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01 जनवरी 2023 ईशमाता कुँवारी मरियाम का पर्व

 

01 जनवरी 2023

ईशमाता कुँवारी मरियाम का पर्व



📒 पहला पाठ: गणना 6:22-27


22) प्रभु ने मूसा से कहा,

23) ''हारून और उसके पुत्रों से कहो - इस्राएलियों को आशीर्वाद देते समय यह कहोगे :

24) 'प्रभु तुम लोगों को आशीर्वाद प्रदान करे और सुरक्षित रखे।

25) प्रभु तुम लोगों पर प्रसन्न हो और तुम पर दया करे।

26) प्रभु तुम लोगों पर दयादृष्टि करे और तुम्हें शान्ति प्रदान करे।'

27) वे इस प्रकार इस्राएलियों के लिए मुझ से प्रार्थना करें और मैं उन्हें आशीर्वाद प्रदान करूँगा।


📕 दूसरा पाठ :गलातियों 4:4-7


4) किन्तु समय पूरा हो जाने पर ईश्वर ने अपने पुत्र को भेजा। वह एक नारी से उत्पन्न हुए और संहिता के अधीन रहे,

5) जिससे वह संहिता क अधीन रहने वालों को छुड़ा सकें और हम ईश्वर के दत्तक पुत्र बन जायें।

6) आप लोग पुत्र ही हैं। इसका प्रमाण यह है कि ईश्वर ने हमारे हृदयों में अपने पुत्र का आत्मा भेजा है, जो यह पुकार कर कहता है -’’अब्बा! पिता!’’ इसलिए अब आप दास नहीं, पुत्र हैं और पुत्र होने के नाते आप ईश्वर की कृपा से विरासत के अधिकारी भी हैं।

7) इसलिए अब आप दास नहीं, पुत्र हैं और पुत्र होने के नाते आप ईश्वर की कृपा से विरासत के अधिकारी भी हैं।


📙 सुसमाचार : सन्त लूकस 2:16-21


16) वे शीघ्र ही चल पड़े और उन्होंने मरियम, यूसुफ़, तथा चरनी में लेटे हुए बालक को पाया।

17) उसे देखने के बाद उन्होंने बताया कि इस बालक के विषय में उन से क्या-क्या कहा गया है।

18) सभी सुनने वाले चरवाहों की बातों पर चकित हो जाते थे।

19) मरियम ने इन सब बातों को अपने हृदय में संचित रखा और वह इन पर विचार किया करती थी।

20) जैसा चरवाहों से कहा गया था, वैसा ही उन्होंने सब कुछ देखा और सुना; इसलिए वे ईश्वर का गुणगान और स्तुति करते हुए लौट गये।

21) आठ दिन बाद बालक के ख़तने का समय आया और उन्होंने उसका नाम ईसा रखा। स्वर्गदूत ने गर्भाधान के पहले ही उसे यही नाम दिया था।


📚 मनन-चिंतन


आज सभी ख्रीस्तीय विश्वासी ख्रीस्त के देहधारण के अद्भुत रहस्य पर विचार करने तथा उसे हृदय में संजोये रखने के लिए बुलाये जाते हैं। चरवाहों ने अपनी प्रतिक्रिया ईश्वर के आगमन की उस महान घटना के लिए ईश्वर की महिमा और प्रशंसा करते हुए व्यक्त किया। आज कलीसिया उस विनम्र महिला पर विशेष ध्यान देती है जिसने अपने हृदय और गर्भ में असीम आनन्द के साथ ईश्वर को ग्रहण किया। उनका आनंद इतना महान था कि वह आत्मा से प्रभु की महिमा करने वाले एक गीत में परिणित हुआ। वह अपने भीतर ईश्वर के आनंदमय रहस्य का उत्सव मनाने से पीछे नही हट सकती थी। वह वास्तव में ईश्वर की माता है क्योंकि जिनको उन्होंने गर्भ में धारण किया, वह सच्चा ईश्वर ही है। इसलिए वह स्त्रियों में सबसे अधिक धन्य हैं। हम भाग्यशाली हैं कि हम नए साल की शुरुआत उनके साथ चरनी में लेटे दिव्य बालक पर नजर डालते हुए करते हैं। वह हम में से प्रत्येक के लिए आने वाले वर्ष में अपने प्यारे बेटे से प्रार्थना करती रहे।



📚 REFLECTION

Today, all believers are called upon to ponder over and treasure in the heart the amazing mystery of the Incarnation of Christ. The instant response of the shepherds was to glorify and praise God for the great event of God coming down to be with human beings. Today the Church pays a special attention to the humble woman who received God in her heart and in her womb with immeasurable Joy. Her joy was so great that it broke into a song emerging from the soul glorifying God. She could not but celebrate the joyful mystery of God in her. She is truly the Mother of God because the son she conceived is true God. That is why she is the most blessed among women. We are fortunate to begin the New Year gazing at the divine child in the manger with her. May she intercede with her Son throughout the coming year for each one of us.



📚 मनन-चिंतन - 02


आज जब हम नए साल के पहले दिन की शुरुआत करते हैं तो हम पहले पाठ के शब्दों के साथ ईश्वर से पूरे साल पर आशीष माँगें। आज माता कलीसिया ईश माता मरियम का पर्व मनाती है. यह उचित है कि हम इस नए साल को माता मरियम की ममता की छांव तले शुरू करें। कलीसिया की शिक्षाओं द्वारा हमें माता मरियम के ईश माता होने का ज्ञान मिलता है। लेकिन सवाल उठ सकता है कि माता मरियम जो कि हमारी ही तरह नश्वर मनुष्य होते हुए, उस ईश्वर की जो अनश्वर है, जिसका आदि और अंत नहीं है, उस सृजनहार की माता कैसे कहला सकती है? एक मनुष्य जिसकी रचना स्वयं ईश्वर ने की हो वही अपने सृष्टिकर्ता और सर्वशक्तिमान ईश्वर की माता कैसे हो सकती है? इस सवाल का जवाब दूसरे सवाल के जवाब में छिपा है और वह सवाल है कि प्रभु येसु मनुष्य हैं, या ईश्वर हैं, या दोनों हैं?

ये सवाल और इसी तरह के अनेक सवाल कलिसिया के प्रारम्भ में उठे और उनका अध्ययन किया और कलिसिया के धर्मपिताओं एवं बड़े-बड़े विद्वानों ने यह घोषित किया कि प्रभु येसु पूर्ण मनुष्य और पूर्ण ईश्वर थे। (एफ़ेसुस की समिति ४३१ ईसवी)। वह अंशतः ईश्वर और अंशतः मनुष्य नहीं, अथवा कुछ समय के लिए ईश्वर और कुछ समय के लिए मनुष्य नहीं थे, बल्कि पूर्ण ईश्वर और पूर्ण मनुष्य थे। प्रभु येसु का मनुष्य स्वभाव और ईश्वरीय स्वभाव दोनों अभिन्न थे, क्योंकि उन्होंने हमें पूर्ण ईश्वर और पूर्ण मनुष्य होते हुए मुक्ति दिलाई। अगर वह केवल इंसान थे तो उनकी मृत्यु से मानवजाति को कोई लाभ नहीं, अगर वह सिर्फ़ ईश्वर थे, तो ईश्वर हमारे लिए मर नहीं सकता। चूँकि प्रभु येसु पूर्ण मनुष्य और पूर्ण ईश्वर थे, तभी वे हमारे मुक्तिदाता हो सकते हैं। यदि माता मरियम प्रभु येसु के मनुष्य रूप की माँ है तो वह उनके ईश्वरीय रूप की भी माँ है, क्योंकि ये दोनों अविभाजित और अभिन्न हैं। यदि प्रभु येसु ईश्वर हैं, और मरियम प्रभु येसु की माता है तो वह ईश्वर की माता भी कही जा सकती हैं।

आइए हम इस नव वर्ष को माता मरियम के द्वारा ईश्वर को चढ़ाएँ, वही माता जिसका पुत्र उसकी आज्ञा को कभी नहीं नकार सकता। ईश माता मरियम हमारे लिए प्रार्थना करती रहे, हमारी देख-भाल करती रहे और हमें अपने पुत्र, हमारे मुक्तिदाता की ओर आने की राह दिखाती रहे। आमेन।



📚 REFLECTION


Today as we begin the very first day of this new year, we ask the Lord to bless us through the words of blessing from the first reading. Today mother church celebrates the Feast of Mary - mother of God. It is most appropriate that we start this fresh new year in the motherly care of our beloved mother. We learn from the teachings of the church about Mary being mother of God. But question may arise, how Mary who is a mortal human being like you and me and God who is creator of all and who has no beginning or end, be God’s mother? How a human being created by God be the mother of creator and all powerful God? The answer to this question is hidden in the answer about whether Jesus is God or man or both?

These and many similar questions were raised and discussed during the early beginnings of the Church, where the church fathers and great scholars established that Jesus Christ was fully human and fully God, (Council of Ephesus 431 AD). He was not partially God and partially man or sometimes God and sometimes human. These both natures of God are inseparable because Jesus saved us being truly God and truly human. If he had only been fully human, his death would do nothing to help us, had he been entirely God, he could not have died for us. It is the very fact that Jesus was fully human and fully God that makes Jesus our saviour. So if mother Mary is the mother of human Jesus, then she is also mother of divine Jesus, because both are same and cannot be separated. And if Jesus is God and Mary is mother of Jesus then Mary is mother of God.

Let us offer this new year to God through Mother Mary, to whom he can never deny a favour. May mother of God continue to intercede for us and take care of us and continue to show the way to her Son Jesus our Saviour. Amen.



