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Catholic Bibile Ministry में आप सबों को जय येसु ओर प्यार भरा आप सबों का स्वागत है। Catholic Bibile Ministry offers Daily Mass Readings, Prayers, Quotes, Bible Online, Yearly plan to read bible, Saint of the day and much more. Kindly note that this site is maintained by a small group of enthusiastic Catholics and this is not from any Church or any Religious Organization. For any queries contact us through the e-mail address given below. 👉 E-mail catholicbibleministry21@gmail.com

मंगलवार, 01 जून, 2021 वर्ष का नौवाँ सप्ताह

 

मंगलवार, 01 जून, 2021

वर्ष का नौवाँ सप्ताह

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पहला पाठ : टोबीत का ग्रन्थ 2:9-14



9) उस रात मैं उसे दफ़नाने के बाद लौट कर नहाया और आँगन की दीवार के पास लेट कर सो गया। गरमी के कारण मेरा चेहरा ढका नहीं था।

10) मुझे मालूम नहीं था कि दीवार पर गौरैयाँ रहती थीं। उनकी गरम बीट मेरी आँखों पर ंिगर पड़ी, जिससे मेरी आँखों में मोतियाबिन्द हो गया। मैं इलाज के लिए वैद्यों के पास गया, किन्तु उन्होंने मेरी आँखों पर जितना अधिक मरहम लगाया, मैं उतना ही कम देखने लगा और अन्त में मैं अन्धा हो गया। मैं चार वर्ष तक अन्धा रहा और सभी भाई मेरे कारण दुखी थे। जब तक अहीकार एलिमई नहीं गया, तब तक वह मेरी जीविका का प्रबन्ध करता रहा।

11) उस समय मेरी पत्नी अन्ना सिलाई-बुनाई का काम करती थी।

12) मालिक उसे पूरी मज़दूरी देते थे। ग्यारहवें महीने के सातवें दिन वह सिलाई का काम पूरा कर उसे मालिकों को देने गयी और उन्होंने मज़दूरी के सिवा बकरी का बच्चा दिया।

13) जब बच्चा घर आया और मिमियाने लगा, तो मैंने पत्नी से पूछा, "यह बच्चा कहाँ से आया? कहीं चोरी का तो नहीं है? इसे इसके मालिक को लौटा दो। हम चोरी की चीज़ नहीं खा सकते।"

14) उसने उत्तर दिया, "यह मुझे मज़दूरी के साथ बख़शीश में मिला है"। परन्तु मैंने उसका विश्वास नहीं किया और उसे उसके मालिक को लौटा देने को कहा। मुझे उसके इस काम से लज्जा हुई। किन्तु उसने मुझे यह उत्तर दिया, "कहाँ हैं तुम्हारे भिक्षादान? कहाँ है तुम्हारा धर्माचरण? अब पता चला कि तुम कितने पानी में हो!"



सुसमाचार : सन्त मारकुस का सुसमाचार 12:13-17



13) उन्होंने ईसा के पास कुछ फरीसियों और हेरोदियों को भेजा, जिससे वे उन्हें उनकी अपनी बात के फन्दे में फँसाये।

14) वे आ कर उन से बोले, "गुरुवर! हम यह जानते हैं कि आप सत्य बोलते हैं और किसी की परवाह नहीं करते। आप मुँह-देखी बात नहीं करते, बल्कि सच्चाई से ईश्वर के मार्ग की शिक्षा देते हैं। कैसर को कर देना उचित है या नहीं?"

15) हम दें या नहीं दें?" उनकी धूर्तता भाँप कर ईसा ने कहा, "मेरी परीक्षा क्यों लेते हो? एक दीनार ला कर मुझे दिखलाओ।"

16) वे दीनार लाये और ईसा ने उन से पूछा, "यह किसका चेहरा और किसका लेख है?" उन्होंने उत्तर दिया, "कैसर का"।

17) इस पर ईसा ने उन से कहा, "जो कैसर का है, उसे कैसर को दो और जो ईश्वर का है, उसे ईश्वर को"। यह सुन कर वे बड़े अचम्भे में पड़ गये।



📚 मनन-चिंतन



ईसा सच्चाई के राह पर चलने वालों को मुक्ति प्रदान करने के लिए मानव रूप लेकर इस धरा पर आये थे। उनका सपूंर्ण जीवन सच्चाई पर आधारित था। उन्होंने कभी भी असत्य के राह को न अपनाया या स्वीकारा। लेकिन आज की दुनियाँ इसके विपरीत है वह आपसी लेन.देन और तर्क के अनुसार चलता है। इस परिवेष में आज का सुमाचार को एक चष्में में रखकर नहीं देखा जा सकता है।

सुसमाचार में आज प्रभु येसु कहते हैं जब वे फरीसियों एवं हेरोदयिों के द्वारा उन्हें फंसाने का प्रयास किया गया श्श्जोश्श् कैसर का हैए उसे कैसर को दो और ईष्वर का हैए उसे ईष्वर को। आज हमें आपने आप से प्रष्न करना है. क्या हम वास्तव में ईष्वर के प्रतिरूप को जो कि हम भी ईष्वर के प्रतिरूप है। उत्पत्ति ग्रंथ 01:26 को बरकार रखते हैघ् क्या हमें सच्चाई के राह पर चलते हैं जिन पर स्वंय प्रभु येसु ने चलकर हमें प्रेम किया और अपना जीवन दे दिया।



📚 REFLECTION




Jesus came into this world by taking human form to liberate all those who follow the path of truth; his entire life mission was based on truth. Jesus never comprised with falsehood nor did he appreciate it. But what we see and witness today is contrary to the teachings of Jesus. Today world believes and appreciates in give and take relationship and logic. From this angle we cannot see the gospel in a mirror.

In today’s gospel Jesus says when the Pharisees and Herodians wanted to trap him, “give to Caesar, what belongs to Caesar and give to God what belongs to God”.

Today we need to ask ourselves, do we really keep the image and likeness of God that we are? Or do we weaken it? We are all made in the image and likeness of God (Gen.1:26). Do we keep this image of God intact in us? Can we confidently say we belong to Jesus and Jesus belongs to us? Do we walk in the path of truth that Jesus walked in and gave his life for us all?


 -Br Biniush Topno



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सोमवार, 31 मई, 2021 एलिजबेथ से कुवारी मरियम की भेन्ट - पर्व

 

सोमवार, 31 मई, 2021

एलिजबेथ से कुवारी मरियम की भेन्ट - पर्व

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पहला पाठ : सफ़न्याह का ग्रन्थ 3:14-18



14) सियोन की पुत्री! आनन्द का गीत गा। इस्राएल! जयकार करो! येरुसालेम की पुत्री! सारे हृदय से आनन्द मना।

15) प्रभु ने तेरा दण्डादेश रद्द किया और तेरे शत्रुओं को भगा दिया है। प्रभु तेरे बीच इस्राएल का राजा है।

16) विपत्ति का डर तुझ से दूर हो गया है। उस दिन येरुसालेम से कहा जायेगा-’’सियोन! नहीं डरना, हिम्मत नहीं हारना। तेरा प्रभु-ईश्वर तेरे बीच है।

17) वह विजयी योद्धा है। वह तेरे कारण आनन्द मनायेगा, वह अपने प्रेम से तुझे नवजीवन प्रदान करेगा,

18) वह उत्सव के दिन की तरह तेरे कारण आनन्दविभोर हो जायेगा।’’ मैं तेरी विपत्ति को दूर करूँगा, मैं तेरा कलंक मिटा दूँगा।

अथवा - पहला पाठ : रोमियों 12:9-16



9) आप लोगों का प्रेम निष्कपट हो। आप बुराई से घृणा तथा भलाई से प्र्रेम करें।

10) आप सच्चे भाइयों की तरह एक दूसरे को सारे हृदय से प्यार करें। हर एक दूसरों को अपने से श्रेष्ठ माने।

11) आप लोग अथक परिश्रम तथा आध्यात्मिक उत्साह से प्रभु की सेवा करें।

12) आशा आप को आनन्दित बनाये रखे। आप संकट में धैर्य रखें तथा प्रार्थना में लगे रहें,

13) सन्तों की आवश्यकताओं के लिए चन्दा दिया करें और अतिथियों की सेवा करें।

14) अपने अत्याचारियों के लिए आशीर्वाद माँगें- हाँ, आशीर्वाद, न कि अभिशाप!

