बुधवार, 24 नवंबर, 2021
वर्ष का चौंत्तीसवाँ सामान्य सप्ताह
पहला पाठ: दानिएल का ग्रन्थ 5:1-6,13-14,16-17,23-28
1) राजा बेलशस्सर ने अपने एक हज़ार सामन्तों को एक बड़ा भोज दिया।
2) वह उन हजार अतिथियों के साथ अंगूरी पी रहा था और उसकी अंगूरी के नशे में सोने और चांदी के वे पात्र ले आने का आदेश दिया, जिन्हें उसके पिता नबूकदनेज़र ने येरुसालेम के मंदिर से चुरा लिया था। वह अपने सामन्तों, आपनी पत्नियों और उपपत्नियों के साथ उन में पीना चाहता था।
3) इसलिए येरुसालेम के मंदिर से चुराये हुए सोने और चाँदी के पात्र लाये गये और राजा अपने सामन्तों, अपनी पत्नियों और उपपत्नियों के साथ उन में पीने लगा।
4) अंगूरी पीते समय वे सोने, चाँदी, पीतल, लोहे, लकड़ी और पत्थर के देवताओं की प्रशंसा करते जाते थे।
5) उस समय एक मनुय के हाथ की ऊँगलियाँ दिखाई पड़ी और वे दीपाधार के सामने, राजभवन की पुती हुई दीवार पर कुछ लिखने लगी। राजा ने लिखने वाला हाथ देखा।
6) उसका रंग उड़ गया, वह बहुत घबराया, उसके पैर काँपने और उसके घुटने एक दूसरे से टकराने लगे।
13) जब दानिएल राजा के सामने लाया गया, तो राजा ने उस से कहा, ’’क्या तुम दानिएल हो, यूदा के उस निर्वासितों में से एक, जिन्हें राजा, मेरे पिता, यूदा से ले आये थे?
14) मैंने तुम्हारे विषय में सुना है कि देवताओं का आत्मा तुम में विद्यमान है और यह कि तुम अंर्तज्योति, विवेक और असाधारण प्रज्ञा से सम्पन्न हो।
16) लोगों ने तुम्हारे विषय में मुझे बताया है कि तुम स्वप्नों की व्याख्या कर सकते और समस्याओं को सुलझा सकते हो। यदि तुम यह लेख पढ़ कर इसका अर्थ समझाा सकते हो, तो तुम बैंगनी वस्त्र पहनोगे, गले में सोने का हार धारण करोगे और राज्य के तीसरे स्थान पर विराजमान होगे।''
17) दानिएल ने राजा को यह उत्तर दिया, ’’आप अपने उपहार अपने ही पास रखें और दूसरों को अपने पुरस्कार प्रदान करें। फिर भी मैं राजा के लिए यह लेख पढूँगा और उन्हें इसका अर्थ समझाऊँगा।
23) बल्कि आपने स्वर्ग के प्रभु का विरोध किया। आपने उसके मंदिर के पात्र लाने का आदेश दिया; आपने अपने सामन्तों, अपनी पत्नियों और उपपत्नियों के साथ उन में अंगूरी का पान किया; आपने सोने, चांदी, पीतल, लोहे, लकड़ी और पत्थर के उन देवताओं की प्रशंसा की, जो न तो देखते हैं, न सुनते और न समझते हैं'। आपने इस ईश्वर की स्तुति नहीं की, जिसके हाथ में आपके प्राण और समस्त जीवन निहित हैं।
24) इसलिए उसने यह हाथ भेज कर यह लेख लिखवाया।
25) यह लेख इस प्रकार है- मने, मने, तकेल, और फरसीन।
26) इन शब्दों का अर्थ इस प्रकार है। मनेः ईश्वर ने आपके राज्य के दिनों की गिनती की और उसे सामप्त कर दिया।
27) तकेलः आप तराजू प तौले गये और आपका वजन कम पाया गया।
28) फरसीनः आपका राज्य विभाजित हो कर मेदियों और फारसियों को दे दिया गया है।’’
सुसमाचार : सन्त लूकस 21:12-19
12) ‘‘यह सब घटित होने के पूर्व लोग मेरे नाम के कारण तुम पर हाथ डालेंगे, तुम पर अत्याचार करेंगे, तुम्हें सभागृहों तथा बन्दीगृहों के हवाले कर देंगे और राजाओं तथा शासकों के सामने खींच ले जायेंगे।
