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वर्ष का अठारहवाँ इतवार 31 जुलाई 2022, इतवार

 

31 जुलाई 2022, इतवार

वर्ष का अठारहवाँ इतवार



पहला पाठ : उपदेशक ग्रन्थ 1:2;2:21-23


2) उपदेशक कहता है, "व्यर्थ ही व्यर्थ; व्यर्थ ही व्यर्थ; सब कुछ व्यर्थ है।"

2:21) मनुष्य समझदारी, कौशल और सफलता से काम करने के बाद जो कुछ एकत्र कर लेता है, उसे वह सब ऐसे व्यक्ति के लिए छोड़ देना पड़ता है, जिसने उसके लिए कोई परिश्रम नहीं किया है। यह भी व्यर्थ और बड़े दुर्भाग्य की बात है;

22) क्योंकि मनुष्य को कड़ी धूप में कठिन परिश्रम करने के बदले क्या मिलता है ?

23) उसके सभी दिन सचमुच दुःखमय हैं और उसका सारा कार्यकलाप कष्टदायक। रात को उसके मन को शान्ति नहीं मिलती। यह भी व्यर्थ है।


दूसरा पाठ : कलोसियों 3:1-5,9-11


1) यदि आप लोग मसीह के साथ ही जी उठे हैं- जो ईश्वर के दाहिने विराजमान हैं- तो ऊपर की चीजें खोजते रहें।

2) आप पृथ्वी पर की नहीं, ऊपर की चीजों की चिन्ता किया करें।

3) आप तो मर चुके हैं, आपका जीवन मसीह के साथ ईश्वर में छिपा हुआ है।

4) मसीह ही आपका जीवन हैं। जब मसीह प्रकट होंगे, तब आप भी उनके साथ महिमान्वित हो कर प्रकट हो जायेंगे।

5) इसलिए आप लोग अपने शरीर में इन बातों का दमन करें, जो पृथ्वी की हैं, अर्थात् व्यभिचार, अशुद्धता, कामुकता, विषयवासना और लोभ का, जो मूर्तिपूजा के सदृश है।

9) कभी एक दूसरे से झूठ नहीं बोलें। आप लोगों ने अपना पुराना स्वभाव और उसके कर्मों को उतार कर

10) एक नया स्वभाव धारण किया है। वह स्वभाव अपने सृष्टिकर्ता का प्रतिरूप बन कर नवीन होता रहता और सत्य के ज्ञान की ओर आगे बढ़ता है, जहाँ पहुँच कर कोई भेद नहीं रहता,

11) जहाँ न यूनानी है या यहूदी, न ख़तना है या ख़तने का अभाव, न बर्बर है, न स्कूती, न दास और न स्वतन्त्र। वहाँ केवल मसीह हैं, जो सब कुछ और सब में हैं।


सुसमाचार : लूकस 12:13-21



13) भीड़ में से किसी ने ईसा से कहा, "गुरूवर! मेरे भाई से कहिए कि वह मेरे लिए पैतृक सम्पत्ति का बँटवारा कर दें"।

14) उन्होंने उसे उत्तर दिया, "भाई! किसने मुझे तुम्हारा पंच या बँटवारा करने वाला नियुक्त किया?"

15) तब ईसा ने लोगों से कहा, "सावधान रहो और हर प्रकार के लोभ से बचे रहो; क्योंकि किसी के पास कितनी ही सम्पत्ति क्यों न हो, उस सम्पत्ति से उसके जीवन की रक्षा नहीं होती"।

16) फिर ईसा ने उन को यह दृष्टान्त सुनाया, "किसी धनवान् की ज़मीन में बहुत फ़सल हुई थी।

17) वह अपने मन में इस प्रकार विचार करता रहा, ’मैं क्या करूँ? मेरे यहाँ जगह नहीं रही, जहाँ अपनी फ़सल रख दूँ।

18) तब उसने कहा, ’मैं यह करूँगा। अपने भण्डार तोड़ कर उन से और बड़े भण्डार बनवाऊँगा, उन में अपनी सारी उपज और अपना माल इकट्ठा करूँगा

19) और अपनी आत्मा से कहूँगा-भाई! तुम्हारे पास बरसों के लिए बहुत-सा माल इकट्ठा है, इसलिए विश्राम करो, खाओ-पिओ और मौज उड़ाओ।’

20) परन्तु ईश्वर ने उस से कहा, ’मूर्ख! इसी रात तेरे प्राण तुझ से ले लिये जायेंगे और तूने जो इकट्ठा किया है, वह अब किसका ह़ोगा?’

21) यही दशा उसकी होती है जो अपने लिए तो धन एकत्र करता है, किन्तु ईश्वर की दृष्टि में धनी नहीं है।"


📚 मनन-चिंतन


संपत्ति के बिना एक जीवन

मूर्ख धनी का दृष्टांत के दो प्रारूप हैं। सबसे पहले हमें अपना जीवन धन के संचय के लिए समर्पित नहीं करना है। दूसरा तथ्य यह है कि, धन को अधिक मात्रा में एकत्र करना कोई ईश्वर का आशीर्वाद नहीं है। हम दूसरों के जीवन में एक आशीष बनकर धन्य हैं और हम ईश्वर के राज्य का निर्माण करने के लिए धन्य है। स्तोत्रकार कहता है कि, यदि हमारा धन बढ़ता है, तो हमें उस पर अपना मन नहीं लगाना चाहिये। वचन कहता है अपनी वृद्धि के पहले फल के साथ ईश्वर का सम्मान करो।





📚 REFLECTION



A Life without Possessions

The meaning of Parable of the Rich Fool is twofold. First, we are not to devote our lives to the accumulation of wealth. The second is the fact that we are not blessed by God to hoard our wealth to ourselves. We are blessed to be a blessing in the lives of others and we are blessed to build the kingdom of God. The Psalmist says that if our riches increase, we are not to set our hearts upon them (Psalm 62:10). The Bible says that the one who gives freely grows all the richer (Proverbs 11:24). Finally, the Bible says we are to honour God with the first fruits of our increase (Proverbs 3:9–10). The point is clear: if we honour God with what He has given us, He will bless us with more so that we can honour Him with more. So, if God has blessed you with material wealth “set not your heart on it” and “be rich towards God”.




मनन-चिंतन - 2



आज के पाठों पर अगर हम गहराई से मनन-चिंतन करें तो ये बहुतों के ह्रदय में खटकने वाले पाठ हैं। विशेष रूप। से आज के पहले पाठ और सुसमाचार का सन्देश हमें हिलाकर रख देता है। मनुष्य अपने आप को पूर्ण बनाने के लिये शुरू से ही बहुत मेहनत करता है। जब बच्चे का जन्म होता है तो उसके माता-पिता चाहते हैं कि उसकी परवरिश सर्वश्रेष्ठ तरीके से हो। अच्छे से अच्छे और महँगे से महँगे स्कूल में उसका दाखिला करायेंगे। उसके लिए बचपन में ही यह फ़ैसला हो जाता है कि बड़ा होकर उनका बेटा या उनकी बेटी क्या बनेगी। स्कूल के कार्य-कलाप के अलावा और भी तरह-तरह के क्लासें जैसे डांस, कराटे, संगीत, कला इत्यादि का भी कोर्स करवाते हैं। इतना ही नहीं रेगुलर कोचिंग भी भेजते हैं। और आजकल कोचिंग वाले इतवार के दिन भी क्लास लगाते हैं, और उतना ही नहीं इतवार के दिन ही विशेष टेस्ट होता है। माता-पिता भी चाहते हैं कि उनका बच्चा जितना हो सके आगे बढ़े, जितना हो सके उतना ज्ञान ग्रहण करे, इसके चाहे उन्हें कितना भी कष्ट उठाना पड़े और कितने भी त्याग करने पड़ें। आखिर ज़माना ही कम्पटीशन का है। और इसलिए वे अक्सर भूल जाते हैं कि इतवार का दिन प्रभु का दिन है, प्रभु के लिए है।

आगे चलकर वही बच्चा अपने माता-पिता को हर चीज में पीछे छोड़ देता है, ज्ञान में, आत्मविश्वास में, सम्मान में, आर्थिक दशा में। और माता-पिता को अपने बच्चों से ‘पिछड़ने’ पर गर्व होता है। उनको लगता है कि अगर उनके बच्चे ने कुछ हासिल कर लिया तो उनकी साधना सफल हुई। लेकिन ऐसे में कोई “उपेदशक ग्रन्थ” के शब्दों में उनसे कहे ““व्यर्थ ही व्यर्थ; व्यर्थ ही व्यर्थ; सब कुछ व्यर्थ है”।” (उपदेशक 1:2) या फिर सुसमाचार के शब्दों में उनसे कहे “”मूर्ख! इसी रात तेरे प्राण तुझसे ले लिये जायेंगे, और तूने जो इकठ्ठा किया है, वह अब किसका होगा?”” (लूकस 12:20)। उन जैसे माता-पिता के लिए प्रभु के ये वचन ज़रूर खटकेंगे, ह्रदय में ज़रूर चुभेंगे। आखिर कौन अपने जीवनभर की तपस्या और त्याग को व्यर्थ जाने देगा?