मनन-चिंतन 03


अगर आप साधारण विश्वासियों से पूछेंगे कि आप माँ मरियम को ईश्वर की माता क्यों मानते हैं, तो शिक्षित विश्वासी लोग शायद आप को जवाब देंगे कि माँ मरियम ने येसु को जन्म दिया; येसु ईश्वर हैं और इसलिए माँ मरियम ईश्वर की माँ हैं। लेकिन अगर हम प्रभु येसु से ही पूछते हैं कि आप माँ मरियम को अपनी माँ क्यों मानते हैं तो येसु हम से कहेंगे कि उन्होंने ईश्वर के वचन को विनम्रता से स्वीकार किया, उसे अपने हृदय में संचित रखा और उसका अपने जीवन में पालन किया। प्रभु कहते हैं, “मेरी माता और मेरे भाई वही है, जो ईश्वर का वचन सुनते और उसका पालन करते हैं (लूकस 8:21)।

दरअसल जब कभी कोई अपनी माता के बारे में सोचता है, शायद ही वह इस बात को याद करता है कि उसने मुझे जन्म दिया है, बल्कि माँ के प्यार, बलिदान की भावना, ममता तथा कुर्बानियों को ही याद करता है।

आज हम ईशमाता कुँवारी मरियम का त्योहार मना रहे हैं। यह त्योहार हमें यह बताता है कि ईश्वर कितने उदार है, कि ईश्वर की आज्ञाओं का विनम्रता के साथ पालन करने वालों को ईश्वर कितना ऊपर उठाते हैं। अपनी सृष्टि में से ही किसी को वे माँ कहते हैं और उन्हें आदर और सम्मान से विभूषित करते हैं। वे उन्हीं से सीखने और अन्य मानवों की तरह उनके गर्भ में नौ महीनों तक रहते हैं।

कई बार हम प्रार्थना करते हैं, “हे परमेशवर की पवित्र माँ हमारे लिए प्रार्थना कर, कि हम ख्रीस्त की प्रतिज्ञाओं के योग्य बन जायें”। माता मरियम अपने आप को प्रभु की दासी मानती हैं। यह उनकी विनम्रता का प्रमाण है। इस विनम्रता के कारण वे ईश्वर की प्रतिज्ञाओं के योग्य बन गयी। इसी कारण ईश्वर ने माँ मरियम को सभी मानवों में धन्य बनाया। माँ मरियम स्वयं यह घोषित करती हैं कि सर्वशक्तिमान ने ही उन्हें महान बना दिया है।

संत लूकस हमें बताते हैं कि प्रभु येसु के प्रवचन सुन कर, उससे प्रभावित हो कर “भीड़ में से कोई स्त्री उन्हें सम्बोधित करते हुए ऊँचे स्वर में बोल उठी, ’’धन्य है वह गर्भ, जिसने आप को धारण किया और धन्य हैं वे स्तन, जिनका आपने पान किया है!” (लूकस 11:27) लेकिन प्रभु की प्रतिक्रिया पर ध्यान दीजिए। उन्होंने उत्तर दिया, “ठीक है; किन्तु वे कहीं अधिक धन्य हैं, जो ईश्वर का वचन सुनते और उसका पालन करते हैं” (लूकस 11:28)।

हमें भी मातृत्व को गर्भधारण तथा स्तनपान कराने तक सीमित नहीं रखना चाहिए। मातृत्व एक काम नहीं है बल्कि एक संबंध है। हाँलाकि नाभिरज्जु (umbilical cord) बच्चे के जन्म के समय काट दिया जाता है, विश्वासी लोग ईशवचन के द्वारा जो संबंध स्थापित करते हैं, वह बना रहता तथा दिन प्रतिदिन मजबूत होता जाता है। माँ को केवल बच्चों तथा पति के लिए काम करते रहने वाली एक महिला के रूप में देखना एक बहुत ही संकुचित दृष्टिकोण है। आज के समाज की यह वास्त्तविकता है कि माताओं को वह स्थान नहीं दिया जाता है जो असल में उनका है।

माँ मरियम उन सब महिलाओं का प्रतीक है जो माँ होने के कारण बलिदान, उदारता, ममता तथा समर्पण का जीवन बिताती हैं। जब ईश्वर ने स्त्री की सृष्टि की थी, तब उन्होंने उसे एक ’उपयुक्त सहयोगी’ (उत्पत्ति 2:18) के रूप में सृष्ट किया था। हम भी दृढ़संकल्प करें कि हम भी माँ मरियम के समान विनम्र और उदार बनें ताकि उन्हीं के समान ईश्वर के कृपापात्र बन सकें।



मनन-चिंतन 03



आज हम ईशमाता मरियम के साथ नए साल की शुरुआत कर रहे हैं। हम उन्हें ईश्वर के पवित्र वचन पर मनन करते हुए पाते हैं। यह किसी भी ख्रीस्तीय विश्वासी के लिए एक आदर्श है। यह केवल एक पल का कार्य नहीं है, बल्कि एक निरंतर स्वभाव है। स्तोत्रकार कहता है, “जो प्रभु का नियम हृदय से चाहता और दिन-रात उसका मनन करता है, वह उस वृक्ष के सदृश है, जो जलस्रोत के पास लगाया गया, जो समय पर फल देता है, जिसके पत्ते कभी मुरझाते नहीं। वह मनुष्य जो भी करता है, सफल होता है।” (स्तोत्र 1:2-3) विधि-विवरण 4:4 में प्रभु का वचन कहता है,"जो अपने प्रभु-ईश्वर के प्रति ईमानदार बने रहे, तुम सब-के-सब आज तक जीवित हो।"। वास्तव में जीवित रहने के लिए हमें जीवन के स्रोत ईश्वर से जुडे रहने की आवश्यकता है। यह वही है जो कुँवारी मरियम ने ईश्वर के वचन को अपने दिल में रखकर किया था। शारीरिक रूप से प्रभु येसु नौ महीने तक मरियम के कोख में थे, लेकिन आध्यात्मिक रूप से वे माता मरियम में हमेशा थे। जैसा कि हम नए साल की शुरुआत कर रहे हैं, आइए हम भी इस वर्ष के दौरान येसु से हमेशा जुड़े रहने का दृढ़संकल्प करें।




📚 REFLECTION

Today we begin the New Year with Mary, the Mother of God. We find her pondering over the Word of God. This is a great disposition for any Christian. It is not just a one time action, but a continual disposition. The Psalmist says, “their delight is in the law of the Lord, and on his law they meditate day and night. They are like trees planted by streams of water, which yield their fruit in its season, and their leaves do not wither. In all that they do, they prosper.” (Ps 1:2-3) In Deut 4:4 the Word of God says, “those of you who held fast to the Lord your God are all alive today”. To be truly alive we need to be glued to God, the source of life. This is what our Lady did by treasuring the Word of God in her heart. Physically Jesus was in her for nine months, but spiritually He was in her all through her life. As we begin the New Year, let us resolve to be glued to Jesus during the course of this year.


 -Br. Biniush Topno


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18 दिसंबर 2022 चक्र – अ, आगमन का चौथा इतवार

 

18 दिसंबर 2022

चक्र – अ, आगमन का चौथा इतवार




पहला पाठ : इसायाह 7:10-14

10) प्रभु ने फिर आहाज़ से यह कहा,

11) “चाहे अधोलोक की गहराई से हो, चाहे आकाश की ऊँचाई से, अपने प्रभु-ईश्वर से अपने लिए एक चिन्ह माँगो“।

12) आहाज़ ने उत्तर दिया, “जी नहीं! मैं प्रभु की परीक्षा नहीं लूँगा।“

13) इस पर उसने कहा, “दाऊद के वंश! मेरी बात सुनो। क्या मनुष्यों को तंग करना तुम्हारे लिए पर्याप्त नहीं है, जो तुम ईश्वर के धैर्य की भी परीक्षा लेना चाहते हो?

14) प्रभु स्वयं तुम्हें एक चिन्ह देगा और वह यह है - एक कुँवारी गर्भवती है। वह एक पुत्र को प्रसव करेगी और वह उसका नाम इम्मानूएल रखेगी।



दूसरा पाठ : रोमियों 1:1-7

1) यह पत्र ईसा मसीह के सेवक पौलुस की ओर से है, जो ईश्वर द्वारा प्रेरित चुना गया और उसके सुसमाचार के प्रचार के लिए नियुक्त किया गया है।

2) जैसा कि धर्मग्रन्थ में लिखा है, ईश्वर ने बहुत पहले अपने नबियों द्वारा इस सुसमाचार की प्रतिज्ञा की थी।

3) यह सुसमाचार ईश्वर के पुत्र, हमारे प्रभु ईसा मसीह के विषय में है।

4) वह मनुष्य के रूप में दाऊद के वंश में उत्पन्न हुए और मृतकों में से जी उठने के कारण पवित्र आत्मा द्वारा सामर्थ्य के साथ ईश्वर के पुत्र प्रमाणित हुए।

5) उन से मुझे प्रेरित बनने का वरदान मिला है, जिससे मैं उनके नाम पर ग़ैर-यहूदियों में प्रचार करूँ और वे लोग विश्वास की अधीनता स्वीकार करें।

6) उन में आप लोग भी हैं, जो ईसा मसीह के समुदाय के लिए चुने गये हैं।

7) मैं उन सबों के नाम यह पत्र लिख रहा हूँ, जो रोम में ईश्वर के कृपापात्र और उसकी प्रजा के सदस्य हैं। हमारा पिता ईश्वर और प्रभु मसीह आप लोगों को अनुग्रह तथा शान्ति प्रदान करें!



