मंगलवार, 29 जून, 2021
प्रेरित सन्त पेत्रुस और पौलुस का पर्व
पहला पाठ : प्रेरित-चरित 12:1-11
1) उस समय राजा हेरोद ने कलीसिया के कुछ सदस्यों पर अत्याचार किया।
2) उसने योहन के भाई याकूब को तलवार के घाट उतार दिया
3) और जब उसने देखा कि इस से यहूदी प्रसन्न हुए, तो उसने पेत्रुस को भी गिरफ्तार कर लिया। उन दिनों बेख़मीर रोटियों का पर्व था।
4) उसने पेत्रुस को पकड़वा कर बंदीग्रह में डलवाया और उसे चार-चार सैनिकों के चार दलों के पहरे में रख दिया। वह पास्का पर्व के बाद उसे लोगों के सामने पेश करना चाहता था
5) जब पेत्रुस पर इस प्रकार बंदीगृह में पहरा बैठा हुआ था, तो कलीसिया उसके लिए आग्रह के साथ ईश्वर से प्रार्थना करती रही।
6) जिस दिन हेरोद उसे पेश करने वाला था, उसके पहले की रात को पेत्रुस, दो हथकडि़यों से बँधा हुआ, दो सैनिकों के बीच सो रहा था और द्वार के सामने भी संतरी पहरा दे रहे थे।
7) प्रभु का दूत अचानक उसके पास आ खड़ा हो गया और कोठरी में ज्योति चमक उठी। उसने पेत्रुस की बगल थपथपा कर उसे जगाया और कहा, ’’जल्दी उठिए!’’ इस पर पेत्रुस की हाथकडि़याँ गिर पड़ी।
8) तब दूत ने उस से कहा, ’’कमर बाँधिए और चप्पल पहन लीजिए’’। उसने यही किया। दूत ने फिर कहा ’’चादर ओढ़ कर मेरे पीछे चले आइए’’।
9) पेत्रुस उसके पीछे-पीछे बाहर निकल गया। उसे पता नहीं था कि जो कुछ दूत द्वारा हो रहा है, वह सच ही हैं। वह समझ रहा था कि मैं स्वप्न देख रहा हूँ।
10) वे पहला पहरा और फिर दूसरा पहरापार कर उस लोहे के फाटक तक पहुँचे, जो शहर की ओर ले जाता हैं। वह उनके लिए अपने आप खुल गया। वे बाहर निकल कर गली के छोर तक आये कि दूत अचानक उसे छोड़ कर चला गया।
11) तब पेत्रुस होश में आ कर बोल उठा, ’’अब मुझे निश्चय हो गया कि प्रभु ने अपने दूत को भेज कर मुझे हेरोद के पंजे से छुड़ाया और यहूदियों की सारी आशाओं पर पानी फेर दिया है।’’
दूसरा पाठ: तिमथी के नाम सन्त पौलुस का दूसरा पत्र 4:6-8,17-18
6) मैं प्रभु को अर्पित किया जा रहा हूँ। मेरे चले जाने का समय आ गया है।
7) मैं अच्छी लड़ाई लड़ चुका हूँ, अपनी दौड़ पूरी कर चुका हूँ और पूर्ण रूप से ईमानदार रहा हूँ।
8) अब मेरे लिए धार्मिकता का वह मुकुट तैयार है, जिसे न्यायी विचारपति प्रभु मुझे उस दिन प्रदान करेंगे - मुझ को ही नहीं, बल्कि उन सब को, जिन्होंने प्रेम के साथ उनके प्रकट होने के दिन की प्रतीक्षा की है।
17) परन्तु प्रभु ने मेरी सहायता की और मुझे बल प्रदान किया, जिससे मैं सुसमाचार का प्रचार कर सकूँ और सभी राष्ट्र उसे सुन सकें। मैं सिंह के मुँह से बच निकला।
18) प्रभु मुझे दुष्टों के हर फन्दे से छुड़ायेगा। वह मुझे सुरक्षित रखेगा और अपने स्वर्गराज्य तक पहुँचा देगा। उसी को अनन्त काल तक महिमा! आमेन!
सुसमाचार : सन्त मत्ती का सुसमाचार 16:13-19
13) ईसा ने कैसरिया फि़लिपी प्रदेश पहुँच कर अपने शिष्यों से पूछा, ’’मानव पुत्र कौन है, इस विषय में लोग क्या कहते हैं?’’
14) उन्होंने उत्तर दिया, ’’कुछ लोग कहते हैं- योहन बपतिस्ता; कुछ कहते हैं- एलियस; और कुछ लोग कहते हैं- येरेमियस अथवा नबियों में से कोई’’।
15) ईस पर ईसा ने कहा, ’’और तुम क्सा कहते हो कि मैं कौन हूँ?