मनुष्य का स्वभाव यही है कि वह इस जीवन को जितना हो सके महान बनाना चाहता है। अधिक से अधिक सुविधाएँ जुटाना चाहता है, और मनुष्य के इस स्वभाव को समझने के लिए बहुत से विचारकों ने अपने विचार रखे और अध्ययन किया है और इसे समझाने की कोशिश की है, लेकिन कोई भी, मनुष्य के इस स्वभाव को यथोचित रूप से नहीं समझा पाया है। पवित्र बाइबिल हमें समझाती है कि ईश्वर ने हमें अपने प्रतिरूप में बनाया है, (उत्पत्ति 1:27), और पाप के कारण हमने ईश्वर की उस छवि को धूमिल कर लिया है। तो हमारे जीवन का जो मुख्य उद्देश्य होना चाहिए वो यह कि हम उन्हें ईश्वर के प्रतिरूप में बनायें। वास्तव में हमारे हर प्रयास, हर साधना, हर तपस्या का उद्देश्य यही होना चाहिए। लेकिन जब हमारा उद्देश्य इसे छोड़कर संसारिकता में आगे बढ़ना हो जाता है, तो हम भटक जाते हैं, और ऐसी स्तिथि में अगर यह कहा जाये कि हम जो भी कर रहे हैं, वह व्यर्थ है, तो इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। क्योंकि हमारा वास्तविक जीवन सांसारिक जीवन नहीं बल्कि स्वर्गीय जीवन है। सांसारिक जीवन अस्थाई है। (देखें मत्ती 6:19)।

बप्तिस्मा के द्वारा हमारा नया जन्म हुआ है और इसलिए हम संसार से अलग हैं (देखें योहन 15:19)। प्रभु येसु ने हमें संसार में से चुन लिया है। और अगर हमें अपने जीवन को सार्थक बनाना है तो स्वर्गीय चीजों की खोज में लगे रहना है, पृथ्वी पर की नहीं। (कलोसियों 3:2)। कोई भी व्यक्ति अगर अपना जीवन ईश्वर के लिए, दूसरों की सेवा के लिए जीता है उसका जीवन कभी व्यर्थ नहीं जाता, अनेकों संतों का जीवन इस बात का जीता-जागता उदाहरण है। हम ईश्वर से प्रार्थना करें कि ईश्वर हमें सार्थक जीवन जीने में मदद करे और आशीष प्रदान करे। आमेन.


 -Br. Biniush Topno


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Praise the Lord!

24 जुलाई 2022, इतवार वर्ष का सत्रहवाँ इतवार

 

24 जुलाई 2022, इतवार

वर्ष का सत्रहवाँ इतवार




पहला पाठ : उतपत्ति 18:20-32


20) इसलिए प्रभु ने कहा, ''सोदोम और गोमोरा के विरुद्ध बहुत ऊँची आवाज़ उठ रही है और उनका पाप बहुत भारी हो गया है।

21) मैं उतर कर देखना और जानना चाहता हूँ कि मेरे पास जैसी आवाज़ पहुँची है, उन्होंने वैसा किया अथवा नहीं।''

22) वे दो पुरुष वहाँ से विदा हो कर सोदोम की ओर चले गये। प्रभु इब्राहीम के साथ रह गया और

23) इब्राहीम ने उसके निकट आ कर कहा, ''क्या तू सचमुच पापियों के साथ-साथ धर्मियों को भी नष्ट करेगा?

24) नगर में शायद पचास धर्मी हैं। क्या तू उन पचास धर्मियों के कारण, जो नगर में बसते हैं, उसे नहीं बचायेगा?

25) क्या तू पापी के साथ-साथ धर्मी को मार सकता है? क्या तू धर्मी और पापी, दोनों के साथ एक-सा व्यवहार कर सकता है? क्या समस्त पृथ्वी का न्यायकर्ता अन्याय कर सकता है?''

26) प्रभु ने उत्तर दिया, ''यदि मुझे नगर में पचास धर्मी भी मिलें, तो मैं उनके लिए पूरा नगर बचाये रखूँगा''।

27) इस पर इब्राहीम ने कहा, ''मैं तो मिट्ठी और राख हूँ; फिर भी क्या मैं अपने प्रभु से कुछ कह सकता हूँ?

28) हो सकता है कि पचास में पाँच कम हों। क्या तू पाँच की कमी के कारण नगर नष्ट करेगा?'' उसने उत्तर दिया, ''यदि मुझे नगर में पैंतालीस धर्मी भी मिलें, तो मैं उसे नष्ट नहीं करूँगा''।

29) इब्राहीम ने फिर उस से कहा, ''हो सकता है कि वहाँ केवल चालीस मिलें''। प्रभु ने उत्तर दिया, ''चालीस के लिए मैं उसे नष्ट नहीं करूँगा''।

30) तब इब्राहीम ने कहा, ''मेरा प्रभु क्रोध न करें और मुझे बोलने दें। हो सकता है कि वहाँ केवल तीस मिलें।'' उसने उत्तर दिया, ''यदि मुझे वहाँ तीस भी मिलें, तो मैं उसे नष्ट नहीं करूँगा''।

31) इब्राहीम ने कहा, ''तू मेरी धृष्टता क्षमा कर - हो सकता है कि केवल बीस मिले'' और उसने उत्तर दिया, ''बीस के लिए मैं उसे नष्ट नहीं करूँगा''।

32) इब्राहिम ने कहा, ''मेरा प्रभु बुरा न माने तो में एक बार और निवेदन करूँगा - हो सकता है कि केवल दस मिलें'' और उसने उत्तर दिया, ''दस के लिए भी में उसे नष्ट नहीं करूँगा।



दुसरा पाठ : कलोसियों 2:12-14



12) आप लोग बपतिस्मा के समय मसीह के साथ दफ़नाये गये और उन्हीं के साथ पुनर्जीवित भी किये गये हैं, क्योंकि आप लोगों ने ईश्वर के सामर्थ्य में विश्वास किया, जिसने उन्हें मृतकों में से पुनर्जीवित किया।

13) आप लोग पापों के कारण और अपने स्वभाव के ख़तने के अभाव के कारण मर गये थे। ईश्वर ने आप लोगों को मसीह के साथ पुनर्जीवित किया है और हमारे सब अपराधों को क्षमा किया है।

14) उसने नियमों का वह बन्धपत्र, जो हमारे विरुद्ध था, रद्द कर दिया और उसे क्रूस पर ठोंक कर उठा दिया है।



सुसमाचार : लुकस 11:1-13



1) एक दिन ईसा किसी स्थान पर प्रार्थना कर रहे थे। प्रार्थना समाप्त होने पर उनके एक शिष्य ने उन से कहा, "प्रभु! हमें प्रार्थना करना सिखाइए, जैसे योहन ने भी अपने शिष्यों को सिखाया"।

2) ईसा ने उन से कहा, "इस प्रकार प्रार्थना किया करोः पिता! तेरा नाम पवित्र माना जाये। तेरा राज्य आये।

3) हमें प्रतिदिन हमारा दैनिक आहार दिया कर।

4) हमारे पाप क्षमा कर, क्योंकि हम भी अपने सब अपराधियों को क्षमा करते हैं और हमें परीक्षा में न डाल।"