सुसमाचार : मत्ती 1:18-24

(18) ईसा मसीह का जन्म इस प्रकार हुआ। उनकी माता मरियम की मँगनी यूसुफ़ से हुई थी, परन्तु ऐसा हुआ कि उनके एक साथ रहने से पहले ही मरियम पवित्र आत्मा से गर्भवती हो गयी।

(19) उसका पति यूसुफ़ चुपके से उसका परित्याग करने की सोच रहा था, क्योंकि वह धर्मी था और मरियम को बदनाम नहीं करना चाहता था।

(20) वह इस पर विचार कर ही रहा था कि उसे स्वप्न में प्रभु का दूत यह कहते दिखाई दिया, "यूसुफ! दाऊद की संतान! अपनी पत्नी मरियम को अपने यहाँ लाने में नहीं डरे,क्योंकि उनके जो गर्भ है, वह पवित्र आत्मा से है।

(21) वे पुत्र प्रसव करेंगी और आप उसका नाम ईसा रखेंगे, क्योंकि वे अपने लोगों को उनके पापों से मुक्त करेगा।"

(22) यह सब इसलिए हुआ कि नबी के मुख से प्रभु ने जो कहा था, वह पूरा हो जाये -

(23) देखो, एक कुँवारी गर्भवती होगी और पुत्र प्रसव करेगी, और उसका नाम एम्मानुएल रखा जायेगा, जिसका अर्थ हैः ईश्वर हमारे साथ है।

(24) यूसुफ़ नींद से उठ कर प्रभु के दूत की आज्ञानुसार अपनी पत्नी को अपने यहाँ ले आया।

📚 मनन-चिंतन

आज के पहले पाठ में हम देखते हैं कि ईश्वर यूदा के राजा आहाज़ को एक चिन्ह देना चाहते हैं, जिसके द्वारा ईश्वर यह प्रकट करना चाहते हैं कि वह सदा उनके साथ हैं और उन्हें उनके राज्य को सदा सुरक्षित रखेंगे और आशीष प्रदान करेंगे। वह चिन्ह यह था कि एक बालक उत्पन्न होगा और जिसका नाम इम्मानुएल रखा जाएगा जिसका अर्थ है ईश्वर हमारे साथ है। आज का सुसमाचार यह दर्शाता है कि नबी इसायाह की वह भविष्यवाणी किस तरह से प्रभु येसु में पूर्ण हुई। माता मरियम वह पवित्र कुँवारी थी जो पवित्र आत्मा की शक्ति से गर्भवती हुईं जिन्होंने उस बच्चे को जन्म दिया जो इम्मानुएल कहलाता है। सन्त योसेफ़ जब ईश्वर की योजना को नहीं समझ पाते हैं तो ईश्वर का दूत उनके सपने में आकर उन्हें ईश्वर की योजना समझाता है।

यूदा राज्य पर सदा से ही ईश्वर की विशेष कृपा थी। जब भी ईश्वर के चुने हुए लोगों पर कोई विपत्ति या संकट आया तो ईश्वर ने सदा उनकी रक्षा की लेकिन लोगों ने ईश्वर पर भरोसा नहीं किया। ईश्वर नहीं चाहते कि ईश्वर पर भरोसा न करने की जो गलती राजा आहाज़ ने की थी वही गलती सन्त योसेफ न दुहराए। अगर हम पूरे मुक्ति इतिहास को एक शब्द में समझने की कोशिश करें तो वह एक शब्द होगा - इम्मानुएल। जब लोगों ने ईश्वर पर भरोसा नहीं किया, ईश्वर की आज्ञाओं का पालन नहीं किया, पाप के रास्ते पर गए तो ईश्वर ने उन्हें निर्वासित किया, लेकिन उस निर्वासन के समय भी ईश्वर ने उन्हे त्यागा नहीं।

उनके प्रति ईश्वर का प्रेम इन शब्दों से व्यक्त किया जा सकता है - “क्या स्त्री अपना दुधमुँहा बच्चा भुला सकती है? क्या वह अपनी गोद के पुत्र पर तरस नहीं खाएगी? यदि वह भुला भी दे, तो भी मैं तुम्हें कभी नहीं भुलाऊँगा।” (इसायाह 49:15)। जब हम ईश्वर से दूर चले जाते हैं, उनकी आज्ञाओं पर नहीं चलते, उन पर भरोसा नहीं करते तो हम भी उन निर्वासित लोगों की तरह हो जाते हैं। ईश्वर की आज्ञाओं को नहीं मानना मृत्यु को चुनने के समान है। लेकिन ईश्वर कहते हैं - मैं पापी की मृत्यु से प्रसन्न नहीं होता। (देखें एजेकिएल 18:23)।

इसलिए प्रभु आज हमसे वादा करते हैं कि वह सदा हमारे साथ हैं, लेकिन यदि हम प्रभु को प्यार करते हैं तो हमें उनकी आज्ञाओं को मानना पड़ेगा। ईश्वर ने अपने से मेल कराने के लिए ही अपने पुत्र प्रभु येसु को भेजा है। हम अपने जीवन में ईश्वर की उपस्थिति को तभी महसूस कर सकते हैं जब हम अपने पापों को त्याग देंगे और अपना जीवन प्रभु को समर्पित कर देंगे। प्रभु येसु हम सबों के दिलों में जन्म लें।



📚 REFLECTION

In the first reading of today we see that God wants to give a sign to king Ahaz of Judah. Through the sign God wants to show him that God is with him to bless and protect him and his kingdom. The sign was of the child who was to be born and the name of the child would be Emmanuel, meaning God is with us. The Gospel of the day describes how that prophecy was to be fulfilled in Jesus Christ. Mother Mary was that virgin who was conceived by the power of the Holy Spirit, and was to give birth to a son who was to be named Emmanuel. God’s plan is revealed to St. Joseph in a dream, because he could not understand what was going on.

The Tribe of Judah and later the kingdom of Judah were the specially chosen people of God. Whenever there was any crisis on these people, God assured them of his protection, but they would not trust in the Lord. God does not want Joseph to repeat the same mistake of not trusting which was made by king Ahaz. If you want to summarize the whole human history and salvation history in one word, that one word would be Emmanuel. When people were not faithful to God, when they went behind other gods, when they did not keep up the statutes and commandments of God, they were punished with exile. But even in exile they were not left without God.

God’s assurance to them can be expressed in these words - “Can a mother forget her nursing child or show no compassion for the child of her womb? Even these may forget yet I will not forget you.”(Isa 49:15). Today we are also in exile in the valley of tears. When we go against God, by not following his statutes and commandments, we also become like people in exile. By choosing to disobey God, we choose death. But God is never happy to see us being destroyed by our sinfulness (cf Ezek 18:23).

Therefore today, he assures us that he is there always with us, but the condition is that we obey his commandments and we trust him. God sent his son, our Lord Jesus to forgive our sins and reconcile us to God. We can have true experience of Emmanuel only when we confess our sins and surrender our life to God. May Jesus be born in the hearts of us all this Christmas. Amen.


मनन-चिंतन - 2

एक बार मैं एक महिला से मिलने गया। वह बहुत कम आवाज़ में बोल रही थी। उसने कहा कि उसका बच्चा अंदर सो रहा था और अगर वह जोर से बोलती तो बच्चे की नींद खुल जाती। हम उन लोगों की जरूरतों, पसंद और नापसंद के बारे में चिंतित हैं जिन्हें हम प्यार करते हैं। अगर हम प्रभु ईश्वर की पसंद और नापसंद के बारे में चिंतित होना सीखेंगे, तो हम पवित्रता में बढ़ेंगे।

जब ईश्वर का वचन हमारे दिलों में बसना शुरू होता है, तब पवित्रता का बीज हमारे जीवन में बोया जाता है। स्तोत्रकार कहता है, “मैंने तेरे वचन को अपने हृदय में सुरिक्षत रखा, जिससे मैं तेरे विरुद्ध पाप न करूँ।” (स्तोत्र 119: 11)। ईश्वर का यह वचन यूसुफ और मरियम के जीवन में जीवित पाया जाता है। जिसके हृदय में ईश्वर का वचन है, वह व्यक्ति अवश्य ही ईमानदार और धर्मी बनता है। यह यूसुफ के जीवन में सच है जिसके कारण संत मत्ती के सुसमाचार में वे एक ईमानदार और न्यायपूर्ण व्यक्ति के रूप में वर्णित है। ऐसे व्यक्ति से परिवार और समाज में ईश्वर की मौजूदगी की लहरें निकलती हैं। ऐसा व्यक्ति ईश्वर की तलाश करता रहता है और भलाई करता चला जाता है। एक ईमानदार व्यक्ति दूसरों के लिए मुसीबतें नहीं लाता बल्कि केवल आराम और सांत्वना देता है। यह संत यूसुफ के जीवन से प्रमाणित है। वे मरियाम के अच्छे नाम को कलंकित नहीं करना चाहते थे और उन्हें चुपके से अनौपचारिक रूप से तलाक देने का फैसला किया। यहाँ तक उनकी मानवीय भावना उन्हें ले जा सकती है। लेकिन ईशवचन उन्हें एक अतिरिक्त मील जाने की मांग की, मरियम को अपनी पत्नी के रूप में घर ले जाने के लिए। इसी तरह से यूसुफ ने अपने साधारण घर में ईश्वर के लिए जगह बनाई। यूसुफ का साधारण घर दुनिया के सबसे सजी हुए गिरिजाघरों और मंदिरों से अधिक महत्वपूर्ण जगह बन गया। उनका दिल सर्वशक्तिमान के लिए एक मंदिर बन गया था। जब मरियम ने ईश्वर को अपने गर्भ में प्राप्त किया, तब यूसुफ ने उसे अपने हृदय में स्वीकार किया। उन्होंने ईश्वर की वाणी का पालन किया और ईश्वर की इच्छा को पूरा किया। येसु ने बाद में कहा, "जो ईश्वर की इच्छा पूरी करता है, वही है मेरा भाई, मेरी बहन और मेरी माता।" (मारकुस 3:35)। लूकस का संस्करण थोड़ा अलग है - "मेरी माता और मेरे भाई वहीं हैं, जो ईश्वर का वचन सुनते और उसका पालन करते हैं" (लूकस 8:21)। ईश्वर की इच्छा के अनुसार जीवन बिता कर हम भी यूसुफ की तरह पवित्र बन सकते हैं। आइए हम प्रभु से प्रार्थना करें कि वे हमें ईश्वर की इच्छा को स्वीकार करने के लिए अनुग्रह प्रदान करें।



REFLECTION

Once I went to visit a lady. She was speaking in a very low voice. She said that her child was sleeping inside and if she spoke loudly, the child’s sleep would be disturbed. We are concerned about the needs, likes and dislikes of people whom we love. If we are concerned about the likes and dislikes of God, we shall grow in holiness.