15) आनन्द मनाने वालों के साथ आनन्द मनायें, रोने वालों के साथ रोयें।

16) आपस में मेल-मिलाप का भाव बनाये रखें। घमण्डी न बनें, बल्कि दीन-दुःखियों से मिलते-जुलते रहें। अपने आप को बुद्धिमान् न समझें।




सुसमाचार : सन्त लूकस का सुसमाचार 1:39-56



39) उन दिनों मरियम पहाड़ी प्रदेश में यूदा के एक नगर के लिए शीघ्रता से चल पड़ी।

40) उसने ज़करियस के घर में प्रवेश कर एलीज़बेथ का अभिवादन किया।

41) ज्यों ही एलीज़बेथ ने मरियम का अभिवादन सुना, बच्चा उसके गर्भ में उछल पड़ा और एलीज़बेथ पवित्र आत्मा से परिपूर्ण हो गयी।

42) वह ऊँचे स्वर से बोली उठी, ’’आप नारियों में धन्य हैं और धन्य है आपके गर्भ का फल!

43) मुझे यह सौभाग्य कैसे प्राप्त हुआ कि मेरे प्रभु की माता मेरे पास आयीं?

44) क्योंकि देखिए, ज्यों ही आपका प्रणाम मेरे कानों में पड़ा, बच्चा मेरे गर्भ में आनन्द के मारे उछल पड़ा।

45) और धन्य हैं आप, जिन्होंने यह विश्वास किया कि प्रभु ने आप से जो कहा, वह पूरा हो जायेगा!’’

46) तब मरियम बोल उठी, ’’मेरी आत्मा प्रभु का गुणगान करती है,

47) मेरा मन अपने मुक्तिदाता ईश्वर में आनन्द मनाता है;

48) क्योंकि उसने अपनी दीन दासी पर कृपादृष्टि की है। अब से सब पीढि़याँ मुझे धन्य कहेंगी;

49) क्योंकि सर्वशक्तिमान् ने मेरे लिए महान् कार्य किये हैं। पवित्र है उसका नाम!

50) उसकी कृपा उसके श्रद्धालु भक्तों पर पीढ़ी-दर-पीढ़ी बनी रहती है।

51) उसने अपना बाहुबल प्रदर्शित किया है, उसने घमण्डियों को तितर-बितर कर दिया है।

52) उसने शक्तिशालियों को उनके आसनों से गिरा दिया और दीनों को महान् बना दिया है।

53) उसने दरिंद्रों को सम्पन्न किया और धनियों को ख़ाली हाथ लौटा दिया है।

54) इब्राहीम और उनके वंश के प्रति अपनी चिरस्थायी दया को स्मरण कर,

55) उसने हमारे पूर्वजों के प्रति अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार अपने दास इस्राएल की सुध ली है।’’

56) लगभग तीन महीने एलीज़बेथ के साथ रह कर मरियम अपने घर लौट गयी।



📚 मनन-चिंतन



एलिजबेथ से कुवारी मरियम की भेंट की घटना को आज सम्पूर्ण कलीसिया एक पर्व के रूप में मना रहीं है। यह मात्र दो व्यक्तियों का मिलन नहीं परंतु इसमें कई सारी महत्वपूर्ण चीज़े जुड़ी हुई है।

मरियम और एलिजबेथ यू तो कई बार मिली होंगी परंतु यह मिलन बाकि सभी मिलन से अलग और विशेष थी क्योंकि यह मिलन दोनो को एक ईश्वरीय अनुभव के बाद हुई थी तथा इस मिलन में केवल मरियम और एलिजबेथ ही नहीं परंतु येसु और योहन भी थे जो मरियम और एलिजबेथ के गर्भ में थे।

एलिजबेथ से कुवारी मरियम की भेंट पर एलिजबेथ को एक अनोखा अनुभव हुआ जहॉं पर मरियम का अभिवादन सुनकर बच्चा एलिजबेथ के गर्भ में आनंद के मारे उछल पड़ा और वह पवित्र आत्मा से परिपूर्ण हो गयी। जिसके बाद उसे पता चला कि मरियम अब एक साधारण स्त्री नहीं परंतु वह प्रभु की माता है। यह पूरी घटना पूरे वातावरण को ईश्वरीय आनंद और ईश्वरीय अनुभव से भर देती है इन्हीं सभी के कारण यह पर्व कलीसिया के लिए एक महत्वपूर्ण पर्व है। मरियम पवित्र आत्मा से गर्भवती होने के बाद एलिजबेथ के पास जाती है और उन्हें येसु का एहसास तथा पवित्र आत्मा की प्राप्ति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।

यह पर्व हमें ईश्वरीयता से परिपूर्ण रहने के लिए प्रेरित करता है विशेष करके पवित्र आत्मा से परिपूर्ण रहने के लिए जिससे जिस किसी से भी हम मिले उन्हे येसु का अनुभव हो तथा पवित्र आत्मा से परिपूर्ण हो। आईये आज के दिन हम यहीं प्रार्थना करें कि हम हमेंशा पवित्र आत्मा से परिपूर्ण रहें तथा येसु को दूसरों को दे सकें। आमेन!



📚 REFLECTION



The event of Virgin Mary visiting Eilzabeth is being celebrated today as feast by the Universal Church. It is not merely the meeting of two persons but many important things are connected to this event.

Mary and Elizebeth might have met many times earlier but this visit or meeting was different and special from all that earlier meetings because this meeting happened after the divine encounter by both of them and in this meeting not only Mary and Elizabeth were there but also Jesus and John who were in the womb of Mary and Elizabeth.

Elizabeth had a unique experience in the visit of Mary where after hearing the greeting of Mary, the child leaped in her womb and she was filled with the Holy Spirit. After which she realized that Mary is now no more a simple woman but she is the mother of God. This whole event fills the whole atmosphere with divine joy and divine experience and because of all these; this feast is an important feast for the Catholic Church. After conceiving Jesus by the power of the Holy Spirit Mary goes to visit Elizabeth and gives her the presence of Jesus and plays an important role in receiving the Holy Spirit.

This feast inspire us to always remain filled with the godliness specially filled with the Holy Spirit so that whom so ever we may meet they may experience Jesus and be filled with the Holy Spirit. Come let’s pray today that we may always be filled with the Holy Spirit and can give Jesus to others. Amen!


 -Br Biniush Topno



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आज का पवित्र वचन इतवार, 30 मई, 2021 पवित्र त्रित्व का महापर्व

 

इतवार, 30 मई, 2021

पवित्र त्रित्व का महापर्व

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पहला पाठ : विधि-विवरण ग्रन्थ 4:32-34,39-40



32) ईश्वर ने जब पृथ्वी पर मनुष्य की सृष्टि की थी, तुम सब से ले कर अपने पहले के प्राचीन युगों का हाल पूछो। क्या पृथ्वी के एक छोर से दूसरे छोर तक कभी इतनी अद्भुत घटना हुई है?

33) क्या इस प्रकार की बात कभी सुनने में आयी है? क्या और कोई ऐसा राष्ट्र है, जिसने तुम लोगों की तरह अग्नि में से बोलते हुए ईश्वर की वाणी सुनी और जीवित बच गया हो?