5) फिर ईसा ने उन से कहा, "मान लो कि तुम में कोई आधी रात को अपने किसी मित्र के पास जा कर कहे, ’दोस्त, मुझे तीन रोटियाँ उधार दो,

6) क्योंकि मेरा एक मित्र सफ़र में मेरे यहाँ पहुँचा है और उसे खिलाने के लिए मेरे पास कुछ भी नहीं है’

7) और वह भीतर से उत्तर दे, ’मुझे तंग न करो। अब तो द्वार बन्द हो चुका है। मेरे बाल-बच्चे और मैं, हम सब बिस्तर पर हैं। मैं उठ कर तुम को नहीं दे सकता।’

8) मैं तुम से कहता हूँ - वह मित्रता के नाते भले ही उठ कर उसे कुछ न दे, किन्तु उसके आग्रह के कारण वह उठेगा और उसकी आवश्यकता पूरी कर देगा।

9) "मैं तुम से कहता हूँ - माँगो और तुम्हें दिया जायेगा; ढूँढ़ो और तुम्हें मिल जायेगा; खटखटाओ और तुम्हारे लिए खोला जायेगा।

10) क्योंकि जो माँगता है, उसे दिया जाता है; जो ढूँढ़ता है, उसे मिल जाता है और जो खटखटाता है, उसके लिए खोला जाता है।

11) "यदि तुम्हारा पुत्र तुम से रोटी माँगे, तो तुम में ऐसा कौन है, जो उसे पत्थर देगा? अथवा मछली माँगे, तो मछली के बदले उसे साँप देगा?

12) अथवा अण्डा माँगे, तो उसे बिच्छू देगा?

13) बुरे होने पर भी यदि तुम लोग अपने बच्चों को सहज ही अच्छी चीज़ें देते हो, तो तुम्हारा स्वर्गिक पिता माँगने वालों को पवित्र आत्मा क्यों नहीं देगा?"



📚 मनन-चिंतन



प्रभु, हमें प्रार्थना करना सिखाएँ!

प्रभु की प्रार्थना में पांच याचिकाएँ हैं- पहली दो, ईश्वर संबंधी और तीन हमारी आवश्यकताओं से जुड़ी है। उन तीनों में से प्रत्येक बहुवचन हैं। (हमें दे दो- हमें माफ कर दो-हमें बचाओ) जो विश्वासी समुदाय पर जोर देता है जिसका हम भी हिस्सा हैं। परन्तु मत्त्ती की इस प्रार्थना के संस्करण (मत्ती 6ः9-13) में सात याचिकाएँ सम्मिलित है। येसु सिखाते हैं कि, प्रार्थना में शब्द इतने महत्वपूर्ण नहीं है जितना कि, ईश्वर की दया और अनुकंपा पर हमारा भरोसा। सच्ची प्रार्थना अंततः ईश्वर के प्रति विश्वास और समर्पण के संदर्भ में है। हम पूरी श्रृद्धा और भक्ति से प्रार्थना करें और प्रभु अवश्य हमारी प्रार्थना सुनेंगे और उसका उत्तर देंगे।



📚 REFLECTION



Lord Teach us to Pray!

The Lord’s prayer has five petitions. The first two, have to do with God. The last three, have to do with the fulfillment of our needs. Each of those three is plural (“give us—forgive us—bring us”), emphasizing the community of faith of which we are part. It is interesting that the first two petitions involve adoration and the last three supplication. But Matthew’s version of this prayer (Matthew 6:9-13) includes seven petitions. Jesus teaches that words are not so important in prayer as our trust in the goodness of God. Jesus intended that the words should be taken as a template for prayer, a framework on which one can build a life of conversion and dependence on God. True prayer is ultimately about trust and surrender to God. We trust in his perfect plan and surrender to it. When we do this, we can be assured that the Lord will hear and answer our prayers.





आज के पहले पाठ में हम देखते हैं कि सोदोम और गोमोरा का पाप बहुत भारी हो गया। फलस्वरूप प्रभु ईश्वर उन नगरों पर आकाश से गन्धक और आग बरसा कर उनको नष्ट करना चाह रहे थे। लेकिन वे इस बात को इब्राहीम से छिपाना नहीं चाहते थे। जब प्रभु ने इब्राहीम को इस निर्णय के बारे में बताया, तब इब्राहीम उन नगरों की ओर से ईश्वर के समक्ष उन्हें बचाने के लिए मध्यस्थता करने लगे। ईश्वर से इब्राहीम का सवाल था, “क्या तू सचमुच पापियों के साथ-साथ धर्मियों को भी नष्ट करेगा?” लेकिन वहाँ पर दस धर्मी भी नहीं पाये गये। इस पर इब्राहीम ने भी उनके लिए मध्यस्थता करना छोड दिया।

इब्राहीम एक धर्मी मनुष्य थे। संत याकूब कहते हैं, “धर्मात्मा की भक्तिमय प्रार्थना बहुत प्रभावशाली होती है” (याकूब 5:16) संत पेत्रुस कहते हैं, “प्रभु की कृपादृष्ष्टि धर्मियों पर बनी रहती है और उसके कान उनकी प्रार्थना सुनते हैं, किन्तु प्रभु कुकर्मियों से मुंह फेर लेता है” (1 पेत्रुस 3:12)। सूक्ति ग्रन्थ बताता है, “प्रभु दुष्टों से दूर रहता, किन्तु वह धर्मियों की प्रार्थना सुनता है” (सूक्ति 15:29)। संत योहन का कहना है – “हमें ईश्वर पर यह भरोसा है कि यदि हम उसकी इच्छानुसार उस से कुछ भी मांगते हैं, तो वह हमारी सुनता है” (1योहन 5:14)। प्रभु ईश्वर बार-बार इब्राहीम की प्रार्थना सुनते हैं लेकिन इब्राहीम सोदोम और गोमोरा में कम से कम दस धर्मी पाये जाने की जिस संभावना को अपनी प्रार्थना सुनी जाने के शर्त के रूप में रखा था, वह निराधार पाया गया। तत्पश्चात्‍ इब्राहीम उन नगरों के लिए मध्यस्थता करना ही छोड देते हैं।

एक धर्मी व्यक्ति न केवल अपने लिए बल्कि दूसरों के लिए भी प्रार्थना करता है। धर्मी होने के कारण वह निस्वार्थ प्रेम रखता है तथा दूसरों का ख्याल करता है। कभी-कभी लोगों का अधर्म इतना बढ़ जाता है कि ऐसे लोगों के लिए मध्यस्थता करना भी मुश्किल हो जाता है। प्रभु नबी यिरमियाह से कहते हैं, “तुम अब इस प्रजा के लिए प्रार्थना मत करो। इसके लिए न तो क्षमा-याचना करो और न अनुनय-विनय। मुझ से अनुरोध मत करो, मैं नहीं सुनूँगा। क्या तुम नहीं देखते कि लोग यूदा के नगरों और येरुसालेम की गलियों में क्या कर रहे हैं? बच्चे लकड़ियाँ बटोरते, पिता आग सुलगाते और स्त्रियाँ आटा गूँधती हैं, जिससे ये आकाश की देवी के लिए पूरियाँ पकायें। ये अन्य देवताओं को अर्घ चढ़ाते हैं और इस तरह मेरा क्रोध भड़काते हैं।” (यिरमियाह 7:16-18) “तुम उन लोगों के लिए न तो प्रार्थना करो, न विलाप और न अनुनय-विनय; क्योंकि यदि ये संकट के समय मेरी दुहाई देंगें, तो मैं नहीं सुनूँगा” (यिरमियाह 11:14)। “यदि मूसा और समूएल भी मेरे सामने खड़े हो जाते, तो मेरा हृदय इन लोगों पर तरस न खाता। इन्हें मेरे सामने से हटा दो। ये चले जायें।“ (यिरमियाह 15:1) इस प्रकार कभी-कभी लोग ईश्वर की क्षमा के योग्य नहीं बनते हैं हालांकि प्रभु दयालू और दयासागर हैं।

