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Duliajan, Assam, India
Catholic Bibile Ministry में आप सबों को जय येसु ओर प्यार भरा आप सबों का स्वागत है। Catholic Bibile Ministry offers Daily Mass Readings, Prayers, Quotes, Bible Online, Yearly plan to read bible, Saint of the day and much more. Kindly note that this site is maintained by a small group of enthusiastic Catholics and this is not from any Church or any Religious Organization. For any queries contact us through the e-mail address given below. 👉 E-mail catholicbibleministry21@gmail.com

1 सितंबर का पवित्र वचन

 

01 सितंबर 2020
वर्ष का बाईसवाँ सामान्य सप्ताह, मंगलवार

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📒 पहला पाठ : 1 कुरिन्थियों 2:10ब-16

10) ईश्वर ने अपने आत्मा द्वारा हम पर वही प्रकट किया है, क्योंकि आत्मा सब कुछ की, ईश्वर के रहस्य की भी, थाह लेता है।

11) मनुष्य के निजी आत्मा के अतिरिक्त कौन किसी का अन्तरतम जानता है? इसी तरह ईश्वर के आत्मा के अतिरिक्त कोई ईश्वर का अन्तरतम नहीं जानता।

12) हमें संसार का नहीं, बल्कि ईश्वर का आत्मा मिला है, जिससे हम ईश्वर के वरदान पहचान सकें।

13) हम उन वरदानों की व्याख्या करते समय मानवीय प्रज्ञा के शब्दों का नहीं, बल्कि आत्मा द्वारा प्रदत्त शब्दों का प्रयोग करते हैं। इस प्रकार हम आध्यात्मिक शब्दावली में आध्यात्मिक तथ्यों की विवेचना करते है।।

14) प्राकृत मनुष्य ईश्वर के आत्मा की शिक्षा स्वीकार नहीं करता। वह उसे मूर्खता मानता और उसे समझने में असमर्थ है, क्योंकि आत्मा की सहायता से ही उस शिक्षा की परख हो सकती है।

15) आध्यात्मिक मनुष्य सब बातों की परख करता है, किन्तु कोई भी उस मनुष्य की परख नहीं करता है, किन्तु कोई भी उस मनुष्य की परख नहीं कर पाता;

16) क्योंकि (लिखा है) - प्रभु का मन कौन जानता है? कौन उसे शिक्षा दे सकता है? हम में तो मसीह का मनोभाव विद्यमान है।


सुसमाचार : लूकस 4:31-37

31) वे गलीलिया के कफ़रनाहूम नगर आये और विश्राम के दिन लोगों को शिक्षा दिया करते थे।

32) लोग उनकी शिक्षा सुन कर अचम्भे में पड़ जाते थे, क्योंकि वे अधिकार के साथ बोलते थे।

33) सभागृह में एक मनुष्य था, जो अशुद्ध आत्मा के वश में था। वह ऊँचे स्वर से चिल्ला उठा,

34) "ईसा नाज़री! हम से आप को क्या? क्या आप हमारा सर्वनाश करने आये हैं? मैं जानता हूँ कि आप कौन हैं-ईश्वर के भेजे हुए परमपावन पुरुष।"

35) ईसा ने यह कहते हुए उसे डाँटा, " चुप रह, इस मनुष्य से बाहर निकल जा"। अपदूत ने सब के देखते-देखते उस मनुष्य को भूमि पर पटक दिया और उसकी कोई हानि किये बिना वह उस से बाहर निकल गया।

36) सब विस्मित हो गये और आपस में यह कहते रहे, "यह क्या बात है! वे अधिकार तथा सामर्थ्य के साथ अशुद्ध आत्माओं को आदेश देते हैं और वे निकल जाते हैं।"

37) इसके बाद ईसा की चर्चा उस प्रदेश के कोने-कोने में फैल गयी।

📚 मनन-चिंतन

आज के सुसमाचार में हम प्रभु येसु के दैनिक कार्यों की एक झलक देखते हैं। उनकी सेवकाई के दो मुख्य पहलु थे (1) सुसमाचार का प्रचार, (2) चिन्ह और चमत्कार अथवा चंगाई। उनकी शिक्षा को सुनकर लोग अचम्भे में पड़ जाते थे क्योंकि वे अधिकार के साथ बोलते थे। प्रभु येसु की शिक्षा में बहुत ही गहराई और उनकी बातों में सच्चाई थी। वे गहरी से गहरी और जटिल से भी जटिल बात को बड़े सहज लहजे में समझा देते थे, इसलिए लोग, शास्त्रियों की तुलना में उनकी बातों को सुनना अधिक पसंद करते थे (मत्ती 7:29) स्वर्ग की बातों को समझाने के लिए उन्होंने धरती के उदाहरण व कहानियों का इस्तेमाल किया। वे प्रकृति व तत्कालीन परिस्थितियों से वाकिफ थे। इसलिए उनकी शिक्षा सहज पर प्रभावशाली थी।

उनकी शिक्षा इसलिए भी प्रभावशाली थी की जो वे सिखाते थे उसे वे करते भी थे। यदि उन्होंने प्रेम की शिक्षा दी तो उन्होंने प्रेम करके भी दिखाया; क्षमा की शिक्षा दी तो क्षमा भी किया; सेवा की शिक्षा दी तो सेवा भी की। आज के सुसमाचार में भी हम देखते है कि उन्होंने पहले तो लोगों को वचन सुनाया फिर अपने कार्यों द्वारा उसकी पुष्टि की। उन्होंने स्वर्ग राज्य की शिक्षा दी और फिर अपने ही समय में रोगियों को चंगा करके, उपदूतों को निकालकर, बंधनों से आज़ादी देकर उन्हें स्वर्ग राज्य का पूर्वाभास कराया जहाँ ईश्वर - "उनके सब आंसू पौंछ डालेगा। इसके बाद ना मृत्यु होगी, न शोक, न विलाप, और न दुःख। " (प्रकाशना 21:4)

हम प्रभु येसु के समान हमारी ज़मीनी हकीकत से वाकिफ रहें। देश दुनियां और लोगों के जीवन और उनकी परेशानियों से परिचित रहकर ही हम उनके हित में कार्य कर सकते हैं।



📚 REFLECTION

In today's Gospel we see a glimpse of the daily work of Lord Jesus. There were two main aspects of his ministry: 1- Preaching the Gospel, 2- Signs and miracles or healing. People were amazed to hear his teaching as he spoke with authority. There was a lot of depth in the teaching of Lord Jesus and truth in his words. . He used to explain profound and complicated things in a very simple manner, so people preferred to listen to him more than the scribes (Matthew 7:29). He used examples and stories of the earth to explain the things of heaven. He was aware of the nature and natural things and also was aware of the prevailing circumstances of the society. Therefore his teaching was simple, down to earth and effective.

His teaching was also influential because he used to do what he taught. If he taught about love, he showed love; if he taught forgiveness, then he forgives also; If he was preached about service, he did serve. Even in today's gospel, we see that he first gave the Word to them and then confirmed it through his actions. He taught the kingdom of heaven and then in his own time healed the sick and cast out demons, and restored the joy and happiness to the lives of people thus giving them the foretaste of the Kingdom of heaven where “God will wipe out all their tears. After this there will be no death, neither mourning, nor sorrow"(Revelation 21: 4).