When the Word of God begins to dwell in our hearts, the seed of holiness is sown in our lives. The Psalmist says, “I treasure your word in my heart, so that I may not sin against you” (Ps 119:11). This Word of God is found alive in the lives of Joseph and Mary. A person with the Word of God in the heart has to be an upright and righteous person. This is true of Joseph who is described in the Gospel of Matthew as an upright and just man. Such a person can and does vibrate the presence of God in the family and in the society. Greater holiness results in greater uprightness. Such a person keeps seeking God and goes about doing good. An upright person does not bring troubles to others but only comfort and consolation. This is testified by the life St. Joseph. He did not want to tarnish the good name of Mary and decided to divorce her informally. This is where his human sense could take him. But the Word in him demanded to go an extra mile, to take her home as his wife. This is how Joseph made space for God in his simple house. Joseph’s simple house became greater than the most adorned cathedrals and basilicas of the world. His heart had become even greater a temple for the Almighty. While Mary received God into her womb, Joseph received him into his heart. He obeyed the voice of God and did God’s will. Jesus would later say, “Whoever does the will of God is my brother and sister and mother” (Mk 3:35). The Lucan version is slightly different – “My mother and my brothers are those who hear the word of God and do it” Lk 8:21). By confirming to God’s will, we too can become holy like Joseph. Let us ask the Lord to give us the grace to confirm to God’s will.


 -Br. Biniush Topno


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04 दिसंबर 2022 चक्र – अ, आगमन का दूसरा इतवार

 

04 दिसंबर 2022

चक्र – अ, आगमन का दूसरा इतवार



📒 पहला पाठ: इसायाह का ग्रन्थ 11:1-10


1) यिशय के धड़ से एक टहनी निकलेगी, उसकी जड़ से एक अंकुर फूटेगा।

2) प्रभु का आत्मा उस पर छाया रहेगा, प्रज्ञा तथा बुद्धि का आत्मा, सुमति तथा धैर्य का आत्मा, ज्ञान तथा ईश्वर पर श्रद्धा का आत्मा।

3) वह प्रभु पर श्रद्धा रखेगा। वह न तो जैसे-तैसे न्याय करेगा, और न सुनी-सुनायी के अनुसार निर्णय देगा।

4) वह न्यायपूर्वक दीन-दुःखियों के मामलों पर विचार करेगा और निष्पक्ष हो कर देश के दरिद्रों को न्याय दिलायेगा। वह अपने शब्दों के डण्डे से अत्याचारियों को मारेगा और अपने निर्णयों से कुकर्मियों का विनाश करेगा।

5) वह न्याय को वस्त्र की तरह पहनेगा और सच्चाई को कमरबन्द की तरह धारण करेगा।

6) तब भेड़िया मेमने के साथ रहेगा, चीता बकरी की बगल में लेट जायेगा, बछड़ा तथा सिंह-शावक साथ-साथ चरेंगे और बालक उन्हें हाँक कर ले चलेगा।

7) गाय और रीछ में मेल-मिलाप होगा और उनके बच्चे साथ-साथ रहेंगे। सिंह बैल की तरह भूसा खायेगा।

8) दुधमुँहा बच्चा नाग के बिल के पास खेलता रहेगा और बालक करैत की बाँबी में हाथ डालेगा।

9) समस्त पवित्र पर्वत पर न तो कोई बुराई करेगा और न किसी की हानि; क्योंकि जिस तरह समुद्र जल से भरा है, उसी तरह देश प्रभु के ज्ञान से भरा होगा।

10) उस दिन यिशय की सन्तति राष्ट्रों के लिए एक चिन्ह बन जायेगी। सभी लोग उनके पास आयेंगे और उसका निवास महिमामय होगा।



📒 दूसरा पाठ : रोमियों 15:4-9



4) धर्म-ग्रन्थ में जो कुछ पहले लिखा गया था, वह हमारी शिक्षा के लिए लिखा गया था, जिससे हमें उस से धैर्य तथा सान्त्वना मिलती रहे और इस प्रकार हम अपनी आशा बनाये रख सकें।

5) ईश्वर ही धैर्य तथा सान्त्वना का स्रोत है। वह आप लोगों को यह वरदान दे कि आप मसीह की शिक्षा के अनुसार आपस में मेल-मिलाप बनाये रखें,

6) जिससे आप लोग एकचित्त हो कर एक स्वर से हमारे प्रभु ईसा मसीह के ईश्वर तथा पिता की स्तुति करते रहें।

7) जिस प्रकार मसीह ने हमें ईश्वर की महिमा के लिए अपनाया, उसी प्रकार आप एक दूसरे को भ्रातृभाव से अपनायें।

8) मैं यह कहना चाहता हूँ कि मसीह यहूदियों के सेवक इसलिए बने कि वह पूर्वजों की दी गयी प्रतिज्ञाएं पूरी कर ईश्वर की सत्यप्रतिज्ञता प्रमाणित करें

9) और इसलिए भी कि गैर-यहूदी, ईश्वर की दया प्राप्त करें, उसकी स्तुति करें। जैसा कि धर्मग्रन्थ में लिखा है- इस कारण मैं ग़ैर-यहूदियों के बीच तेरी स्तुति करूँगा और तेरे नाम की महिमा का गीत गाऊँगा।



📙 सुसमाचार : सन्त मत्ती 3:1-12



योहन बपतिस्ता का उपदेश

(1) उन दिनों योहन बपतिस्ता प्रकट हुआ, जो यहूदिया के निर्जन प्रदेश में यह उपदेश देता था,

(2) "पश्चात्ताप करो। स्वर्ग का राज्य निकट आ गया है।"

(3) यह वही था जिसके विषय में नबी इसायस ने कहा था निर्जन प्रदेश में पुकारने वाले की आवाज-प्रभु का मार्ग तैयार करो; उसके पथ सीधे कर दो।

(4) योहन ऊँट के रोओं का कपड़ा पहने और कमर में चमडे़ का पट्टा बाँधे रहता था। उसका भोजन टिड्डियाँ और वन का मधु था।

(5) येरूसालेम, सारी यहूदिया और समस्त प्रान्त के लोग योहन के पास आते थे।

(6) और अपने पाप स्वीकार करते हुए यर्दन नदी में उस से बपतिस्मा ग्रहण करते थे।

(7) बहुत-से फ़रीसियों और सदूकियों को बपतिस्मा के लिए आते देख कर योहन ने उन से कहा, "साँप के बच्चों! किसने तुम लोगों को आगामी कोप से भागने के लिए सचेत किया ?

(8) पश्चाताप का उचित फल उत्पन्न करो।

(9) और यह न सोचा करो- हम इब्राहीम की संतान हैं, मैं तुम लोगों से कहता हूँ - ईश्वर इन पत्थरों से इब्राहीम के लिए संतान उत्पन्न कर सकता है।

(10) अब पेड़ों की जड़ में कुल्हाड़ा लग चुका है। जो पेड़ अच्छा फल नहीं देता, वह काटा और आग में झोंक दिया जायेगा।

(11) मैं तुम लोगों को जल से पश्चात्ताप का बपतिस्मा देता हूँ ; किन्तु जो मेरे बाद आने वाले हैं, वे मुझ से अधिक शक्तिशाली हैं। मैं उनके जूते उठाने योग्य भी नहीं हूँ। वे तुम्हें पवित्र आत्मा और आग से बपतिस्मा देंगे।

(12) वे हाथ में सूप ले चुके हैं, जिससे वे अपना खलिहान ओसा कर साफ करें। वे अपना गेहूँ बखार में जमा करेंगे। वे भूसी को न बुझने वाली आग में जला देंगे।



📚 मनन-चिंतन



आज का पहला पाठ उस समय की झलक दिखाता है जब दुनिया में मुक्तिदाता का निवास होगा तो किस तरह से यह दुनिया बदल जाएगी। संसार में घृणा और डर मिट जाएगा और न केवल मनुष्य आपस मे मिल-जुलकर प्रेम से रहेंगे बल्कि जंगल के जीव जन्तु भी प्रेम से एक साथ रहेंगे। आपसी प्रेम सद्भाव का मिलता-जुलता संदेश हमें आज के दूसरे पाठ में भी मिलता है जहां संत पौलुस बताते हैं कि ईश्वर से और एक दूसरे से मेल कराने के लिए ही प्रभु येसु इस दुनिया में आए हैं। ईश्वर का प्रेम समस्त मानव जाति को एक बंधन में बांधे रहता है। ईश्वर के प्रेम को अनुभव करने के बाद ही हम एक दूसरे को प्यार कर सकते हैं, और सभी के साथ प्रेम-भाव से रह सकते हैं। आज का सुसमाचार ईश्वर का मार्ग तैयार करने का संदेश देता है।

ऐसा क्या है जो हमारे आपसी प्रेम-भाव को नष्ट करता है? प्रभु का रास्ता और मार्ग कौन सा है जो हमें सीधा करना है? मानव इतिहास में तो प्रभु येसु ने दो हजार साल पहले जन्म ले लिया है लेकिन प्रत्येक क्रिसमस पर वह हमारे दिल में और हमारे घरों में जन्म लेते हैं। लेकिन वह ऐसे दिल या घर में कैसे जन्म ले सकते हैं, जो उन्हें ग्रहण करने के लिए तैयार ही नहीं है? यह समय हमारे हृदयों को प्रभु के लिए तैयार करने का समय है, ताकि प्रभु हमारे हृदय और परिवार में जन्म ले सकें और हमारे द्वारा दूसरों को भी आशीष और कृपायें प्रदान कर सकें।