34) ईश्वर ने आतंक दिखाकर, विपत्तियों, चिन्हों, चमत्कारों और युद्धों के माध्यम से, अपने सामर्थ्य तथा बाहुबल द्वारा तुम लोगों को मिस्र देश से निकाल लिया है - यह सब तुमने अपनी आँखों से देखा है। क्या और कोई ऐसा ईश्वर है, जिसने इस तरह किसी दूसरे राष्ट्र म

39) आज यह जान लो और इस पर मन-ही-मन विचार करो कि ऊपर आकाश में तथा नीचे पृथ्वी पर प्रभु ही ईश्वर है; उसके सिवा कोई और ईश्वर नहीं है।

40) मैं तुम लोगों को आज उसके नियम और आदेश सुनाता हूँ। तुम उनका पालन किया करो, जिससे जो देश तुम्हारा प्रभु-ईश्वर तुम्हें सदा के लिए देने वाला है, उस में तुम को और तुम्हारे पुत्रों को सुख-शांति तथा लम्बी आयु मिल सकें।“



दूसरा पाठ: रोमियों के नाम सन्त पौलुस का पत्र 8:14-17



14) लेकिन यदि आप आत्मा की प्रेरणा से शरीर की वासनाओें का दमन करेंगे, तो आप को जीवन प्राप्त होगा।

15) जो लोग ईश्वर के आत्मा से संचालित हैं, वे सब ईश्वर के पुत्र हैं- आप लोगों को दासों का मनोभाव नहीं मिला, जिस से प्रेरित हो कर आप फिर डरने लगें। आप लोगों को गोद लिये पुत्रों का मनोभाव मिला, जिस से प्रेरित हो कर हम पुकार कर कहते हैं, ’’अब्बा, हे पिता!

16) आत्मा स्वयं हमें आश्वासन देता है कि हम सचमुच ईश्वर की सन्तान हैं।

17) यदि हम उसकी सन्तान हैं, तो हम उसकी विरासत के भागी हैं-हम मसीह के साथ ईश्वर की विरासत के भागी हैं। यदि हम उनके साथ दुःख भोगते हैं, तो हम उनके साथ महिमान्वित होंगे।



सुसमाचार : सन्त मत्ती का सुसमाचार 28:16-20



16) तब ग्यारह शिष्य गलीलिया की उस पहाड़ी के पास गये , जहाँ ईसा ने उन्हें बुलाया था।

17) उन्होंने ईसा को देख कर दण्डवत् किया, किन्तु किसी-किसी को सन्देह भी हुआ।

18) तब ईसा ने उनके पास आ कर कहा, ’’मुझे स्वर्ग में और पृथ्वी पर पूरा अधिकार मिला है।

19) इसलिए तुम लोग जा कर सब राष्ट्रों को शिष्य बनाओ और उन्हें पिता, पुत्र और पवित्र आत्मा के नाम पर बपतिस्मा दो।

20) मैंने तुम्हें जो-जो आदेश दिये हैं, तुम-लोग उनका पालन करना उन्हें सिखलाओ और याद रखो- मैं संसार के अन्त तक सदा तुम्हारे साथ हूँ।’’



📚 मनन-चिंतन



हम सब ख्रीस्तीय पिता और पुत्र और पवित्र आत्मा के नाम पर सभी कार्य करते है, विशेष रूप से प्रार्थना की शुरुआत और अंत। पिता और पुत्र और पवित्र आत्मा तीन व्यक्ति है परंतु एक ईश्वर है और इसी त्रियेक ईश्वर का पर्व हम आज मनाते है, जिसे पवित्र त्रित्व के महापर्व से जाना जाता है।

मनुष्यों ने हमेशा से ही ईश्वर के बारे में जानने की कोशिश की है। प्रभु येसु और पवित्र आत्मा के द्वारा हमने ईश्वर और उनकी योजनाओं के बारे में कई रहस्य या सिद्धांत को समझा और जाना है परंतु जरूरी नहीं कि हम ईश्वर के हर रहस्य को समझ पाये। उनमें से एक रहस्य पवित्र त्रित्व का है जो हमारे इस क्षणिक दिमाग में कभी भी नहीं समा सकता।

आज के तीनों पाठ आज के पर्व के संदर्भ के अनुसार है। पहला पाठ में हमे शक्तिशाली पिता ईश्वर के विषय में बताया गया है जिसने इस अद्भुत सृष्टि की रचना की और महान चमत्कारों द्वारा इस्राएल को बचाया; वह पिता एक शक्तिशाली ईश्वर है और उसके सिवा कोई और ईश्वर नहीं है।

दूसरे पाठ में पवित्र आत्मा के विषय में बताया गया है। पवित्र आत्मा ईश्वर बाहर नहीं परंतु हमारे भीतर बसने वाला ईश्वर है क्योकि हमारा शरीर पवित्र आत्मा का मंदिर है। जो लोग ईश्वर के आत्मा से संचालित है उनमें ईश्वर के जीवन का संचार है और वह इस संसार से परे रहकर ईश्वर के पुत्र के मनोभाव के अनुसार जीवन बिताता है।

सुसमाचार में हम प्रभु येसु के अंतिम आदेश के बारे में जानते है जहॉं प्रभु येसु अपने शिष्यों से कहते है कि, ’’मुझे स्वर्ग में और पृथ्वी पर पूरा अधिकार मिला है। इसलिए तुम लोग जा कर सब राष्ट्रों को शिष्य बनाओ और उन्हें पिता, पुत्र और पवित्र आत्मा के नाम पर बपतिस्मा दो।’’ प्रभु येसु जाते जाते पवित्र त्रित्व के नाम को उजागर कर के जाते है।

पवित्र त्रित्व का पर्व हमारे लिए त्रियेक ईश्वर को जानने का और प्रार्थना करने का सुंदर अवसर है परंतु इस रहस्य या सिद्धांत को पूर्ण रूप से समझना हमारे दिमाग के बस की बात नहीं। एक ईश्वर में तीन जन- इस रहस्य को समझाने के लिए कई विद्वानों ने कई उदाहरण देकर समझना चाहा परंतु किसी ने भी एक ठोस रूप से इसकी गहराई को समझा नहीं पाया है।

पवित्र त्रित्व का पर्व एकता का पाठ पढ़ाती है। जिस प्रकार पिता, पुत्र और पवित्र आत्मा अलग अलग व्यक्ति है परंतु वे एक है। जिस प्रकार प्रभु येसु कहते है मै पिता में हूॅं और पिता मुझमें है ठीक उसी प्रकार पवित्र आत्मा भी पिता और पुत्र में हैं और वे पवित्र आत्मा में अर्थात् वे तीनों एक है। आज के पर्व की आशीष द्वारा हम भी ईश्वर में एक बनें रहें जिस प्रकार प्रभु येसु हमारे लिए चाह रखते है, ’’सब के सब एक हो जायें। पिता! जिस तरह तू मुझ में है और मैं तुझ में, उसी तरह वे भी हम में एक हो जायें’’ (योहन 17ः21)। आमेन!



📚 REFLECTION



We all Christians do all the works in the name of the Father and of the Son and of the Holy Spirit, especially before and after the prayer. Father, Son and Holy Spirit are three persons but one God and this triune God’s feast we are celebrating today which is popularly known as Feast of Holy Trinity.

Humans have always tried to know about God. Because of Jesus and the Holy Spirit we understood many mysteries or concept about God and his plans but it is not necessary that we may understand every mystery. Among those mystery is the mystery of Holy Trinity which our temporary minds cannot contain it.

Today’s all the three readings are based on today’s feast. First reading is about the Almighty Father who created this wonderful creation and with great miracles He rescued Israelites; The Father is Almighty God and there is no other.

Second Reading is about the Holy Spirit. Holy Spirit God is a God who wants to live not outside but inside of us because our body is the temple of the Holy Spirit. Those who are led by the Spirit in them God’s power flows and setting themselves apart they live according to the mind of children of God.

