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गुरुवार, 01 जुलाई, 2021 वर्ष का तेरहवाँ सप्ताह

 

गुरुवार, 01 जुलाई, 2021

वर्ष का तेरहवाँ सप्ताह



पहला पाठ : उत्पत्ति 22:1-19



1) ईश्वर ने इब्राहीम की परीक्षा ली। उसने उस से कहा, ''इब्राहीम! इब्राहीम!'' इब्राहीम ने उत्तर दिया, ''प्रस्तुत हूँ।''

2) ईश्वर ने कहा, ''अपने पुत्र को, अपने एकलौते को परमप्रिय इसहाक को साथ ले जा कर मोरिया देश जाओ। वहाँ, जिस पहाड़ पर मैं तुम्हें बताऊँगा, उसे बलि चढ़ा देना।''

3) इब्राहीम बड़े सबेरे उठा। उसने अपने गधे पर जीन बाँध कर दो नौकरों और अपने पुत्र इसहाक को बुला भेजा। उसने होम-बली के लिए लकड़ी तैयार कर ली और उस जगह के लिए प्रस्थान किया, जिसे ईश्वर ने बताया था।

4) तीसरे दिन, इब्राहीम ने आँखें ऊपर उठायीं और उस जगह को दूर से देखा।

5) इब्राहीम ने अपने नौकरों से कहा, ''तुम लोग गधे के साथ यहाँ ठहरो। मैं लड़के के साथ वहाँ जाऊँगा। आराधना करने के बाद हम तुम्हारे पास लौट आयेंगे।

6) इब्राहीम ने होम-बली की लकड़ी अपने पुत्र इसहाक पर लाद दी। उसने स्वयं आग और छुरा हाथ में ले लिया और दोनों साथ-साथ चल दिये।

7) इसहाक ने अपने पिता इब्राहीम से कहा, ''पिताजी!'' उसने उत्तर दिया, ''बेटा! क्या बात है?'' उसने उत्तर दिया, ''देखिए, आग और लकड़ी तो हमारे पास है; किन्तु होम को मेमना कहाँ है?''

8) इब्राहीम ने उत्तर दिया, ''बेटा! ईश्वर होम के मेमने का प्रबन्ध कर देगा'', और वे दोनों साथ-साथ आगे बढ़े।

9) जब वे उस जगह पहुँच गये, जिसे ईश्वर ने बताया था, तो इब्राहीम ने वहाँ एक वेदी बना ली और उस पर लकड़ी सजायी। इसके बाद उसने अपने पुत्र इसहाक को बाँधा और उसे वेदी के ऊपर रख दिया।

10) तब इब्राहीम ने अपने पुत्र को बलि चढ़ाने के लिए हाथ बढ़ा कर छुरा उठा लिया।

11) किन्तु प्रभु का दूत स्वर्ग से उसे पुकार कर बोला, ''इब्राहीम! ''इब्राहीम! उसने उत्तर दिया, ''प्रस्तुत हूँ।''

12) दूत ने कहा, ''बालक पर हाथ नहीं उठाना; उसे कोई हानि नहीं पहुँचाना। अब मैं जान गया कि तुम ईश्वर पर श्रद्धा रखते हो - तुमने मुझे अपने पुत्र, अपने एकलौते पुत्र को भी देने से इनकार नहीं किया।

13) इब्राहीम ने आँखें ऊपर उठायीं और सींगों से झाड़ी में फँसे हुए एक मेढ़े को देखा। इब्राहीम ने जाकर मेढ़े को पकड़ लिया और उसे अपने पुत्र के बदले बलि चढ़ा दिया।

14) इब्राहीम ने उस जगह का नाम ''प्रभु का प्रबन्ध'' रखा; इसलिए लोग आजकल कहते हैं, ''प्रभु पर्वत पर प्रबन्ध करता है।''

15) ईश्वर का दूत इब्राहीम को दूसरी बार पुकार कर

16) बोला, ''यह प्रभु की वाणी है। मैं शपथ खा कर कहता हूँ - तुमने यह काम किया : तुमने मुझे अपने पुत्र, अपने एकलौते पुत्र को भी देने से इनकार नहीं किया;

17) इसलिए मैं तुम पर आशिष बरसाता रहूँगा। मैं आकाश के तारों और समुद्र के बालू की तरह तुम्हारे वंशजों को असंख्य बना दूँगा और वे अपने शत्रुओं के नगरों पर अधिकार कर लेंगे।

18) तुमने मेरी आज्ञा का पालन किया है; इसलिए तुम्हारे वंश के द्वारा पृथ्वी के सभी राष्ट्रों का कल्याण होगा।''

19) इब्राहीम अपने नौकरों के पास लौटा। वे सब बएर-शेबा चले गये और इब्राहीम वहाँ रहने लगा।



सुसमाचार : मत्ती 9:1-8



1) ईसा नाव पर बैठ गये और समुद्र पार कर अपने नगर आये।

2) उस समय कुछ लोग खाट पर पडे़ हुए एक अद्र्धांगरोगी को उनके पास ले आये। उनका विश्वास देखकर ईसा ने अद्र्धांगरोगी से कहा, ’’बेटा ढारस रखो! तुम्हारे पाप क्षमा हो गये हैं।’’

3) कुछ शास्त्रियों ने मन में सोचा- यह ईश-निन्दा करता है।

4) उनके ये विचार जान कर ईसा ने कहा, ’’तुम लोग मन में बुरे विचार क्यों लाते हो ?

5) अधिक सहज क्या है यह कहना, ’तुम्हारे पाप क्षमा हो गये हैं अथवा यह कहना, ’उठो और चलो-फिरो’?

6) किन्तु इसलिए कि तुम लोग यह जान लो कि मानव पुत्र को पृथ्वी पर पाप क्षमा करने का अधिकार मिला है’’ तब वे अद्र्धांगरोगी से बोले ’’उठो और अपनी खाट उठा कर घर जाओ’’।

7) और वह उठ कर अपने घर चला गया।

8) यह देखकर लोगों पर भय छा गया और उन्होंने ईश्वर की स्तुति की, जिसने मनुष्यों को ऐसा अधिकार प्रदान किया था।



📚 मनन-चिंतन

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पाप और हमारी बीमारी-विपत्तियों का क्या सम्बन्ध है? हमारी परेशानियों और हमारे पापों में कोई सम्बन्ध है भी या नहीं? इस प्रश्न को हम सीधे शब्दों में इस तरह भी पूछ सकते हैं- ‘धर्म का और विज्ञान आपस में क्या सम्बन्ध है?’ क्योंकि कुछ लोगों के अनुसार पाप, धर्म का विषय है, और बीमारियाँ विज्ञान का विषय. लेकिन इस बात को नाकारा नहीं जा सकता कि इन दोनों का इश्वर से गहरा सम्बन्ध है. आदिकाल से न तो धर्म था और न विज्ञान था, था तो सिर्फ सनातन ईश्वर. सब कुछ उसी के द्वारा सृष्ट किया गया है, इसलिये सब कुछ का सम्बन्ध ईश्वर से है, हम मनुष्यों का और हमारे जीवन के हर पहलु का.