प्रभु येसु निर्जन स्थानों तथा एकान्त में जाकर प्रार्थना में अपने पिता के साथ समय बिताते हैं। अपने दायित्व तथा अनुभवों के बारे में पिता के साथ परामर्श करने के साथ-साथ वे अपने शिष्यों के लिए विशेष प्रार्थना भी करते हैं। अपने स्वर्गिक पिता को संबोधित करते हुए वे कहते हैं, “मैं उनके लिये विनती करता हूँ। मैं ससार के लिये नहीं, बल्कि उनके लिये विनती करता हूँ, जिन्हें तूने मुझे सौंपा है; क्योंकि वे तेरे ही हैं” (योहन 17:9)। “मैं न केवल उनके लिये विनती करता हूँ, बल्कि उनके लिये भी जो, उनकी शिक्षा सुनकर मुझ में विश्वास करेंगे। सब-के-सब एक हो जायें। पिता! जिस तरह तू मुझ में है और मैं तुझ में, उसी तरह वे भी हम में एक हो जायें, जिससे संसार यह विश्वास करे कि तूने मुझे भेजा। (योहन 17:20-21)

प्रभु येसु जानते थे कि पेत्रुस उनका अस्वीकार करेंगे, फिर भी प्रभु ने उनके लिए प्रार्थना की। “सिमोन! सिमोन! शैतान को तुम लोगों को गेहूँ की तरह फटकने की अनुमति मिली है। परन्तु मैंने तुम्हारे लिए प्रार्थना की है, जिससे तुम्हारा विश्वास नष्ट न हो। जब तुम फिर सही रास्ते पर आ जाओगे, तो अपने भाइयों को भी सँभालोगे।" लेकिन शायद यूदस प्रभु की प्रार्थना के लिए भी योग्य नहीं पाये गये। प्रभु कहते हैं, “तूने जिन्हें मुझे सौंपा है, जब तक मैं उनके साथ रहा, मैंने उन्हें तेरे नाम के सामर्थ्य से सुरक्षित रखा। मैंने उनकी रक्षा की। उनमें किसी का भी सर्वनाश नहीं हुआ है। विनाश का पुत्र इसका एक मात्र अपवाद है, क्योंकि धर्मग्रन्थ का पूरा हो जाना अनिवार्य था।” यह बहुत ही दर्दनाक दशा है कि कोई संतों या धर्मियों की मध्यस्थता के भी क़ाबिल नहीं है।

आज के सुसमाचार में हम देखते हैं कि यह जान कर कि प्रभु की प्रार्थना का उनके तथा दूसरों के ऊपर कितना प्रभाव है, एक दिन उनकी प्रार्थना समाप्त होने पर उनके एक शिष्य ने उन से कहा, "प्रभु! हमें प्रार्थना करना सिखाइए, जैसे योहन ने भी अपने शिष्यों को सिखाया" (लूकस 11:1) जवाब में प्रभु येसु सारे शिष्यगणों को ’पिता हमारे’ प्रार्थना सिखाते हैं। यह एक आदर्श प्रार्थना है जिस से हम जान सकते हैं कि हमें किस प्रकार प्रार्थना करनी चाहिए। जब तक हम सारी मानवजाति को प्रभु ईश्वर के बृहत परिवार के रूप में देख नहीं सकते हैं, तब तक हम यह प्रार्थना नहीं कर सकते हैं। क्योंकि इस प्रार्थना में हम सारी मानवजाति के साथ मिल कर ईश्वर को ’हमारे पिता’ कह कर संबोधित करते हैं। फिर प्रार्थना में हमें ईश्वर के नाम की स्तुति तथा उनके राज्य का स्वागत करते हुए ईश्वर की मर्जी को स्वीकार करना चाहिए। तत्पश्चात हमें दैनिक जीवन के लिए पर्याप्त कृपा की याचना करनी चाहिए। हम सब पापी है। इस प्रार्थाना में हमें यह शिक्षा भी मिलती है कि प्रभु ईश्वर से हमारे अपराधों की क्षमा प्राप्त करने हेतु हमें हमारे अपराधियों को क्षमा करना होगा। इस प्रकार यह उत्कृष्ट प्रार्थना हमारे लिए एक आदर्श प्रार्थना बनती है, सथा ही महत्वपूर्ण शिक्षा भी। आईए, हम इस प्रार्थना को अपनाएं और अर्थपूर्ण ढ़ंग से बोलना सीखें।


 -Br. Biniush Topno


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वर्ष का सोलहवाँ इतवार 17 जुलाई 2022,

 

17 जुलाई 2022, इतवार

वर्ष का सोलहवाँ इतवार



पहला पाठ : उत्पत्ति: 18:1-10



1) इब्राहीम मामरे के बलूत के पास दिन की तेज गरमी के समय अपने तम्बू के द्वार पर बैठा हुआ था कि प्रभु उस को दिखाई दिया।

2) इब्राहीम ने आँख उठा कर देखा कि तीन पुरुष उसके सामने खडे हैं। उन्हें देखते ही वह तम्बू के द्वार से उन से मिलने के लिए दौड़ा और दण्डवत् कर

3) बोला, ''प्रभु! यदि मुझ पर आपकी कृपा हो, तो अपने सेवक के सामने से यों ही न चले जायें।

4) आप आज्ञा दे, तो मैं पानी मंगवाता हूँ। आप पैर धो कर वृक्ष के नीचे विश्राम करें।

5) इतने में मैं रोटी लाऊँगा। आप जलपान करने के बाद ही आगे बढ़ें। आप तो इसलिए अपने सेवक के यहाँ आए हैं।''

6) उन्होंने उत्तर दिया, ''तुम जैसा कहते हो, वैसा ही करो''। इब्राहीम ने तम्बू के भीतर दौड़ कर सारा से कहा ''जल्दी से तीन पसेरी मैदा गूंध कर फुलके तैयार करो''।

7) तब इब्राहीम ने ढोरों के पास दौड़ कर एक अच्छा मोटा बछड़ा लिया और नौकर को दिया, जो उसे जल्दी से पकाने गया।

8) बाद में इब्राहीम ने दही, दूध और पकाया हुआ बछड़ा ले कर उनके सामने रख दिया और जब तक वे खाते रहे, वह वृक्ष के नीचे खड़ा रहा।

9) उन्होंने इब्राहीम से पूछा, ''तुम्हारी पत्नी सारा कहाँ है?'' उसने उत्तर दिया, ''वह तम्बू के अन्दर है''।

10) इस पर अतिथि ने कहा, ''मैं एक वर्ष के बाद फिर तुम्हारे पास आऊँगा। उस समय तक तुम्हारी पत्नी को एक पुत्र होगा।''



दुसरा पाठ : कलोसियों : 1:24-28



24) इस समय मैं आप लोगों के लिए जो कष्ट पाता हूँ, उसके कारण प्रसन्न हूँ। मसीह ने अपने शरीर अर्थात् कलीसिया के लिए जो दुःख भोगा है, उस में जो कमी रह गयी है, मैं उसे अपने शरीर में पूरा करता हूँ।

25) मैं ईश्वर के विधान के अनुसार कलीसिया का सेवक बन गया हूँ, जिससे मैं आप लोगों को ईश्वर का वह सन्देश,

26) वह रहस्य सुनाऊँ, जो युगों तथा पीढ़ियों तक गुप्त रहा और अब उसके सन्तों के लिए प्रकट किया गया है।

27) ईश्वर ने उन्हें दिखलाना चाहा कि गैर-यहूदियों में इस रहस्य की कितनी महिमामय समृद्धि है। वह रहस्य यह है कि मसीह आप लोगों के बीच हैं और उन में आप लोगों की महिमा की आशा है।

28) हम उन्हीं मसीह का प्रचार करते हैं, प्रत्येक मनुष्य को उपदेश देते और प्रत्येक मनुष्य को पूर्ण ज्ञान की शिक्षा देते हैं, जिससे हम प्रत्येक मनुष्य को मसीह में पूर्णता तक पहुँचा सकें।



सुसमाचार :लुकस 10:38-42



38) ईसा यात्रा करते-करते एक गाँव आये और मरथा नामक महिला ने अपने यहाँ उनका स्वागत किया।

39) उसके मरियम नामक एक बहन थी, जो प्रभु के चरणों में बैठ कर उनकी शिक्षा सुनती रही।

40) परन्तु मरथा सेवा-सत्कार के अनेक कार्यों में व्यस्त थी। उसने पास आ कर कहा, "प्रभु! क्या आप यह ठीक समझते हैं कि मेरी बहन ने सेवा-सत्कार का पूरा भार मुझ पर ही छोड़ दिया है? उस से कहिए कि वह मेरी सहायता करे।"

