18 दिसंबर 2022
चक्र – अ, आगमन का चौथा इतवार
पहला पाठ : इसायाह 7:10-14
10) प्रभु ने फिर आहाज़ से यह कहा,
11) “चाहे अधोलोक की गहराई से हो, चाहे आकाश की ऊँचाई से, अपने प्रभु-ईश्वर से अपने लिए एक चिन्ह माँगो“।
12) आहाज़ ने उत्तर दिया, “जी नहीं! मैं प्रभु की परीक्षा नहीं लूँगा।“
13) इस पर उसने कहा, “दाऊद के वंश! मेरी बात सुनो। क्या मनुष्यों को तंग करना तुम्हारे लिए पर्याप्त नहीं है, जो तुम ईश्वर के धैर्य की भी परीक्षा लेना चाहते हो?
14) प्रभु स्वयं तुम्हें एक चिन्ह देगा और वह यह है - एक कुँवारी गर्भवती है। वह एक पुत्र को प्रसव करेगी और वह उसका नाम इम्मानूएल रखेगी।
दूसरा पाठ : रोमियों 1:1-7
1) यह पत्र ईसा मसीह के सेवक पौलुस की ओर से है, जो ईश्वर द्वारा प्रेरित चुना गया और उसके सुसमाचार के प्रचार के लिए नियुक्त किया गया है।
2) जैसा कि धर्मग्रन्थ में लिखा है, ईश्वर ने बहुत पहले अपने नबियों द्वारा इस सुसमाचार की प्रतिज्ञा की थी।
3) यह सुसमाचार ईश्वर के पुत्र, हमारे प्रभु ईसा मसीह के विषय में है।
4) वह मनुष्य के रूप में दाऊद के वंश में उत्पन्न हुए और मृतकों में से जी उठने के कारण पवित्र आत्मा द्वारा सामर्थ्य के साथ ईश्वर के पुत्र प्रमाणित हुए।
5) उन से मुझे प्रेरित बनने का वरदान मिला है, जिससे मैं उनके नाम पर ग़ैर-यहूदियों में प्रचार करूँ और वे लोग विश्वास की अधीनता स्वीकार करें।
6) उन में आप लोग भी हैं, जो ईसा मसीह के समुदाय के लिए चुने गये हैं।
7) मैं उन सबों के नाम यह पत्र लिख रहा हूँ, जो रोम में ईश्वर के कृपापात्र और उसकी प्रजा के सदस्य हैं। हमारा पिता ईश्वर और प्रभु मसीह आप लोगों को अनुग्रह तथा शान्ति प्रदान करें!
सुसमाचार : मत्ती 1:18-24
(18) ईसा मसीह का जन्म इस प्रकार हुआ। उनकी माता मरियम की मँगनी यूसुफ़ से हुई थी, परन्तु ऐसा हुआ कि उनके एक साथ रहने से पहले ही मरियम पवित्र आत्मा से गर्भवती हो गयी।
(19) उसका पति यूसुफ़ चुपके से उसका परित्याग करने की सोच रहा था, क्योंकि वह धर्मी था और मरियम को बदनाम नहीं करना चाहता था।
(20) वह इस पर विचार कर ही रहा था कि उसे स्वप्न में प्रभु का दूत यह कहते दिखाई दिया, "यूसुफ! दाऊद की संतान! अपनी पत्नी मरियम को अपने यहाँ लाने में नहीं डरे,क्योंकि उनके जो गर्भ है, वह पवित्र आत्मा से है।
(21) वे पुत्र प्रसव करेंगी और आप उसका नाम ईसा रखेंगे, क्योंकि वे अपने लोगों को उनके पापों से मुक्त करेगा।"
(22) यह सब इसलिए हुआ कि नबी के मुख से प्रभु ने जो कहा था, वह पूरा हो जाये -
(23) देखो, एक कुँवारी गर्भवती होगी और पुत्र प्रसव करेगी, और उसका नाम एम्मानुएल रखा जायेगा, जिसका अर्थ हैः ईश्वर हमारे साथ है।
(24) यूसुफ़ नींद से उठ कर प्रभु के दूत की आज्ञानुसार अपनी पत्नी को अपने यहाँ ले आया।
📚 मनन-चिंतन
आज के पहले पाठ में हम देखते हैं कि ईश्वर यूदा के राजा आहाज़ को एक चिन्ह देना चाहते हैं, जिसके द्वारा ईश्वर यह प्रकट करना चाहते हैं कि वह सदा उनके साथ हैं और उन्हें उनके राज्य को सदा सुरक्षित रखेंगे और आशीष प्रदान करेंगे। वह चिन्ह यह था कि एक बालक उत्पन्न होगा और जिसका नाम इम्मानुएल रखा जाएगा जिसका अर्थ है ईश्वर हमारे साथ है। आज का सुसमाचार यह दर्शाता है कि नबी इसायाह की वह भविष्यवाणी किस तरह से प्रभु येसु में पूर्ण हुई। माता मरियम वह पवित्र कुँवारी थी जो पवित्र आत्मा की शक्ति से गर्भवती हुईं जिन्होंने उस बच्चे को जन्म दिया जो इम्मानुएल कहलाता है। सन्त योसेफ़ जब ईश्वर की योजना को नहीं समझ पाते हैं तो ईश्वर का दूत उनके सपने में आकर उन्हें ईश्वर की योजना समझाता है।
यूदा राज्य पर सदा से ही ईश्वर की विशेष कृपा थी। जब भी ईश्वर के चुने हुए लोगों पर कोई विपत्ति या संकट आया तो ईश्वर ने सदा उनकी रक्षा की लेकिन लोगों ने ईश्वर पर भरोसा नहीं किया। ईश्वर नहीं चाहते कि ईश्वर पर भरोसा न करने की जो गलती राजा आहाज़ ने की थी वही गलती सन्त योसेफ न दुहराए। अगर हम पूरे मुक्ति इतिहास को एक शब्द में समझने की कोशिश करें तो वह एक शब्द होगा - इम्मानुएल। जब लोगों ने ईश्वर पर भरोसा नहीं किया, ईश्वर की आज्ञाओं का पालन नहीं किया, पाप के रास्ते पर गए तो ईश्वर ने उन्हें निर्वासित किया, लेकिन उस निर्वासन के समय भी ईश्वर ने उन्हे त्यागा नहीं।