In the Gospel we read about the mandate of Jesus where Lord Jesus says to the disciples, “All authority in heaven and on earth has been given to me. Go therefore and make disciples of all nations, baptizing them in the name of the Father and of the Son and of the Holy Spirit.” Before going Jesus manifest the name of the Holy Trinity.

The feast of Holy Trinity is a beautiful opportunity to know about triune God and to pray to Him, but to understand the mystery or concept fully is out of our brain. Three persons in one God- to understand this mystery many scholars tried to understand through various examples but none of them have explained the depth of it in a concrete manner.

The feast of Holy Trinity teaches us the lesson of unity. As the Father, Son and the Holy Spirit are three different persons but they are united as one. As Lord Jesus says I am in the Father and Father is in me similarly Holy Spirit is also in the Father and the Son and they in the Holy Spirit that is to say they three are one. By the grace of today’s feast we also may remain one in God as Lord Jesus wants for us, “that they may be one, as you, Father, are in me and I am in you, may they also be in us.” Amen!



मनन-चिंतन -2


आज माता कलीसिया परम पवित्र त्रित्व का महापर्व मनाती है। कलीसिया की शिक्षायें हमें बताती हैं कि हमारे विश्वास का आधार ही पवित्र त्रित्व है। पवित्र त्रित्व के बारे में हमारा ज्ञान पवित्र धर्मग्रन्थ में वर्णित बातों पर आधारित है। हमारी धर्मशिक्षा में भी हमें सिखाया जाता है कि हमारे धर्म की चार बड़ी सच्चाइयों में से एक यह भी है कि केवल एक ईश्वर है और एक ईश्वर में तीन जन हैं- पिता, पुत्र और पवित्र आत्मा। इस परम सच्चाई के बारे में यह भी सच है कि पवित्र त्रित्व के इस रहस्य को समझना टेढ़ी खीर है अर्थात् इसे समझना बहुत मुश्किल है, क्योंकि माता कलीसिया हमें सिखाती है कि तीनों एक ही ईश्वर हैं और तीनों सिर्फ एक ही नहीं बल्कि पूर्ण रूप से एक दूसरे से भिन्न व अलग-अलग जन हैं।

मनुष्य की सृष्टि ईश्वर ने की है। ईश्वर सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान एवं सर्वत्र है। वहीं दूसरी ओर मनुष्य का ज्ञान, शक्ति और क्षमता सीमित है। इस सीमित क्षमता के साथ उस असीम ईश्वर व सृष्टिकर्ता के रहस्य को पूर्ण रूप से समझना असम्भव है। पवित्र त्रित्व के रहस्य को समझने की कठिनाई के बारे में सन्त अगस्टीन की लोकप्रिय कहानी प्रचलित हैः सन्त अगस्टीन पवित्र त्रित्व के रहस्य को समझने के लिए तीस वर्षों तक अध्ययन करते रहे। एक बार वे समुन्द्र के किनारे इसी रहस्य को समझने के लिये मनन-चिन्तन में व्यस्त थे कि तभी उनकी नज़र एक छोटे बालक पर पड़ी जो समुन्द्र के किनारे पर एक छोटा सा गड्ढा बनाकर एक सीप के माध्यम से उस गड्ढे को भरने का प्रयास कर रहा था। सन्त अगस्टीन ने जब उससे पूछा कि वह क्या करना चाहता है तो बालक ने उत्तर दिया कि वह उस समुन्द्र के पूरे जल को उस छोटे से गड्ढे में भरना चाहता है। सन्त अगस्टीन को बड़ा आश्चर्य हुआ कि ऐसा कैसे सम्भव है, इतना विशाल सागर उस छोटे से गड्ढे में कैसे समा सकता है। उस बालक ने उत्तर दिया कि तुम भी तो वही कर रहे हो, सर्वशक्तिमान ईश्वर के रहस्य को अपने छोटे से सीमित ज्ञान से समझने का प्रयास कर रहे हो। और यह बताकर वह बालक अन्तर्ध्यान हो गया।

पवित्र बाईबिल का अध्ययन करने पर हमें ऐसा प्रतीत होता है कि तीनों जन - पिता, पुत्र और पवित्र आत्मा अलग-अलग हैं और अलग-अलग समय पर सक्रिय हैं। पुराने व्यवस्थान में सिर्फ पिता ईश्वर ही कार्य करते हुए दिखाई देते हैं। चाहे वह सृष्टि की रचना हो, इब्राहीम का बुलावा हो, या मिश्र की दासता से इस्रायलियों को बाहर निकालने का कार्य हो, अथवा नबियों को भेजकर लोगों को सही मार्ग पर लाने का कार्य हो। ऐसा प्र्रतीत होता है कि पुराने व्यवस्थान का युग पिता ईश्वर का युग है और पुत्र और पवित्र आत्मा कहीं स्पष्ट रूप से दिखाई नहीं देते। उसी तरह चारों सुसमाचारों में हम मुख्य रूप से प्रभु येसु के बारे में पढते और सुनते हैं। हालांकि पिता और पवित्र आत्मा भी यदा-कदा दिखाई देते हैं। वहीं सुसमाचारों के बाद की पुस्तकों में हमें मुख्य रूप से पवित्र आत्मा की भूमिका दिखाई देती है। लेकिन सत्य तो यह है कि तीनों जन एक साथ, एक समान रूप से सदैव सक्रिय हैं। क्योंकि वे एक ही हैं, अलग नहीं हैं। जब प्रभु येसु क्रूस पर मरकर दुनिया को मुक्ति प्रदान करते हैं तो इसमें वे अकेले नहीं, बल्कि तीनों जन एक साथ हैं।

जब पिता ईश्वर इस दुनिया की रचना करते हैं तो हमें तीनों के दर्शन होते हैं। ’’... अथाह गर्त पर अन्धकार छाया हुआ था और ईश्वर का आत्मा सागर पर विचरता था।’’ (उत्पत्ति ग्रन्थ 1:2) आत्मा भी प्रारम्भ से विद्यमान था। सन्त योहन के सुसमाचार के प्रारम्भ में हम पढते हैं- ’’आदि में शब्द था, शब्द ईश्वर के साथ था, और शब्द ईश्वर था।’’ (योहन 1:1) आगे पढते हैं कि सब कुछ शब्द के द्वारा ही उत्पन्न हुआ। यानि कि सृष्टि के पहले कार्य से ही हर कार्य में वे एक साथ हैं। प्रभु येसु के मिशन के प्रारम्भ में भी हम तीनों को एक साथ देखते हैं। मत्ती 3:16-17 में हम पढते हैं कि बपतिस्मा के समय पवित्र आत्मा कपोत के रूप में उन पर उतरा और स्वर्ग से पिता ईश्वर की वाणी सुनाई दी, ’’यह मेरा प्रिय पुत्र है...।’’ बल्कि प्रभु येसु के हर कार्य में पवित्र आत्मा उनके साथ था। प्रभु येसु पिता का कार्य करते थे (देखें योहन 4:34) “मेरे पिता का कार्य करना ही मेरा भोजन है”। लूकस 4:18 में लिखा है - ’’प्रभु का आत्मा मुझ पर छाया रहता है...।’’ पिता, पुत्र और पवित्र आत्मा तीनों अलग होते हुए भी एक हैं और एक होते हुए भी अलग हैं।

पवित्र त्रित्व हमारे विश्वास का आधार है। हम पवित्र त्रित्व के नाम में ही बपतिस्मा ग्रहण कर ईश्वर की सन्तान व कलीसिया के सदस्य बनते हैं। पवित्र त्रित्व के ही नाम से हमारे सब कार्य प्रारम्भ और पूर्णता तक पहुँचते हैं। हमारी सारी प्रार्थनायें भी इसी पवित्र त्रित्व के नाम से प्रारम्भ होती हैं। आइये आज के इस पावन पर्व के अवसर पर हम प्रण लें कि पवित्र त्रित्व को हम अपने ख्रिस्तीय जीवन का आधार बनायेंगे और अपने जीवन में सर्वोच्च स्थान देंगे। जिस तरह पिता, पुत्र और पवित्र आत्मा सदैव एक रहकर कार्य करते हैं उसी तरह हमारे परिवारों के सभी सदस्य सदा एक बने रहें। आमेन।