41) प्रभु ने उसे उत्तर दिया, "मरथा! मरथा! तुम बहुत-सी बातों के विषय में चिन्तित और व्यस्त हो;

42) फिर भी एक ही बात आवश्यक है। मरियम ने सब से उत्तम भाग चुन लिया है; वह उस से नहीं लिया जायेगा।"



📚 मनन-चिंतन



उत्तम भाग चुनना

मारथा की चिंता और व्याकुलता उसे येसु के साथ वास्तव में उपस्थित होने से रोकती हैं। यह चिंता और व्याकुलता उसकी बहन और स्वयं के बीच येसु और स्वयं के बीच एक अवरोध पैदा करने का कारण बनती है। वह सच्चे अतिथ्य के लिए ‘‘एक चीज की जरूरत’’ से चूक गई है। अपने अतिथि को सुनने से बडा कोई अतिथ्य नहीं है। हमारे जीवन की व्यस्तताओं के बीच हम कहीं अतिथि पर से ध्यान न हटा दें। हम ईश्वर की संतान है हमें ध्यान देना है की हमारा अतिथि कौन है? क्योंकि हमारे मेहमान भी हमारे मेजबान हैं। इसलिए हमें उत्तम भाग चुनने की आवश्यकता है।




📚 REFLECTION



Choosing the “Better Part”

Martha’s worry and distraction prevent her from being truly present with Jesus and cause her to drive a block between her sister and herself and between Jesus and herself. She has missed out on the “one thing needed” for true hospitality. There is no greater hospitality than listening to your guest. How much more so when the guest is Jesus! So Jesus says that Mary has chosen the better part, which will not be taken away from her. We do know that Jesus invites all of us who are worried and distracted by many things to sit and rest in his presence, to hear his words of grace and truth, to know that we are loved and valued as children of God, to be renewed in faith and strengthened for service. There is need for only one thing: attention to our guest. As it turns out, our guest is also our host, with abundant gifts to give. Therefore, Mary chose the agathēn merida, the better portion.




मनन-चिंतन - 2


प्रभु के चरणों में बैठ कर उनकी शिक्षा सुनना बहुत ही महत्वपूर्ण कार्य होता है। भारत के सर्वोच्च न्यायालय के भूतपूर्व न्यायाधीश डॉ. कुरियन जोसेफ़ रोज मिस्सा बलिदान में भाग लेते हैं। उनसे एक बार पूछा गया कि रोज मिस्सा बलिदान में भाग लेने के लिए आपको समय कहाँ से मिलता है। उन्होंने कहा कि मिस्सा बलिदान में भाग लिये बिना किसी दिन को शुरू करना मेरे लिए बहुत ही मुशकिल है। जब मैं मिस्सा बलिदान में भाग लेता हूँ तब प्रभु मुझे इतनी कृपा प्रदान करते हैं कि मेरे लिये विभिन्न कामों को करना बहुत ही सरल बन जाता है। प्रभु मेरी सहायता करते हैं। न्यायाधीश कुरियन जोसेफ अपने बच्चों से कहते हैं कि परीक्षा के दिन मिस्सा बलिदान में भाग लेना बहुत ही जरूरी है। मिस्सा बलिदान से प्राप्त कृपा के साथ आप परीक्षा सरलता से लिख सकते हैं क्योंकि पवित्र आत्मा जो सहायक है आपकी मदद करेंगे। कई लोग प्रार्थना में समय बिताना नहीं चाहते हैं। उनको लगता है कि वह समय की बरबादी है तथा उस समय उन्हें कुछ काम करना चाहिए।

आज के सुसमाचार में हम देखते हैं कि प्रभु येसु ने बेथानिया में मरथा, मरियम और लाज़रुस के घर में प्रवेश किया। तब मरथा सेवा-सत्कार के अनेक कार्यों में व्यस्त थी जबकि मरियम प्रभु के चरणों में बैठ कर उनके वचन सुन रही थी। मरथा को लगता है कि वही सही कार्य कर रही है और मरियम उसकी सहायता नही कर रही है। वह प्रभु के पास आकर शिकायत करती है, "प्रभु! क्या आप यह ठीक समझते हैं कि मेरी बहन ने सेवा-सत्कार का पूरा भार मुझ पर ही छोड़ दिया है? उस से कहिए कि वह मेरी सहायता करे।" प्रभु ने उत्तर दिया, "मरथा! मरथा! तुम बहुत-सी बातों के विषय में चिन्तित और व्यस्त हो; फिर भी एक ही बात आवश्यक है। मरियम ने सब से उत्तम भाग चुन लिया है; वह उस से नहीं लिया जायेगा।"

मरथा और मरियम दोनों प्रभु येसु से प्रेम करते हैं। वे दोनों अपने-अपने तरीके से येसु के प्रति अपने प्रेम को प्रकट करती हैं। मरथा येसु के सेवा-सत्कार लगी रहती है। मरियम येसु के प्रति प्रेम उनके साथ रह कर प्रकट करती है। मुझे लगता है कि फ़रक इस बात में है कि मरथा येसु के प्रति अपने प्यार को प्रकट करती है, जबकि मरियम येसु के प्यार को अनुभव करने का प्रयत्न करती है। जब हम इस बात को समझने लगेंगे, तब हमें पता चलेगा कि येसु ने क्यों कहा कि मरियम ने सब से उत्तम भाग चुन लिया है। प्रभु येसु के प्रेम में लीन होना बहुत ही महत्वपूर्ण अनुभव होता है।

इस संदर्भ में यूखारिस्तीय आराधना के महत्व को भी हम समझ सकते हैं। आराधना के समय हम प्रभु ईश्वर के प्यार में लीन हो जाते हैं। संत पापा योहन पौलुस द्वितीय कहते हैं, “यूखारिस्तीय आराधना मानवीय हृदय में दुनिया का सब से दयामय और मुक्तिदायक परिवर्तन है”।

अक्टूबर 20, 2016 को मिस्सा बलिदान के दौरान संत पापा फ्रांसिस ने कहा, “शांतिपूर्ण रूप से यूखारिस्तीय आराधना में भाग लेना प्रभु को जानने का तरीका है। अमेरिका के मशहूर महाधर्माध्यक्ष फ़ुल्टन जे. शीन अपने व्यस्त जीवन में रोज कम से कम एक घंटा पवित्र यूखारिस्त के सामने बिताते थे। कलकत्ता की संत तेरेसा का कहना है कि यूखारिस्तीय आराधना का समय इस दुनिया के हमारे जीवन का सर्वोत्तम समय है और उस समय हमारी आत्मा और शरीर को एक नयी स्फ़ूर्ति, नयी चेतना और नयी शक्ति प्राप्त होती है। जब आप क्रूसित येसु की तस्वीर पर दृष्टि डालते हैं, तब आपको पता चलता है कि येसु ने आपको कितना प्यार किया था। मगर जब हम पवित्र यूखारिस्त पर दृष्टि डालते है, तब हमें पता चलता है कि अब, इस क्षण में येसु हमको कितना प्यार करते हैं।

इसी प्रकार का अनुभव स्तोत्रकार का भी था। इसलिए वह कहता है, “हजार दिनों तक और कहीं रहने की अपेक्षा एक दिन तेरे प्रांगण में बिताना अच्छा है। दुष्टों के शिविरों में रहने की अपेक्षा ईश्वर के मन्दिर की सीढ़ियों पर खड़ा होना अच्छा है; क्योंकि ईश्वर हमारी रक्षा करता और हमें कृपा तथा गौरव प्रदान करता है। वह सन्मार्ग पर चलने वालों पर अपने वरदान बरसाता है।“ (स्तोत्र 84:11-12)


 -Br. Biniush Topno


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10 जुलाई 2022, इतवार वर्ष का पन्द्रहवाँ इतवार

 

10 जुलाई 2022, इतवार

वर्ष का पन्द्रहवाँ इतवार



पहला पाठ : विधि-विवरण 30:10-14



10) बषर्तें तुम अपने प्रभु-ईश्वर की बात मानो, इस संहिता के ग्रन्थ में लिखी हुई उसकी आज्ञाओं और नियमों का पालन करो और सारे हृदय तथा सारी आत्मा से प्रभु-ईश्वर के पास लौट जाओ।

11) "क्योंकि मैं तुम लोगों को आज जो संहिता दे रहा हूँ, वह न तो तुम्हारी शक्ति के बाहर है और न तुम्हारी पहुँच के परे।

12) यह स्वर्ग नहीं है, जो तुमको कहना पड़े - कौन हमारे लिए स्वर्ग जा कर उसे हमारे पास लायेगा, जिससे हम उसे सुन कर उसका पालन करें?