Let us be aware of our ground reality; let us be aware of everyday happenings, like Lord Jesus did. Only by being familiar with the world and the life of the people around us, can we really work for them, for their welfare.


 - Biniush Topno 

31 अगस्त का पवित्र वचन

 

31 अगस्त 2020
वर्ष का बाईसवाँ सामान्य सप्ताह, सोमवार

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📒 पहला पाठ : 1 कुरिन्थियों 2:1-5

1) भाइयो! जब मैं ईश्वर का सन्देश सुनाने आप लोगों के यहाँ आया, तो मैंने शब्दाडम्बर अथवा पाण्डित्य का प्रदर्शन नहीं किया।

2) मैंने निश्चय किया था कि मैं आप लोगों से ईसा मसीह और क्रूस पर उनके मरण के अतिरिक्त किसी और विषय पर बात नहीं करूँगा।

3) वास्तव में मैं आप लोगों के बीच रहते समय दुर्बल, संकोची और भीरू था।

4) मेरे प्रवचन तथा मेरे संदेश में विद्वतापूर्ण शब्दों का आकर्षण नहीं, बल्कि आत्मा का सामर्थ्य था,

5) जिससे आप लोगों का विश्वास मानवीय प्रज्ञा पर नहीं, बल्कि ईश्वर के सामर्थ्य पर आधारित हो।


सुसमाचार : लूकस 4:16-30

16) ईसा नाज़रेत आये, जहाँ उनका पालन-पोषण हुआ था। विश्राम के दिन वह अपनी आदत के अनुसार सभागृह गये। वह पढ़ने के लिए उठ खड़े हुए

17) और उन्हें नबी इसायस की पुस्तक़ दी गयी। पुस्तक खोल कर ईसा ने वह स्थान निकाला, जहाँ लिखा हैः

18) प्रभु का आत्मा मुझ पर छाया रहता है, क्योंकि उसने मेरा अभिशेक किया है। उसने मुझे भेजा है, जिससे मैं दरिद्रों को सुसमाचार सुनाऊँ, बन्दियों को मुक्ति का और अन्धों को दृष्टिदान का सन्देश दूँ, दलितों को स्वतन्त्र करूँ

19) और प्रभु के अनुग्रह का वर्ष घोषित करूँ।

20) ईसा ने पुस्तक बन्द कर दी और वह उसे सेवक को दे कर बैठ गये। सभागृह के सब लोगों की आँखें उन पर टिकी हुई थीं।

21) तब वह उन से कहने लगे, "धर्मग्रन्थ का यह कथन आज तुम लोगों के सामने पूरा हो गया है"।

22) सब उनकी प्रशंसा करते रहे। वे उनके मनोहर शब्द सुन कर अचम्भे में पड़ जाते और कहते थे, "क्या यह युसूफ़ का बेटा नहीं है?"

23) ईसा ने उन से कहा, "तुम लोग निश्चय ही मुझे यह कहावत सुना दोगे-वैद्य! अपना ही इलाज करो। कफ़रनाहूम में जो कुछ हुआ है, हमने उसके बारे में सुना है। वह सब अपनी मातृभूमि में भी कर दिखाइए।"

24) फिर ईसा ने कहा, "मैं तुम से यह कहता हूँ-अपनी मातृभूमि में नबी का स्वागत नहीं होता।

25) मैं तुम्हें विश्वास दिलाता हूँ कि जब एलियस के दिनों में साढ़े तीन वर्षों तक पानी नहीं बरसा और सारे देश में घोर अकाल पड़ा था, तो उस समय इस्राएल में बहुत-सी विधवाएँ थीं।

26) फिर भी एलियस उन में किसी के पास नहीं भेजा गया-वह सिदोन के सरेप्ता की एक विधवा के पास ही भेजा गया था।

27) और नबी एलिसेयस के दिनों में इस्राएल में बहुत-से कोढ़ी थे। फिर भी उन में कोई नहीं, बल्कि सीरी नामन ही निरोग किया गया था।"

28) यह सुन कर सभागृह के सब लोग बहुत क्रुद्ध हो गये।

29) वे उठ खड़े हुए और उन्होंने ईसा को नगर से बाहर निकाल दिया। उनका नगर जिस पहाड़ी पर बसा था, वे ईसा को उसकी चोटी तक ले गये, ताकि उन्हें नीचे गिरा दें,

30) परन्तु वे उनके बीच से निकल कर चले गये।

📚 मनन-चिंतन

आज के सुसमाचार को दो भागों में बाँटा जा सकता है, पहले भाग प्रभु येसु के मुक्ति-प्रद घोषणा पत्र का वर्णन करता है, और दूसरा भाग प्रभु येसु के अपने ही लोगों द्वारा तिरस्कृत किए जाने का विवरण देता है। प्रभु येसु लौटकर नाज़रेथ आते हैं जहाँ उनका लालन-पालन हुआ था, जहाँ उन्होंने अपना बचपन बिताया था। लोगों में कुछ ऐसे होंगे जो बचपन में उसके साथ खेले होंगे, कुछ होंगे जिन्होंने उसे बड़ा होते हुए देखा था। जब प्रभु येसु ने अपना मिशन कार्य प्रारम्भ किया था तो उन्होंने उनके चमत्कारों और शिक्षाओं के बारे में भी सुना होगा। जब उन्होंने प्रभु येसु को अपने बीच पाया तो वे ज़रूर बहुत उत्साहित हुए होंगे और प्रभु येसु भी अपने आप को उनके बीच में पाकर बहुत आनंदित महसूस कर रहे होंगे।

लेकिन तभी जब प्रभु येसु धर्मग्रंथ में से पाठ पढ़ते हैं और बताते हैं, कि धर्मग्रंथ का यह कथन आज पूरा हुआ। उसने उन्हें बताया कि प्रभु का आत्मा मुझ पर छाया रहता है, उसने मेरा अभिषेक किया है कि मैं दरिद्रों को सुसमाचार सुनाऊँ… संक्षेप में कहें तो वही मसीह था जो अभिषिक्त किया गया था, जो उनके बीच में पल-बढ़ा और ईश्वर ने उसे चुना और उसका अभिषेक किया। उन्हें यह बात हज़म नहीं हुई कि एक मामूली बढ़ई का बेटा संसार का मुक्तिदाता है, और उन्होंने एक नबी के रूप में उनको स्वीकार नहीं किया, उनके लिए वह एक मामूली बढ़ई यूसुफ़ के पुत्र से ज़्यादा और कुछ नहीं था। जब वह अपने आप को नबी बताता है तो उन्हें बहुत ग़ुस्सा आता है। क्या जब मैं ईश्वर का कार्य करने के लिए आगे आता हूँ तो मुझे भी अपने ही लोगों के विरोध और क्रोध का सामना करना पड़ता है?