हम अक्सर अपने हृदय की तैयारी पर ज्यादा ध्यान नहीं देते हैं। हमारे दिल में नफरत और ईर्ष्या रूपी पहाड़ हैं जो हमने खुद खड़े किए हैं, पाप और दुष्कर्मों की ऐसी घाटियां हैं जो हमने पाप स्वीकार संस्कार ग्रहण ना करने के कारण बना डाली हैं। इस दुनिया के तौर तरीकों में बह जाने के कारण हमारे हृदय की रहें भी टेढ़ी-मेढ़ी हो जाती हैं। हमारी विचार-दर सीधी और सरल नहीं रह पाती। हमारे हृदयों में भलाई के लिए कोई जगह नहीं बच पाती।

यदि हमारे हृदयों में ईश्वर को जन्म लेना है तो हमें घृणा और नफरत के पहाड़ और पहाड़ियाँ समतल करने पड़ेंगे, पाप और दुष्कर्मों की घाटियाँ भर देनी पड़ेंगी, हृदय के मार्ग सीधे करने पड़ेंगे। आइए हम इस आगमन काल में प्रार्थना करें कि आपसी प्रेम-भाव का ऐसा उदाहरण प्रस्तुत करें कि सारी दुनिया में यह फैल जाए ताकि अमन और शांति का राजकुमार सभी के दिलों में जन्म ले सके।



📚 REFLECTION



Today’s first reading shows us the glimpse of how the world will be transformed when the Saviour comes. The hatred and fear will have no place in the world, there will be peace and harmony not only among human beings but also among other wild animals and creatures of the jungle. Similar message of harmony is given by St. Paul in the second reading of today. Christ has come down to unite whole humanity into God and one another. God’s love is the uniting force for whole humanity. It is only after experiencing God’s love that we can love one another and live in true harmony. The Gospel talks about preparing the way for the Lord.

What is it that destroys our harmony? What is the way and path of the Lord that we need to make straight? Jesus has been born into the human history two thousand years ago, but every Christmas he is born into our hearts and our homes. But how can he be born into a heart or home that has been not prepared to receive him? The season of Advent invites us to prepare our hearts and families for Christ to be born so that he can bless whole humanity through his chosen people.

We human beings very often do not pay much attention to prepare ourselves; to prepare our hearts. There are mountains of hatred towards each other that we build in our hearts. There are valleys of jealousy and sinfulness that we create when we do not receive the sacrament of reconciliation regularly. Being influenced by the ways of the world, the ways of our hearts also become crooked, our attitude looses its straightforwardness. There is hardly any place that remains for goodness in our hearts.

If God has to be born in our hearts than the mountains of hatred have to be leveled, the valleys of jealousy and sinfulness have to be filled up and made plain, the crooked ways of our heart have to be straightened. We pray during this advent that we may present an example of harmony and love so that our hearts may become appropriate place for the birth of the Prince of peace and harmony.



📚 मनन-चिंतन - 2



संत योहन बपतिस्ता मसीह के आगमन के लिए मार्ग तैयार करने वाले थे। वे यहूदिया के रेगिस्तान में रह कर एक तपस्वी जीवन जी रहे थे। उन्होंने ऊंट के रोओं से बने परिधान और कमर में चमड़े की बेल्ट पहनी थी। वे जंगली शहद और टिड्डे खाते थे। वे अपने तरीके, व्यवहार और जीवन-शैली में समाज के सामान्य लोगों से अलग ही थे। वे चाहते थे कि लोग अपनी-अपनी विभिन्न गतिविधियों के बीच कुछ समय के लिए रुक कर स्वयं के जीवन की ओर देखें कि क्या मुझे प्रभु के मसीह का स्वागत करने के लिए सक्षम होने हेतु खुद को बदलने की आवश्यकता तो न्हीं है। संत योहन बपतिस्ता का प्रचारकार्य एक ही समय में एक निमंत्रण और एक चेतावनी दोनों था। वे ईश्वर के राज्य के आगमन की घोषणा कर रहे थे और लोगों को उसमें प्रवेश करने के लिए आमंत्रित कर रहे थे। वे मसीह के आने के संदेश का अग्रदूत थे। दूसरी ओर वे न्याय और नैतिकता की परवाह न करने वालों को चेतावनी भी दे रहे थे। उन्होंने चेतावनी दी कि कुकर्मियों का दण्ड आसन्न था। संत योहन बपतिस्ता के निमंत्रण और चेतावनी को सुनना और समझना हमारे लिए भी लाभदायक हो सकता है।




REFLECTION

St. John the Baptist was the precursor of the Messiah. He lived in the desert of Judea leading an ascetical life. He wore a garment made of camel-hair and a leather belt around his waist. He ate wild honey and locust. He stood out in the midst of ordinary people of the society in his mannerism, behaviour and life-style. He wanted people engaged in various activities to pause for a while and look at their own lives to see whether they needed to change themselves to be able to welcome the Messiah of the Lord. The preaching of St. John the Baptist was both an invitation and a warning at the same time. He was proclaiming the nearness of the Kingdom of God inviting people to enter into it. He was harbinger of the message of the coming of the Messiah. On the other hand he had a warning for those who cared least for morality and justice. He warned that the punishment of the evil people was imminent. It may be worth listening to the invitation and warning of St. John the Baptist.


 -Br. Biniush Topno


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Praise the Lord!

20 नवंबर 2022 ख्रीस्तराजा का समारोह

 

20 नवंबर 2022

ख्रीस्तराजा का समारोह



पहला पाठ : 2 समुएल 5:1-3


1) इस्राएल के सभी वंशों ने हेब्रोन में दाऊद के पास आकर कहा, "देखिए, हम आपके रक्त-सम्बन्धी हैं।

2) जब साऊल हम पर राज्य करते थे, तब पहले भी आप ही इस्राएलियों को युद्ध के लिए ले जाते और वापस लाते थे। प्रभु ने आप से कहा है, ‘तुम ही मेरी प्रजा इस्राएल के चरवाहा, इस्राएल के शासक बन जाओगे।"

3) इस्राएल के सभी नेता हेब्रोन में राजा के पास आये और दाऊद ने हेब्रोन में प्रभु के सामने उनके साथ समझौता कर लिया। उन्होंने दाऊद का इस्राएल के राजा के रूप में अभिशेक किया।



दूसरा पाठ : कलोसियों 1:12-20


12) सब कुछ आनन्द के साथ सह सकेंगे और पिता को धन्यवाद देंगे, जिसने आप को इस योग्य बनाया है कि आप ज्योति के राज्य में रहने वाले सन्तों के सहभागी बनें।

13) ईश्वर हमें अन्धकार की अधीनता से निकाल कर अपने प्रिय पुत्र के राज्य में ले आया।

14) उस पुत्र के द्वारा हमारा उद्धार हुआ है, अर्थात् हमें पापों की क्षमा मिली है।

15) ईसा मसीह अदृश्य ईश्वर के प्रतिरूप तथा समस्त सृष्टि के पहलौठे हैं;

16) क्योंकि उन्हीं के द्वारा सब कुछ की सृष्टि हुई है। सब कुछ - चाहे वह स्वर्ग में हो या पृथ्वी पर, चाहे दृश्य हो या अदृश्य, और स्वर्गदूतों की श्रेणियां भी - सब कुछ उनके द्वारा और उनके लिए सृष्ट किया गया है।

17) वह समस्त सृष्टि के पहले से विद्यमान हैं और समस्त सृष्टि उन में ही टिकी हुई है।

18) वही शरीर अर्थात् कलीसिया के शीर्ष हैं। वही मूल कारण हैं और मृतकों में से प्रथम जी उठने वाले भी, इसलिए वह सभी बातों में सर्वश्रेष्ठ हैं।

19) ईश्वर ने चाहा कि उन में सब प्रकार की परिपूर्णता हो।

20) मसीह ने क्रूस पर जो रक्त बहाया, उसके द्वारा ईश्वर ने शान्ति की स्थापना की। इस तरह ईश्वर ने उन्हीं के द्वारा सब कुछ का, चाहे वह पृथ्वी पर हो या स्वर्ग में, अपने से मेल कराया।



सुसमाचार : लूकस 23:35-43



35) जनता खड़ी हो कर यह सब देख ही थी। नेता यह कहते हुए उनका उपहास करते थे, "इसने दूसरों को बचाया। यदि यह ईश्वर का मसीह और परमप्रिय है, तो अपने को बचाये।"

36) सैनिकों ने भी उनका उपहास किया। वे पास आ कर उन्हें खट्ठी अंगूरी देते हुए बोले,

37) "यदि तू यहूदियों का राजा है, तो अपने को बचा"।

38) ईसा के ऊपर लिखा हुआ था, "यह यहूदियों का राजा है"।

39) क्रूस पर चढ़ाये हुए कुकर्मियों में एक इस प्रकार ईसा की निन्दा करता था, "तू मसीह है न? तो अपने को और हमें भी बचा।"

40) पर दूसरे ने उसे डाँट कर कहा, "क्या तुझे ईश्वर का भी डर नहीं? तू भी तो वही दण्ड भोग रहा है।

41) हमारा दण्ड न्यायसंगत है, क्योंकि हम अपनी करनी का फल भोग रहे हैं; पर इन्होंने कोई अपराध नहीं किया है।"

42) तब उसने कहा, "ईसा! जब आप अपने राज्य में आयेंगे, तो मुझे याद कीजिएगा"।

43) उन्होंने उस से कहा, "मैं तुम से यह कहता हूँ कि तुम आज ही परलोक में मेरे साथ होगे"।