सन्त योहन के सुसमाचार 15:1-8 में प्रभु येसु हमें समझाते हैं कि प्रभु दाखलता हैं और हम उसकी डलियाँ हैं और प्रभु से जुड़ा रहता है वही खूब फलता है, और जो ईश्वर से नहीं जुड़ा रहता वह सूख जाता है. यानि कि यदि हम ईश्वर के साथ जुड़े हैं, हमारा सम्बन्ध ईश्वर के साथ मजबूत है तो हमें आशीष और कृपायें मिलेंगी, वहीँ अगर हम ईश्वर से नहीं जुड़े हैं तो हमारे दुःख-संकटों और विपत्तियों में ईश्वर हमारे साथ नहीं रहेगा. ईश्वर से हमारा सम्बन्ध हमारे पापों के कारण ख़राब हो जाता है. अगर हमारा सम्बन्ध ईश्वर से और एक-दूसरे से फिर से स्थापित होना है तो हमारे पापों की क्षमा ज़रूरी है. क्योंकि ईश्वर 'हमारे सभी अपराध क्षमा करता और हमारी सारी बीमारियाँ दूर करता है. (स्तोत्र 103:3).



📚 REFLECTION



What is the connection between sin and our sicknesses? Is there any connection between sin and our problems at all? In other words, one could ask – What is the relation between religion and science? Because some people think that our sins relate to religion and sicknesses are the subject of science. We cannot ignore the fact these both are deeply related with God. God is from eternity even before religion or science were born. Everything came into being through Him and nothing came into being without Him. (cf. John 1:3). Hence everything has its origin from God and exists in relation with God, even every aspect of our human life.

Jesus, in the Gospel of John (15:1-8) tells us that he is vine and we are the branches and those who remain in him, bear much fruit and those who do not abide in Him, they wither away. So, if we remain in God, then we shall flourish in all that we do, and if we break our relationship with God then we are bound to wither, we will not find God in our sorrows and difficulties of life. Our sins are the cause for putting our relationship with God in danger. If we have to establish and build our relationship with God, our sins should be forgiven. God is ready to forgive us as the psalmist says, “Bless the LORD, O my soul, and forget not all his benefits, who forgives all your iniquity, who heals all your diseases...” (Ps 103:2-3).



 -Br Biniush Topno


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बुधवार, 30 जून, 2021 वर्ष का तेरहवाँ सप्ताह

 

बुधवार, 30 जून, 2021

वर्ष का तेरहवाँ सप्ताह



पहला पाठ : उत्पत्ति 21:5,8-20



5) जब उसका पुत्र इसहाक पैदा हुआ था, तब इब्राहीम की उमर सौ वर्ष की थी।

8) इसहाक की दूध-छुड़ाई के दिन इब्राहीम ने एक बड़ी दावत दी।

9) सारा ने मिस्री हागार के पुत्र को अपने पुत्र इसहाक के साथ खेलते हुए देखा

10) और इब्राहीम से कहा, ''इस दासी और इसके पुत्र को घर से निकाल दीजिए। इस दासी का पुत्र मेरे पुत्र इसहाक के साथ विरासत का अधिकारी नहीं होगा।''

11) अपने पुत्र के बारे में यह बात इब्राहीम को बहुत बुरी लगी,

12) किन्तु ईश्वर ने उस से कहा, ''बच्चे और अपनी दासी की चिन्ता मत करो। सारा की बात मानो, क्योंकि इसहाक के वंशजों द्वारा तुम्हारा नाम बना रहेगा।

13) मैं दासी के पुत्र के द्वारा भी एक महान् राष्ट्र उत्पन्न करूँगा, क्योंकि वह भी तुम्हारा पुत्र है।''

14) इब्राहीम ने सबेरे उठ कर हागार को रोटी और पानी-भरी मशक दी और बच्चे को उसके कन्धे पर रख कर उसे निकाल दिया। हागार चली गयी और बएर-शेबा के उजाड़ प्रदेश में भटकती रही।

15) जब मशक का पानी समाप्त हो गया, तो उसने बच्चे को एक झाड़ी के नीचे रख दिया

16) और वह जा कर तीर के टप्पे की दूरी पर बैठ गयी, क्योंकि उसने अपने मन में कहा, ''मैं बच्चे का मरना नहीं देख सकती।'' इसलिए वह वहाँ बैठी हुई फूट-फूट कर रोने लगी।

17) ईश्वर ने बच्चे का रोना सुना और ईश्वर के दूत ने आकाश से हागार की सम्बोधित कर कहा, ''हागार! क्या बात है? मत डरो। ईश्वर ने बच्चे का रोना सुना, जहाँ तुमने उसे रखा है।

18) उठ खड़ी हो और बच्चे को उठाओ और सँभाल कर रखो, क्योंकि मैं उसके द्वारा एक महान् राष्ट्र उत्पन्न करूँगा''

19) तब ईश्वर ने हागार की आँखें खोल दीं और उसे एक कुआँ दिखाई पड़ा। उसने मशक भरी और बच्चे को पिलाया।

20) ईश्वर बच्चे का साथ देता रहा। वह बढ़ता गया और उजाड़ प्रदेश में रह कर धनुर्धर बना।



सुसमाचार : सन्त मत्ती का सुसमाचार 8:28-34



28) जब ईसा समुद्र के उस पार गदरेनियों के प्रदेश पहुँचे, तो दो अपदूत ग्रस्त मनुष्य मक़बरों से निकल कर उनके पास आये। वे इतने उग्र थे कि उस रास्ते से कोई भी आ-जा नहीं सकता था।

29) वे चिल्ला उठे, "ईश्वर के पुत्र! हम से आपको क्या ? क्या आप यहाँ समय से पहले हमें सताने आये हैं?"