16) सिमोन पुत्रुस ने उत्तर दिया, ’’आप मसीह हैं, आप जीवन्त ईश्वर के पुत्र हैं’’।
17) इस पर ईसा ने उस से कहा, ’’सिमोन, योनस के पुत्र, तुम धन्य हो, क्योंकि किसी निरे मनुष्य ने नहीं, बल्कि मेरे स्वर्गिक पिता ने तुम पर यह प्रकट किया है।
18) मैं तुम से कहता हूँ कि तुम पेत्रुस अर्थात् चट्टान हो और इस चट्टान पर मैं अपनी कलीसिया बनाऊँगा और अधोलोक के फाटक इसके सामने टिक नहीं पायेंगे।
19) मैं तुम्हें स्वर्गराज्य की कुंजिया प्रदान करूँगा। तुम पृथ्वी पर जिसका निषेध करोगे, स्वर्ग में भी उसका निषेध रहेगा और पृथ्वी पर जिसकी अनुमति दोगे, स्वर्ग में भी उसकी अनुमति रहेगी।’’
📚 मनन-चिंतन
आज के दिन माता कलीसिया दो महान प्रेरितों का पर्व मनाती है। ये दो प्रेरित जिनके इर्दर्गिद प्रभु येसु के स्वर्गराज्य की स्थापना केंद्रित था, और उन्हीं से यह बढ़ा और सारे विश्व के कोने में फैल गया। ये दोनों प्रेरितों ने आदि कलीसिया के विश्वास को दृढ़ किया, और एकता को बनाये रखा। लेकिन ये दोनों संतों एक दूसरे से अलग थे जैसे रात और दिन, इन दोनों में उनकी अपनी भिन्नताएँ थी जैसा कि हम गलातियों 2:14 में पाते हैं। यद्यपि यह जिन्होंने प्रभु येसु को पहचाना, उनका चरित्र और उनके कार्य का दृढ़ता के साथ प्रकट किया तथा उनके नाम का अर्थ प्रकट हुआ, जिसका अर्थ पत्थार है। संत पेत्रुस जल्दबाजी और स्वच्दं थे इसे हम उनके प्रभु येसु के तीन बार अस्वीकार की घटना से जानते हैं।
संत पौलुस अपने हदय परिर्वतन से पहले ख्रीस्तीयों के घोर विरोधी और उतालू चरित्र के थे। लेकिन यह आश्चर्य था कि प्रभु येसु इन दोनों के चुना जो निपुण नहीं थे और वे कलीसिया के योग्य अगुवा भी नहीं थे। लेकिन उन दोनों में उनकी विभिन्नताओं और कमजोरियों के बौजुद भी पेत्रुस और पौलुस अपने सामान्य उददेश्य और प्रेरितिक कार्य में जुडे़ हुए थे। दोनों शहीद हुए, और ईश्वर की महिमा के लिए समर्पित थे। इन दोनों संतों का जीवन यही दिखता है कि ईश्वर किसी कमजोर और अपरिपक्व व्यक्तियों को चुनकर अपनी कलीसिया का अगुवा बना सकता है। क्योंकि इन्हीं मानवीय साधनों द्वारा जिसे ईश्वर कलीसिया और संसार को दिखाता है और जो मनुष्यों के लिए अंसभव है वह ईश्वर के लिए अंसभव नहीं है।
📚 REFLECTION
On this day the church celebrates the feasts of two great apostles Peter and Paul. They were the two men around whom the mission of Jesus to establish the kingdom was centred and from whom it grew and spread to every corner of the world. They strengthened the faith of the early church and kept in unity. But these two saints were different as night and day and they even had their differences as mentioned in Galatians2:14.
Although it was St Peter who affirmed the identity of Christ, his character and action did not reflect the meaning of his name which means “rock.” Peter was rash and impulsive; we know this from his triple denial of Jesus.
St Paul was a staunch opponent of Christians before his conversion and had a fiery character. But it was strange that Jesus chose these two men who were far from perfect or even suitable to be leaders of his church. But in spite of their differences and shortcomings, Sts Peter and Paul were united in common goal and mission.
Both died as martyrs, an act which showed that the purpose of their lives were not for their own glory but for the glory of God. The lives of Sts Peter and Paul show us that God can choose the weak and imperfect persons to be leaders of his church; because it is through these imperfect human instruments that God shows the church and the world that what is impossible for man is not impossible for God.
✍ -Br Biniush Topno
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