📚 मनन-चिंतन


इस संसार ने अपने अपने समय में न जाने कितने महान राजाओं और समाट्र को देखा। कितने बु़िद्धमान कुशल, ईमानदार और वीर राजाओं को देखा, इसके साथ साथ कई कमजोर और अकुशल, बेईमान और धोखेबाज राजाओं को भी देखा होगा। अब तक न जाने कितने राजा आयें और चले गयंे परंतु किसी भी राजा का राज्य ज्यादा समय तक टिक नहीं पाया। आज हम ऐसे राजा का पर्व मना रहें है जो इस संसार से परे है जिसे सर्वोच्च प्रभु के पुत्र से जाना जाता है, जो पूरी कायनात का राजा है और वह है राजा येसु ख्रीस्त, जो प्रभुओं का प्रभु और राजाओं का राजा हैं तथा जिसका राज्य का कभी अंत नहीं होगा। जिसकी व्याख्या स्वर्गदूत गाब्रिएल मरियम को येसु के जन्म का संदेश देते समय करते हैं, ‘‘देखिए, आप गर्भवती होंगी, पुत्र प्रसव करेंगी और उनका नाम ईसा रखेंगी। वे महान् होंगे और सर्वोच्च प्रभु के पुत्र कहलायेंगे। प्रभु-ईश्वर उन्हें उनके पिता दाऊद का सिंहासन प्रदान करेगा, वे याकूब के घराने पर सदा-सर्वदा राज्य करेंगे और उनके राज्य का अन्त नहीं होगा।’’ (लूकस 1ः31-33)

प्रभु येसु ख्रीस्त का साधारण से चरनी में जन्म लेना (लूकस 2ः7) और येसु को लोगो द्वारा राजा बनाये जाने का पता चलने पर स्वयं को अलग कर पहाड़ पर चले जाना (योहन 6ः15); ये घटना हमारे मन में प्रश्न करती हैं कि जब प्रभु अपने आप को राजा नहीं बनाना या कहलवाना चाहते थे तो फिर आज के पर्व क्या तात्पर्य है। इसे समझने के लिए हमें ईश्वर की दृष्टि से देखना होगा न की इस संसार की दृष्टि से; क्योकि ईश्वर का राज्य इस संसार का नहीं हैं, जिसे प्रभु येसु ख्रीस्त ने स्वयं योहन 18ः36 में कहा है, ‘‘मेरा राज्य इस संसार का नहीं है। यदि मेरा राज्य इस संसार का होता तो मेरे अनुयायी लडते और मैं यहुदियों के हवाले नहीं किया जाता। परंतु मेरा राज्य यहॉं का नहीं है।’’

प्रभु का राजत्व इस संसार के राजत्व से बिलकुल अलग है। जब येसु इस संसार में थे तब उनके शिष्य, यहुदी जनता और लोग प्रभु येसु को इस संसार के बाकी राजाओं के समान ही एक राजा बनाने के हिसाब से देख रहें थे। विशेषकर वह राजा जो उन्हें रोम के शासन से मुक्त करेगा, जिसकी विशाल सेना होगी, तथा वह अस्त्र और शस्त्र से युद्ध पर विजय प्राप्त करेगा। वे उन्हे एक करिश्माई इंसान के रूप में देख रहे थे जो आगे चल कर उनका राजा बनेगा परंतु शिष्यों को येसु के पुनरुत्थान एवं पेन्तेकोस्त के बाद ही समझ में आया कि येसु साधारण मनुष्य ही नहीं पर वह प्रभु है जो प्रभुओं का प्रभु और राजाओ का राजा है। वे केवल छोटे से राज्य के ही नहीं परंतु समस्त संसार, आकाश और पृथ्वी तथा समस्त सृष्टि के राजा है, स्वामि है।

आज का पर्व हमंे क्या संदेश देता हैं? आज का पर्व हमें यह संदेश देता है कि अगर हम येसु को इस संसार की दृष्टि से देखेंगे तो हम अपने आप को सच्चाई से दूर रखंेगे तथा येसु हमारे लिए बहुत ही सीमित हो जायेंगे परंतु जब हम येसु को ईश्वर की दृष्टि से देखेंगे तो हमें सच्चाई का पता चलेगा कि येसु एक महान और असीमित प्रभु है जो राजाओं का राजा और प्रभुओं का प्रभु है (1 तिमथी 6ः15), जिसे स्वर्ग और पृथ्वी पर पूरा अधिकार अब पहले और सभी युगों के लिए दिया गया हैं (मत्ती 28ः18)।

आज का पर्व हमें प्रभु येसु को अपने जीवन का राजा बनाने के लिए आमंत्रित करता हैं। प्रभु येसु को अपने जीवन का राजा बनाना अर्थात् उसकी बातें सुनना, उससे प्रेम करना, उसकी सेवा करना और उसका अनुसरण करना है। जब हम उसके साथ चलने की कोशिश करते है, जब हम सम्पूर्ण रूप से अपना जीवन सुसमाचार की आत्मा के अनुसार जीते है और जब वह सुसमाचार की आत्मा हमारे जीवन के हर क्षेत्र पर समा जाता है तभी हम उसके राज्य के रहवासी कहलाते हैं। अगर येसु सच में हमारेे जीवन का राजा है तो वह हमारे जीवन के हर भाग का राजा होना चाहिए, तथा हमे उसे हमारे जीवन के हर क्षेत्र में राज करने देना चाहिए।

ख्रीस्त राजा का पर्व हर साल पूजनविधि के अंतिम रविवार में मनाया जाता है। यह पर्व हमें बताता हैं कि हमें याद रखना चाहिए कि अंत में हमारे साथ क्या होने वाला है। आज के पाठों द्वारा ईश्वर प्रकट करते है कि अंत मंे सबका न्याय होगा। अंत में प्रभु राजा अपनी महिमा के साथ आयेगा और एक चरवाहे की तरह न्याय करेगा। एज़केएिल 34ः17, ‘‘मेरी भेड़ों! तुम्हारे विषय में प्रभु-ईश्वर यह कहता है- मैं एक-एक कर के भेड़ों, मेढ़ों और बकरों का- सब का न्याय करूॅंगा।’’ मत्ती 25ः31-32, ‘‘जब मानव पुत्र सब स्वर्गदूतों के साथ महिमा-सहित आयेगा, तो वह अपने मिहमामय सिंहासन पर विराजमान होगा और सभी राष्ट्र उसके सम्मुख एकत्र किये जायेंगे। जिस तरह चरवाहा भेड़ों को बकरियों से अलग करता है, उसी तरह वह लोगों को एक दूसरे से अलग कर देगा।’’

संत मत्ती के सुसमाचार में येसु भेडो़ को प्रभु के कृपापात्र कहते है। क्योंकि उन्होने अपने को प्रभु की कृपा प्राप्त करने लायक बनाया। ये वो लोग हैं जिन्होने ईश्वर के स्वाभाव को अपने जीवन द्वारा दर्शाया। ईश्वर के स्वाभाव के कुछ अंश एजे़किएल 34ः16 में बताया गया है, ‘‘प्रभु कहता है- जो भेड़ें खो गयी हैं, मैं उन्हें खोज निकालूॅंगा, जो भटक गयी हैं, मैं उन्हे लौटा लाऊॅंगा, जो घायल हो गयी हैं उनके घावों पर पट्टी बॉंधूगाा, जो बीमार हैं, उन्हें चंगा करूॅंगा, जो मोटी और भली चंगी हैं, उनकी देखरेख करूॅंगा।’’ यह वचन हमें बताता है कि किस प्रकार प्रभु अपने लोगों का ख्याल रखता है, रक्षा करता है, पट्टी लगाता है तथा देखरेख करता है। यहीं स्वाभाव को अपना कर जो दूसरों के लिए कार्य करता है जैसे भूखों को खिलाना, प्यासों को पिलाना, परदेशी को अपने यहॉं ठहराना, नंगों को पहनाना, बीमारों को भेंट करना, बंदी को मिलने जाना इत्यादि तो वह प्रभु का कृपापात्र बन जाता हैं, जिससे प्रभु कहते है, ‘तुमने मेरे भाइयों में से किसी एक के लिए, चाहे वह कितना ही छोटा क्यों न हो, जो कुछ किया, वह तुमने मेरे लिए ही किया। आओ और उस राज्य के अधिकारी बनो, जो संसार के प्रारंभ से तुम लोगों के लिए तैयार किया गया है।’ जो प्रभु को अपना राजा मानते हैं वह ईश्वरीय राज्य के अनुसार तथा उनके वचन के अनुसार कार्य भी करते हैं और इसका फल उन्हे जरूर प्राप्त होगा।

आईये आज के इस पर्व के दिन येसु को हम सच्चे हृदय से अपना राजा माने जो हमारी देखरेख एक सच्चे चरवाहा के समान करता है। तथा हम अपने आप को उसका सच्चा भेड़ कहलाने योग्य जीवन बिताये। आमेन!



📚 REFLECTION


This world has seen so many kings and emperors in its own times; The wise, skilled, honest, and brave kings along with weak, unskilled, dishonest and double-dealer kings. Till now so many kings came and went but none of their kingdom could remain for longer times. Today we are celebrating the feast of that King who is apart from this world, who is the Son of the Most High, who is the King of the Universe and he is the King Jesus Christ who is Lord of lords and King of kings and his Kingdom will never end and this we find in the gospel of Luke 1:31-33 where angel Gabriel gives the message to Mary about the birth of Jesus, “You will conceive in your womb and bear a son, and you will name him Jesus. He will be great, and will be called the Son of the Most High, and the Lord God will give to him the throne of his ancestor David. He will reign over the house of Jacob forever, and of his kingdom there will be no end.”

Jesus taking birth in a manger (Lk 2:7) and Jesus withdrawing himself to the mountain after realizing that people were about to come and take him by force to make him king (Jn 6:1); these events put a question in our minds that when Jesus himself does not want to be called as king then what is the meaning of today’s feast. To understand this we have to see from the view point of God and not from the world’s point of view; because God’s kingdom is not of this world, as Jesus himself says in Jn 18:36, “My kingdom is not from this world. If my kingdom were from this world, my followers would be fighting to keep me from being handed over to the Jews. But as it is, my kingdom is not from here.”