13) और यह समुद्र के उस पार नहीं है, जो तुम को कहना पड़े - कौन हमारे लिए समुद्र पार कर उसे हमारे पास लायेगा, जिससे हम उसे सुन कर उसका पालन करें?

14) नहीं, वचन तो तुम्हारे पास ही है; वह तुम्हारे मुख और हृदय में हैं, जिससे तुम उसका पालन करो।



दुसरा पाठ : कालोसियों 1:15-20



15) ईसा मसीह अदृश्य ईश्वर के प्रतिरूप तथा समस्त सृष्टि के पहलौठे हैं;

16) क्योंकि उन्हीं के द्वारा सब कुछ की सृष्टि हुई है। सब कुछ - चाहे वह स्वर्ग में हो या पृथ्वी पर, चाहे दृश्य हो या अदृश्य, और स्वर्गदूतों की श्रेणियां भी - सब कुछ उनके द्वारा और उनके लिए सृष्ट किया गया है।

17) वह समस्त सृष्टि के पहले से विद्यमान हैं और समस्त सृष्टि उन में ही टिकी हुई है।

18) वही शरीर अर्थात् कलीसिया के शीर्ष हैं। वही मूल कारण हैं और मृतकों में से प्रथम जी उठने वाले भी, इसलिए वह सभी बातों में सर्वश्रेष्ठ हैं।

19) ईश्वर ने चाहा कि उन में सब प्रकार की परिपूर्णता हो।

20) मसीह ने क्रूस पर जो रक्त बहाया, उसके द्वारा ईश्वर ने शान्ति की स्थापना की। इस तरह ईश्वर ने उन्हीं के द्वारा सब कुछ का, चाहे वह पृथ्वी पर हो या स्वर्ग में, अपने से मेल कराया।



सुसमाचार : लुकस 10:25-37



25) किसी दिन एक शास्त्री आया और ईसा की परीक्षा करने के लिए उसने यह पूछा, "गुरूवर! अनन्त जीवन का अधिकारी होने के लिए मुझे क्या करना चाहिए?"

26) ईसा ने उस से कहा, "संहिता में क्या लिखा है?" तुम उस में क्या पढ़ते हो?"

27) उसने उत्तर दिया, "अपने प्रभु-ईश्वर को अपने सारे हृदय, अपनी सारी आत्मा, अपनी सारी शक्ति और अपनी सारी बुद्धि से प्यार करो और अपने पड़ोसी को अपने समान प्यार करो"।

28) ईसा ने उस से कहा, "तुमने ठीक उत्तर दिया। यही करो और तुम जीवन प्राप्त करोगे।"

29) इस पर उसने अपने प्रश्न की सार्थकता दिखलाने के लिए ईसा से कहा, "लेकिन मेरा पड़ोसी कौन है?"

30) ईसा ने उसे उत्तर दिया, "एक मनुष्य येरूसालेम से येरीख़ो जा रहा था और वह डाकुओं के हाथों पड़ गया। उन्होंने उसे लूट लिया, घायल किया और अधमरा छोड़ कर चले गये।

31) संयोग से एक याजक उसी राह से जा रहा था और उसे देख कर कतरा कर चला गया।

32) इसी प्रकार वहाँ एक लेवी आया और उसे देख कर वह भी कतरा कर चला गया।

33) इसके बाद वहाँ एक समारी यात्री आया और उसे देख कर उस को तरस हो आया।

34) वह उसके पास गया और उसने उसके घावों पर तेल और अंगूरी डाल कर पट्टी बाँधी। तब वह उसे अपनी ही सवारी पर बैठा कर एक सराय ले गया और उसने उसकी सेवा शुश्रूषा की।

35) दूसरे दिन उसने दो दीनार निकाल कर मालिक को दिये और उस से कहा, ’आप इसकी सेवा-शुश्रूषा करें। यदि कुछ और ख़र्च हो जाये, तो मैं लौटते समय आप को चुका दूँगा।’

36) तुम्हारी राय में उन तीनों में कौन डाकुओं के हाथों पड़े उस मनुष्य का पड़ोसी निकला?"

37) उसने उत्तर दिया, "वही जिसने उस पर दया की"। ईसा बोले, "जाओ, तुम भी ऐसा करो"।



📚 मनन-चिंतन



ईश्वर और पडोसी के प्रति प्रेम

भले समारी का दृष्टाँत हमें पडोसी के प्रति प्रेम के विषय में कुछ अप्रिय सच्चाईयों से अवगत कराता है। समारी उस व्यक्ति पर तरस खाकर उसकी मदद करता हैं। हमारे जीवन के लिए उपयोगी सीख- अनंत जीवन ईश्वर की एक विरासत है जो उन लोगों के लिए आरक्षित है जो ईश्वर और पडोसी से प्यार करते हैं। लेकिन हम यह नहीं कह सकते कि, हम ईश्वर से प्यार करते है और अपने पडोसी को नजर अंदाज कर दें। पडोसी के प्रति संवेदनशील रहना हमारे ईश्वर के प्रति सच्चे प्रेम का प्रमाण है। आज के पाठ हमें अपने पडोसी के प्रति प्रेम पर मनन् चिंतन करने के लिए आमंत्रित करते हैं। क्योंकि ईश्वर प्रेम है।





📚 REFLECTION


Love of God and Neighbour

The story of the Good Samaritan is one that should wake us up to some not-so-pleasant truths about love of neighbour. First, a priest and a Levite walked by the beaten and suffering man on the side of the road and ignored him, passing on the opposite side of the road. Then the Samaritan walked by, filled with compassion, went out of his way to help the man. The lessons we can draw for us are as follows- Eternal Life is an inheritance of God reserved for those who love Him. But we cannot say we love Him if we refuse to show mercy to the people around us. Our love for one another truly reveals our love for God. To show mercy and be a neighbour to the needy is the act of that love (Caris). Be a neighbour to anyone in need. God created everyone in His own image and Jesus showed one cannot hate another human being and still claim to love God. Because Deus caritas est- God is Love.



मनन-चिंतन -2


आज के सुसमाचार में हम देखते हैं कि एक शास्त्री प्रभु येसु के पास आकर उनकी परीक्षा लेने के उद्देश्य से उनसे पूछता है, "गुरूवर! अनन्त जीवन का अधिकारी होने के लिए मुझे क्या करना चाहिए?" प्रभु उससे प्रश्न करते है, "संहिता में क्या लिखा है?" तुम उस में क्या पढ़ते हो?" तब वह ज्ञानी शास्त्री ईश्वर को अपने सारे हृदय, अपनी सारी आत्मा, अपनी सारी शक्ति और अपनी सारी बुद्धि से प्यार करने तथा अपने पड़ोसी को अपने समान प्यार करने की बात प्रभु के सामने रखता है। प्रभु उस जवाब को सही ठहराते हुए उससे कहते हैं, "तुमने ठीक उत्तर दिया। यही करो और तुम जीवन प्राप्त करोगे"। इस पर भी शास्त्री प्रभु को नहीं छोड़ता है। वह अपने प्रश्न की सार्थकता दिखलाने के लिए प्रभु से और एक सवाल करता है, "लेकिन मेरा पड़ोसी कौन है?" इस पर प्रभु येसु भले समारी का दृष्टान्त सुनाते हैं जो विश्व-विख्यात है। हम सब इस दृष्टान्त को कई बार सुन चुके हैं। इसलिए मैं इस बात पर आपका ध्यान आकर्षित करना चाहता हूँ कि प्रभु इस दृष्टान्त के द्वारा क्या संदेश देते हैं।