30 अगस्त का पवित्र वचन

 

30 अगस्त 2020
वर्ष का बाईसवाँ सामान्य सप्ताह, रविवार

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📒 पहला पाठ : यिरमियाह 20:7-9

7) प्रभु! तूने मुझे राज़ी किया और मैं मान गया। तूने मुझे मात कर दिया और मैं हार गया। मैं दिन भर हँसी का पात्र बना रहता हूँ। सब-के-सब मेरा उपहास करते हैं।

8) जब-जब मैं बोलता हूँ, तो मुझे चिल्लाना और हिंसा तथा विध्वंस की घोषणा करनी पड़ती हैं। ईश्वर का वचन मेरे लिए निरंतर अपमान तथा उपहास का कारण बन गया हैं।

9) जब मैं सोचता हूँ, मैं उसे भुलाऊँगा, मैं फिर कभी उसके नाम पर भविय वाणी नहीं करूँगा“ तो उसका वचन मेरे अन्दर एक धधकती आग जैसा बन जाता है, जो मेरी हड्डी-हड्डी में समा जाती है। मैं उसे दबाते-दबाते थक जाता हूँ और अब मुझ से नहीं रहा जाता।

📕 दूसरा पाठ : रोमियों 12:1-2

1) अतः भाइयो! मैं ईश्वर की दया के नाम पर अनुरोध करता हूँ कि आप मन तथा हृदय से उसकी उपासना करें और एक जीवन्त, पवित्र तथा सुग्राह्य बलि के रूप में अपने को ईश्वर के प्रति अर्पित करें।

2) आप इस संसार के अनुकूल न बनें, बल्कि बस कुछ नयी दृष्टि से देखें और अपना स्वभाव बदल लें। इस प्रकार आप जान जायेंगे कि ईश्वर क्या चाहता है और उसकी दृष्टि में क्या भला, सुग्राह्य तथा सर्वोत्तम है।

📙 सुसमाचार : सन्त मत्ती 16:21-27

21) उस समय से ईसा अपने शिष्यों को यह समझाने लगे कि मुझे येरुसालेम जाना होगा; नेताओं, महायाजकों और शास्त्रियों की ओर से बहुत दुःख उठाना, मार डाला जाना और तीसरे दिन जी उठना होगा।

22) पेत्रुस ईसा को अलग ले गया और उन्हें यह कहते हुए फटकारने लगा, ’’ईश्वर ऐसा न करे। प्रभु! यह आप पर कभी नहीं बीतेगी।’’

23) इस पर ईसा ने मुड़ कर, पेत्रुस से कहा ’’हट जाओ, शैतान! तुम मेरे रास्ते में बाधा बन रहो हो। तुम ईश्वर की बातें नहीं, बल्कि मनुष्यों की बातें सोचते हो।’’

24) इसके बाद ईसा ने अपने शिष्यों से कहा, ’’जो मेरा अनुसरण करना चाहता है, वह आत्मत्याग करे और अपना क्रूस उठा कर मेरे पीछे हो ले;

25) क्योंकि जो अपना जीवन सुरक्षित रखना चाहता है, वह उसे खो देगा और जो मेरे कारण अपना जीवन खो देता है, वह उसे सुरक्षित रखेगा।

26) मनुष्य को इस से क्या लाभ यदि वह सारा संसार प्राप्त कर ले, लेकिन अपना जीवन गँवा दे? अपने जीवन के बदले मनुष्य दे ही क्या सकता है?

27) क्योंकि मानव पुत्र अपने स्वर्गदूतों के साथ अपने पिता की महिमा-सहित आयेगा और वह प्रत्येक मनुष्य को उसके कर्म का फल देगा।

📚 मनन-चिंतन

आज सामान्य काल का बाईसवाँ रविवार है और इस महीने का आख़िरी रविवार। यह रविवार इस महीने प्रभु से प्राप्त आशीषों और कृपादानों के लिए धन्यवाद देने का दिन है। पिछले 8 जून को एक प्रसिद्ध फ़िल्मी सितारे की प्रबंधक दिशा सालियन ने 14वें माले से कूदकर आत्महत्या कर ली। वह प्रसिद्ध अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की पूर्व मैनेजर थी, जिसके एक सप्ताह बाद 14 जून को सुशांत सिंह राजपूत भी अपने कमरे में मृत पाए गए। पिछले कुछ महीनों और कुछ सालों में हमने ऐसे कई मामले देखे हैं जहाँ जीवन को खुश रखने के सारे सुख संसाधन होने के बावजूद बड़े-बड़े प्रसिद्ध लोग आत्महत्या कर लेते हैं। उनके पास गाड़ी-बंगला, प्रशंसक-दोस्त, धन-दौलत शोहरत और सब कुछ होते हुए भी आख़िर ऐसा क्या है जो उन्हें अपने लिए ऐसा दर्दनाक अन्त चुनने के लिए मजबूर कर देता है?

वर्तमान में यह बहुत ही ज्वलंत प्रश्न है। सब कुछ होने के बावजूद लोग अपने जीवन में सार्थकता क्यों नहीं पाते? शायद ऐसा इसलिए क्योंकि इस जीवन का एक मक़सद है, और जब तक जीवन का वह मक़सद पूरा नहीं हो जाता तब तक हमारा जीवन सार्थक नहीं होगा। जब तक हम ईश्वर की वाणी पर ध्यान नहीं देंगे, जब तक हम ईश्वर को अपने जीवन का केंद्रबिंदु नहीं बनाएँगे, तब तक हमारे अन्दर एक ख़ालीपन सा रहेगा, कुछ कमी रहेगी, कुछ खोया सा लगेगा, जीवन में कोई अर्थ नहीं, कोई मतलब नहीं निकलेगा। ईश्वर ही है जिसने हमारे जीवन का मक़सद निर्धारित किया है।

जब किसी कारख़ाने में कोई चीज़ बनायी जाती है, या कोई आविष्कारक किसी नई चीज़ का अविष्कार करता है तो उस चीज़ को बनाने वाला ही जानता है कि वह चीज़ किसलिए बनाई गयी है और उसका सबसे सही क्या उपयोग है। उदाहरण के लिए किसी ने अचार बनाने की मशीन बनायी हो, तो उस मशीन को बनाने वाला जानता है कि उस मशीन का उपयोग कैसे किया जाता है, और क्या-क्या सावधानियाँ हैं जिन्हें मन में रखना है ताकि ना मशीन को कुछ नुक़सान हो और ना उससे लिए जाए वाले काम का नुक़सान हो। उस मशीन का सही उपयोग और मक़सद दूसरों को समझाने के लिए एक नियम पुस्तक (मैन्यूअल) भी प्रिंट किया जाता है।

