सोमवार, 15 नवंबर, 2021
वर्ष का तैंत्तीसवाँ सामान्य सप्ताह
पहला पाठ: मक्काबियों का पहला ग्रन्थ 1:10-15,41-43,54-57,62-63
10) उन में राजा अंतियोख का पुत्र अंतियोख एपीफानेस बड़ा दुष्ट था वह रोम में बंधक के रूप में रहा चुका था। वह यूनानी साम्राज्य के एक सौ सैंतीसवें वर्ष राजा बना।
11) उन दिनों इस्राएल में ऐसे लोग थे, जो संहिता ही परवाह नहीं करते थे और यह कहते हुए बहुतों को बहकाते थे, ’’आओं! हम अपने चारों ओर के राष्ट्रों के साथ संधि करें, क्योंकि जब से हम उन से अलग हुए, हमें अनेक विपत्तियों का सामना करना पड़ा’’।
12) यह बात उन्हें अच्छी लगी।
13) उन में से कई लोग तुरंत राजा से मिलने गये और राजा ने उन्हें गैर-यहूदी जीवन-चर्या के अनुसार चलने की अनुमति दी।
14) इसलिए उन्होंने गैर-यहूदियों के रिवाज के अनुसार येरुसालेम में एक व्यायामशाला बनवायी।
15) उन्होंने अपने को बेख़तना कर लिया और पवत्रि विधान को त्याग दिया। वे गैर-यहूदियों से मेल-जोल रखने लगे और पाप के दास बन गये।
41) राजा ने अपने समस्त राज्य के लिए यह लिखित आदेश निकाला कि सब लोग एक ही राष्ट्र बन जायें
42) और सब अपने विशेष विराजों का परित्याग कर दे। सब लोगों ने राजा के आदेश का पालन किया।
43) इस्राएलियों में भी बहुतों ने, देवमूर्तियों को बलि चढ़ा कर और विश्राम दिवस को अपवत्रि कर, राजा का धर्म सहर्ष स्वीकार कर लिया।
54) एक सौ पैतालीसवें वर्ष के किसलेव महीने के पन्द्रहवें दिन राजा ने होम-बलि की वेदी पर उजाड़ का वीभत्स दृश्य (अर्थात् देव-मूर्ति को) स्थापित किया। यूदा के नगरों में चारों ओर देवमूर्तियों की वेदियाँ बनायी गयीं
55) और लोग के घरों के द्वार के सामने तथा चैंको में धूप चढाने लगे।
56) जब उन्हें सहिता की पोथियाँ मिलती थीं, तो वे उन्हें फाड़ कर आग में डाल देते थे।
57) जिसके यहाँ विधान का ग्रन्थ पाया जाता अथवा जो संहिता का पालन करता, उसे राजा के आदेशानुसार प्राणदण्ड दिया जाता था।
62) फिर भी बहुत-से इस्राएली दृढ़ बने रहे और उन्होंने दृढ़ संकल्प किया कि वे अशुद्ध भोजन नहीं खायेगे।
63) वे मृत्यु को स्वीकार करते थे, जिससे वे अवैध भोजन खा कर दूशित न हो जायें और पवत्रि विधान भंग न करें। इस प्रकार बहुत-से इस्राएली मर गये।
सुसमाचार : सन्त लूकस 18:35-43
35) जब ईसा येरीख़ो के निकट आ रहे थे, तो एक अन्धा सड़क के किनारे बैठा भीख माँग रहा था।
36) उसने भीड़ को गुज़रते सुन कर पूछा कि क्या हो रहा है।
37) लोगों ने उसे बताया कि ईसा नाज़री इधर से आ रहे हैं।
38) इस पर वह यह कहते हुए पुकार उठा, ‘‘ईसा! दाऊद के पुत्र! मुझ पर दया कीजिए’’।
39) आगे चलने वाले उसे चुप करने के लिए डाँटते थे, किन्तु वह और भी ज़ोर से पुकारता रहा, ‘‘दाऊद के पुत्र! मुझ पर दया कीजिए’’।
40) ईसा ने रुक कर उसे पास ले आने को कहा। जब वह पास आया, तो ईसा ने उस से पूछा,
41) ‘‘क्या चाहते हो? मैं तुम्हारे लिए क्या करूँ?’’ उसने उत्तर दिया, ‘‘प्रभु! मैं फिर देख सकूँ’’।
42) ईसा ने उस से कहा, ‘‘जाओ, तुम्हारे विश्वास ने तुम्हारा उद्धार किया है’’।
43) उसी क्षण उसकी दृष्टि लौट आयी और वह ईश्वर की स्तुति करते हुए ईसा के पीछे हो लिया। सारी जनता ने यह देख कर ईश्वर की स्तुति की।
मनन-चिंतन
उस अंधे व्यक्ति ने आजमानी एक कोशिश की । हालाकि उसे डाटा गया और वह निराश भी हुआ अपितु उसने हार नहीं मानी । बड़ी भीड येसु को चारों तरफ से घेरे हुई थी, उस अंधे व्यक्ति का येसु के पास जाना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन था । आस-पास के लोगो के शोर के साथ उसकी वाणी भी येसु के पास नही पहॅंुच सकती थी । इस तथ्य को महसूस करते हुए उसने अपनी पूरी शक्ति से जोर से चिल्लाने का निर्णय किया । येसु ने उसकी वाणी सुनी और उसे अपने पास आने का आदेश दिया । हमने अपने जीवन में कितनी बार येसु के करीब आने का प्रयत्न किया है ? अथवा कितनी गंभीरता से कोशिश की है ?येसु ने उसे अपना निवेदन बोलने के लिए कहा। येसु के साथ उपस्थित सभी लोग जानते थे कि वह व्यक्ति दृष्टिदान चाहता है । अर्थात् अपनी दृष्टि को पुनः वापस पाना चाहता है ।