दृष्टान्त सुनाने के बाद प्रभु उस शास्त्री से पूछते हैं, “तुम्हारी राय में उन तीनों में कौन डाकुओं के हाथों पड़े उस मनुष्य का पड़ोसी निकला?" और वह शास्त्री उत्तर देता है, "वही जिसने उस पर दया की"। तब प्रभु कहते हैं, "जाओ, तुम भी ऐसा करो"।

शास्त्री का प्रश्न था कि मेरा पडोसी कौन है। उसका जवाब प्रभु देते ही है। प्रभु के अनुसार हमारा पडोसी हमारी जीवन-यात्रा में हमारी राह पर आने वाला हरेक ज़रूरतमंद व्यक्ति है। लेकिन प्रभु उस शास्त्री और हम में से हरेक को यह सिखाना चाहते हैं कि हमें ज़रूरतमंदों का अच्छा पडोसी बनना चाहिए। प्रभु ने उस शास्त्री से जब पूछा, “तुम्हारी राय में उन तीनों में कौन डाकुओं के हाथों पड़े उस मनुष्य का पड़ोसी निकला?" तब उसने उत्तर दिया "वही जिसने उस पर दया की"। इस प्रकार प्रभु येसु हमें अच्छा पडोसी बनने का मार्ग भी दिखाते हैं। हम ज़रूरतमंदों पर दया दिखा कर उनके अच्छे पडोसी बन सकते हैं।

न्याय का मतलब यह है कि जिसे प्राप्त करने का हमारा अधिकार है वह हमें मिल जाये। लेकिन जिसे प्राप्त करने का हमारा अधिकार नहीं है, उसे भी दे देना दया है। प्रभु अपने शिष्यों से यह अपेक्षा करते हैं कि हम दूसरों पर दया दिखायें।

प्रभु दयालु है। स्तोत्रकार उन्हें दयासागर भी कहते हैं (देखिए स्तोत्र 51:1-3)। आदम और हेवा के पाप करने के बावजू्द प्रभु ने खाल के कपड़े बनाये और उन्हें पहनाया (देखिए उत्पत्ति 3:21)। काईन ने अपने भाई हाबिल को मार डाला। फिर भी प्रभु ईश्वर ने यह सोच कर कि काइन से भेंट होने पर कोई उसका वध न करे, काइन पर एक चिन्ह अंकित किया (देखिए उत्पत्ति 4:15)। अब्राम को साराय की दासी हागार से उत्पन्न बेटे को भी प्रभु ने आशीर्वाद दिया (देखिए उत्पत्ति 21:17-21)।

लूकस 9:52-56 में हम देखते हैं कि जब समारियों के एक गाँव के निवासियों ने प्रभु येसु को स्वागत करने से इनकार किया तो उनके शिष्य याकूब और योहन उस गाँव को आकाश से आग बरसा कर भस्म करना चाह रहे थे। परन्तु प्रभु ने मुड़ कर उन्हें डाँटा और वे दूसरी बस्ती चले गये। प्रभु येसु ने अपने साथ विश्वासघात करने वाले यूदस को मित्र कहा। उन्होंने पेत्रुस को जिसने उन्हें तीन बार अस्वीकार किया था, क्षमा कर उसे तीन बार प्रभु के प्रति अपने प्यार को प्रकट करने का अवसर दिया।

हम में से कोई भी न्याय के अनुसार मुक्ति नहीं पायेगा। अगर हम बचेंगे, तो सिर्फ़ ईश्वर की दया के कारण। इसलिए स्तोत्रकार सवाल करते हैं, “प्रभु! यदि तू हमारे अपराधों को याद रखेगा, तो कौन टिका रहेगा?” (स्तोत्र 130:3)। आज के सुसमाचार से हम सभी ज़रूरतमंदों पर दया दिखाने की चुनौती स्वीकार करें।


 -Br. Biniush Topno


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संत थॉमस, पर्व 03 जुलाई 2022 इतवार

 

03 जुलाई 2022, इतवार

संत थॉमस, भारत के प्रेरित - पर्व



पहला पाठ : प्रेरित-चरित 10:24-35


24) दूसरे दिन वह उनके साथ चल दिया और योप्पे के कुछ भाई भी उनके साथ हो लिये। वह अगले दिन कैसरिया पहुँचा। करनेलियुुस अपने संबंधियों और घनिष्ठ मित्रों को बुला कर उन लोगों की प्रतीक्षा कर रहा था।

25) जब पेत्रुस उनके यहाँ आया, तो करनेलियुस उस से मिला और उसने पेत्रुस के चरणों पर गिर कर उसे प्रणाम किया।

26) किंतु पेत्रुस ने उसे यह कहते हुए उठाया, ’’खड़े हो जाइए, मैं भी तो मनुष्य हूँ’’

27) और उसके साथ बातचीत करते हुए घर में प्रवेश किया। वहाँ बहुत-से लोगों को एकत्र देखकर

28) पेत्रुस ने उन से यह कहा, ’’आप जानते है कि गैर-यहूदी से संपर्क रखना या उसके घर में प्रवेश करना यहूदी के लिए सख्त मना है; किंतु ईश्वर ने मुझ पर यह प्रकट किया हैं कि किसी भी मनुष्य को अशुद्ध अथवा अपवित्र नहीं कहना चाहिए।

29) इसलिए आपके बुलाने पर मैं बेखटके यहाँ आया हूँ। अब मैं पूछना चाहता हूँ कि आपने मुझे क्यों बुलाया?’’

30) करनेलियुस ने उत्तर दिया, ’’चार दिन पहले इसी समय मैं अपने घर में सन्ध्या की प्रार्थना कर रहा था कि उजले वस्त्र पहने एक पुरुष मेरे सामने आ खड़ा हुआ।

31) उसने यह कहा, ’करनेलियुस! आपकी प्रार्थनाएँ सुनी गयी हैं और ईश्वर ने आपके भिक्षा-दानों को याद किया।

32) आप आदमियों को योप्पे भेजिए और सिमोन को, जो पेत्रुस कहलाते हैं, बुलाइए। वह चर्मकार सिमोन के यहाँ, समुद्र के किनारे, ठहरे हुए हैं।

33) मैंने आप को तुरंत बुला भेजा और आपने पधारने की कृपा की हैं। ईश्वर ने आप को जो-जो आदेश दिये हैं, उन्हें सुनने के लिए हम सब यहाँ आपके सामने उपस्थित हैं।’’

34) पेत्रुस ने कहा, ’’मैं अब अच्छी तरह समझ गया हूँ कि ईश्वर किसी के साथ पक्ष-पात नहीं करता।

35) मनुष्य किसी भी राष्ट्र का क्यों न हो, यदि वह ईश्वर पर श्रद्धा रख कर धर्माचरण करता है, तो वह ईश्वर का कृपापात्र बन जाता हैं।



दूसरा पाठ: पेत्रुस का पहला पत्र 1:3-9



3) धन्य है ईश्वर, हमारे प्रभु ईसा मसीह का पिता! मृतकों में से ईसा मसीह के पुनरुत्थान द्वारा उसने अपनी महती दया से हमें जीवन्त आशा से परिपूर्ण नवजीवन प्रदान किया।

4) आप लोगों के लिए जो विरासत स्वर्ग में रखी हुई है, वह अक्षय, अदूषित तथा अविनाशी है।

5) आपके विश्वास के कारण ईश्वर का सामर्थ्य आप को उस मुक्ति के लिए सुरक्षित रखता है, जो अभी से प्रस्तुत है और समय के अन्त में प्रकट होने वाली है।

6) यह आप लोगों के लिए बड़े आनन्द का विषय है, हांलांकि अभी, थोड़े समय के लिए, आपको अनेक प्रकार के कष्ट सहने पड़ रहे हैं।

7) यह इसलिए होता है कि आपका विश्वास परिश्रमिक खरा निकले। सोना भी तो आग में तपाया जाता है और आपका विश्वास नश्वर सोने से कहीं अधिक मूल्यवान है। इस प्रकार ईसा मसीह के प्रकट होने के दिन आप लोगों को प्रशंसा, सम्मान तथा महिमा प्राप्त होगी।

8) (8-9) आपने उन्हें कभी नहीं देखा, फिर भी आप उन्हें प्यार करते हैं। आप अब भी उन्हें नहीं देखते, फिर भी उन में विश्वास करते हैं। जब आप अपने विश्वास का प्रतिफल अर्थात् अपनी आत्मा की मुक्ति प्राप्त करेंगे, तो एक अकथनीय तथा दिव्य उल्लास से आनन्दित हो उठेंगे!