हमें ईश्वर ने बनाया है और हमारे जीवन का मक़सद ईश्वर ही जानते हैं, और जब तक हम विनम्र हृदय से अपने सृष्टिकर्ता की ओर नहीं मुड़ेंगे तब तक हम अपने जीवन का अर्थ नहीं समझ पाएँगे। ओर मुड़ने का सबसे अच्छा तरीक़ा है कि “हम अपना क्रूस उठाकर प्रभु येसु के पीछे हो लें।” हमें ईश्वर के लिए अपना जीवन खोना है तभी हम अपना जीवन पा सकेंगे। पवित्र बाइबिल वह नियम पुस्तिका (मैन्यूअल) है जो हमारे जीवन का मक़सद हमें समझाएगी, ईश्वर पवित्र बाइबिल के द्वारा हमें हमारे जीवन का सही उद्देश्य पहचानने के लिए प्रेरित कर सकते हैं।आइए हम ईश्वर से प्रार्थना करें कि हम ईश्वर के लिए अपना जीवन खो दें ताकि हम ईश्वर को पा लें। आमेन।

28 अगस्त का पवित्र वचन

 

29 अगस्त 2020, शनिवार

सन्त योहन बपतिस्ता की शहादत की अनिवार्य स्मृति

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📒 पहला पाठ : यिरमियाह 1:17-19

17) अब तुम कमर कस कर तैयार हो जाओ और मैं तुम्हें जो कुछ बताऊँ, वह सब सुना दो। तुम उनके सामने भयभीत मत हो, नहीं तो मैं तुम को उनके सामने भयभीत बना दूँगा।

18) देखो! इस सारे देश के सामने, यूदा के राजाओं, इसके अमीरों, इसके याजकों और इसके सब निवासियों के सामने, मैं आज तुम को एक सुदृढ़ नगर के सदृश, लोहे के खम्भे और काँसे की दीवार की तरह खड़ा करता हूँ।

19) वे तुम्हारे विरुद्ध लडेंगे, किन्तु तुम को हराने में असमर्थ होंगे; क्योंकि मैं तुम्हारी रक्षा करने के लिए तुम्हारे साथ रहूँगा।“ यह प्रभु की वाणी है।

📙 सुसमाचार : सन्त मारकुस 6:17-29

17) हेरोद ने अपने भाई फि़लिप की पत्नी हेरोदियस के कारण योहन को गिरफ़्त्तार किया और बन्दीगृह में बाँध रखा था; क्योंकि हेरोद ने हेरोदियस से विवाह किया था

18) और योहन ने हेरोद से कहा था, ’’अपने भाई की पत्नी को रखना आपके लिए उचित नहीं है’’।

19) इसी से हेरोदियस योहन से बैर करती थी और उसे मार डालना चाहती थी; किन्तु वह ऐसा नहीं कर पाती थी,

20) क्योंकि हेरोद योहन को धर्मात्मा और सन्त जान कर उस पर श्रद्धा रखता और उसकी रक्षा करता था। हेरोद उसके उपदेश सुन कर बड़े असमंजस में पड़ जाता था। फिर भी, वह उसकी बातें सुनना पसन्द करता था।

21) हेरोद के जन्मदिवस पर हेरोदियस को एक सुअवसर मिला। उस उत्सव के उपलक्ष में हेरोद ने अपने दरबारियों, सेनापतियों और गलीलिया के रईसों को भोज दिया।

22) उस अवसर पर हेरोदियस की बेटी ने अन्दर आ कर नृत्य किया और हेरोद तथा उसके अतिथियों को मुग्ध कर लिया। राजा ने लड़की से कहा, ’’जो भी चाहो, मुझ से माँगो। मैं तुम्हें दे दॅूंगा’’,

23) और उसने शपथ खा कर कहा, ’’जो भी माँगो, चाहे मेरा आधा राज्य ही क्यों न हो, मैं तुम्हें दे दूँगा’’।

24) लड़की ने बाहर जा कर अपनी माँ से पूछा, ’’मैं क्या माँगूं?’’ उसने कहा, ’’योहन बपतिस्ता का सिर’’।

25) वह तुरन्त राजा के पास दौड़ती हुई आयी और बोली, ’’मैं चाहती हूँ कि आप मुझे इसी समय थाली में योहन बपतिस्ता का सिर दे दें’’

26) राजा को धक्का लगा, परन्तु अपनी शपथ और अतिथियों के कारण वह उसकी माँग अस्वीकार करना नहीं चाहता था।

27) राजा ने तुरन्त जल्लाद को भेज कर योहन का सिर ले आने का आदेश दिया। जल्लाद ने जा कर बन्दीगृह में उसका सिर काट डाला

28) और उसे थाली में ला कर लड़की को दिया और लड़की ने उसे अपनी माँ को दे दिया।

29) जब योहन के शिष्यों को इसका पता चला, तो वे आ कर उसका शव ले गये और उन्होंने उसे क़ब्र में रख दिया।

📚 मनन-चिंतन

आज हम संत योहन बप्तिस्ता की शहादत को याद करते हैं। जब हम योहन बप्तिस्ता के बारे में विचार करते हैं तो हम देखते हैं कि वह बहुत ही साधारण और मामूली से जान पड़ते हैं, अपने जीवन या पहनावे से बिलकुल ही शाही या आकर्षक नहीं लगता (मत्ती 11:7)। “वह ऊँट के रोओं का कपड़ा पहने और कमर में चमड़े का पट्टा बाँधे रहता था। उसका भोजन टिड्डयाँ और वन का मधु था।” (मत्ती 3:4)। यह कोई ख़ास प्रभावशाली पहनावा नहीं है। लेकिन फिर भी उसने बहुतों के हृदयों को झकझोर दिया और बहुत से लोग उसके पास बपतिस्मा ग्रहण करने आते थे, वे व्यथित होकर उससे पूछते थे, “हमें क्या करना चाहिए?” (लूकस ३:१०)।

उसने मौलिक जीवन जिया और प्रभु का मार्ग तैयार करने की आवाज़ के रूप में आया, और निडर होकर सत्य बोलना और सत्य की राह पर चलना उसका कर्तव्य और ज़िम्मेदारी थी। वह राजा हेरोद से भी नहीं डरता था, और इसलिए जब वह ग़लत कर रहा था तो उसने उसका विरोध किया। अपने मन ही मन राजा भी जानता था कि वह ग़लत कर रहा है, और योहन भी जानता था कि सत्य बोलने के कारण उसे अपनी जान भी गँवानी पड़ सकती है लेकिन “लेकिन इससे क्या फ़ायदा कि इंसान सारा संसार तो प्राप्त कर ले लेकिन अपनी आत्मा गँवा दे” (मारकुस 8:36)। संत योहन हमारे लिए एक उदाहरण प्रस्तुत करते हैं कि हमें सत्य के लिए, सही के लिए और न्याय के लिए खड़े होना है फिर चाहे हमें कैसी चुनौतियों का सामना करना पड़े। ईश्वर हमें सत्य के लिए डटकर खड़े होने की साहस प्रदान करे। आमेन।

28 अगस्त का पवित्र वचन

 

28 अगस्त 2020
वर्ष का इक्कीसवाँ सामान्य सप्ताह, शुक्रवार

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📒 पहला पाठ : कुरिन्थियों के नाम सन्त पौलुस का पहला पत्र 1:17-25

17) क्योंकि मसीह ने मुझे बपतिस्मा देने नहीं; बल्कि सुसमाचार का प्रचार करने भेजा। मैंने इस कार्य के लिए अलंकृत भाषा का व्यवहार नहीं किया, जिससे मसीह के क्रूस के सन्देश का प्रभाव फीका न पड़े।

18) जो विनाश के मार्ग पर चलते हैं, वे क्रूस की शिक्षा को ’’मूर्खता’’ समझते हैं। किन्तु हम लोगों के लिए, जो मुक्ति के मार्ग पर चलते हैं, वह ईश्वर का सामर्थ्य है;

19) क्योंकि लिखा है-मैं ज्ञानियों का ज्ञान नष्ट करूँगा और समझदारों की चतुराई व्यर्थ कर दूँगा।

20) हम में ज्ञानी, शास्त्री और इस संसार के दार्शनिक कहाँ हैं? क्या ईश्वर ने इस संसार के ज्ञान को मूर्खता-पूर्ण नहीं प्रमाणित किया है?

