं सच्ची दाखलता हूँ और मेरा पिता बागवान है।
2) वह उस डाली को, जो मुझ में नहीं फलती, काट देता है और उस डाली को जो फलती है, छाँटता है। जिससे वह और भी अधिक फल उत्पन्न करें।
3) मैंने तुम लोगो को जो शिक्षा दी है, उसके कारण तुम शुद्ध हो गये हो।
4) तुम मुझ में रहो और मैं तुम में रहूँगा। जिस तरह दाखलता में रहे बिना डाली स्वयं नहीं फल सकती, उसी तरह मुझ में रहे बिना तुम भी नहीं फल सकते।
5) मैं दाखलता हूँ और तुम डालियाँ हो। जो मुझ में रहता है और मैं जिसमें रहता हूँ वही फलता है क्योंकि मुझ से अलग रहकर तुम कुछ भी नहीं कर सकते।
6) यदि कोई मुझ में नहीं रहता तो वह सूखी डाली की तरह फेंक दिया जाता है। लोग ऐसी डालियाँ बटोर लेते हैं और आग में झोंक कर जला देते हैं।
7) यदि तुम मुझ में रहो और तुम में मेरी शिक्षा बनी रहती है तो चाहे जो माँगो, वह तुम्हें दिया जायेगा।
8) मेरे पिता की महिमा इस से प्रकट होगी कि तुम लोग बहुत फल उत्पन्न करो और मेरे शिष्य बने रहो।
📚 मनन-चिंतन
बाईबिल में सर्वत्र प्रभु ईश्वर ने मनुष्य से एक रिश्ता जोड़ने की कोशिश की है और इस हेतु ईश्वर ने मनुष्य के साथ समय समय पर विधान रचा जिससे वे हमारे ईश्वर हो और हम उनकी प्रजा। आज का सुसमाचार हमें उस रिश्ते के संबंध के विषय में बताता है
आज के सुसमाचार में प्रभु येसु बहुत ही सुंदर दृष्टांत के जरिये हमारे और ईश्वर के बीच में रिश्ते को प्रकट करते है।
आज हमारे समक्ष मनन चिंतन के लिए दाखलता और डालियॉं का विवरण है। जहॉं प्रभु हम सबको दाखलता और डालियॉं का संबंध बताते हुए उनमें बने रहनें के लिए आहवान कर रहे है। प्रभु में बने रहने से क्या फायदा है? प्रभु में बने रहने से हम कभी नहीं मुरझायेंगे, हम जो कुछ प्रभु से प्रार्थना में मॉंगेंगे वह हमें मिल जायेगी तथा हमारे लिए कुछ भी असंभव नहीं होगा, जिस प्रकार संत पौलुस कहते है, ‘‘जो मुझे बल प्रदान करते हैं, मै उनकी सहायता से सब कुछ कर सकता हॅूं’’ (फिल्लपि. 4:13)।
प्रभु में बने रहने का तात्पर्य क्या है? प्रभु में बने रहने का तात्पर्य है कि उनकी शिक्षा में बने रहना यह हमें बताता है कि हम केवल उनके वचनों को पढ़े, सुने या याद ही नहीं करें परंतु उन वचनों को जिये, उन वचनों को हमारे जीवन में झलकने दे जिससे जो कोई हमें देंखे या सम्पर्क करें तो उन्हे जीता जागता, चलता फिरता सुसमाचार के दर्शन हो या अनुभव हो। जिस प्रकार संत याकूब अपने पत्र 1ः22-25 में कहते है, ‘‘वचन के श्रोता ही नहीं, बल्कि उसके पालनकर्ता भी बनें। जो व्यक्ति वचन सुनता है, किन्तु उसके अनुसार आचरण नही करता, उस मनुष्य के सदृश है, जो दर्पण में अपना चेहरा देखता है। वह अपने को देख कर चला जाता है और उसे याद नहीं रहता कि उसका अपना स्वरूप कैसा है। किन्तु जो व्यक्ति उस संहिता को, जो पूर्ण है और हमें स्वतन्त्रता प्रदान करती है, ध्यान से देखता और उसका पालन करता है। वह उस श्रोता के सदृश नहीं, जो तुरंत भूल जाता है, बल्कि वह कर्ता बन जाता और उस संहिता को अपने जीवन में चरितार्थ करता है।’’
इसलिए हम श्रोता ही नहीं परंतु वचन के पालनकर्ता के लिए बुलाये गये है। अगर येसु का वचन कहता है कि हमें अपने पड़ोसियों को अपने समान प्रेम करना चाहिए तो ‘‘हम वचन से नहीं, कर्म से, मुख से नहीं, ह्दय से एक दूसरे को प्यार करें’’ (1योहन 3:18)।
प्रभु में बने रहने से प्रभु का जीवन हमारे जीवन में संचार होने लग जाता है और हम प्रभु में एक हो जाते है और जो कार्य प्रभु इस संसार में करना चाहता है वह हमारे जीवन द्वारा पूर्ण होता है। प्रभु इस संसार में बहुत फल उत्पन्न करना चाहते है परंतु उसको पूर्ण होने के लिए हम सभी को उनसे जुड़े रहने की जरूरत है। आईये आज के दिन हम प्रार्थना करें कि हम निरंतर प्रभु से जुड़े रहे जिस प्रकार संत पौलुस जुड़े हुए थे। वे रोमियों के नाम पत्र में कहते हैं, ‘‘कौन हम को मसीह के प्रेम से वंचित कर सकता है? मुझे दृढ़ विश्वास है कि न तो मरण या जीवन, न स्वर्गदूत या नरकदूत, न वर्तमान या भविष्य, न आकाश या पाताल की कोई शक्ति और न समस्त सृष्टि में कोई या कुछ हमें ईश्वर के उस प्रेम से वंचित कर सकता है, जो हमें हमारे प्रभु ईश्वर मसीह द्वारा मिला है’’ (रोमियो 8:35,38-39)।
📚 REFLECTION
In the entire bible we find God trying to establish a relationship with the humans and for this time to time God makes a covenant with the peope so that He may be our Lord and we be his people. Today’s Gospel tells us about the connection about that relationship.