सुसमाचार : सन्त योहन का सुसमाचार 20:24-29



24) ईसा के आने के समय बारहों में से एक थोमस जो यमल कहलाता था, उनके साथ नहीं था।

25) दूसरे शिष्यों ने उस से कहा, ’’हमने प्रभु को देखा है’’। उसने उत्तर दिया, ’’जब तक मैं उनके हाथों में कीलों का निशान न देख लूँ, कीलों की जगह पर अपनी उँगली न रख दूँ और उनकी बगल में अपना हाथ न डाल दूँ, तब तक मैं विश्वास नहीं करूँगा।

26) आठ दिन बाद उनके शिष्य फिर घर के भीतर थे और थोमस उनके साथ था। द्वार बन्द होने पर भी ईसा उनके बीच आ कर खडे हो गये और बोले, ’’तुम्हें शांति मिले!’’

27) तब उन्होने थोमस से कहा, ’’अपनी उँगली यहाँ रखो। देखो- ये मेरे हाथ हैं। अपना हाथ बढ़ाकर मेरी बगल में डालो और अविश्वासी नहीं, बल्कि विश्वासी बनो।’’

28 थोमस ने उत्तर दिया, ’’मेरे प्रभु! मेरे ईश्वर!’’

29) ईसा ने उस से कहा, ’’क्या तुम इसलिये विश्वास करते हो कि तुमने मुझे देखा है? धन्य हैं वे जो बिना देखे ही विश्वास करते हैं।’’




📚 मनन-चिंतन



शिष्यों का प्रेषण

येसु अपने शिष्यों को एक मिशन कार्य के लिए तैयार कर रहे थे। वह उन्हें भावी चुनौतियों, बाधाओं और खतरों के बारे में सचेत करते हैं। तदनुसार ‘‘सत्तर शिष्य आनंद के साथ वापस लौटते हैं।’’ हमारा आनंद येसु के साथ हमारी पहचान में हैं, इसमें नहीं कि, हम क्या करते हैं। हमारे नाम स्वर्ग में इसलिए लिखे गये हैं क्योंकि हम ईश्वर की संतान हैं। क्या मैं विश्वास कर सकता हूँ कि, मेरा नाम ईश्वर को प्रसन्न करता है? सदियों से कलीसिया को ईश्वर के राज्य का, शांति और न्याय, क्षमा और चंगाई का एक ही संदेश सौंपा गया हैं। अब इसके साक्षी बनने की बारी मेरी हैं। क्या आप उसके साक्षी बनने के लिए तैयार हैं?



📚 REFLECTION



The commissioning of the seventy and their joyous return

Jesus is preparing his disciples for a mission. He leaves them in no doubt about the challenges, obstacles and dangers which will await them. Accordingly, ‘the seventy return with joy’. Our joy is in our identity with Jesus, not in what we do. Our names are written in heaven because we are God’s beloved sons and daughters. Our names are never erased or crossed out. Can I believe that my name delights God? The same message of peace and justice, forgiveness and healing, and the Good News of God’s kingdom, has been entrusted to the Church down the centuries. Now it is my turn to witness to it. Are you ready to WITNESS the same?



📚 मनन-चिंतन - 2


आज हम प्रेरित थॉमस का त्योहार मना रहे हैं जो अक्सर "संदेह करने वाले थॉमस" के रूप में जाने जाते हैं। संदेह करना अपने आप में बुरा नहीं है, लेकिन संदेह में रहना बुरा हो सकता है। संत थॉमस की महानता यह है कि वे संदेह में रहना नहीं चाहते थे, बल्कि स्पष्टीकरण चाहते थे, वह भी केवल प्रभु से। वे प्रभु की प्रतीक्षा करने के लिए तैयार थे। इससे पहले कि वे वांछित स्पष्टीकरण प्राप्त कर सके, उन्हें एक सप्ताह तक इंतजार करना पड़ा। एक सप्ताह के बाद ही प्रभु उन्हें स्पष्टीकरण देने के लिए दर्शन देते हैं। फिर भी उन्होंने धैर्यपूर्वक अपने संदेह मिटाने के लिए प्रभु की प्रतीक्षा की। उन्होंने अन्य लोगों से यह उम्मीद नहीं की कि वे उन्हें सांत्वना दें या उनका संदेह मिटा दें।

दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि संत थॉमस चाहते थे कि उन्हें प्रभु येसु के घावों का अनुभव प्राप्त हो। वास्तव में वे क्रूस पर चढ़ाये गये प्रभु के अनुभव के लिए तरस रहे थे। उन्होंने जोर देकर कहा, "जब तक मैं उनके हाथों में कीलों का निशान न देख लूँ, कीलों की जगह पर अपनी उँगली न रख दूँ और उनकी बगल में अपना हाथ न डाल दूँ, तब तक मैं विश्वास नहीं करूँगा।" (योहन 20:25)। हम जानते हैं कि प्रभु येसु का दुखभोग तथा क्रूस मरण ईश्वर के देहधारण के केन्द्रीय रहस्यों का प्रभुख हिस्सा है। येसु की शिक्षाओं में क्रूस का एक विशेष स्थान है। 1कुरिन्थियों 1: 22-24 में, संत पौलुस कहते हैं, "यहूदी चमत्कार माँगते और यूनानी ज्ञान चाहते हैं, किन्तु हम क्रूस पर आरोपित मसीह का प्रचार करते हैं। यह यहूदियों के विश्वास में बाधा है और गै़र-यहूदियों के लिए ’मूर्खता’। किन्तु मसीह चुने हुए लोगों के लिए, चाहे वे यहूदी हों या यूनानी, ईश्वर का सामर्थ्य और ईश्वर की प्रज्ञा है”। संत थॉमस की आध्यात्मिकता भी घायल और क्रूसित प्रभु पर केंद्रित है। जबकि अधिकांश शिष्य क्रूस और कष्टों से भागना पसंद करते थे, संत थॉमस उस वास्तविकता का सामना करना चाहते थे।

इसलिए जब उन्हें लाजरुस की मृत्यु का संदेश मिला, तब वे येसु के साथ बेथानिया जाने का जोखिम उठाना चाहते थे। उन्होंने अपने साथियों से कहा, “हम भी चलें और इनके साथ मर जायें” (योहन 11:16)। आइए हम प्रभु से प्रार्थना करें कि हम क्रूस से भागने की कोशिश न करें, लेकिन इसे प्रेम के साथ स्वीकारें, क्योंकि क्रूस हमारे उद्धार का साधन है।



📚 REFLECTION


Today we celebrate the feast of Apostle Thomas who is often referred to as “The Doubting Thomas”. Doubting in itself is not bad, but remaining in doubt can be bad. The greatness of St. Thomas is that he wanted clarification, that too from the Lord and the Lord alone. He was ready to wait for the Lord. He had to wait for a week before he could get the clarification he desired. Yet he patiently waited for the Lord to clear his doubts. He did not seek other people to comfort or console him. Secondly St. Thomas wanted to have an experience of the wounds of Jesus. In fact he was longing for an experience of the crucified Lord. He insisted, “Unless I see the mark of the nails in his hands, and put my finger in the mark of the nails and my hand in his side, I will not believe” (Jn 20:25). We know that the sufferings and crucifixion of Jesus are realities, very central to the mystery of incarnation. In the teachings of Jesus the Cross has a special place. In 1Cor 1:22-24, St. Paul says, “For Jews demand signs and Greeks desire wisdom, but we proclaim Christ crucified, a stumbling block to Jews and foolishness to Gentiles, but to those who are the called, both Jews and Greeks, Christ the power of God and the wisdom of God”. The Spirituality of St. Thomas too is centred around the wounded and crucified Lord. While most of the disciples would have liked to run away from the cross and sufferings, St. Thomas wanted to confront that reality. That is why he wanted to take the risk of going with Jesus to Bethany when they received the message of the death of Lazarus. He said to his companions, “Let us also go, that we may die with him” (Jn 11:16). Let us pray to the Lord that we may not try to escape from the cross but carry it with love, because the cross is the instrument of our redemption.


 -Br. Biniush Topno


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