 फ़ादर जॉन्सन बी. मरिया (ग्वालियर धर्मप्रान्त)

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शनिवार, 29 मई, 2021 वर्ष का आठवाँ सामान्य सप्ताह

 

शनिवार, 29 मई, 2021

वर्ष का आठवाँ सामान्य सप्ताह


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पहला पाठ : प्रवक्ता ग्रन्थ 51:12-20



12) तू अपने पर भरोसा रखने वालों की रक्षा करता और उन्हें उनके शत्रुओं के पंजे से छुड़ाता है।

13) मैंने पृथ्वी पर से प्रभु की दुहाई दी और मृत्यु से रक्षा की प्रार्थन की।

14) मैने कहा, "प्रभु! तू मेरा पिता है! घमण्डी शत्रुओं के सामने, मुझे विपत्ति के दिन, असहाय नहीं छोड़।

15) मैं निरन्तर तेरा नाम धन्य कहूँगा, मैं धन्यवाद के गीत गाता रहूँगा।" मेरी प्रार्थना सुनी गयी,

16) क्योंकि तूने मुझे विनाश से बचाया और विपत्ति से मेरा उद्धार किया।

17) इस कारण मैं तेरा धन्यवाद और तेरी स्तुति करूँगा, मैं प्रभु का नाम धन्य कहूँगा।

18) अपनी यात्राएँ प्रारम्भ करने से पहले मैं युवावस्था में आग्रह के साथ प्रज्ञा के लिए प्रार्थना करता था।

19) मैं मन्दिर के प्रांगण में उसके लिए अनुरोध करता था और अन्त तक उसे प्राप्त करने का प्रयत्न करता रहूँगा। वह फलते-फूलते हुए अंगूर की तरह मुझ में विकसित हो कर

20) मुझे आनन्दित करती रही। मैं सीधे मार्ग पर आगे बढ़ता गया और बचपन से ही प्रज्ञा का अनुगामी बना।



सुसमाचार : मारकुस 11:27-33



27) वे फिर येरूसालेम आये। जब ईसा मन्दिर में टहल रहे थे, तो महायाजक, शास्त्री और नेता उनेक पास आ कर बोले,

28) “आप किस अधिकार से यह सब कर रहे हैं? किसने आप को यह सब करने का अधिकार दिया?“

29) ईसा ने उन्हें उत्तर दिया, “मैं भी आप लोगों से एक प्रश्न पूछना चाहता हूँ। यदि आप मुझे इसका उत्तर देंगे, तो मैं भी आप को बता दूँगा कि मैं किस अधिकार से यह सब कर रहा हूँ।

30) बताइए, योहन का बपतिस्मा स्वर्ग का था अथवा मनुष्यों का?"

31) वे यह कहते हुए आपस में परामर्श करते थे- “यदि हम कहें, ’स्वर्ग का’, तो वह कहेंगे, ’तब आप लोगों ने उस पर विश्वास क्यों नहीं किया’।

32) यदि हम कहें, “मनुष्यों का, तो....।“ वे जनता से डरते थे। क्योंकि सब योहन को नबी मानते थे।

33) इसलिए उन्होंने ईसा को उत्तर दिया, “हम नहीं जानते"। इस पर ईसा ने उन से कहा,“ तब मैं भी आप लोगों को नहीं बताऊँगा कि मैं किस अधिकार से यह सब कर रहा हूँ"।



📚 मनन-चिंतन



‘‘आप किस अधिकार से यह सब कर रहे हैं? किसने आप को यह सब करने का अधिकार दिया?’’ यह प्रश्न महायाजक, शास्त्री और नेताओं के द्वारा उस घटना के बाद पूॅंछा गया जब येसु ने मंदिर में बेचने और खरीदने वालों को बाहर कर दिया था। उस समय के अनुसार मंदिर और उसमें होने वाली गतिविधियों में महायाजक, शास्त्रियों और नेताओं का अधिकार होता था, वे वहॉं के कर्ता-धर्ता होते थे।

येसु द्वारा मंदिर में किये गये कार्य के लिए वे उनसे पॅूंछते है कि किस अधिकार के साथ यह सब किया। इस सवाल का जवाब देने के लिए येसु उनसे प्रश्न पूॅंछते है, ’योहन का बपतिस्मा स्वर्ग का था अथवा मनुष्यों का?’ उनके जवाब नहीं देने के कारण येसु उनसे कहते है, ’तब मै भी नहीं बताऊॅंगा कि मैं किस अधिकार से यह सब कर रहा हॅंू’।

इस पूरी घटना में हमें प्रभु येसु के अधिकार के विषय में मनन चिंतन करने का अवसर मिलता है। प्रभु येसु का अधिकार इस संसार से नहीं परंतु पिता ईश्वर से है। येसु मत्ती 28ः18 में कहते है, ’’मुझे स्वर्ग में और पृथ्वी पर पूरा अधिकार मिला है।’’ योहन 3ः31,33ब-35 कहता है, ‘‘जो ऊपर से आता है, वह सर्वोपरि है। जो पृथ्वी का है, वह पृथ्वी की बातें बोलता है। जो स्वर्ग से आता है, वह सर्वोपरि है। जिसे ईश्वर ने भेजा है, वह ईश्वर के ही शब्द बोलता है; क्योंकि ईश्वर उसे प्रचुर मात्रा में पवित्र आत्मा प्रदान करता है। पिता पुत्र को प्यार करता है औरउसने उसके हाथ सब कुछ दे दिया है।’’ इन वचनों से हमें पता चलता है कि येसु का सभी पर अधिकार है तथा जिसने येसु को भेजा है उन्हीं के द्वारा येसु को अधिकार भी प्राप्त है।

प्रभु येसु ने जो किया पूर्ण अधिकार के साथ किया जो उन्हें पिता से प्राप्त था। और उसी अधिकार के साथ वे अपने शिष्यों को इस संसार में भेजते है। आईये हम प्रार्थना करें कि जो अधिकार हमें येसु से मिला है इस संसार में ईश्वर की योजना को पूर्ण करने हेतु हम उसे पहचाने और उसी अनुसार कार्य करें। आमेन!



📚 REFLECTION



“By what authority are you doing these things? Who gave you this authority to do them?” This question was asked by the chief priest, scribes and the elders after the incident of chasing the buyers and sellers from the Temple by Jesus. According to that time chief priest, scribes and elders had the authority over the temple and the activities happening in the temple, they were the whole doer.

They ask Jesus’ authority over the things he did in the temple. Answering to the question Jesus asks them a question, ‘Did the baptism of John come from heaven, or was it of human origin? When they were not able to answer Jesus tells them, ‘Neither will I tell you by what authority I am doing these things.

In this whole incident we get an opportunity to meditate upon the authority of Jesus. The Authority of Jesus is not from this world but from the Father Almighty. Mt 28:18 says, “All authority in heaven and on earth has been given to me.” John 3:31, 34-35 says, “The one who comes from above is above all; the one who is of the earth belongs to the earth and speaks about earthly things. The one who comes from heaven is above all. He whom God has sent speaks the words of God, for he gives the Spirit without measure. The Father loves the Son and has placed all things in his hands.” Through these words of God we come to know that Jesus have authority over everything and the One who has send Jesus, from Him only he received the authority also.

Whatever Jesus did, he did with full authority which he received from the Father. And with that authority he sends his disciples to the world. Let’s pray that the authority what we have received from Jesus in order to fulfill God’s plan, we may able to recognize it and act according to it. Amen!