In today’s gospel Jesus with a beautiful parable sets before us the connection between God and human.
Today we have the description of vine and the branches for our reflection, where telling the connection between vine and the branches Lord invites us to remain or abide in him. Let’s see what are the benefits of remaining or abiding in him- By Remaining in the Lord we will never fade, what ever we ask Lord in prayer we will receive, all the more nothing will be impossible for us as St. Paul says, “I can do all things with the help of him who strengthens me.” (Philipp.4:13).
What is the meaning of abiding in the Lord? It means to remain/abide in his teachings which tells us that we not only have to read, listen and memorize his words but to live those words, those words should reflect in our lives so that whoever comes in contact with us they may experience the living gospel. As St. James says in his letter 1:22-25, “Be doers of the word, andnotmeely hearers who deceive themselves. For if any are hearers of the word and not doers, they are like those wholook at themselvesin a mirror; for they look at themselves and, on going away, immediately forget what they were like. But those who look into the perfect law, the law of liberty, and persevere, become not hearers who forget but doers who act.”
That’s why we are called not merely for hearers but to be the doers of the word. If the word of God says love your neibhours as yourself then “let us love, not in word or speech, but in truth and action.” (1Jn 3:18)
By abiding in God, the life of God start generating in us and we become one in the Lord; and the work that God wants in this world reaches to its fulfillment through our lives. God wants to bear much fruits in this world but for that to happen in its fulfillment we all need to remain in him. Let’s pray today that we may always remain united with him as St. Paul remained. St. Paul says in his letter, “Who will separate us from the love of Christ? Will hardship, or distress, or persecution, or famine, or nakedness, or peril, or sword? For I am convinced that neither death, nor life, nor angels, nor rulers, nor things present, nor things to come, nor powers, nor height, nor depth, nor anything else in all creation, will be able to separate us from the love of God in Christ Jesus our Lord. (Romans 8:35, 38-39).
मनन-चिंतन-2
येसु ने सुसमाचार के द्वारा इस बात पर जोर डाला कि विश्वासगण विश्वास के फल उत्पन्न करे। जो विश्वास के फल उत्पन्न करता है वह पिता को प्रिय होता है तथा ऐसे विश्वासियों को पिता और अधिक कृपा प्रदान करता है। ’’वह उस डाली को जो फलती है, छाँटता है। जिससे वह और भी अधिक फल उत्पन्न करें।’’(योहन 15:02) इस प्रकार पिता उन डालियों या लोगों को विभिन्न घटनाओं और परिस्थितियों के द्वारा और अधिक सक्षम एवं योग्य बनाता है। सेवक और आर्शिफियों के दृष्टांत (देखिए मत्ती 25:14-30) द्वारा येसु इस बात को पुनः दर्शाते है कि फल उत्पन्न करना विश्वासी का मूलभूत कर्तव्य है तथा ऐसे फलदायी विश्वासियों को और अधिक दिया जाता है। ’’क्योंकि जिसके पास कुछ है, उसी को और दिया जायेगा और उसके पास बहुत हो जायेगा, लेकिन जिसके पास कुछ नहीं है, उस से वह भी ले लिया जायेगा, जो उसके पास है।’’(मत्ती 25:29) इसी परिपेक्ष्य में ईसा फलहीन अंजीर के पेड़ को सूखा देते हैं क्योंकि उसमें पत्तियॉ तो थी लेकिन फल नहीं थे। (देखिए मारकुस 11:12-14) ईसा की ये बात यही दर्शाती है कि ईश्वर हम से सदैव फल की आशा करते हैं। इसके विपरीत यदि हम किसी भी कारणवश फल पैदा नहीं करते हैं तो यह बात ईश्वर को अप्रसन्न करती है तथा हमारे विनाश का कारण बनती है। तुम अधिक फल उत्पन्न करो और तुम्हारा फल बना रहे।