21) ईश्वर की प्रज्ञा का विधान ऐसा था कि संसार अपने ज्ञान द्वारा ईश्वर को नहीं पहचान सका। इसलिए ईश्वर ने सुसमाचार की ’’मूर्खता’’ द्वारा विश्वासियों को बचाना चाहा।

22) यहूदी चमत्कार माँगते और यूनानी ज्ञान चाहते हैं,

23) किन्तु हम क्रूस पर आरोपित मसीह का प्रचार करते हैं। यह यहूदियों के विश्वास में बाधा है और गै़र-यहूदियों के लिए ’मूर्खता’।

24) किन्तु मसीह चुने हुए लोगों के लिए, चाहे वे यहूदी हों या यूनानी, ईश्वर का सामर्थ्य और ईश्वर की प्रज्ञा है;

25) क्योंकि ईश्वर की ’मूर्खता’ मनुष्यों से अधिक विवेकपूर्ण और ईश्वर की ’दुर्बलता’ मनुष्यों से अधिक शक्तिशाली है।

📙 सुसमाचार : सन्त मत्ती का सुसमाचार 25:1-13

1) उस समय स्वर्ग का राज्य उन दस कुँआरियों के सदृश होगा, जो अपनी-अपनी मशाल ले कर दुलहे की अगवानी करने निकलीं।

2) उन में से पाँच नासमझ थीं और पाँच समझदार।

3) नासमझ अपनी मशाल के साथ तेल नहीं लायीं।

4) समझदार अपनी मशाल के साथ-साथ कुप्पियों में तेल भी लायीं।

5) दूल्हे के आने में देर हो जाने पर ऊँघने लगीं और सो गयीं।

6) आधी रात को आवाज़ आयी, ’देखो, दूल्हा आ रहा है। उसकी अगवानी करने जाओ।’

7) तब सब कुँवारियाँ उठीं और अपनी-अपनी मशाल सँवारने लगीं।

8) नासमझ कुँवारियों ने समझदारों से कहा, ’अपने तेल में से थोड़ा हमें दे दो, क्योंकि हमारी मशालें बुझ रही हैं’।

9) समझदारों ने उत्तर दिया, ’क्या जाने, कहीं हमारे और तुम्हारे लिए तेल पूरा न हो। अच्छा हो, तुम लोग दुकान जा कर अपने लिए ख़रीद लो।’

10) वे तेल ख़रीदने गयी ही थीं कि दूलहा आ पहुँचा। जो तैयार थीं, उन्होंने उसके साथ विवाह-भवन में प्रवेश किया और द्वार बन्द हो गया।

11) बाद में शेष कुँवारियाँ भी आ कर बोली, प्रभु! प्रभु! हमारे लिए द्वार खोल दीजिए’।

12) इस पर उसने उत्तर दिया, ’मैं तुम से यह कहता हूँ- मैं तुम्हें नहीं जानता’।

13) इसलिए जागते रहो, क्योंकि तुम न तो वह दिन जानते हो और न वह घड़ी।

📚 मनन-चिंतन

आज माता कलीसिया महान संत अगस्तिन का पर्व मनाती है, जो धर्माध्यक्ष एवं कलिसिया के महान विद्वान हैं। धर्माध्यक्ष का कार्य कलिसिया की अगुआई करना है और डॉक्टर अथवा विद्वान वह है जो कलिसिया की शिक्षाओं में त्रुटियों को दूर करता है। संत अगस्टिन अपने समय के एक महान और विख्यात विद्वान थे। वह सब कुछ के बारे में ज्ञान प्राप्त करना चाहते थे। उनका एकमात्र उद्देश्य हर तरह का ज्ञान प्राप्त करना था, लेकिन बाद में उनकी माता की प्रार्थनाओं द्वारा उनका मन ईश्वर की ओर अभिमुख हुआ और जो ज्ञान वह खोज रहे थे वह उनके लिए मूर्खता बन गया और सुसमाचार उनके लिए अनंत प्रज्ञा का स्रोत बन गया।

आज के सुसमाचार में हम दस कुँवारियों को देखते हैं जिनमें से पाँच मूर्ख थीं और पाँच समझदार। जिन्होंने दूल्हे से मिलने के लिए उचित तैयारी की थे वे समझदार मानी जाती हैं लेकिन जिन्होंने भविष्य के लिए उचित तैयारी नहीं की उन्हें मूर्ख माना जाता है, और वे विवाह भोज में सम्मिलित होने से वंचित हो जाती हैं। इस दुनिया में हमारा जीवन दूल्हे की प्रतीक्षा करने के समान है और हमारे भले कार्य, हमारा पुण्य और अच्छाई वह तेल है जो हमारी मशाल को जलाए रखता है। हमें बिलकुल भी पता नहीं कि हमारा अंत कब आएगा, हो सकता है हमें दूल्हे से मिलने के लिए पर्याप्त तेल ख़रीदने का मौक़ा ही ना मिले। आइए हम समय रहते, रात होने से पहले ही अपने लिए पर्याप्त तेल की व्यवस्था कर लें, अभी भी मौक़ा है।

27 अगस्त का पवित्र वचन

 

27 अगस्त 2020
वर्ष का इक्कीसवाँ सामान्य सप्ताह, गुरुवार

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📒 पहला पाठ : कुरिन्थियों के नाम सन्त पौलुस का पहला पत्र 1:1-9

1) कुरिन्थ में ईश्वर की कलीसिया के नाम पौलुस, जो ईश्वर द्वारा ईसा मसीह का प्रेरित नियुक्त हुआ है, और भाई सोस्थेनेस का पत्र।

2) आप लोग ईसा मसीह द्वारा पवित्र किये गये हैं और उन सबों के साथ सन्त बनने के लिए बुलाये गये हैं, जो कहीं भी हमारे प्रभु ईसा मसीह अर्थात् अपने तथा हमारे प्रभु का नाम लेते हैं।

3) हमारा पिता ईश्वर और प्रभु ईसा मसीह आप लोगों को अनुग्रह तथा शान्ति प्रदान करें।

4) आप लोगों को ईसा मसीह द्वारा ईश्वर का अनुग्रह प्राप्त हुआ है। इसके लिए मैं ईश्वर को निरन्तर धन्यवाद देता हूँ।