God’s kingship is different from the world’s kingship. When Jesus was in this world in bodily form, his disciples, Jews people, and crowd understood Jesus to be the king like that of the other kings in the world. Especially to be the king who will free them from Romans, who will have large armies and will win the battle through weapons. They were looking him as a charismatic person who will become their king but only after the resurrection and Pentecost events the disciples understood that Jesus in not only a charismatic human person but He is real God who is Lord of lords and King of kings. He is not merely the king of small state but he is the King and owner of whole world, heaven and earth and whole creation.

What message do we get from today’s feast? Today’s feast gives us the message that if we look Jesus from the world’s point of view then we will limit ourselves from knowing the truth and Jesus will remain very limited to us but if we see Jesus from God’s point of view then we will know the reality that Jesus is mighty God without any limit who is King of kings and Lord of lords (1 Tim 6:15), who has been given all authority in heaven and on earth now and the ages to come (Mt 28:18).

Today’s feast invites us to make and acknowledge Lord Jesus the King of our lives. To make Jesus our King means to listen to him, to love him, serve him and follow him. We belong to his Kingdom only when we try to walk with him; try to live our lives fully in the spirit of the Gospel and when that Gospel spirit penetrates every facet of our living. If Jesus is really the King of our lives then he must be King of every part of our lives, and we must let him reign in all parts of our lives.

Christ the King feast is celebrated every year on the last Sunday of the liturgy. This feast tells us that we should remember what is going to happen to us at the end. Through today’s reading God reveals that at the end there will be a judgement for all. At the end God as King will come with his glory and judge as the Shepherd. As we read in Ezekiel 34:17, “As for you, my flock, thus says the Lord God: I shall judge between sheep and sheep, between rams and goats.” And Mt 25:31-32, “When the Son of Man comes in his glory, and all the angels with him, then he will sit on the throne of his glory. All the nations will be gathered before him, and he will separate people one from another as a shepherd separates the sheep from the goats.”

In gospel of Matthew Jesus calls the sheep ‘blessed by my father’ because they have made themselves worthy of receiving blessings from God. These are the people who have shown the glimpse of God’s nature through their lives. Glimpse of God’s nature is shown in Ezekiel 34:16, “I will seek the lost, and I will bring back the strayed, and I will bind up the injured, and I will strengthen the weak, but the fat and the strong I will destroy. I will feed them with justice.” This verse tells us that how God takes care, protects, nurses and look after his people. Imbibing this nature one who serve others like feeding the hungry, giving to drink for the thirsty, welcoming the stranger, clothing the naked, taking care of the sick, visiting the prisoner and so on then he/she becomes worthy of the blessings of the Father, to whom God says, ‘Just as you did it to one of the least of these who are members of my family, you did it to me. Come inherit the kingdom prepared for you from the foundation of the world.’ Those who accept God as their King they live and work according to God’s kingdom and his words and they will receive its fruit for sure.

On the occasion of today’s feast let’s accept Jesus with sincere heart as our King who takes care of us like a true shepherd and at the same time let us make ourselves worthy to be called his true sheep. Amen!



मनन-चिंतन -2


समुएल के पहले ग्रन्थ के अध्याय 8 में हम देखते हैं कि जब इस्राएली लोगों ने समुएल से उनके लिए एक राजा को नियुक्त करने की मांग की, तो वे वास्तव में, ईश्वर को अपने राजा के रूप में अस्वीकार कर रहे थे। प्रभु ने तब समुएल से कहा कि वे उनकी आवाज सुनें और साऊल को उनके राजा के रूप में अभिषिक्त करें, परन्तु उससे पहले वे उन्हें मानव राजाओं के शोषण और उत्पीड़न के तरीकों के बारे में चेतावनी दें। तत्पश्चात्‍ कई राजाओं ने इस्राएल का शासन किया। परन्तु इस्राएल में राजशाही विफल थी। प्रभु येसु ईश्वर के मन के अनुरूप राजा है। जब ज्योतिषी येसु की खोज में पूरब से आए थे, तो उन्होंने हेरोद से कहा, “यहूदियों के नवजात राजा कहाँ हैं? हमने उनका तारा उदित होते देखा। हम उन्हें दण्डवत् करने आये हैं।”(मत्ती 2:2) लेकिन इस राजा का जन्म एक चरनी में हुआ था। उन्हें हेरोद के प्रकोप से बचना था जो उसे मारना चाहते थे। इसलिए यूसुफ और मरियम उन्हें मिस्र ले गए। उन्होंने सादगी का जीवन व्यतीत किया। लगभग तीस वर्षों तक उन्होंने एक प्रकार से गुप्त जीवन जिया। उसके बाद उन्होंने लगभग तीन साल का सार्वजनिक जीवन बिताया। अपने सार्वजनिक कार्य की शुरुआत में नथानिएल ने उन्हें ’इस्राएल के राजा’ माना (देखें योहन 1:49)। रोटियों के चमत्कार के बाद, भीड़ उसे एक सांसारिक राजा बनाना चाहती थी, लेकिन वे बच कर पहाडी पर चले गये (देखें योहन 6:15)। अपने सार्वजनिक जीवन के अंत में, उन्हें बहुत कुछ सहना पड़ा और क्रूस पर मरना पड़ा। जब पिलातुस के द्वारा सवाल किया गया, तो उन्होंने स्वीकार किया कि वे राजा हैं लेकिन उन्होंने कहा कि उनका राज्य इस दुनिया का नहीं है (देखें योहन 18:36)। येसु सांसारिक राजाओं के समान नहीं है। वे राजा है जो प्यार करता है और सेवा करता है। वे दया और करुणा से भरे हैं। वे राजाओं का राजा और प्रभुओं का प्रभु हैं। सन 1925 में संत पापा पीयुस ग्यारहवें ने हर चीज और हर किसी पर प्रभु येसु की संप्रभुता को स्वीकार करने के लिए ख्रीस्त राजा के पर्व की घोषणा की। जब वे सिंहासन पर विराजमान हैं तब हम सभी सेवक होते हैं। वे चाहते हैं कि हम नम्रता से एक-दूसरे की सेवा करें।



REFLECTION


In 1 Sam 8, when the people of Israel demanded Samuel to anoint someone as a king for them, they were, in fact, rejecting God as their king. God then told Samuel to listen to their voice and anoint Saul as their king, after warning them about the exploiting and harassing ways of human kings. Monarchy in Israel was a failure. Jesus is King according to God’s mind. When the wise men came from the east in search of child Jesus, they said to Herod, “Where is the child who has been born king of the Jews? For we observed his star at its rising, and have come to pay him homage.” (Mt 2:2) But this king was born in a manger. He had to also escape the fury of Herod who wanted to kill him. Hence Joseph and Mary carried him to Egypt. He lived a simple life. For almost thirty years he lived an unassuming life. Then he had about three years of public life. At the beginning of his ministry Nathanael acknowledged him as the king of Israel (cf. Jn 1:49). After the multiplication of the bread, the crowd wanted to make him an earthly king, but “he withdrew again to the mountain by himself” (Jn 6:15). At the end of his public ministry, he had to suffer so much and die on the cross. When questioned by Pilate, he acknowledged that he was king but he added that his kingdom was not of this world (cf. Jn 18:36). Jesus is king unlike other earthly kings. He is a king who loves and serves. He is full of mercy and compassion. He is the King of kings and the Lord of lords. In 1925 Pope Pius XI instituted the Feast of Christ the King to acknowledge Jesus’ sovereignty over everything and everyone. When he is on the throne we are all his servants. He wants us to serve one another in humility.



प्रवचन


आज हम राजाधिराज प्रभु येसु का माहोत्सव मना रहे हैं आज के दूसरे पाठ में हमने सुना कि प्रभु येसु “अदृष्य ईश्वर के प्रतिरूप तथा समस्त सृष्टी के पहलौटे हैं, क्योंकि उन्हीं के द्वारा सब कुछ की सृष्टी हुई है... वह समस्त सृष्टी के पहले से विद्यमान है और समस्त सृष्टी उन में ही टीकी हुई है।...इसलिए वह सभी बातों में सर्वश्रेठ है। ईश्वर ने चाहा कि उनमें सब प्रकार की परिपूर्णता है” (कोलो 1:15-18)। इसलिए प्रभु येसु एक सर्वश्रेष्ठ व सर्वोपरी राजा है। पर वे कहते हैं – “मेरा राज्य इस संसार का नहीं है। यदि मेरा राज्य इस संसार का होता तो मेरे अनुयायी लडते और मैं यहूदियों के हवाले नहीं किया जाता। परन्तु मेरा राज्य यहाँ का नहीं है’’ (योहन 18:36)। यह साफ तौर पर ज़ाहिर है कि येसु का राजत्व इस संसार के लिए नहीं है। वे दुनिया के सब राजाओं से भिन्न हैं। उनका राज-मुकुट काँटों का था; जो राजकीय वस्त्र उन्हें पहनाया गया था, वो मज़ाक व बेइज्जती का प्रतीक लाल चौगा था; उनका राजदंड था सरकंडा जिसे दुशमनों ने उनके ही सिर मारा था। ख्रीस्त ने, न तो दुनिया के जाने-माने राजाओं की श्रेणी में खुद को गिने जाने का दावा किया और न ही किसी राजा की बराबरी करना चाहा। उन्होंने हर प्रकार के सांसारिक वैभव व शानो-शौकत को ठुकरा दिया। उनका जन्म एक छोटी सी गौशाला में हुआ क्योंकि उनके लिए सराय में जगह नहीं थी (लुक 2:7), उनके सार्वजनिक जीवन की शुरूआत के पहले जब शैतान उन्हें ‘‘अत्यंत ऊँचे पहाड पर ले गया और संसार के सभी राज्य और वैभव दिखला कर बोला, ‘यदि आप दंडवत कर मेरी आराधना करें, तो मैं आप को यह सब दे दूँगा।’ येसु ने उत्तर दिया, ‘‘हट जा शैतान क्योँकि लिखा है - अपने प्रभु ईश्वर की आराधना करो और केवल उसी की सेवा करो’’ (मत्ती 4:8-10)। आज के सुसमाचार में हमने सुना कि जब सैनिकों ने उनकी हंसी उडाते हुए उनसे कहा है - ‘‘यदि तू यहूदियों का राजा है तो अपने को बचा।’’ पर प्रभु ने वहां पर भी अपने निजी महिमा दिखाने के लिए अपनी शक्ति का प्रदर्शन नहीं किया।