हमारे फलदायी होने का रहस्य इस बात में छिपा है कि हम पिता से संयुक्त रहे। पिता से संुयक्त रहकर ही हम जीवन में विश्वास के फल उत्पन्न कर सकते हैं। जब एक छः साल के बच्चे ने पहली बार समुद्र की लहरों को देखा तो वह बहुत रोमांचित हो गया। वह उन लहरों के साथ हमेशा के लिए रहना चाहता था किन्तु यह उसके लिए संभव नहीं था। इसलिए वह उन लहरों को एक बाल्टी में भर कर अपने साथ घर पर ले आया। किन्तु बाल्टी में लहरे नहीं थी। जिस प्रकार समुद्र का पानी समुद्र से अलग होकर लहरें पैदा नहीं कर सकता उसी प्रकार हरेक विश्वासी पिता परमेश्वर से दूर रहकर कुछ भी नहीं कर सकता है। ईश्वर की आशिष ही हमारे जीवन एवं कार्यों को सफलता प्रदान करती है। इसी सच्चाई को इंगित करते हुए स्तोत्रकार कहता है, ’’यदि प्रभु ही घर नहीं बनाये, तो राजमन्त्रियों का श्रम व्यर्थ है। यदि प्रभु ही नगर की रक्षा नहीं करे, तो पहरेदार व्यर्थ जागते हैं। 2) कठोर परिश्रम की रोटी खानेवालो! तुम व्यर्थ ही सबेरे जागते और देर से सोने जाते हो....’’ (स्तोत्र 127:1-2) प्रभु भी कहते हैं, ’’....जो मुझ में रहता है और मैं जिसमें रहता हूँ वही फलता है क्योंकि मुझ से अलग रहकर तुम कुछ भी नहीं कर सकते।’’ (योहन 15:5)
हम प्रभु के साथ किस प्रकार जुडे रहना चाहिए जिससे हम भी फलदायी बने तथा और अधिक फल पैदा करे। प्रभु से संयुक्त रहने के लिए हमें उनकी शिक्षाओं को आत्मसात कर उसके अनुसार अपने जीवन को ढालना चाहिए। बीज के दृष्टांत के द्वारा येसु इसी सच्चाई को प्रतिपादित करते हुए बताते हैं कि वही बीज फल उत्पन्न करता है जो अच्छी भूमि में गिरा हो। इसका तात्पर्य है कि बीज को फलदायी बनने के लिए उसका अच्छी भूमि में अकुरित होकर बढना अत्यंत आवश्यक है। ’’जो अच्छी भूमि में बोये गये हैं, ये वे लोग हैं, जो वचन सुनते हैं- उसे ग्रहण करते हैं और फल लाते हैं -कोई तीस गुना, कोई साठ गुना, कोई सौ गुना।’’(मारकुस 4:20)
जब हम अपनी इच्छाओं एवं सांसारिक बातों को केन्द्र में रखकर नहीं बल्कि ईश्वर की शिक्षा के अनुसार अपने जीवन का कार्यान्वन करते हैं तथा वचन से मार्गदर्शन पाकर जीवन के छोटे-बडे निर्णय लेते हैं। तब हमारे जीवन में अनेक बदलाव आते हैं। हमारा जीवन अधिक प्रज्ञावान तथा सच्चा बन जाता है। जिस जीवन का चित्रण स्तोत्रकार करते हैं वह हमारे जीवन की सच्चाई बन जाता है, ’’मैं तेरी शिक्षा का मनन किया करता हूँ, इसलिए मैं अपने शिक्षकों से अधिक बुद्धिमान् हूँ। मैंने तेरी आज्ञाओं का पालन किया है, इसलिए मैं वयोवृद्धों से अधिक विवेकशील हूँ। तेरे नियमों का पालन करने के लिए मैं कुमार्ग से दूर रहा हूँ। मैं तेरी आज्ञाओं के मार्ग से नहीं भटका हूँ, क्योंकि तूने स्वयं मुझे शिक्षा दी है। मुँह में टपकने वाले मधु की अपेक्षा तेरी शिक्षा मेरे लिए अधिक मधुर है। तेरी आज्ञाओं से मुझे विवेक मिला, इसलिए मैं असत्य के मार्ग से घृणा करता हूँ। तेरी शिक्षा मुझे ज्योति प्रदान करती और मेरा पथ आलोकित करती है।’’ (स्तोत्र 119:99-105)
हमें भी अपने जीवन में ख्रीस्तीय विश्वास एवं सुसमाचारिय शिक्षा को जीना चाहिए जिससे हमारे स्वर्गिक पिता को माहिमा प्राप्त हो।
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