 -Br Biniush Topno



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शुक्रवार, 28 मई, 2021 वर्ष का आठवाँ सामान्य सप्ताह

 

शुक्रवार, 28 मई, 2021

वर्ष का आठवाँ सामान्य सप्ताह

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पहला पाठ : प्रवक्ता ग्रन्थ 44:1,9-13



1) हम पीढ़ियों के क्रमानुसार अपने लब्ध प्रतिष्ठ पूर्वजों का गुणगान करें।

9) कुछ लोगों की स्मृति शेष नहीं रही। वे इस प्रकार लुप्त हो गये हैं, मानो कभी थे ही नहीं। वे इस प्रकार चले गये हैं, मानो उनका कभी जन्म नहीं हुआ और उनकी सन्तति की भी यही दशा है।

10) जिन लोगों के उपकार नहीं भुलाये गये हैं, उनके नाम यहाँ दिये जायेंगे।

11) उन्होनें जो सम्पत्ति छोड़ी है, वह उनके वंशजों में निहित है।

12) उनके वंशज आज्ञाओें का पालन करते हैं

13) और उनके कारण उनकी सन्तति भी। उनका वंश सदा बना रहेगा और उनकी कीर्ति कभी नहीं मिटेगी।



सुसमाचार : मारकुस 11:11-26



11) ईसा ने येरूसालेम पहुँच कर मन्दिर में प्रवेश किया। वहाँ सब कुछ अच्छी तरह देख कर वह अपने शिष्यों के साथ बेथानिया चले गये, क्योंकि सन्ध्या हो चली थी।

12) दूसरे दिन जब वे बेथानिया से आ रहे थे, तो ईसा को भूख लगी।

13) वे कुछ दूरी पर एक पत्तेदार अंजीर का पेड़ देख कर उसके पास गये कि शायद उस पर कुछ फल मिलें; किन्तु पास आने पर उन्होंने पत्तों के सिवा और कुछ नहीं पाया, क्योंकि वह अंजीर का मौसम नहीं था।

14) ईसा ने पेड़ से कहा, "फिर कभी कोई तेरे फल न खाये"। उनके शिष्यों ने उन्हें यह कहते सुना।

15) वे येरूसालेम पहुँचे। मन्दिर में प्रवेश कर ईसा वहाँ से बेचने और ख़रीदने वालों को बाहर निकालने लगे। उन्होंने सराफ़ों की मेज़ें और कबूतर बेचने वालों की चैकियाँ उलट दीं

16) और वे किसी को भी घड़ा लिये मन्दिर से हो कर आने-जाने नहीं देते थे।

17) उन्होंने, लोगों को शिक्षा देते हुए कहा, "क्या यह नहीं लिखा है- मेरा घर सब राष्ट्रों के लिए प्रार्थना का घर कहलायेगा; परन्तु तुम लोगों ने उसे लुटेरों का अड्डा बनाया है"।

18) महायाजकों तथा शास्त्रियों को इसका पता चला और वे ईसा के सर्वनाश का उपाय ढूँढ़ते रहे। वे उन से डरते थे, क्योंकि लोग मन्त्रमुग्ध हो कर उनकी शिक्षा सुनते थे।

19) सन्ध्या हो जाने पर वे शहर के बाहर चले जाते थे।

20) प्रातः जब वे उधर से आ रहे थे, तो शिष्यों ने देखा कि अंजीर का वह पेड़ जड़ से सूख गया है।

21) पेत्रुस को वह बात याद आयी और उसने कहा, "गुरुवर! देखिए, अंजीर का वह पेड़, जिसे आपने शाप दिया था, सूख गया है"।

22) ईसा ने उन्हें उत्तर दिया, "ईश्वर में विश्वास करो।

23) मैं तुम लोगों से यह कहता हूँ - यदि कोई इस पहाड़ से यह कहे, ’उठ, समुद्र में गिर जा’ , और मन में सन्देह न करे, बल्कि यह विश्वास करे कि मैं जो कह रहा हूँ, वह पूरा होगा, तो उसके लिए वैसा ही हो जायेगा।

24) इसलिए मैं तुम से कहता हूँ - तुम जो कुछ प्रार्थना में माँगते हो, विश्वास करो कि वह तुम्हें मिल गया है और वह तुम्हें दिया जायेगा।

25) "जब तुम प्रार्थना के लिए खड़े हो और तुम्हें किसी से कोई शिकायत हो, तो क्षमा कर दो,

26) जिससे तुम्हारा स्वर्गिक पिता भी तुम्हारे अपराध क्षमा कर दे।"


📚 मनन-चिंतन


आज के सुसमाचार को जब हम ध्यान से समझेंगे तो हमे पता चलेगा कि आज के सुसमाचार के अंश में तीन भाग हैः पहला- अंजीर पेड़ और येसु के बीच संवाद, दूसरा- येरूसालेम मंदिर में येसु द्वारा बेचने और खरीददारों को बाहर निकालना और तीसरा- विश्वास के विषय में शिक्षा।

पहले घटना में प्रभु येसु अंजीर के पेड़ से फल न मिलने के कारण कहते है, ’फिर कभी कोई तेरे फल न खायें’। प्रभु फल की आशा के साथ उस अंजीर के पेड़ के पास गये जो पत्तेदार था यह सोच कर कि जिसमें पत्ते लगें है उसमें फल भी जरूर होगा, अक्सर अंजीर के पेड़ मंे पतझड़ के बाद जब पत्ते आ जाते है तब उसमें फल के अंकुर भी आ जाते है। जब येसु को वह नही मिला तो वह नाखुश हो जाते है। प्रभु हममें भी न केवल पत्ते परंतु फल भी देखना चाहते हैं। वह चाहते है कि हम न केवल बातें करें परंतु अपने जीवन में फल भी उत्पन्न करें।

दूसरी घटना में प्रभु येसु येरुसालेम मंदिर से बेचने और खरीददारों को बहार निकाल देतें है। प्रभु का मंदिर एक पवित्र जगह है जहॉं पर आराधना, प्रार्थना तथा बलि चढ़ायी जाती है। ऐसे पवित्र स्थान को कारोबार के लिए इस्तेमाल करना वहॉं पर हो रहें पवित्रता के कार्यो की अवहेलना है। हमें हर हालत में मंदिर की गरिमा और पवित्रता को बनाये रखना चाहिए।

तीसरी घटना में प्रभु येसु विश्वास का महत्व शिष्यों को समझाते है और कहते है, ‘तुम जो कुछ प्रार्थना में मॉंगते हो, विश्वास करों कि वह तुम्हें मिल गया है और वह तुम्हें दिया जायेगा’। हमारी प्रार्थनाआंे में विश्वास का होना बहुत जरूरी है।

आईये हम प्रार्थना करें कि हम अपने जीवन में फल उत्पन्न करें, गिरजाघरों और अपने शरीर रूपी मंदिर को पवित्र बनाये रखें तथा हमेंशा विश्वास के साथ प्रार्थना करें। आमेन!



📚 REFLECTION



When we will understand today’s gospel carefully then we will know that today’s gospel passage has got three parts: First- The conversation between fig tree and Jesus, Second- Jesus driving out sellers and buyers in the Jerusalem Temple and Third- Teaching about faith.

In First incident because of not receiving fruit from the fig trees Jesus says, ‘May no one ever eat fruit from you again.’ Lord Jesus went to the fig tree which was with leaves hoping to get the fruit from it thinking that if leaves are there then there will be fruit also. Usually after the leaf shed when leaves come in the fig tree then the bud of fruit also comes. When Jesus did not get that then he was sad. Lord doesn’t only want leaves in us but also the fruit. He wants that we not only talk about but bear fruits in our lives.

In Second incident Lord Jesus chases away the buyers and sellers from the Jerusalem temple. God’ temple is a holy place where prayer and worship and sacrifice are being done. Using Like this holy place for business is a disregard to the sacred work that is going on there. With all means we need to keep up the dignity and holiness of the Temple.

