शनिवार, 07 अगस्त, 2021
वर्ष का अठारहवाँ सामान्य सप्ताह
पहला पाठ : विधि-विवरण ग्रन्थ 6:4-13
4) इस्राएल सुनो। हमारा प्रभु-ईश्वर एकमात्र प्रभु है।
5) तुम अपने प्रभु-ईश्वर को अपने सारे हृदय, अपनी सारी आत्मा और अपनी सारी शक्ति से प्यार करो।
6) जो शब्द मैं तुम्हें आज सुना रहा हूँ वे तुम्हारे हृदय पर अंकित रहें।
7) तुम उन्हें अपने पुत्रों को अच्छी तरह सिखाओ। घर में बैठते या राह चलते, शाम को लेटते या सुबह उठते समय, उनकी चरचा किया करो।
8) तुम उन्हें निशानी की तरह अपने हाथ पर और तावीज़ की तरह अपने मस्तक पर बाँधे रखो
9) और अपने घरों की चौखट तथा अपने फाटकों पर लिख दो।
10) जब तुम्हारा प्रभु-ईश्वर तुम लोगो को उस देश ले जायेगा, जिसे उसने शपथ खा कर तुम्हारे पूर्वजों - इब्राहीम, इसहाक और याकूब - को देने की प्रतिज्ञा की है; जहाँ बड़े और भव्य नगर है, जिन्हें तुमने नहीं बनाया;
11) जहाँ के घर कीमती चीजों से भरें हैं; जिन्हें तुमने एकत्र नहीं किया; जहाँ पानी के कुण्ड़ है; जिन्हें तुमने नहीं खोदा; जहाँ दाखबारियाँ और जैतून के पेड़ है, जिन्हें तुमने नहीं लगाया; जब तुम वहाँ खा कर तृप्त हो जाओगे,
12) तो सावधान रहो और अपने प्रभु-ईश्वर को मत भूलो, जो तुम लोगों को मिस्र से - गुलामी के घर से - निकाल लाया।
13) "तुम अपने प्रभु-ईश्वर पर श्रद्धा रखोगे, उसी की सेवा करोगे और उसी के नाम पर शपथ खाओगे।
सुसमाचार : मत्ती 17:14-20
14) जब वे जनसमूह के पास पहुँचे, तो एक मनुष्य आया और ईसा के सामने घुटने टेक कर बोला,
15) प्रभु! मेरे बेटे पर दया कीजिए। उसे मिरगी का दौरा पड़ा करता है। उसकी हालत बहुत ख़राब है और वह अक्सर आग या पानी में गिर जाता है।
16) मैं उसे आपके शिष्यों के पास लाया, किन्तु वे उसे चंगा नहीं कर सके।"
17) ईसा ने कहा, "अविश्वासी और दुष्ट पीढ़ी! मैं कब तक तुम्हारे साथ रहूँ? कब तक तुम्हें सहता रहूँ? उस लड़के को यहाँ ले आओ।"
18) ईसा ने अपदूत को डांटा और वह लड़के से निकल गया। वह लड़का उसी घड़ी चंगा हो गया।
19) बाद में शिष्यों ने एकान्त में ईसा के पास आ कर पूछा, "हम लोग उसे क्यों नहीं निकाल सके?
20) ईसा ने उन से कहा, "अपने विश्वास की कमी के कारण। मैं तुम से यह कहता हूँ - यदि तुम्हारा विश्वास राई के दाने के बराबर भी हो और तुम इस पहाड़ से यह कहो, ’यहाँ से वहाँ तक हट जा, तो यह हट जायेगा; और तुम्हारे लिए कुछ भी असम्भव नहीं होगा।
📚 मनन-चिंतन
आज के सुसमाचार में, येसु एक व्यक्ति के गंभीर रूप से बीमार बेटे को चंगा करते हैं। वह येसु के पास मदद के लिए आया क्योंकि यीशु के चेले उसकी मदद करने में असमर्थ थे। जहाँ एक ओर लड़के की हालत देखकर चेले अपने को शक्तिहीन व लाचार पाते हैं वहीं, येसु उसे ठीक करने में सक्षम थे। शिष्यों को अपनी स्वयं की शक्तिहीनता के बारे में पता था, और, येसु के लड़के को ठीक करने के बाद, उन्होंने उनसे पूछा, 'हम इसे बाहर क्यों नहीं निकाल पाए?' मुझे यकीन है कि जब हम कुछ विकट परीस्थितियों का सामना करते हैं, हमने भी अपने जीवन में शक्तिहीनता और लाचारी की भावना का अनुभव किया होगा। हमारे सर्वोत्तम प्रयासों के बावजूद, हम परिस्थितियों को नहीं सुधार पाते। अपने शिष्यों के प्रश्न, 'हम क्यों असमर्थ थे...' के प्रति येसु की प्रतिक्रिया उनके अल्प विश्वास की ओर इशारा करती है। ऐसा नहीं था कि उनमें आस्था नहीं थी, लेकिन उनका विश्वास दृढ़ नहीं था। उन्होंने ईश्वर पर पर्याप्त भरोसा नहीं किया, जिसकी शक्ति से भरकर उन्हें भेजा गया था। शायद हम सभी कभी-कभी खुद को 'अल्पविश्वासी' लोगों के रूप में देख सकते हैं। हां, हमारे पास विश्वास है लेकिन जीवन की वास्तविक कठिन परिस्थितियों का सामना करने पर यह कमजोर हो जाता है। जैसे-जैसे हम आशाहीन बाधाओं के खिलाफ संघर्ष करते हैं, हमारा विश्वास कम होता जाता है। फिर भी, यही वह समय है जब हमें अपने विश्वास में दृढ़ रहने की आवश्यकता है। क्योंकि जो हमारी निगाहों में असंभव है वो ईश्वर की निगाहों में संभव है जैसा की मत्ती अपने सुसमाचार में येसु थोड़ी देर बाद कहेंगे, 'नश्वर लोगों के लिए यह असंभव है, लेकिन ईश्वर के लिए सब कुछ संभव है'।
📚 REFLECTION
In today's Gospel reading, Jesus heals a man’s seriously ill son. He came to Jesus for help because Jesus’ disciples had been unable to help him. Whereas the disciples were powerless before the boy’s condition, Jesus was able to heal it. The disciples were very aware of their own powerlessness, and, after Jesus had cured the boy, they asked him, ‘Why were we unable to cast it out?’ I am sure that we too have experienced a sense of powerlessness, of helplessness, before certain situations that we come up against. In spite of our best efforts, we are not able to put it right. Jesus’ response to his disciples’ question, ‘Why were we unable…?’ points to their little faith. It was not that they had no faith, but their faith was not strong. They didn’t trust sufficiently in the Lord; in whose power they had been sent out. Perhaps we can all see ourselves as people of ‘little faith’ at times. Yes, we have faith but it weakens when faced with the really difficult situations of life. Our faith diminishes as we struggle against seemingly hopeless odds. Yet, that is the very time when we need to be strong in our faith. It is above all in those personally demanding situations of life that we need to renew our trust in the Lord and in his ability to work through us even in the most unpromising of moments. As Jesus will go on to say a little later in Matthew’s gospel, ‘For mortals it is impossible, but for God all things are possible’.
✍ -Br Biniush topno
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