30) वहाँ कुछ दूरी पर सुअरों का एक वड़ा झुण्ड चर रहा था।

31) अपदूत यह कहते हुए अनुनय-विनय करते रहे, "यदि आप हम को निकाल ही रहे हैं, तो हमें सूअरों के झुण्ड में भेज दीजिए"।

32) ईसा ने उन से कहा, "जाओ"। तब अपदूत उन मनुष्यों से निकल कर सूअरों में जा घुसे और सारा झुण्ड तेज़ी से ढाल पर से समुद्र में कूद पड़ा और पानी में डूब कर मर गया।

33) सूअर चराने वाले भाग गये और जा कर पूरा समाचार और अपदूत ग्रस्तों के साथ जो कुछ हुआ, यह सब उन्होंने नगर में सुनाया।

34) इस पर सारा नगर ईसा से मिलने निकला और उन्हें देखकर लोगों ने निवेदन किया कि वह उनके प्रदेश से चले जायें।



📚 मनन-चिंतन



पहले पाठ में, हमने सुना कि हागार और उसके बच्चे को केवल कुछ पानी-भरी मशक के साथ उजाड़ प्रदेश में भेज दिया गया। जब मशक का पानी समाप्त हो गया, तो हागार ने बच्चे को एक झाड़ी के नीचे रख दिया और वह कुछ दूरी पर चली गयी क्योंकि वह बच्चे को जब शोकित और रो रहा था बच्चे का मरना नहीं देख सकती थी।

लेकिन ईश्वर ने बच्चे की चींख को सुना और ईश्वर के दूत ने हागार और बच्चे को मृत्यु से बचाया। वाकई, ईश्वर लोगों की चींख सुनता है, विशेष करके बच्चे और उन्हें बचाने के लिए आते हैं।

सुसमाचार में, दो अपदूतग्रस्त उग्र होकर ईसा पर चिल्ला रहे थे पर उनका चिल्लाना, निवेदन में परिवर्तित हो जाता है, जब ईसा से कहते हैं कि वे उन्हें सूअरों के झूण्ड में भेज दें। जब वे चिल्ला रहे थे, तक ईसा ने दो अपदूतों को सुना और चंगाई तथा स्वतंत्रता प्रदान की। प्रभु येसु ने उन्हें चंगा करके स्वंतत्र किया। ईश्वर हागार के शोक सतिृप्त चींख को सुनते और दो अपदूत ग्रस्त लोगों को भी। ईश्वर वर दें कि हम भी जरूरतमंदों की चींख को सुन सकें।



📚 REFLECTION



In the first reading, we heard of Hagar being sent away with her son into wilderness with just some bread and a skin of water. When the skin of water was finished, Hagar abandoned the child under a bush and she went off at a distance because she couldn’t bear to see the child die, while the wailed and wept. But God heard the cries of the child and sent an angel to rescue mother and child from death. Indeed, God hears the cries of His people, especially children, and will come to their rescue.

In the gospel the two demoniacs were shouting angrily at Jesus, but their shouts turned to pleading as they asked Jesus to send them into the herd of pigs. Over and above the shouting, Jesus heard the cries of the two possessed persons for healing and freedom. And He healed them and set them free. God heard the cries of Hagar’s child and two demoniacs. May we also have ears to hear the cries of those in need.



 -Br Biniush Topno


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मंगलवार, 29 जून, 2021 प्रेरित सन्त पेत्रुस और पौलुस का पर्व

 

मंगलवार, 29 जून, 2021

प्रेरित सन्त पेत्रुस और पौलुस का पर्व


पहला पाठ : प्रेरित-चरित 12:1-11



1) उस समय राजा हेरोद ने कलीसिया के कुछ सदस्यों पर अत्याचार किया।

2) उसने योहन के भाई याकूब को तलवार के घाट उतार दिया

3) और जब उसने देखा कि इस से यहूदी प्रसन्न हुए, तो उसने पेत्रुस को भी गिरफ्तार कर लिया। उन दिनों बेख़मीर रोटियों का पर्व था।

4) उसने पेत्रुस को पकड़वा कर बंदीग्रह में डलवाया और उसे चार-चार सैनिकों के चार दलों के पहरे में रख दिया। वह पास्का पर्व के बाद उसे लोगों के सामने पेश करना चाहता था

5) जब पेत्रुस पर इस प्रकार बंदीगृह में पहरा बैठा हुआ था, तो कलीसिया उसके लिए आग्रह के साथ ईश्वर से प्रार्थना करती रही।

6) जिस दिन हेरोद उसे पेश करने वाला था, उसके पहले की रात को पेत्रुस, दो हथकडि़यों से बँधा हुआ, दो सैनिकों के बीच सो रहा था और द्वार के सामने भी संतरी पहरा दे रहे थे।

7) प्रभु का दूत अचानक उसके पास आ खड़ा हो गया और कोठरी में ज्योति चमक उठी। उसने पेत्रुस की बगल थपथपा कर उसे जगाया और कहा, ’’जल्दी उठिए!’’ इस पर पेत्रुस की हाथकडि़याँ गिर पड़ी।

8) तब दूत ने उस से कहा, ’’कमर बाँधिए और चप्पल पहन लीजिए’’। उसने यही किया। दूत ने फिर कहा ’’चादर ओढ़ कर मेरे पीछे चले आइए’’।

9) पेत्रुस उसके पीछे-पीछे बाहर निकल गया। उसे पता नहीं था कि जो कुछ दूत द्वारा हो रहा है, वह सच ही हैं। वह समझ रहा था कि मैं स्वप्न देख रहा हूँ।

10) वे पहला पहरा और फिर दूसरा पहरापार कर उस लोहे के फाटक तक पहुँचे, जो शहर की ओर ले जाता हैं। वह उनके लिए अपने आप खुल गया। वे बाहर निकल कर गली के छोर तक आये कि दूत अचानक उसे छोड़ कर चला गया।

11) तब पेत्रुस होश में आ कर बोल उठा, ’’अब मुझे निश्चय हो गया कि प्रभु ने अपने दूत को भेज कर मुझे हेरोद के पंजे से छुड़ाया और यहूदियों की सारी आशाओं पर पानी फेर दिया है।’’



दूसरा पाठ: तिमथी के नाम सन्त पौलुस का दूसरा पत्र 4:6-8,17-18



6) मैं प्रभु को अर्पित किया जा रहा हूँ। मेरे चले जाने का समय आ गया है।

7) मैं अच्छी लड़ाई लड़ चुका हूँ, अपनी दौड़ पूरी कर चुका हूँ और पूर्ण रूप से ईमानदार रहा हूँ।

8) अब मेरे लिए धार्मिकता का वह मुकुट तैयार है, जिसे न्यायी विचारपति प्रभु मुझे उस दिन प्रदान करेंगे - मुझ को ही नहीं, बल्कि उन सब को, जिन्होंने प्रेम के साथ उनके प्रकट होने के दिन की प्रतीक्षा की है।

17) परन्तु प्रभु ने मेरी सहायता की और मुझे बल प्रदान किया, जिससे मैं सुसमाचार का प्रचार कर सकूँ और सभी राष्ट्र उसे सुन सकें। मैं सिंह के मुँह से बच निकला।

18) प्रभु मुझे दुष्टों के हर फन्दे से छुड़ायेगा। वह मुझे सुरक्षित रखेगा और अपने स्वर्गराज्य तक पहुँचा देगा। उसी को अनन्त काल तक महिमा! आमेन!