In the Third incident Lord Jesus make the disciples to understand the importance of faith and says, ‘Whatever you ask for in prayer, believe that you have received it, and it will be yours’. Faith is very necessary to have in our prayers.

Let’s pray that we may always bear fruit in our lives, keep holy the churches and our bodies which are like temple and always pray with faith. Amen!

 -Br Biniush Topno


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गुरुवार, 27 मई, 2021 वर्ष का आठवाँ सामान्य सप्ताह

गुरुवार, 27 मई, 2021

वर्ष का आठवाँ सामान्य सप्ताह

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पहला पाठ : प्रवक्ता ग्रन्थ 42:15-25


15) अब मैं प्रभु के कार्यों का स्मरण करूँगा। मैंने जो देखा है, उसका बखान करूँगा। प्रभु ने अपने शब्द द्वारा अपने कार्य सम्पन्न किये और अपनी इच्छा के अनुसार निर्णय किया।

16) सूर्य सब कुछ आलोकित करता है समस्त सृष्टि प्रभु की महिमा से परिपूर्ण है।

17) स्वर्गदूतों को भी यह सामर्थ्य नहीं मिला है कि वे उन सब महान् कार्यो का बखान करें, जिन्हें सर्वशक्तिमान् प्रभु ने सुस्थिर कर दिया है, जिससे विश्वमण्डल उसकी महिमा पर आधारित हो।

18) वह समुद्र और मानव हृदय की थाह लेता और उनके सभी रहस्य जानता है;

19) क्योंकि सर्वोच्च प्रभु सर्वज्ञ है और भविष्य भी उस से छिपा हुआ नहीं। वह भूत और भविष्य, दोनो को प्रकाश में लाता और गूढ़तम रहस्यों को प्रकट करता है।

20) वह हमारे सभी विचार जानता है, एक शब्द भी उस से छिपा नहीं रहता।

21) उसकी प्रज्ञा के कार्य सुव्यवस्थित हैं; क्योंकि वह अनादि और अनन्त है। उस में न तो कोई वृद्धि है।

22) और न कोई ह्रास और उसे किसी परामर्शदाता की आवश्यकता नहीं।

23) उसकी सृष्टि कितनी रमणीय है! हम उसकी झलक मात्र देख पाते हैं।

24) उसके समस्त कार्य अनुप्रमाणित और चिरस्थायी हैं; उसने जो कुछ बनाया है, वह उसका उद्देश्य पूरा करता है।

25) सब चीजें दो-दो प्रकार की होती हैं, एक दूसरी से ठीक विपरीत। उसने कुछ भी व्यर्थ नहीं बनाया।


सुसमाचार : मारकुस 10:46-52


46) वे येरीख़ो पहुँचे। जब ईसा अपने शिष्यों तथा एक विशाल जनसमूह के साथ येरीख़ो से निकल रहे थे, तो तिमेउस का बेटा बरतिमेउस, एक अन्धा भिखारी, सड़क के किनारे बैठा हुआ था।

47) जब उसे पता चला कि यह ईसा नाज़री हैं, तो वह पुकार-पुकार कर कहने लगा, "ईसा, दाऊद के पुत्र! मुझ पर दया कीजिए"!

48) बहुत-से लोग उसे चुप करने के लिए डाँटते थे; किन्तु वह और भी जोर से पुकारता रहा, "दाऊद के पुत्र! मुझ पर दया कीजिए"।

49) ईसा ने रुक कर कहा, "उसे बुलाओ"। लोगों ने यह कहते हुए अन्धे को बुलाया, "ढ़ारस रखो। उठो! वे तुम्हें बुला रहे हैं।"

50) वह अपनी चादर फेंक कर उछल पड़ा और ईसा के पास आया।

51) ईसा ने उस से पूछा, "क्या चाहते हो? मैं तुम्हारे लिए क्या करूँ?" अन्धे ने उत्तर दिया, "गुरुवर! मैं फिर देख सकूँ"।

52) ईसा ने कहा, "जाओ, तुम्हारे विश्वास ने तुम्हारा उद्धार किया है"। उसी क्षण उसकी दृष्टि लौट आयी और वह मार्ग में ईसा के पीछे हो लिया।


📚 मनन-चिंतन


विश्वास हमारे लिए वह उपहार है जिसके जरिये हम अपने जीवन में चमत्कार देख सकते हैं। बाईबिल एक विश्वास की कहानी है जो हमें प्रभु में विश्वास करने के लिए मदद करती है। बाईबिल में कई ऐसी घटनाओं का विवरण है जहॉं पर विश्वास के कारण चिन्ह् और चमत्कार प्रकट होते है। प्रभु येसु मत्ती 17ः20 में कहते है, ’’यदि तुम्हारा विश्वास राई के दाने के बराबर भी हो और तुम इस पहाड़ से यह कहो, ’यहॉं से वहॉं तक हट जा,’ तो यह हट जायेगा; और तुम्हारे लिए कुछ भी असम्भव नहीं होगा।’’ जो प्रभु में विश्वास करते है उनके लिए सबकुछ सम्भव है।

आज के सुसमाचार में जो चमत्कार का विवरण है उसकी नीव भी विश्वास ही है जहॉं पर प्रभु येसु उस अन्धे भिखारी, बरतिमेउस से कहते है, ’’जाओ, तुम्हारे विश्वास ने तुम्हारा उद्धार किया है’’। जब विश्वास हमारे जीवन में एक सुनहरा उपहार है तो हम विश्वास में डगमगा क्यों जाते हैं? इसका उत्तर यह है कि जब कभी हम अपनी दृष्टि या अपना भरोसा येसु से छोड़कर दुनियाई चीज़ों में लगाते है तब हम विश्वास में कमजोर होते जाते है, जिस प्रकार पेत्रुस जब तक येसु में दृष्टि लगाये हुए था वह पानी में चल रहा था परंतु जब वह जैसे ही अपनी दृष्टि येसु से हटाकर लहरों पर डालता है तो वह डूबने लगता है।

आईये हम प्रभु येसु में दृष्टि लगाये रखें जिससे हमारा विश्वास मजबूत बना रहें और अपने जीवन में प्रभु के उपकारों और चमत्कारों को प्रकट होते देख सकें। आमेन!



📚 REFLECTION



Faith is that gift with which we can see wonders happening in our lives. Bible is the story of faith which helps us to believe in Jesus. In the Bible there are so many accounts where signs and wonders happened due to faith. Lord Jesus says in Mt 17:20, “For truly I tell you, if you have faith the size of a mustard seed, you will say to this mountain, ‘Move from here to there,’ and it will move; and nothing will be impossible for you.” Those who believe in God everything is possible for them.

In today’s gospel where the description of miracle is given has also faith as its foundation where Lord Jesus says to the blind beggar Bartimaeus, “Go, your faith has made you well”. When faith is a golden gift for us then why do we waver in our faith? The only reason for this is that whenever we put our eyes or trust from Jesus to worldly things then we become weak in faith, as Peter until when he put his eyes on Jesus, he was walking on the water but as soon as he put his eyes from Jesus to the strong wind he began to sink.

Let’s put our eyes on Jesus so that our faith may remain strong and we may see many signs and wonders of God in our lives. Amen!