जब हमारे प्रभु ने पाँच रोटियों और दो मछलियों से पाँच हज़ार लोगों को भोजन कराया, तो लोग उन्हें राजा बनाना चाहते थे। लेकिन प्रभु येसु राजा बनने से इनकार कर देते हैं क्योंकि वे उन्हें सांसारिक राजा बनाना चाहते थे (योहन 6:15)। उनका राज्य इस दुनिया के राजायों जैसा धन-दौलत, शक्ति, सेना, साम्राज्य, ज़मीन-जायदाद वाला राज्य नहीं है। वे कहते हैं मेरा राज्य इस दुनिया का नहीं है (योहन 18:36)। जिस राज्य की प्रभु येसु बात कर रहे थे उसे न तो पिलातुस, न यहूदी और दुनिया की कोई भी ताकत मिटा सकती है। उनका राज्य विश्वासियों के दिलों में स्थापित किया गया है। सम्राटों पर सम्राट पैदा हुए व प्रभु येसु को लोगों के दिलों के सिहासन से हटाने की नाकामियाब कोशिश की; कई प्रकार की भ्रांत व भटकाने वाली शिक्षायें व सिद्धांत आये, व राजनैतिक शक्तियों व असामाजिक ताकतों ने प्रभु येसु को लोगों के दिलों से दूर करने की लाखों कोशिश की व आज तक कोशिश की जा रही हैं पर सब व्यर्थ है। पिछले कुछ सालों से इस्लामिक स्टेट के आतंकियों ने कई मासूम व निर्दोष ईसाईयों का संहार किया; हमारे देश में ओडिशा के कंधमाल जिले में हजारों ईसाईयों का खून बहाया गया, परन्तु कोई भी लोगों के दिलों से येसु को अलग नहीं कर सके। और कभी कर भी नहीं पायेंगे। क्योंकि प्रभु येसु वह राजा है जिनके पास सर्वोच्च शक्ति है। वे सारे ब्रह्माण्ड के राजा है। संत मत्ती के सुसमाचार 28:18 में प्रभु ने कहा है - ‘‘मुझे स्वर्ग में और पृथ्वी पर पूरा अधिकार मिला है।’’

प्रभु एक ऐसे राज्य के राजा हैं जो इस संसार का नहीं है। उनका राज्य स्वर्ग का राज्य है। ये राज्य हम मनुष्यों की आसान पहुँच से दूर था। इसलिए हमारे राजा स्वयं इसे हमारे करीब लेकर आये हैं। प्रभु के आगमन पर संत योहन बपतिस्ता कहते हैं - ‘‘समय पूरा हो चुका है। ईश्वर का राज्य निकट आ गया है’’ (मारकुस 1:15)। प्रभु येसु के इस धरा पर आगमन के साथ ईश्वर का राज्य हमारे निकट, हमारे बीच आ गया। और इसमें प्रवेश करने के लिए वचन कहता है - ‘‘पश्चाताप करो और सुसमाचार में विश्वास करो’’ (मारकुस 1:15)। यदि हमें ख्रीस्त राजा की प्रजा बनना है, शैतान व उसके पाप व अंधकार के राज्य तथा उसकी शक्तियों से छुटकरा पाना है तो हमें हमारे गुनाहों पर पश्चताप करना होगा व सुसमाचार में विश्वास करना होगा, स्वयं को ईश्वर के आत्मा व उसके सामर्थ्य के सम्मुख समर्पित करना होगा। ईश्वर के राज्य की स्थापना करने का आधार है इन्सान का ईश्वर से मेल-मिलाप कराना। उस सदियों पुराने रिश्ते को पुनः जोडना जिसे हमारे आदि माता-पिता के पाप के द्वारा तोड दिया गया था। इस मेल-मिलाप का जिम्मा हमारे प्रभु येसु, हमारे राजा ने अपने ऊपर ले लिया है। उन्होंने अपने दुःखभोग, मरण एवं पुनरूत्थान द्वारा पिता से हमारा मेल कराया है। प्रभु येसु हमारे लिए क्रूस पर इसलिए मरे कि शैतान के राज्य का अंत हो जाये और प्रभु हम सब पर, हमारे दिलों पर हमेशा शासन करते रहें। बपतिस्मा में प्रभु येसु को धारण करके हम ज्योति की संतान बन गये हैं संत पौलुस हमसे कहते हैं ‘‘भाईयों आप लोग अंधकार में नहीं हैं ... आप सब ज्योति की संतान है,...हम रात या अंधकार के नहीं हैं’’ (1 थेस. 5:4)। अतः यदि हम ख्रीस्त राजा की प्रजा बन गये हैं, तो हम सब का ये फर्ज़ बनता है, कि हम उसके राज्य को फैलायें।

आज का यह पर्व ‘ख्रीस्त राजा की जय!‘ ‘प्रभु हमारा राजा है!‘ आदि नारे लगाने व गीत गाने भर तक सीमित नहीं रहना चाहिए। प्रभु आज हमें हमारी आध्यात्मिक निंद से जगाना चाहते हैं। प्रभु हमें अंधकार की शक्तियों से लडने को कहते हैं। प्रभु कहते हैं - ‘‘आप संयम रखें और जागते रहें। आपका शत्रु, शैतान, दहाडते हुवे सिंह की तरह विचरता है और ढूँढता रहता है कि किसे फाड खाये। आप विश्वास में दृढ़ रहकर उसका सामना करें’’ (1 पेत्रुस 5:8)। क्योंकि हम देखते हैं कि आज शैतान विभिन्न रूपों में अपने राज्य का विस्तार करते जा रहा है। किसी भी दिन का अखबार उठा कर देख लिजिए 70 से 80 प्रतिषत खबरें शैतान के राज्य से ताल्लुक रखती हैं - कहीं लडाई तो कहीं दंगे, कहीं बलात्कार तो कहीं हत्या, कहीं आतंकी हमला तो कहीं नरसंहार, कहीं चोरी तो कहीं धर्म के नाम पर खून-खराबा, कहीं ठगबाजी तो कहीं राजनैतिक सत्ता के लिए बेईमानी, धोखाधडी व झूठ फरेब। शैतान धीरे-धीरे अपने वर्चस्व, व अपने राज्य का विस्तार करते जा रहा है। उसके लुभावने प्रलोभनों से वह अधिक से अधिक लोगों को अपनी ओर खींच रहा है। इसलिए प्रभु ने हमें अपने राज्य की एक निष्क्रिय प्रजा बनने के लिए नहीं बुलाया है, परन्तु हम सब को एक सक्रिय सैनिक बनकर शैतान के विरूद्ध लडने के लिए बुलाया है। प्रभु का वचन कहता है - ‘‘आप लोग प्रभु से और उसके अपार सामर्थ्य से बल ग्रहण करें, आप ईश्वर के अस्त्र-सस्त्र धारण करें, जिससे आप शैतान की धूर्तता का सामना करने में समर्थ हों . . . और अन्त तक अपना कर्तव्य पूरा कर विजय प्राप्त करें’’ (एफे. 6:10-13) शैतान का सामना करने उसके राज्य पर विजय पाने के लिए हमें लाठी, डंडे, तलवार, बंदुक, व गोला-बारूद आदि की ज़रूरत नहीं। हमें ईश्वर के अस्त्र-सस्त्रों को धारण करने की ज़रूरत है। और ये अस्त्र-सस्त्र क्या हैं? संत पौलुस हमें बतलाते हैं ईश्वर के अस्त्र-सस्त्र हैं - सत्य का कमरबंद, धार्मिकता का कवच, शान्ति व सुसमाचार के जूते, विश्वास की ढाल, मुक्ति का टोप व आत्मा की तलवार अर्थात ईश वचन।

हमारे दिलों के राजा आज हमारे दिलों के द्वार पर आकर खडे होकर कह रहे हैं - ‘‘मैं द्वार के सामने खडा हो कर खटखटातो हूँ। यदि कोई मेरी वाणी सुन कर द्वार खोलेगा, तो मैं उसके यहाँ आ कर उसके साथ भोजन करूंगा और वह मेरे साथ’’ (प्रकाशना 3:20)। प्रभु हमारे दिलों में जबरदस्ती करके नहीं आते, जब तक हम हमारे दिलों को उनके लिए नहीं खोलेंगे वे अंदर नहीं आयेंगे। हमारे दिलों का द्वार खोलने के लिए हमें, सबसे पहले सारी बूरी बातों, बूरे विचारों, व बूरी भावनाओं को हमारे दिलों से दूर करना होगा और उनकी जगह दुसरों के प्रति प्रेम, दया, करूणा, क्षमा व भाईचारी की भावनाओं से हमारे दिलों को सुसज्जित करना होगा। तभी हमारे दिलों के राजा प्रभु येसु ख्रीस्त हमारे भीतर आकर हमारे हृदयों के सिंहासन पर विराजमान होंगे और तब हम सच्चे अर्थों में कह पायेंगे कि ‘‘वह प्रभुओं का प्रभु और राजाओं का राजा है’’ (प्रकाशना 17:14)। आमेन।


 -Br. Biniush Topno


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Praise the Lord!