सुसमाचार : सन्त मत्ती का सुसमाचार 16:13-19



13) ईसा ने कैसरिया फि़लिपी प्रदेश पहुँच कर अपने शिष्यों से पूछा, ’’मानव पुत्र कौन है, इस विषय में लोग क्या कहते हैं?’’

14) उन्होंने उत्तर दिया, ’’कुछ लोग कहते हैं- योहन बपतिस्ता; कुछ कहते हैं- एलियस; और कुछ लोग कहते हैं- येरेमियस अथवा नबियों में से कोई’’।

15) ईस पर ईसा ने कहा, ’’और तुम क्सा कहते हो कि मैं कौन हूँ?

16) सिमोन पुत्रुस ने उत्तर दिया, ’’आप मसीह हैं, आप जीवन्त ईश्वर के पुत्र हैं’’।

17) इस पर ईसा ने उस से कहा, ’’सिमोन, योनस के पुत्र, तुम धन्य हो, क्योंकि किसी निरे मनुष्य ने नहीं, बल्कि मेरे स्वर्गिक पिता ने तुम पर यह प्रकट किया है।

18) मैं तुम से कहता हूँ कि तुम पेत्रुस अर्थात् चट्टान हो और इस चट्टान पर मैं अपनी कलीसिया बनाऊँगा और अधोलोक के फाटक इसके सामने टिक नहीं पायेंगे।

19) मैं तुम्हें स्वर्गराज्य की कुंजिया प्रदान करूँगा। तुम पृथ्वी पर जिसका निषेध करोगे, स्वर्ग में भी उसका निषेध रहेगा और पृथ्वी पर जिसकी अनुमति दोगे, स्वर्ग में भी उसकी अनुमति रहेगी।’’



📚 मनन-चिंतन



आज के दिन माता कलीसिया दो महान प्रेरितों का पर्व मनाती है। ये दो प्रेरित जिनके इर्दर्गिद प्रभु येसु के स्वर्गराज्य की स्थापना केंद्रित था, और उन्हीं से यह बढ़ा और सारे विश्व के कोने में फैल गया। ये दोनों प्रेरितों ने आदि कलीसिया के विश्वास को दृढ़ किया, और एकता को बनाये रखा। लेकिन ये दोनों संतों एक दूसरे से अलग थे जैसे रात और दिन, इन दोनों में उनकी अपनी भिन्नताएँ थी जैसा कि हम गलातियों 2:14 में पाते हैं। यद्यपि यह जिन्होंने प्रभु येसु को पहचाना, उनका चरित्र और उनके कार्य का दृढ़ता के साथ प्रकट किया तथा उनके नाम का अर्थ प्रकट हुआ, जिसका अर्थ पत्थार है। संत पेत्रुस जल्दबाजी और स्वच्दं थे इसे हम उनके प्रभु येसु के तीन बार अस्वीकार की घटना से जानते हैं।

संत पौलुस अपने हदय परिर्वतन से पहले ख्रीस्तीयों के घोर विरोधी और उतालू चरित्र के थे। लेकिन यह आश्चर्य था कि प्रभु येसु इन दोनों के चुना जो निपुण नहीं थे और वे कलीसिया के योग्य अगुवा भी नहीं थे। लेकिन उन दोनों में उनकी विभिन्नताओं और कमजोरियों के बौजुद भी पेत्रुस और पौलुस अपने सामान्य उददेश्य और प्रेरितिक कार्य में जुडे़ हुए थे। दोनों शहीद हुए, और ईश्वर की महिमा के लिए समर्पित थे। इन दोनों संतों का जीवन यही दिखता है कि ईश्वर किसी कमजोर और अपरिपक्व व्यक्तियों को चुनकर अपनी कलीसिया का अगुवा बना सकता है। क्योंकि इन्हीं मानवीय साधनों द्वारा जिसे ईश्वर कलीसिया और संसार को दिखाता है और जो मनुष्यों के लिए अंसभव है वह ईश्वर के लिए अंसभव नहीं है।



📚 REFLECTION




On this day the church celebrates the feasts of two great apostles Peter and Paul. They were the two men around whom the mission of Jesus to establish the kingdom was centred and from whom it grew and spread to every corner of the world. They strengthened the faith of the early church and kept in unity. But these two saints were different as night and day and they even had their differences as mentioned in Galatians2:14.

Although it was St Peter who affirmed the identity of Christ, his character and action did not reflect the meaning of his name which means “rock.” Peter was rash and impulsive; we know this from his triple denial of Jesus.

St Paul was a staunch opponent of Christians before his conversion and had a fiery character. But it was strange that Jesus chose these two men who were far from perfect or even suitable to be leaders of his church. But in spite of their differences and shortcomings, Sts Peter and Paul were united in common goal and mission.

Both died as martyrs, an act which showed that the purpose of their lives were not for their own glory but for the glory of God. The lives of Sts Peter and Paul show us that God can choose the weak and imperfect persons to be leaders of his church; because it is through these imperfect human instruments that God shows the church and the world that what is impossible for man is not impossible for God.



 -Br Biniush Topno


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सोमवार, 28 जून, 2021 वर्ष का तेरहवाँ सप्ताह

 

सोमवार, 28 जून, 2021

वर्ष का तेरहवाँ सप्ताह

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पहला पाठ : उत्पत्ति 18:16-33



16) वे लोग वहाँ से सोदोम की ओर चल पड़े। इब्राहीम उन्हें विदा करने के लिए उनके साथ हो लिया।

17) प्रभु ने अपने मन में यह कहा, ''मैं जो करने जा रहा हूँ, क्या उसे इब्राहीम से छिपाये रखूँ?

18) उस से एक महान् तथा शक्तिशाली राष्ट्र उत्पन्न होगा और उसके द्वारा पृथ्वी पर के सभी राष्ट्रों को आशीर्वाद प्राप्त होगा।

19) मैंने उसे चुन लिया, जिससे वह अपने पुत्र और अपने वंश को यह शिक्षा दे कि वे न्याय और धर्म का पालन करते हुए प्रभु के मार्ग पर चलते रहें। इस प्रकार मैं उस से जो प्रतिज्ञा कर चुका, उसे पूरा करूँगा।''

20) इसलिए प्रभु ने कहा, ''सोदोम और गोमोरा के विरुद्ध बहुत ऊँची आवाज़ उठ रही है और उनका पाप बहुत भारी हो गया है।

21) मैं उतर कर देखना और जानना चाहता हूँ कि मेरे पास जैसी आवाज़ पहुँची है, उन्होंने वैसा किया अथवा नहीं।''

22) वे दो पुरुष वहाँ से विदा हो कर सोदोम की ओर चले गये। प्रभु इब्राहीम के साथ रह गया और

23) इब्राहीम ने उसके निकट आ कर कहा, ''क्या तू सचमुच पापियों के साथ-साथ धर्मियों को भी नष्ट करेगा?

24) नगर में शायद पचास धर्मी हैं। क्या तू उन पचास धर्मियों के कारण, जो नगर में बसते हैं, उसे नहीं बचायेगा?