13) यह तुम्हारे लिए साक्ष्य देने का अवसर होगा।
14) अपने मन में निश्चय कर लो कि हम पहले से अपनी सफ़ाई की तैयारी नहीं करेंगे,
15) क्योंकि मैं तुम्हें ऐसी वाणी और बुद्धि प्रदान करूँगा, जिसका सामना अथवा खण्डन तुम्हारा कोई विरोधी नहीं कर सकेगा।
16) तुम्हारे माता-पिता, भाई, कुटुम्बी और मित्र भी तुम्हें पकड़वायेंगे। तुम में से कितनों को मार डाला जायेगा
17) और मेरे नाम के कारण सब लोग तुम से बैर करेंगे।
18) फिर भी तुम्हारे सिर का एक बाल भी बाँका नहीं होगा।
19) अपने धैर्य से तुम अपनी आत्माओं को बचा लोगे।
मनन-चिंतन
आज का सुसमाचार शिष्यत्व के सच्चे चिन्ह के रूप में धैर्य और साक्ष्य की बात करता है।
धैर्य रखनाः येसु कहते हैं, ‘‘अपने धैर्य से तुम अपनी आत्माओं को बचा लोगे’’ लूकस 21ः19। धैर्य पवित्र आत्मा का एक उपहार है। संघर्ष, दर्द और पीड़ा मानव जीवन का हिस्सा हैं लेकिन अत्याचार एक ऐसी चीज है जिसे येसु चाहते हैं कि उनके शिष्य सहे। संत अगस्तीन ने लिखाः ‘‘शहीदों को बांधा गया, जेल में डाला गया, कोड़े मारे गए, लूटे गए, जलाए गए, किराए पर बेचे गए, मार दिए गए और वे कई गुना बढ़ गए’’। धैर्य हमारी आध्यात्मिक यात्रा का एक हिस्सा है। रोमियो 5ः3-4 में, संत पौलुस लिखते हैं, ‘‘दुःख-तकलीफ से धैर्य, धैर्य से दृढ़ता, और दृढ़ता से आशा उत्पन्न होती है, आशा व्यर्थ नहीं होती।’’ संत याकूब कहते हैं कि यह परिपक्व विश्वास की परीक्षा है। याकूब 1ः3-4 में हम पढ़ते हैं ‘‘आपके विश्वास का इस प्रकार का परीक्षण धैर्य उत्पन्न करता है। धैर्य को पूर्णता तक पहुँचने दीजिए, जिससे आप लोग स्वयं पूर्ण तथा परिपक्व बन जायें और आप में किसी बात की कमी नहीं रहे।’’
साक्ष्य देनाः प्रारंभिक ईसाइयों के लिए शहादत मसीह का साक्ष्य देनेे का तरीका था। ग्रीक में ‘‘शहीद’’ शब्द का अर्थ है ‘‘गवाह’’। तर्र्तुुलियन ने कहाः ‘‘शहीदों का रक्त बीज है।’’ हम सभी शहीद और गवाह बनने के लिए बुलाये गये है। अब सवाल यह है कि कहाँ और कैसे साक्षी दे। हमें अपने जीवन में, अपने काम में, अपने रिश्तों में, अपने दृष्टिकोणों में, अपने कष्टों में और यहाँ तक कि अपनी मृत्यु में भी मसीह को साक्षी देने की आवश्यकता है। संत पापा फ्राँसिस दैनिक चुनौतियों, विरोधों, प्रलोभनों और प्रतिकूलताओं के बीच सुसमाचार के आनंद की बात करते हैं। जब हम प्रभु का अनुसरण करते हैं तो हमें अपने जीवन में अपने शत्रुओं से प्रेम करने, दुखों में आनन्दित होने, कठिनाइयों में धैर्य रखने, आहत भावनाओं को क्षमा करने और निराश और असहायों के प्रति करुणा दिखाने के द्वारा अपने जीवन में सुसमाचार के आनंद और स्वतंत्रता को देखने की आवश्यकता है।
हमारा विश्वास हमारी आध्यात्मिक यात्रा में धैर्य के द्वारा परिपक्व हो। आइए हम अपने व्यक्तिगत अनुभव के साथ ईश्वर में अपना विश्वास और शक्ति बढ़ाकर मसीह का साक्ष्य देने के लिए स्वयं को तैयार करें।
REFLECTION
Today’s gospel speaks of endurance and witnessing as the true marks of discipleship.