लेकिन येसु ने उससे यह सुनिश्चित करने के लिए पूछा की जीवन में उसकी प्राथमिकता क्या है ?कभी -कभी हम अपने जीवन में प्राथमिकताएॅं निर्धारित करते समय आवश्यक चीजों को नजर अंदाज कर देते है । इसके फलस्वरूप प्रभु के सामने आने पर हमारा ध्यान विचलित हो जाता है । हम सुसमाचार में इस प्रकार के चरित्र का सटीक उदाहरण पेत्रुस में पाते है । येसु के रूपान्तरण के समय, पेत्रुस महिमा का आनंद लेने के बजाय मूसा, एलिय्याह और येसु के लिए तम्बू बनाने की बात करता है । उस अंधे वयक्ति ने येसु का अनुसरण किया और ईश्वर की महिमा की । उस क्षण जब उस व्यक्ति ने महसूस किया की वो चंगा हो गया है तो उसके जीवन का एकमात्र उद्धेश्य था येसु का अनुसरण करना और प्रभु की महिमा करना । उसने येसु से वो वरदान प्राप्त किया जो उसके जीवन की सर्वाधिक बहुमूल्य वस्तु थी । वह अपना आभार येसु का अनुसरण करके व्यक्त करता है । हम ईश्वर से प्राप्त सभी आशीषो और कृपादानों के लिए कितनी बार कृतज्ञता और आभार प्रकट करते है ?
REFLECTION
The blind man took a chance. Though he was discouraged and rebuked he never gave up. Big crowd moving around Jesus it was very difficult for the blind man to get closer to Jesus. With the noise of the people around, it was also impossible for him to be heard by Jesus. Realising this fact he took a chance of shouting at the top of his voice. Behold he was rewarded by Jesus bringing him closer. How often have we taken the chance of coming closer to Jesus or how much effort have we made for the same.
Jesus made him to speak out his request. Everyone gathered there including Jesus knew the need of the man that he wanted his vision back. But Jesus asks him the question to make sure the priority he has in life, Sometimes we leave out the essentials when we set priorities in our life. We can be distracted as we come before the Lord. In the gospel we see such a character in Peter. At the time of transfiguration instead of enjoying the moment of glory Peter was speaking about making a tent for Moses, Elijah and Jesus.
He followed Jesus and glorified God. Once the man realized that he was healed his sole intention was to follow Jesus and glorifying God. He received something from Jesus, which was the most wanted thing in his life. He expresses his gratitude by following Jesus. How often have we been thankful to God for the blessings we receive from Him?
मनन-चिंतन - 2
प्रभु येसु वहाँ से गुजर रहे थे। सड़क के किनारे बैठे अंधे भिखारी ने यह महसूस किया कि येसु वहाँ से गुजर रहे हैं। वह येसु से मिलने के लिए उत्सुक था। वह चुप रहने को तैयार नहीं था, हालांकि लोगों ने उसे चुप रहने को कहा। प्रभु ने उसकी पुकार सुनी और उसे अपने पास बुला कर चंगा किया। येसु के साथ हुई मुलाकात से उसका जीवन बदल गया। येसु आज भी जीवित हैं और हर दिन हमारे पास से गुजर रहे हैं। शायद हम उनसे मिलने के लिए उस अंधे भिखारी के समान उत्सुक नहीं हैं। हममें से कुछ लोग जीवन में आशा खो चुके होंगे और इसलिए येसु भी हमारी आशा को नहीं जगा पा रहे हैं। एक बात पक्की है, समय निकल जाएगा। वे जो हमारे जीवन में हस्तक्षेप कर सकते हैं जल्द ही चले जायेंगे और फिर कोई भी हमारी मदद करने में सक्षम नहीं होगा। हमारे लिए आवंटित समय भी समाप्त हो जायेगा। मैं क्या तय करूं?
REFLECTION
Jesus was passing by. The blind beggar sitting by the roadside realising that Jesus was passing by cried out to him for healing. He was desperate. He was not willing to keep quiet although people told him to keep quiet. Jesus heard his cry and called for him and healed him. His life changed with that encounter with Jesus. Jesus is living and is passing by us every day. We have a tendency to postpone our encounter with him. Some of us are not very keen on meeting him. Some of us may have lost hope in life and so even Jesus is not able to awaken our hope. One thing is sure, the time will run out. He who can intervene in our life will have gone soon and then no one will be able to help. What do I decide?
✍ -Br Biniush Topno
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