25) क्या तू पापी के साथ-साथ धर्मी को मार सकता है? क्या तू धर्मी और पापी, दोनों के साथ एक-सा व्यवहार कर सकता है? क्या समस्त पृथ्वी का न्यायकर्ता अन्याय कर सकता है?''

26) प्रभु ने उत्तर दिया, ''यदि मुझे नगर में पचास धर्मी भी मिलें, तो मैं उनके लिए पूरा नगर बचाये रखूँगा''।

27) इस पर इब्राहीम ने कहा, ''मैं तो मिट्ठी और राख हूँ; फिर भी क्या मैं अपने प्रभु से कुछ कह सकता हूँ?

28) हो सकता है कि पचास में पाँच कम हों। क्या तू पाँच की कमी के कारण नगर नष्ट करेगा?'' उसने उत्तर दिया, ''यदि मुझे नगर में पैंतालीस धर्मी भी मिलें, तो मैं उसे नष्ट नहीं करूँगा''।

29) इब्राहीम ने फिर उस से कहा, ''हो सकता है कि वहाँ केवल चालीस मिलें''। प्रभु ने उत्तर दिया, ''चालीस के लिए मैं उसे नष्ट नहीं करूँगा''।

30) तब इब्राहीम ने कहा, ''मेरा प्रभु क्रोध न करें और मुझे बोलने दें। हो सकता है कि वहाँ केवल तीस मिलें।'' उसने उत्तर दिया, ''यदि मुझे वहाँ तीस भी मिलें, तो मैं उसे नष्ट नहीं करूँगा''।

31) इब्राहीम ने कहा, ''तू मेरी धृष्टता क्षमा कर - हो सकता है कि केवल बीस मिले'' और उसने उत्तर दिया, ''बीस के लिए मैं उसे नष्ट नहीं करूँगा''।

32) इब्राहिम ने कहा, ''मेरा प्रभु बुरा न माने तो में एक बार और निवेदन करूँगा - हो सकता है कि केवल दस मिलें'' और उसने उत्तर दिया, ''दस के लिए भी में उसे नष्ट नहीं करूँगा।



सुसमाचार : मत्ती 8:18-22



18) अपने को भीड़ से घिरा देख कर ईसा ने समुद्र के उस पार चलने का आदेश दिया।

19) उसी समय एक शास्त्री आ कर ईसा से बोला, "गुरुवर! आप जहाँ कहीं भी जायेंगे, मैं आपके पीछे-पीछे चलूँगा"।

20) ईसा ने उस से कहा, "लोमडियों की अपनी माँदें हैं और आकाश के पक्षियों के अपने घोसलें, परन्तु मानव पुत्र के लिए सिर रखने को भी अपनी जगह नहीं है"।

21) शिष्यों में किसी ने उन से कहा, "प्रभु! मुझे पहले अपने पिता को दफनाने के लिए जाने दीजिए"।

22) परन्तु ईसा ने उस से कहा, "मेरे पीछे चले आओ; मुरदों को अपने मुरदे दफनाने दो’।



📚 मनन-चिंतन



आज का पहला पाठ ईश्वर के मनन चितन से प्रारंभ होता है, और ईश्वर कहता है कि क्या इसे इब्राहीम से साझा किया जाये कि उनकी योजना जो सोदोम और गोमोरा का विनाश करना था। इससे पता चलता है कि इब्राहीम को ईश्वर की योजना जानना चाहिए था जिसे वह लोगों को बुध्दिमता के साथ शिक्षा दे सकें। इब्राहीम ईश्वर से विनाशकारी विचार को बदलने का आग्रह करते हैं कि यदि वहाँ निश्चित संख्या के निर्दोष लोग मिल जायें। ईश्वर की तरह, इब्राहीम दयावान हदय वाले व्यक्ति बन जाते हैं और लोगों का अनावश्यक दुःख भोगते नहीं देखना चाहते हैं। ईश्वर हमें दयावान बनने के लिए बुलाया है। इब्राहीम की तरह हमें भी उन लोगों के लिए प्रार्थना करना चाहिए जो दुःख भोगते दिखते हैं।

आज के सुसमाचार में प्रभु येसु शिष्य बनने के शर्तों के बारे में बताते हैं। वे एक क्रांतिकारी शिक्षा देते हैं। वे कहते हैं कि उनके शिष्य बनने के लिए सब-कुछ को त्यागना पडे़गा, यहाँ तक अपने जीवन से भी बैर करना पडे़गा। उनके शिष्य बनने के लिए चौबीसों घण्टा उनका कार्य करना पडे़गा। ईसा ने शास्त्री से कहा, ’’ लोमड़ियों की अपनी माँदे हैं और आकाश के पक्षियों के अपने घोसलें, परन्तु मानव पुत्र के लिए सिर रखने को भी जगह नहीं है’’ (मत्ती 8ः20)। प्रभु येसु कोई सुरक्षा या आराम के लिए जगह नहीं देते। प्रभु येसु लोगों को हतोसाहित करते हैं जो संसारिकधन पर विश्वास करते हैं। ऐसा नहीं था, कि प्रभु येसु लोगों को नहीं चाहते, अपितु वे उनके हदय को साफ देखना चाहते थे, जिस पर किसी प्रकार का हाँ या ना की स्थिति हो।



📚 REFLECTION




Today’s first reading begins with God contemplating whether to share with Abraham his plan to destroy Sodom and Gomorrah. It is learnt that Abraham should know God’s ways so that he might instruct his people wisely. Abraham plainly asks God to reconsider destruction if there could be found a significant number of honest people. Like God, Abraham has a compassionate heart that does not want to see people suffer unnecessarily. God has called us to be compassionate. Like Abraham we should pray for those who seem destined to suffer.

Today’s gospel tells us about the conditions of a discipleship. Jesus teaches a radical lesson. He says his disciple has to renounce everything; even he has to hate his very self. His follower has to work twenty fours. Jesus said to the scribe, “Foxes have holes, and birds of the air have nests; but the son of man has nowhere to lay his head.” Jesus does not give any place for security and comfort. Jesus discourages those people who trust in their material wealth. It is not that Jesus does not like people, but rather he wants their motive and intention to be clear, there shouldn’t be any situation of yes and no.



 -Br. Biniush Topno



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Praise the Lord!

Sunday mass Reading in English 27 June 2021

 Daily Mass Readings for Sunday, 27 June 2021



First Reading: Wisdom 1: 13-15; 2: 23-24

13 For God made not death, neither hath he pleasure in the destruction of the living.

14 For he created all things that they might be: and he made the nations of the earth for health: and there is no poison of destruction in them, nor kingdom of hell upon the earth.

15 For justice is perpetual and immortal.

2:23 For God created man incorruptible, and to the image of his own likeness he made him.