Endurance: Jesus says, “By your endurance you will gain your lives” Lk: 21:19. Endurance is a gift of the Holy Spirit. Struggles, pain and agony are part of human life but persecution is something that Jesus wants his disciples to endure. St. Augustine wrote: “The martyrs were bound, jailed, scourged, racked, burned, rent, butchered and they multiplied”. Endurance is a part of our spiritual journey. In Rom. 5:3-4 St. Paul writes “suffering produces endurance and endurance produces character and character produces hope, and hope does not disappoint us”. St. James says it is a test of matured faith. Jas. 1:3-4 we read “testing of your faith produces endurance; and let endurance have its full effect, so that you may be mature and compete, lacking in nothing”.
Witnessing: For early Christians martyrdom was the way of witnessing Christ. The word ‘martyr’ in Greek means ‘witness.’ Tertullian said: “The blood of the martyrs is seed.” All of us are called to be martyrs and witnesses. Now the question is where and how to witness. We need to witness Christ in our lives, our work, our relationships, our attitudes, our suffering and even our death. Pope Francis speaks of the joy of the gospel in the midst of daily challenges, oppositions, temptations and adversities. As we follow the Lord we need to witness the joy and freedom of the gospel in our life by loving our enemies, being joyful in suffering, patient in difficulties, forgiving hurt feelings and showing compassion to hopeless and helpless.
May our faith be matured in our spiritual journey through endurance. Let us prepare ourselves to witness Christ by increasing our confidence and power in God with a personal experience of him.
मनन-चिंतन - 2
प्रभु येसु शिष्यत्व की माँगों के बारे में बहुत स्पष्ट हैं। अपने शिष्यों को जिन कठिनाइयों तथा सतावट का सामना करना पडेगा, उनके बारे में येसु लोगों को समझाते हैं। प्रभु येसु के शिष्यों को अपने प्रिय और निकट के लोगों के भी विरोध का सामना करने के लिए तैयार रहना चाहिए। फिर भी येसु के शिष्य इस दुनिया में अकेले लड़ाई नहीं लड़ते। वे सर्वशक्तिमान ईश्वर की सहायता प्राप्त करेंगे जो अपने मुंह के लिए शब्द और हाथों के लिए ताकत देंगे। यह एक रास्ता है जिस पर प्रभु येसु पहले से ही चला गया था और इसलिए हम सिर्फ उसका अनुसरण करते हैं।
REFLECTION
Jesus is very straightforward about the demands of discipleship. He is plain while talking about the kind of difficulties and persecutions his disciples will face. A disciple of Jesus should be prepared to face opposition from his dear and near ones. Yet he does not fight the battle alone in this world. He will receive the assistance of the Almighty God who will give words for his mouth and strength for his hands. This is a path which Jesus already walked and so we just follow him.
✍ -Br. Biniush topno
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