5 (5-6) मसीह का सन्देश आप लोगों के बीच इस प्रकार दृढ़ हो गया है कि आप लोग मसीह से संयुक्त होकर अभिव्यक्ति और ज्ञान के सब प्रकार के वरदानों से सम्पन्न हो गये हैं।

7) आप लोगों में किसी कृपादान की कमी नहीं है और सब आप हमारे प्रभु ईसा मसीह के आगमन की प्रतीक्षा कर रहे हैं।

8) ईश्वर अन्त तक आप लोगों को विश्वास में सुदृढ़ बनाये रखेगा, जिससे आप हमारे प्रभु ईसा मसीह के दिन निर्दोष पाये जायें।

9) ईश्वर सत्यप्रतिज्ञ है। उसने ने आप लोगों को अपने पुत्र हमारे प्रभु ईसा मसीह के सहभागी बनने के लिए बुलाया।

📙 सुसमाचार : सन्त मत्ती का सुसमाचार 24:42-51

42) ’’इसलिए जागते रहो, क्योकि तुम नहीं जानते कि तुम्हारे प्रभु किस दिन आयेंगे।

43) यह अच्छी तरह समझ लो- यदि घर के स्वामी को मालूम होता कि चोर रात के किस पहर आयेगा, तो वह जागता रहता और अपने घर में सेंध लगने नहीं देता।

44) इसलिए तुम लोग भी तैयार रहो, क्योंकि जिस घड़ी तुम उसके आने की नहीं सोचते, उसी घड़ी मानव पुत्र आयेगा।

45) ’’कौन ऐसा ईमानदार और बुद्धिमान् सेवक है, जिसे उसके स्वामी ने अपने नौकर-चाकरों पर नियुक्त किया है, ताकि वह समय पर उन्हें रसद बाँटा करे?

46) धन्य है वह सेवक, जिसका स्वामी आने पर उसे ऐसा करता हुआ पायेगा!

47) मैं तुम लोगों से यह कहता हूँ- वह उसे अपनी सारी सम्पत्ति पर नियुक्त करेगा।

48) ’’परन्तु यदि वह बेईमान सेवक अपने मन में कहे, मेरा स्वामी आने में देर करता है,

49) और वह दूसरे नौकरों को पीटने और शराबियों के साथ खाने-पीने लगे,

50) तो उस सेवक का स्वामी ऐसे दिन आयेगा, जब वह उसकी प्रतिक्षा नहीं कर रहा होगा और ऐसी घड़ी, जिसे वह नहीं जान पायेगा।

51) तब वह स्वामी उसे कोड़े लगवायेगा और ढोंगियों का दण्ड देगा। वहाँ वे लोग रोयेंगे और दाँत पीसते रहेंगे।

📚 मनन-चिंतन

“इसलिए जागते रहो क्योंकि तुम नहीं जानते कि किस घड़ी प्रभु आएगा।” हम प्रभु के सेवक मात्र हैं। हमारे जन्म लेने से पहले ही ईश्वर ने हमें चुना है और एक ज़िम्मेदारी दी है (यिरमियाह 1:5)। ईश्वर ने हम में से प्रत्येक व्यक्ति को अपनी योजना पूरी करने के लिए चुना है, लेकिन उसने समय निश्चित नहीं किया कब वह हमसे हमारे काम का लेखा-जोखा लेगा, और कब हमें अपने सामने प्रस्तुत होने के लिए बुलाएगा। आज का सुसमाचार हमारी उससे मुलाक़ात की तैयारी के बारे में ही है।

हमें प्रत्येक को जो ज़िम्मेदारी दी है उसे हमें पूरी वफ़ादारी और ईमानदारी से निभाना है। उदाहरण के लिए यदि मैं एक अध्यापक/अध्यापिका हूँ तो मुझे अपना काम इस तरह करना है मानो ईश्वर मुझसे लेखा-जोखा लेगा कि मैंने अपना काम कितनी ईमानदारी और लगन से किया। यही बात नर्स के कार्य के साथ भी है कि कितनी ईमानदारी और सेवा भाव से मैंने रोगियों के रूप में प्रभु की सेवा की, या फिर हम कोई प्राइवेट नौकरी या सरकारी नौकरी करते हों, क्या हम अपने काम को उसी तरह से करते हैं जैसे ईश्वर चाहते हैं? हम जीवन में अलग-अलग भूमिकाएँ भी निभाते हैं, माता, पिता, बहन, पुत्र/पुत्री, विद्यार्थी, आदि क्या मैं अपनी भूमिका पूर्ण ईमानदारी से निभा रहा हूँ? संत मोनिका एक आदर्श माँ हैं जिसने एक माँ होने की, पत्नी होने की, बहु होने की, आदर्श पड़ौसी होने की अपनी ज़िम्मेदारी को बखूबी निभाया और आज वो एक संत हैं।

26 अगस्त का पवित्र वचन

 

26 अगस्त 2020
वर्ष का इक्कीसवाँ सामान्य सप्ताह, बुधवार

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📒 पहला पाठ : 2 थेसलनीकियों 3:6-11, 16-18

6) भाइयों! हम आप को प्रभु ईसा मसीह के नाम पर आदेश देते हैं कि आप उन भाइयों से अलग रहें, जो काम नहीं करते और उस परम्परा के अनुसार नहीं चले, जो आप लोगों को मुझ से प्राप्त हुई।

7) आप लोगों को मेरा अनुकरण करना चाहिए- आप यह स्वयं जानते हैं। आपके बीच रहते समय हम अकर्मण्य नहीं थे।

8) हमने किसी के यहाँ मुफ़्त में रोटी नहीं खायी, बल्कि हम बड़े परिश्रम से दिन-रात काम करते रहे, जिससे आप लोगों में किसी के लिए भी भार न बनें।

9) इमें इसका अधिकार नहीं था- ऐसी बात नहीं, बल्कि हम आपके सामने एक आदर्श रखना चाहते थे, जिसका आप अनुकरण कर सकें।

10) आपके बीच रहते समय हमने आप को यह नियम दिया- ’जो काम करना नहीं चाहता, उसे भोजन नहीं दिया जाये’।

16) शान्ति का प्रभु स्वयं आप लोगों को हर समय और हर प्रकार शान्ति प्रदान करता रहे! प्रभु आप सब के साथ हो!

17) मैं, पौलुस, अपने हाथ से यह नमस्कार लिख देता हूँ। यह मेरे सब पत्रों की पहचान है। यह मेरी लिखावट है।

18) हमारे प्रभु ईसा मसीह की कृपा आप सब पर बनी रहे!