24 But by the envy of the devil, death came into the world: And they follow him that are of his side.

Responsorial Psalm: Psalms 30: 2, 4, 5-6, 11, 12, 13

R. (2a) I will praise you, Lord, for you have rescued me.

2 I will extol thee, O Lord, for thou hast upheld me: and hast not made my enemies to rejoice over me.

4 Thou hast brought forth, O Lord, my soul from hell: thou hast saved me from them that go down into the pit.

R. I will praise you, Lord, for you have rescued me.

5 Sing to the Lord, O ye his saints: and give praise to the memory of his holiness.

6 For wrath is in his indignation; and life in his good will. In the evening weeping shall have place, and in the morning gladness.

R. I will praise you, Lord, for you have rescued me.

11 The Lord hath heard, and hath had mercy on me: the Lord became my helper.

12 Thou hast turned for me my mourning into joy: thou hast cut my sackcloth, and hast compassed me with gladness:

13 To the end that my glory may sing to thee, and I may not regret: O Lord my God, I will give praise to thee for ever.

R. I will praise you, Lord, for you have rescued me.

Second Reading: Second Corinthians 8: 7, 9, 13-15

7 That as in all things you abound in faith, and word, and knowledge, and all carefulness; moreover also in your charity towards us, so in this grace also you may abound.

9 For you know the grace of our Lord Jesus Christ, that being rich he became poor, for your sakes; that through his poverty you might be rich.

13 For I mean not that others should be eased, and you burthened, but by an equality.

14 In this present time let your abundance supply their want, that their abundance also may supply your want, that there may be an equality,

15 As it is written: He that had much, had nothing over; and he that had little, had no want.

Alleluia: Second Timothy 1: 10

R. Alleluia, alleluia.

10 Our Savior Jesus Christ destroyed death and brought life to light through the Gospel.

R. Alleluia, alleluia.

Gospel: Mark 5: 21-43

21 And when Jesus had passed again in the ship over the strait, a great multitude assembled together unto him, and he was nigh unto the sea.

22 And there cometh one of the rulers of the synagogue named Jairus: and seeing him, falleth down at his feet.

23 And he besought him much, saying: My daughter is at the point of death, come, lay thy hand upon her, that she may be safe, and may live.

24 And he went with him, and a great multitude followed him, and they thronged him.

25 And a woman who was under an issue of blood twelve years,

26 And had suffered many things from many physicians; and had spent all that she had, and was nothing the better, but rather worse,

27 When she had heard of Jesus, came in the crowd behind him, and touched his garment.

28 For she said: If I shall touch but his garment, I shall be whole.

29 And forthwith the fountain of her blood was dried up, and she felt in her body that she was healed of the evil.

30 And immediately Jesus knowing in himself the virtue that had proceeded from him, turning to the multitude, said: Who hath touched my garments?

31 And his disciples said to him: Thou seest the multitude thronging thee, and sayest thou who hath touched me?

32 And he looked about to see her who had done this.

33 But the woman fearing and trembling, knowing what was done in her, came and fell down before him, and told him all the truth.

34 And he said to her: Daughter, thy faith hath made thee whole: go in peace, and be thou whole of thy disease.

35 While he was yet speaking, some come from the ruler of the synagogue’s house, saying: Thy daughter is dead: why dost thou trouble the master any further?

36 But Jesus having heard the word that was spoken, saith to the ruler of the synagogue: Fear not, only believe.

37 And he admitted not any man to follow him, but Peter, and James, and John the brother of James.

38 And they come to the house of the ruler of the synagogue; and he seeth a tumult, and people weeping and wailing much.

39 And going in, he saith to them: Why make you this ado, and weep? the damsel is not dead, but sleepeth.

40 And they laughed him to scorn. But he having put them all out, taketh the father and the mother of the damsel, and them that were with him, and entereth in where the damsel was lying.

41 And taking the damsel by the hand, he saith to her: Talitha cumi, which is, being interpreted: Damsel (I say to thee) arise.

42 And immediately the damsel rose up, and walked: and she was twelve years old: and they were astonished with a great astonishment.

43 And he charged them strictly that no man should know it: and commanded that something should be given her to eat.


-Br Biniush Topno


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इतवार, 27 जून, 2021 वर्ष का तेरहवाँ सामान्य इतवार

 

इतवार, 27 जून, 2021

वर्ष का तेरहवाँ सामान्य इतवार

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पहला पाठ :प्रज्ञा-ग्रन्थ 1:13-15;2:23-24



13) ईश्वर ने मृत्यु नहीं बनायी; वह प्राणियों की मृत्यु से प्रसन्न नहीं होता।

14) उसने सब कुछ की सृष्टि इसलिए की है कि वह अस्तित्व में बना रहे। संसार में जो कुछ है, वह हितकर है; उस में कहीं भी घातक विष नहीं। अधोलोक पृथ्वी पर शासन नहीं करता;

15) क्योंकि न्याय का कभी अन्त नहीं होगा।

23) ईश्वर ने मनुष्य को अमर बनाया; उसने उसे अपना ही प्रतिरूप बनाया।

24) शैतान की ईर्ष्या के कारण ही मृत्यु संसार में आयी है। जो लोग शैतान का साथ देते हैं, वे अवश्य ही मृत्यु का शिकार हो जाते हैं।



दूसरा पाठ: कुरिन्थियों के नाम सन्त पौलुस का दूसरा पत्र 8:7,9,13-15



7) आप लोग हर बात में- विश्वास, अभिव्यक्ति, ज्ञान, सब प्रकार की धर्म-सेवा और हमारे प्रति प्रेम में बढ़े-चढ़ें हैं; इसलिए आप लोगों को इस परोपकार में भी बड़ी उदारता दिखानी चाहिए।

9) आप लोग हमारे प्रभु ईसा मसीह की उदारता जानते हैं। वह धनी थे, किन्तु आप लोगों के कारण निर्धन बन गये, जिससे आप उनकी निर्धनता द्वारा धनी बन गये।

13) मैं यह नहीं चाहता कि दूसरों को आराम देने से आप लोगों को कष्ट हो। यह बराबरी की बात है।

14) इस समय आप लोगों की समृद्धि उनकी तंगी दूर करेगी, जिससे किसी दिन उन की समृद्धि आपकी तंगी दूर कर दे और इस तरह बराबरी हो जाये।

15) जैसा कि लिखा है-जिसने बहुत बटोरा था, उसके पास अधिक नहीं निकला और जिसने थोड़ा बटोरा था, उसके पास कम नहीं निकला।



सुसमाचार : सन्त मारकुस का सुसमाचार 5:21-43



21) जब ईसा नाव से उस पार पहॅूचे, तो समुद्र के तट पर उनके पास एक विशाल जनसमूह एकत्र हो गया।