उनके प्रति ईश्वर का प्रेम इन शब्दों से व्यक्त किया जा सकता है - “क्या स्त्री अपना दुधमुँहा बच्चा भुला सकती है? क्या वह अपनी गोद के पुत्र पर तरस नहीं खाएगी? यदि वह भुला भी दे, तो भी मैं तुम्हें कभी नहीं भुलाऊँगा।” (इसायाह 49:15)। जब हम ईश्वर से दूर चले जाते हैं, उनकी आज्ञाओं पर नहीं चलते, उन पर भरोसा नहीं करते तो हम भी उन निर्वासित लोगों की तरह हो जाते हैं। ईश्वर की आज्ञाओं को नहीं मानना मृत्यु को चुनने के समान है। लेकिन ईश्वर कहते हैं - मैं पापी की मृत्यु से प्रसन्न नहीं होता। (देखें एजेकिएल 18:23)।
इसलिए प्रभु आज हमसे वादा करते हैं कि वह सदा हमारे साथ हैं, लेकिन यदि हम प्रभु को प्यार करते हैं तो हमें उनकी आज्ञाओं को मानना पड़ेगा। ईश्वर ने अपने से मेल कराने के लिए ही अपने पुत्र प्रभु येसु को भेजा है। हम अपने जीवन में ईश्वर की उपस्थिति को तभी महसूस कर सकते हैं जब हम अपने पापों को त्याग देंगे और अपना जीवन प्रभु को समर्पित कर देंगे। प्रभु येसु हम सबों के दिलों में जन्म लें।
📚 REFLECTION
In the first reading of today we see that God wants to give a sign to king Ahaz of Judah. Through the sign God wants to show him that God is with him to bless and protect him and his kingdom. The sign was of the child who was to be born and the name of the child would be Emmanuel, meaning God is with us. The Gospel of the day describes how that prophecy was to be fulfilled in Jesus Christ. Mother Mary was that virgin who was conceived by the power of the Holy Spirit, and was to give birth to a son who was to be named Emmanuel. God’s plan is revealed to St. Joseph in a dream, because he could not understand what was going on.
The Tribe of Judah and later the kingdom of Judah were the specially chosen people of God. Whenever there was any crisis on these people, God assured them of his protection, but they would not trust in the Lord. God does not want Joseph to repeat the same mistake of not trusting which was made by king Ahaz. If you want to summarize the whole human history and salvation history in one word, that one word would be Emmanuel. When people were not faithful to God, when they went behind other gods, when they did not keep up the statutes and commandments of God, they were punished with exile. But even in exile they were not left without God.
God’s assurance to them can be expressed in these words - “Can a mother forget her nursing child or show no compassion for the child of her womb? Even these may forget yet I will not forget you.”(Isa 49:15). Today we are also in exile in the valley of tears. When we go against God, by not following his statutes and commandments, we also become like people in exile. By choosing to disobey God, we choose death. But God is never happy to see us being destroyed by our sinfulness (cf Ezek 18:23).
Therefore today, he assures us that he is there always with us, but the condition is that we obey his commandments and we trust him. God sent his son, our Lord Jesus to forgive our sins and reconcile us to God. We can have true experience of Emmanuel only when we confess our sins and surrender our life to God. May Jesus be born in the hearts of us all this Christmas. Amen.