📙 सुसमाचार : सन्त मत्ती 23:27-32

27) ’’ढोंगी शास्त्रियों ओर फ़रीसियों! धिक्कार तुम लोगों को! तुम पुती हुई कब्रों के सदृश हो, जो बाहर से तो सुन्दर दीख पड़ती हैं, किन्तु भीतर से मुरदों की हड्डियों और हर तरह की गन्दगी से भरी हुई हैं।

28) इसी तरह तुम भी बाहर से लागों को धार्मिक दीख पड़ते हो, किन्तु भीतर से तुम पाखण्ड और अधर्म से भरे हुए हो।

29) ’’ढोंगी शास्त्रियों और फ़रीसियों! धिक्कार तुम लोगों को! तुम नबियों के मकबरे बनवा कर और धर्मात्माओं के स्मारक सँवार कर

30) कहते हो, ’’यदि हम अपने पुरखों के समय जीवित होते, तो हम नबियों की हत्या करने में उनका साथ नहीं देते’।

31) इस तरह तुम लोग अपने विरुद्ध यह गवाही देते हो कि तुम नबियों के हत्यारों की संतान हो।

32) तो, अपने पुरखों की कसर पूरी कर लो।

📚 मनन-चिंतन

जीवित इंसानों के साथ क़ब्रों की तुलना करना उचित नहीं है, लेकिन प्रभु येसु अपने समय के शास्त्रियों और फरिसीयों को सफ़ेदी से पुती हुई क़ब्रों से तुलना करते हैं। कब्र के अंदर भयानक मंजर होता है। जब जीवित व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है और उसे कब्र में दफ़नाया जाता है, तो कुछ समय बाद वह लाश सड़ने और गलने लगती है और कुछ दिनों में भयंकर बदबू देने लगती है। विज्ञान के शब्दों में कहें तो एक कब्र के अंदर बहुत बड़ी विघटन क्रिया होती है, अंततः हड्डियों के सिवा कुछ नहीं बचता। लेकिन बाहर से कब्र के अंदर होने वाली क्रिया हमें दिखाई नहीं देती और इसलिए हम उसकी भयानक रूप की कल्पना भी नहीं कर सकते।

प्रभु येसु फरिसियों और शास्त्रियों को उन्हीं क़ब्रों से तुलना करते हैं। यहाँ हमें यह ध्यान देने की ज़रूरत है कि प्रभु येसु उन्हीं फरीसी और शास्त्रियों को धिक्कारते हैं जो अपनी बुलाहट अर्थात ईश्वर द्वारा दी ज़िम्मेदारी को बखूबी नहीं निभा रहे थे। वे बाहर से अपने आप को बहुत पवित्र और शरीफ़ दिखाते थे, लेकिन अंदर से वे घोर बुराई और पाप से भरे हुए थे। ईश्वर हमारे जीवन के छुपे हुए पहलुओं को भी देख सकते हैं, उसकी नज़रों से कुछ भी नहीं छुपा है। क्या मैं अंदर से बुरा और बाहर से अच्छा दिखने की कोशिश करता हूँ? आइए हम अपने आप को ईश्वर को समर्पित करें ताकि वह हमें सच्चे इंसान और अपनी महती दया के योग्य बना दे। आमेन।

25 अगस्त का पवित्र वचन

 

25 अगस्त 2020
वर्ष का इक्कीसवाँ सामान्य सप्ताह, मंगलवार

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📒 पहला पाठ : थेसलनीकियों के नाम सन्त पौलुस का दूसरा पत्र 2:1-3a,14-17

1) भाइयो! हमारे प्रभु ईसा मसीह के पुनरागमन और उनके सामने हम लोगों के एकत्र होने के विषय में हमारा एक निवेदन, यह है।

2) किसी भविष्यवाणी, वक्तव्य अथवा पत्र से, जो मेरे कहे जाते हैं, आप लोग आसानी से यह समझ कर न उत्तेजित हों या घबरायें कि प्रभु का दिन आ चुका है।

3) कोई आप लोगों को किसी भी तरह न बहकाये।

14) उसने हमारे सुसमाचार द्वारा आप को बुलाया, जिससे आप हमारे प्रभु ईसा मसीह की महिमा के भागी बनें।

15) इसलिए, भाइयो! आप ढारस रखें और उस शिक्षा में दृढ़ बने रहें, जो आप को हम से मौखिक रूप से या पत्र द्वारा मिली है।

16) हमारे प्रभु ईसा मसीह स्वयं तथा ईश्वर, हमारा पिता - जिसने हमें इतना प्यार किया और हमें चिरस्थायी सान्त्वना तथा उज्जवल आशा का वरदान दिया है-

17) आप लोगों को सान्त्वना देते रहें तथा हर प्रकार के भले काम और बात में सुदृढ़़ बनाये रखें।

📙 सुसमाचार : सन्त मत्ती का सुसमाचार 23:23-26

23) ’’ढोंगी शास्त्रियों और फरीसियों! धिक्कार तुम लोगों को! तुम पुदीने, सौंप और जीरे का दशमांश तो देते हो, किन्तु न्याय, दया और ईमानदारी, संहिता की मुख्य बातों की उपेक्षा करते हो। इन्हें करते रहना और उनकी भी उपेक्षा नहीं करना तुम्हारे लिए उचित था।

24) अन्धे नेताओ! तुम मच्छर छानते हो, किन्तु ऊँट निगल जाते हो।

25) ’’ढोंगी शास्त्रियों और फरीसियों! धिक्कार तुम लोगों को! तुम प्याले और थाली को बाहर से माँजते हो, किन्तु भीतर वे लूट और असंयम से भरे हुए हैं।

26) अन्धे फ़रीसी! पहले भीतर से प्याले को साफ़ कर लो, जिससे वह बाहर से भी साफ़ हो जाये।

📚 मनन-चिंतन

आम तौर पर हम देखते हैं कि प्रभु येसु कठोर शब्दों अथवा ग़लत भाषा का प्रयोग नहीं करते भले ही उन्हें कोई कितना भी उकसाए। वे विरले ही क्रोधित या आपा खोते हुए दिखाई देते हैं। लेकिन जब कुछ गम्भीर बात थी, तो उन्हें कभी-कभी ग़ुस्सा भी आया। ऐसा उदाहरण हम मन्दिर में देखते हैं। (देखें योहन 2:13-16)। वह क्रोधित हुए क्योंकि उन्होंने देखा कि लोगों ने ईश्वर के निवास स्थान को व्यवसाय के स्थान में बदल दिया है। वह ईश्वर को पाने का पवित्र स्थान था लेकिन उन्होंने उसे चोर और लुटेरों का अड्डा बना कर रख दिया था, इसलिए प्रभु को ग़ुस्सा आया।

आज की दुनिया में भी हम ऐसी स्थिति देखते हैं, जहाँ ज़िम्मेदार व्यक्ति ईश्वर के नियमों को बदलते और अपने स्वार्थ के लिए तोड़ते-मरोड़ते हैं। वे ईश्वर नियमों की ग़लत व्याख्या करते हैं। वे नियम जो लोगों के लिए ईश्वर के क़रीब आने के मार्गदर्शक थे, उन्हें कुछ ज़िम्मेदारों ने लोगों के लिए अनावश्यक भार में बदल दिया है। जो धर्मगुरु लोगों को ईश्वर के नियमों पर चलने में मदद करने के लिए थे, वे लोगों को ईश्वर से दूर जाने का कारण बन रहे थे। प्रभु येसु ऐसे नेताओं को ढोंगी कहकर बुलाते हैं, ढोंगी, अर्थात जो वास्तव में कुछ और हैं, लेकिन दिखाते कुछ और हैं। ऐसे लोगों से ईश्वर क्रुद्ध होता है। क्या मेरे किसी व्यवहार से ईश्वर को ग़ुस्सा आता है?