22) उस समय सभागृह का जैरूस नाम एक अधिकारी आया। ईसा को देख कर वह उनके चरणों पर गिर पड़ा

23) और यह कहते हुए अनुनय-विनय करता रहा, ’’मेरी बेटी मरने पर है। आइए और उस पर हाथ रखिए, जिससे वह अच्छी हो जाये और जीवित रह सके।’’

24) ईसा उसके साथ चले। एक बड़ी भीड़ उनके पीछे हो ली और लोग चारों ओर से उन पर गिरे पड़ते थे।

25) एक स्त्री बारह बरस से रक्तस्राव से पीडि़त थी।

26) अनेकानेक वैद्यों के इलाज के कारण उसे बहुत कष्ट सहना पड़ा था और सब कुछ ख़र्च करने पर भी उसे कोई लाभ नहीं हुआ था।

27) उसने ईसा के विषय में सुना था और भीड़ में पीछे से आ कर उनका कपड़ा छू लिया,

28) क्योंकि वह मन-ही-मन कहती थी, ’यदि मैं उनका कपड़ा भर छूने पाऊॅ, तो अच्छी हो जाऊँगी’।

29) उसका रक्तस्राव उसी क्षण सूख गया और उसने अपने शरीर में अनुभव किया कि मेरा रोग दूर हो गया है।

30) ईसा उसी समय जान गये कि उन से शक्ति निकली है। भीड़ में मुड़ कर उन्होंने पूछा, ’’किसने मेरा कपड़ा छुआ?’’

31) उनके शिष्यों ने उन से कहा, ’’आप देखते ही है कि भीड़ आप पर गिरी पड़ती है। तब भी आप पूछते हैं- किसने मेरा स्पर्श किया?’’

32) जिसने ऐसा किया था, उसका पता लगाने के लिए ईसा ने चारों ओर दृष्टि दौड़ायी।

33) वह स्त्री, यह जान कर कि उसे क्या हो गया है, डरती- काँपती हुई आयी और उन्हें दण्डवत् कर सारा हाल बता दिया।

34) ईसा ने उस से कहा, ’’बेटी! तुम्हारे विश्वास ने तुम्हें चंगा कर दिया है। शान्ति प्राप्त कर जाओ और अपने रोग से मुक्त रहो।’’

35) ईसा यह कह ही रहे थे कि सभागृह के अधिकारी के यहाँ से लोग आये और बोले, ’’आपकी बेटी मर गयी है। अब गुरुवर को कष्ट देने की ज़रूरत ही क्या है?’’

36) ईसा ने उनकी बात सुन कर सभागृह के अधिकारी से कहा, ’’डरिए नहीं। बस, विश्वास कीजिए।’’

37) ईसा ने पेत्रुस, याकूब और याकूब के भाई योहन के सिवा किसी को भी अपने साथ आने नहीं दिया।

38) जब वे सभागृह के अधिकारी के यहाँ पहुँचे, तो ईसा ने देखा कि कोलाहल मचा हुआ है और लोग विलाप कर रहे हैं।

39) उन्होंने भीतर जा कर लोगों से कहा, ’’यह कोलाहल, यह विलाप क्यों? लड़की मरी नहीं, सो रही है।’’

40) इस पर वे उनकी हँसी उड़ाते रहे। ईसा ने सब को बाहर कर दिया और वह लड़की के माता-पिता और अपने साथियों के साथ उस जगह आये, जहाँ लड़की पड़ी हुई थी।

41) लड़की का हाथ पकड़ कर उस से कहा, ’तालिथा कुम’’। इसका अर्थ है- ओ लड़की! मैं तुम से कहता हूँः उठो।

42) लड़की उसी क्षण उठ खड़ी हुई और चलने-फिरने लगी, क्योंकि वह बारह बरस की थी। लोग बड़े अचम्भे में पड़ गये।

43) ईसा ने उन्हें बहुत समझा कर आदेश दिया कि यह बात कोई न जान पाये और कहा कि लड़की को कुछ खाने को दो।



📚 मनन-चिंतन



आज के पाठों में हमें जीवन का उपहार दोनों शारीरिक और अध्यात्मिक, जिसे ईश्वर ने हमें दिया है, के बारे में बताया गया है। वे हमें प्रेरित और चुनौती देता है कि हम कृतज्ञ बनकर अपने शरीर और आत्मा में ईश्वर के वरदान और स्वास्थ्य को जिम्मेदारी के साथ निभायें।

आज के पहले पाठ में प्रज्ञा ग्रन्थ हमें बताता है कि ईश्वर ने हमें जीवन और स्वास्थ्य दिया है, और शैतान की ईष्या के कारण बीमारी और मृत्यु उत्पन्न हुई। पाठ हमें आगे बताता है कि हमारे इस संसार में जीवन का उददेश्य इस पृथ्वी पर ईश्वर को जानना, प्रेम करना और उसकी सेवा एक स्वच्छ शरीर और आत्मा से उनके अमर जीवन का सहभागी बनना।

आज के दूसरे पाठ मे संत पौलुस कहते हैं कि कुरिन्थ के ख्रीस्तीय समुदाय को उनके समृध्दि, उनके तंगी में आये यहुदी भाइयो एवं बाहनों। जो योरूशालेम में उनके प्रति दया और सहानुभूति दिखाते हैं, जिसे प्रभु येसु ने अपनी स्वास्थ्य सेवा में प्रदर्शित किया था। संत पौलुस उनसे कहते हैं कि वे उदार हदय से तगीं में आये भाई-बहनों के लिए चन्दा जमा करें।

आज के सुसमाचार में प्रभु येसु के दो चमत्कारों पर प्रकाश डाला गया है, रक्तस्राव से पीड़ित महिला का स्वास्थ्य जो रक्तस्राव के बीमारी से पीड़ित थी और जैरूस की बेटी का मृत्यु से जीवन में वापस आना। ये दोनों उपचार शिक्षा देता है कि प्रभु येसु जीवन चाहते हैं, एक भरपुर जीवन जो ईश्वर अपने बच्चों के लिए देता है। दोनों उपचार प्रभु येसु के उदारता, दयालुता और सहानुभूति को प्रकट करता है, जिससे मनुष्य को प्रभु की दैवी शक्ति और हमारे प्रभु की अनन्त दया का प्रमाण देते हैं। ये दोनों चमत्कार प्रभु द्वारा पुरूस्कार के लिए किया गये, सभाग्रह के शासक और रक्तस्राव से पीड़ित महिला द्वारा विश्वास कर सकें।




📚 REFLECTION


Today is the thirteenth Sunday of the year. Today’s readings speak about gift of life both physical and spiritual which God has given us. They urge and challenge us to be grateful for our health in body and soul and to use God’s gifts of life and health responsibly.

Today’s first reading taken from the book of Wisdom tells us that God has given us life and health and it is Satan’s jealousy which produced illness and death. The readings also further tell the goal of our life is to know, to love and to serve God here on earth with perfect health in body and soul and share immortal life forever.