 -Br Biniush Topno


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बुधवार, 26 मई, 2021 वर्ष का आठवाँ सामान्य सप्ताह

 

बुधवार, 26 मई, 2021

वर्ष का आठवाँ सामान्य सप्ताह

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पहला पाठ : प्रवक्ता ग्रन्थ 36:1,4-5, 10-

17

1) सर्वेश्वर प्रभु! हम पर दया कर, हमें अपनी करुणा की ज्योति दिखा।

4) जिस तरह तूने उनके सामने हम पर अपनी पवित्रता को प्रदर्शित किया, उसी तरह उन में अपनी महिमा को हमारे सामने प्रदर्शित कर।

5) प्रभु! वे तुझे उसी प्रकार जान जायें, जिस प्रकार हम जान गये कि तेरे सिवा और कोई ईश्वर नहीं।

10) विलम्ब न कर, निश्चित समय याद कर, जिससे लोग तेरे महान् कार्यों का बखान करें।

11) जो भागना चाहे, वह आग में भस्म हो जाये और जो लोग तेरी प्रजा पर अत्याचार करते हैं, उनका सर्वनाश हो।

12) विरोधी शासकों का सिर तोड़ डाला, जो कहते हैं, "हमारे बराबर कोई नहीं"।

13) समस्त याकूबवंशियों को एकत्र कर, उन्हें पहले की तरह उनकी विरासत लौटा।

14) प्रभु! उस प्रजा पर दया कर, जो तेरी कहलाती है, इस्राएल पर, जिसे तूने अपना पहलौठा माना है।

15) अपने पवित्र नगर, अपने निवासस्थान येरूसालेम पर दया कर।

16) अपने स्तुतिगान से सियोन को भर दे और अपनी महिमा से अपने मन्दिर को।

17) अपनी पहली कृति का समर्थन कर और अपने नाम पर घोषित भविष्य वाणियाँ पूरी कर।



सुसमाचार : मारकुस 10:32-45



32) वे येरूसालेम के मार्ग पर आगे बढ़ रहे थे। ईसा शिष्यों के आगे-आगे चलते थे। शिष्य बहुत घबराये हुए थे और पीछे आने वाले लोग भयभीत थे। ईसा बारहों को फिर अलग ले जा कर उन्हें बताने लगे कि मुझ पर क्या-क्या बीतेगी,

33) "देखो, हम येरूसालेम जा रहे हैं। मानव पुत्र महायाजकों और शास्त्रियों के हवाले कर दिया जायेगा। वे उसे प्राणदण्ड की आज्ञा सुना कर गै़र-यहूदियों के हवाले कर देंगे,

34) उसका उपहास करेंगे, उस पर थूकेंगे, उसे कोड़े लगायेंगे और मार डालेंगे; लेकिन तीसरे दिन वह जी उठेगा।"

35) ज़ेबेदी के पुत्र याकूब और योहन ईसा के पास आ कर बोले, "गुरुवर ! हमारी एक प्रार्थना है। आप उसे पूरा करें।"

36) ईसा ने उत्तर दिया, "क्या चाहते हो? मैं तुम्हारे लिए क्या करूँ?"

37) उन्होंने कहा, "अपने राज्य की महिमा में हम दोनों को अपने साथ बैठने दीजिए- एक को अपने दायें और एक को अपने बायें"।

38) ईसा ने उन से कहा, "तुम नहीं जानते कि क्या माँग रहे हो। जो प्याला मुझे पीना है, क्या तुम उसे पी सकते हो और जो बपतिस्मा मुझे लेना है, क्या तुम उसे ले सकते हो?"

39) उन्होंने उत्तर दिया, "हम यह कर सकते हैं"। इस पर ईसा ने कहा, "जो प्याला मुझे पीना है, उसे तुम पियोगे और जो बपतिस्मा मुझे लेना है, उसे तुम लोगे;

40) किन्तु तुम्हें अपने दायें या बायें बैठने देने का अधिकार मेरा नहीं हैं। वे स्थान उन लोगों के लिए हैं, जिनके लिए वे तैयार किये गये हैं।"

41) जब दस प्रेरितों को यह मालूम हुआ, तो वे याकूब और योहन पर क्रुद्ध हो गये।

42) ईसा ने उन्हें अपने पास बुला कर कहा, "तुम जानते हो कि जो संसार के अधिपति माने जाते हैं, वे अपनी प्रजा पर निरंकुश शासन करते हैं और सत्ताधारी लोगों पर अधिकार जताते हैं।

43) तुम में ऐसी बात नहीं होगी। जो तुम लोगों में बड़ा होना चाहता है, वह तुम्हारा सेवक बने

44) और जो तुम में प्रधान होना चाहता है, वह सब का दास बने;

45) क्योंकि मानव पुत्र भी अपनी सेवा कराने नहीं, बल्कि सेवा करने और बहुतों के उद्धार के लिए अपने प्राण देने आया है।"


📚 मनन-चिंतन


’’मैं स्वभाव से नम्र और विनीत हूॅ।’’(मत्ती 11:29) प्रभु का यह वचन केवल शाब्दिक ही नहीं परंतु व्यवहारिक भी था। उन्होने अपने विनम्रता का प्रमाण शिष्यों के पैरों को धो कर दिया और से भी अधिक अपने ईश्वरीय महिमा को छोड़ इस संसार में एक साधारण मनुष्य के रूप में जीना उनके विनम्रता का सबसे बड़ा उदाहरण हैं।

प्रभु ने कभी भी अपने को बड़ा नहीं समझा और इस कथन को वे अपने शिष्यों को शिक्षा के रूप में देते है कि, ‘‘जो तुम लोगों में बड़ा होना चाहता है, वह तुम्हारा सेवक बने और जो तुम में प्रधान होना चाहता है, वह सब का दास बने’’ यह शिक्षा प्रभु येसु तब देते है जब जेबेदी के पुत्र याकुब और योहन येसु के पास आकर उनके राज्य में दाये और बायें बैठने का कृपा मॉंगते है। प्रभु येसु उनके सांसारिक मन को जान जाते है वे जानते थे कि वे ईश्वर के राज्य को इस संसार के अनुसार समझ रहें थे जहॉं राजा और उनका राज्य होता है, सेना और सेनापति होते है इसलिए वे चाह रहे थे कि इस संसार में वे येसु के राज्य में दाये और बायें बैठने का वरदान मिलें।

प्रभु येसु उन्हे इस सांसारिक राजाओं और उनके शासन में होने वाली चीजों के बारे में अवगत कराते हुए कहते है कि तुममें ऐसी बात नहंी होगी। प्रभु शिष्यों में लोगो पर शासन करने वाला व्यक्ति नहीं परंतु विनम्रता से लोगों की सेवा करने वाला व्यक्ति के रूप में देखना चाहते थे। यह जीवन में हमें जो भी पद या अधिकार मिला है- एक परिवार में या समाज में, कार्यालय में या कलीसिया में, यह एक अवसर है प्रभु येसु के अनुयायी सिद्ध होने का जब हम विनम्रता पूर्वक अपनी सेवाएॅं देते है न कि अपने अहम् पर हावी होकर निरंकुश शासन करने का या सत्ताधारी लोगो पर अधिकार जताने का।

आईये हम प्रार्थना करें कि हम दिन प्रतिदिन विनम्र सेवा में आगे बढ़े। आमेन!



📚 REFLECTION


“I am gentle and humble in heart” (Mt 11:29). These words of Jesus were not merely words but it was very practical in his life. He demonstrated his humility by washing the feet of the disciples and more than that leaving the divine glory and living like a simple human person on this earth was the greatest example of his humility.

Lord Jesus never showed himself a great person and this statement he taught the disciples as a teaching that, “whoever wishes to become great among you must be your servant, and whoever wishes to be first among you must be slave of all.” This teaching was given by Jesus when James and John, the sons of Zebedee came to Jesus for asking the favour to sit on the right and left in his kingdom. Lord Jesus knew the worldly mind in them. He knew that they were thinking the Kingdom of God according to this world, where there is King and his kingdom, commanders and army that is why they were seeking to sit on the right and left in this world when Jesus kingdom will be established.

Lord Jesus making them aware of the things that happens in the worldly king and in their regime, tells them that it should not so happen among you. Lord Jesus wanted to see them not as a person ruling over the people but as a person serving the people. In this life whatever post or power we have received- whether in the family or in the society, in the office or in the Church, this is an opportunity to proof ourselves to be Jesus’ followers by giving our service to the people and not to be overcome by the ego and lord it over them or be tyrants over them.

Lets’ pray that day by day we may grow in humble service. Amen!


 -Br Biniush Topno



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