मनन-चिंतन - 2
एक बार मैं एक महिला से मिलने गया। वह बहुत कम आवाज़ में बोल रही थी। उसने कहा कि उसका बच्चा अंदर सो रहा था और अगर वह जोर से बोलती तो बच्चे की नींद खुल जाती। हम उन लोगों की जरूरतों, पसंद और नापसंद के बारे में चिंतित हैं जिन्हें हम प्यार करते हैं। अगर हम प्रभु ईश्वर की पसंद और नापसंद के बारे में चिंतित होना सीखेंगे, तो हम पवित्रता में बढ़ेंगे।
जब ईश्वर का वचन हमारे दिलों में बसना शुरू होता है, तब पवित्रता का बीज हमारे जीवन में बोया जाता है। स्तोत्रकार कहता है, “मैंने तेरे वचन को अपने हृदय में सुरिक्षत रखा, जिससे मैं तेरे विरुद्ध पाप न करूँ।” (स्तोत्र 119: 11)। ईश्वर का यह वचन यूसुफ और मरियम के जीवन में जीवित पाया जाता है। जिसके हृदय में ईश्वर का वचन है, वह व्यक्ति अवश्य ही ईमानदार और धर्मी बनता है। यह यूसुफ के जीवन में सच है जिसके कारण संत मत्ती के सुसमाचार में वे एक ईमानदार और न्यायपूर्ण व्यक्ति के रूप में वर्णित है। ऐसे व्यक्ति से परिवार और समाज में ईश्वर की मौजूदगी की लहरें निकलती हैं। ऐसा व्यक्ति ईश्वर की तलाश करता रहता है और भलाई करता चला जाता है। एक ईमानदार व्यक्ति दूसरों के लिए मुसीबतें नहीं लाता बल्कि केवल आराम और सांत्वना देता है। यह संत यूसुफ के जीवन से प्रमाणित है। वे मरियाम के अच्छे नाम को कलंकित नहीं करना चाहते थे और उन्हें चुपके से अनौपचारिक रूप से तलाक देने का फैसला किया। यहाँ तक उनकी मानवीय भावना उन्हें ले जा सकती है। लेकिन ईशवचन उन्हें एक अतिरिक्त मील जाने की मांग की, मरियम को अपनी पत्नी के रूप में घर ले जाने के लिए। इसी तरह से यूसुफ ने अपने साधारण घर में ईश्वर के लिए जगह बनाई। यूसुफ का साधारण घर दुनिया के सबसे सजी हुए गिरिजाघरों और मंदिरों से अधिक महत्वपूर्ण जगह बन गया। उनका दिल सर्वशक्तिमान के लिए एक मंदिर बन गया था। जब मरियम ने ईश्वर को अपने गर्भ में प्राप्त किया, तब यूसुफ ने उसे अपने हृदय में स्वीकार किया। उन्होंने ईश्वर की वाणी का पालन किया और ईश्वर की इच्छा को पूरा किया। येसु ने बाद में कहा, "जो ईश्वर की इच्छा पूरी करता है, वही है मेरा भाई, मेरी बहन और मेरी माता।" (मारकुस 3:35)। लूकस का संस्करण थोड़ा अलग है - "मेरी माता और मेरे भाई वहीं हैं, जो ईश्वर का वचन सुनते और उसका पालन करते हैं" (लूकस 8:21)। ईश्वर की इच्छा के अनुसार जीवन बिता कर हम भी यूसुफ की तरह पवित्र बन सकते हैं। आइए हम प्रभु से प्रार्थना करें कि वे हमें ईश्वर की इच्छा को स्वीकार करने के लिए अनुग्रह प्रदान करें।
REFLECTION
Once I went to visit a lady. She was speaking in a very low voice. She said that her child was sleeping inside and if she spoke loudly, the child’s sleep would be disturbed. We are concerned about the needs, likes and dislikes of people whom we love. If we are concerned about the likes and dislikes of God, we shall grow in holiness.
When the Word of God begins to dwell in our hearts, the seed of holiness is sown in our lives. The Psalmist says, “I treasure your word in my heart, so that I may not sin against you” (Ps 119:11). This Word of God is found alive in the lives of Joseph and Mary. A person with the Word of God in the heart has to be an upright and righteous person. This is true of Joseph who is described in the Gospel of Matthew as an upright and just man. Such a person can and does vibrate the presence of God in the family and in the society. Greater holiness results in greater uprightness. Such a person keeps seeking God and goes about doing good. An upright person does not bring troubles to others but only comfort and consolation. This is testified by the life St. Joseph. He did not want to tarnish the good name of Mary and decided to divorce her informally. This is where his human sense could take him. But the Word in him demanded to go an extra mile, to take her home as his wife. This is how Joseph made space for God in his simple house. Joseph’s simple house became greater than the most adorned cathedrals and basilicas of the world. His heart had become even greater a temple for the Almighty. While Mary received God into her womb, Joseph received him into his heart. He obeyed the voice of God and did God’s will. Jesus would later say, “Whoever does the will of God is my brother and sister and mother” (Mk 3:35). The Lucan version is slightly different – “My mother and my brothers are those who hear the word of God and do it” Lk 8:21). By confirming to God’s will, we too can become holy like Joseph. Let us ask the Lord to give us the grace to confirm to God’s will.
✍ -Br. Biniush Topno
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