In today’s second reading Paul tells the Corinthian Christian community to show their impoverished, suffering Jewish brothers and sisters in Jerusalem the kindness and compassion which Jesus expressed in his healing ministry. Paul asks the community to be generous in their contributions to a fund collected for these suffering brothers and sisters.

In today’s gospel Jesus’ two miracles have been highlighted: healing of a woman who suffered from a chronic bleeding disease and the returning of the dead daughter of Jairus to life. These both healings teach us that Jesus wills life, the full life, for all God’s children. These healings also reveal Jesus as a generous, kind and compassion God who wills that men should live their lives fully. They also give us further proof of the divine power and infinite mercy of our saviour. These miracles were performed by Jesus as a reward for trusting faith of the synagogue ruler and of the woman with a haemorrhage.




मनन-चिंतन-2



आज के सुसमाचार को सैंडविच सुसमाचार भी कहते है। क्योंकि येसु जैरूस की मृत पुत्री को जिलाने जाने के रास्ते में ही बारह साल से रक्तस्राव से पीडित महिला को चंगाई प्रदान करते हैं। इन दोनों चमत्कारों को देखते हुए हमें दो बिन्दुओं पर नज़र डालना चाहिए।

1. दुःख तकलीफ में प्रभु पर विश्वास रखना है।

2. प्रभु छोटे विश्वास को भी बढावा देते है।

रक्तस्राव से पीडित महिला बारह साल से परेशान थी। लेवी ग्रंथ 15:19 में लिखा है ‘‘यदि किसी स्त्री का मासिक स्राव हो, तो वह सात दिन तक अशुद्ध रहेगी और जो उसका स्पर्श करेगा, वह शाम तक अशुद्ध रहेगा।’’ आगे लेवी 15:25 में लिखा है ‘‘यदि किसी स्त्री को उसके मासिक धर्म के दिनों के सिवा अन्य दिनों में अथवा मासिक धर्म पूरा होने के बाद रक्तस्राव होता रहे, तो वह उस समय ऋतुकाल की तरह अशुद्ध है।’’ इससे हम अंदाजा लगा सकते है कि बारह साल की इस बीमारी से वह कितनी परेशान हो गयी होगी। बारह साल तक किसी ने उसको स्पर्श नहीं किया होगा। लोगों को या किसी वस्तु को स्पर्श करने से वह डरती थी। उसे येसु को स्पर्श करने की हिम्मत नहीं थी। इसलिए उसने पीछे से जाकर उनका कपडा छू लिया। इसके पूर्व उसने बहुत से वेदयों के पास इलाज करवाया और बहुत पैसा भी खर्च किया लेकिन बावजूद भी उसे कोई राहत नहीं मिली। तब वह प्रभु पर आखरी भरोसा रखते हुए उनके पास आती है। उसका विश्वास था कि प्रभु उसे ठीक कर सकते है।

जैरूस सभागृह का अधिकारी था उसके पास पैसे की कोई कमी नहीं थी। शायद उसने बहुत लोगों की मदद भी की होगी। अपनी बेटी को अच्छा से अच्छा इलाज दिया होगा इसके बावजूद भी जब बीमारी में कोई फर्क नहीं दिखा तो वह प्रभु के पास जाता है। उसकी निस्सहाय अवस्था को दर्शाते हुए बाइबिल में लिखा है कि वह प्रभु से अनुनय विनय करने लगा। एक अधिकारी प्रभु के सामने अपने आपको दीन हीन बनाता है। उसको प्रभु पर भरोसा था। प्रभु पर आसरा और भरोसा रखने वालों को प्रभु कभी नहीं छोडते।

2. प्रभु छोटे विश्वास को भी बढ़ावा देते हैः

रक्तस्राव से पीडित स्त्री के मन में यह विचार था कि वह प्रभु के वस्त्र के पल्ले को छू भी ले तो वह ठीक हो जायेगी। और जैसे ही वह ठीक हुई वह संतुष्ट थी और वहॉं से चुपचाप निकलने का इरादा थी। लेकिन प्रभु ने उसके इस विश्वास को लोगों के सामने प्रस्तुत किया। वे उसको सबके सामने लाये और अपने विश्वास का साक्ष्य करवाया। उस स्त्री के विश्वास के कारण वहॉं पर प्रभु ने एक विश्वास भरे जन समूह की स्थापना की।

जैरूस जब प्रभु से मिलने आये तब उनके मन में केवल एक ही चिन्ता थी कि उसकी बेटी ठीक हो जाये। वह प्रभु के पास इसलिए आया कि उसको प्रभु पर विश्वास था। प्रभु ने उनके विश्वास को बनाये रखते हुए बेटी की मृत्यु होने पर भी उसको जिलाया। प्रभु द्वारा अपने बेटी को चंगाई दिलाने का जैरूस का विश्वास बडी मात्रा में वहॉं पर उपस्थित लोगों के विश्वास में परिवर्तन होता है।

हरेक व्यक्ति का ईश्वर पर विश्वास करने और उस विश्वास को प्रकट करने का अपना अलग अलग तरीका है। कुछ लोग ऊॅंची आवाज से प्रार्थना करते हुए प्रभु की स्तुति करते है इसी प्रकार कुछ लोग मौन रुप से प्राथना करना पसंद करते है और कुछ लोगों को लगातार बाईबिल या कोई आध्यात्मिक किताब पढ़ना अच्छा लगता है। हम जैसे भी अपने विश्वास की साधना करते है या प्रकट करते है उन सब को प्रभु देखते है। हमारा छोटा विश्वास भी बडा काम कर सकते है इसलिए प्रभु ने कहा ‘‘यदि तुम्हारा विश्वास राई के दाने के बराबर भी हो और तुम इस पहाड से यह कहो यहॉं से वहॉं तक हट जा, तो यह हट जायोगा; और तुम्हारे लिए कुछ भी असंभव नहीं होगा (मती 17:20).

अब हमे मनन चिंतन करना चाहिए कि हमारा विश्वास कितना मजबूत है? क्या हम अपनी दुःख तकलीफ में प्रभु के पास जाने की हिम्मत रखते हैं? प्रभु को हमारा इंतज़ार है। वे हमारा विश्वास मजबूत करना और बढ़ाना चाहते है। हम प्रभु में भरोसा रखना सीखे वह हमें संभालेगे। हमारा विश्वास कुछ एैसा रहे वैसे कोलोन शहर की एक दीवार पर लिखा है, ’’सूरज की किरण नहीं देखने पर भी मैं सूरज पर विश्वास करता हूँ। प्यार का एहसास नहीं होने पर भी मुझे प्यार में विश्वास है। ईश्वर को नहीं देखने से भी मैं उन पर विश्वास करता हूँ।’’



-Br Biniush Topno



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