23 अगस्त का पवित्र वचन

 

23 अगस्त 2020
वर्ष का इक्कीसवाँ सामान्य सप्ताह, रविवार

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📒 पहला पाठ : इसायाह 22:19-23

19) मैं तुम को तुम्हारे पद से हटाऊँगा, मैं तुम को तुम्हारे स्थान से निकालूँगा।

20) “मैं उस दिन हिज़कीया के पुत्र एलियाकीम को बुलाऊँगा।

21) मैं उसे तुम्हारा परिधान और तुम्हारा कमरबन्द पहनाऊँगा। मैं उसे तुम्हारा अधिकार प्रदान करूँगा। वह येरुसालेम के निवासियों का तथा यूदा के घराने का पिता हो जायेगा।

22) मैं दाऊद के घराने की कुंजी उसके कन्धे पर रख दूँगा। यदि वह खोलेगा, तो कोई बन्द नहीं कर सकेगा। यदि वह बन्द करेगा, तो कोई नहीं खोल सकेगा।

23) मैं उसे खूँटे की तरह एक ठोस जगह पर गाड़ दूँगा। वह अपने पिता के घर के लिए एक महिमामय सिंहासन बन जायेगा।

📕 दूसरा पाठ : रोमियों 11:33-36

33) कितना अगाध है ईश्वर का वैभव, प्रज्ञा और ज्ञान! कितने दुर्बोध हैं उसके निर्णय! कितने रहस्यमय हैं उसके मार्ग!

34) प्रभु का मन कौन जान सका? उसका परामर्शदाता कौन हुआ?

35) किसने ईश्वर को कभी कुछ दिया है जो वह बदले में कुछ पाने का दावा कर सके?

36) ईश्वर सब कुछ का मूल कारण, प्रेरणा-स्रोत तथा लक्ष्य है - उसी को अनन्त काल तक महिमा! आमेन!

📙 सुसमाचार : सन्त मत्ती 16:13-20

13) ईसा ने कैसरिया फि़लिपी प्रदेश पहुँच कर अपने शिष्यों से पूछा, ’’मानव पुत्र कौन है, इस विषय में लोग क्या कहते हैं?’’

14) उन्होंने उत्तर दिया, ’’कुछ लोग कहते हैं- योहन बपतिस्ता; कुछ कहते हैं- एलियस; और कुछ लोग कहते हैं- येरेमियस अथवा नबियों में से कोई’’।

15) ईस पर ईसा ने कहा, ’’और तुम क्सा कहते हो कि मैं कौन हूँ?

16) सिमोन पुत्रुस ने उत्तर दिया, ’’आप मसीह हैं, आप जीवन्त ईश्वर के पुत्र हैं’’।

17) इस पर ईसा ने उस से कहा, ’’सिमोन, योनस के पुत्र, तुम धन्य हो, क्योंकि किसी निरे मनुष्य ने नहीं, बल्कि मेरे स्वर्गिक पिता ने तुम पर यह प्रकट किया है।

18) मैं तुम से कहता हूँ कि तुम पेत्रुस अर्थात् चट्टान हो और इस चट्टान पर मैं अपनी कलीसिया बनाऊँगा और अधोलोक के फाटक इसके सामने टिक नहीं पायेंगे।

19) मैं तुम्हें स्वर्गराज्य की कुंजिया प्रदान करूँगा। तुम पृथ्वी पर जिसका निषेध करोगे, स्वर्ग में भी उसका निषेध रहेगा और पृथ्वी पर जिसकी अनुमति दोगे, स्वर्ग में भी उसकी अनुमति रहेगी।’’

20) इसके बाद ईसा ने अपने शिष्यों को कड़ी चेतावनी दी कि तुम लोग किसी को भी यह नहीं बताओ कि मैं मसीह हूँ।

📚 मनन-चिंतन

हमारा देश बहुत से साधु-महात्माओं और ईश्वर को खोजने वाले ऋषि-मुनियों के उदाहरणों से भरा पड़ा है। हर देश में ईश्वर को खोजने वाले ऐसे लोग होते हैं। हम सन्त अगस्टिन की उस कहानी से परिचित हैं, जब वह ईश्वर के रहस्य को समझने की कोशिश कर रहे थे, और इसी कोशिश के दौरान एक बार जब वह अकेले समुंदर के किनारे गहन मनन-चिंतन में मगन टहल रहे थे, तभी उन्होंने देखा कि एक छोटा सा बालक अपने नन्हे-नन्हे हाथों से समुंदर के पानी को भरकर किनारे पर बालू में बने एक छोटे से गड्डे में भरने की चेष्टा कर रहा था। वह पानी लाने के लिए बहुत कठिन प्रयास कर रहा थे, लेकिन कुछ नहीं हो पा रहा था। उसके अथक प्रयास को देखते हुए, सन्त अगस्टिन ने उससे पूछा, “क्या कर रहे हो मुन्ना?” बच्चे ने कहा, “मैं इस समुंदर के सारे पानी को इस छोटे से गड्डे में भर रहा हूँ।” सन्त अगस्टिन उस नन्हे बालक की अज्ञानता पर हँस पड़े और बोले, “बेटे इतने बड़े समुंदर को तुम इतने छोटे से गड्डे में कैसे भर सकते हो?” बच्चे ने उत्तर दिया, “वही तो आप कर रहे हैं।” संत अगस्टिन अपने छोटे से दिमाग़ में अनंत ईश्वर के रहस्य को समाने का असम्भव प्रयास कर रहे थे। बाद में उन्हें अपनी गलती का अहसास हुआ। हमारे छोटे से मस्तिष्क में जिसे खुद ईश्वर ने बनाया है, उसी ईश्वर का रहस्य कैसे समा सकता है? कोई भी ईश्वर के रहस्य को पूरी तरह से नहीं जान सकता, क्योंकि हम उसी के हाथों की रचना हैं।

लेकिन आज हम देखते हैं कि प्रभु येसु यह पता लगाना चाहते थे कि क्या उनके शिष्य उन्हें जानते हैं। उन्होंने प्रभु येसु के बारे में दूसरों की राय बतायी। अक्सर हम स्वयं ईश्वर को जाने और अनुभव किए बिना दूसरों के अनुभव और ज्ञान में आनंद मनाते हैं, दूसरों का ईश्वरीय अनुभव और ज्ञान क्या है, और कैसा है। प्रभु येसु के बारे में दूसरों का ज्ञान भी पूर्ण नहीं था। कुछ लोगों ने प्रभु येसु को योहन बप्तिस्ता समझ लिया, शायद इसलिए कि प्रभु येसु में संत योहन से मिलती-जुलती कुछ समानताएँ थीं। उन्होंने सत्य बोला, ग़लत रास्ते पर जाने वाले लोगों को सही राह पर लाने का प्रयास किया, और उसने राजा को लौमडी कहकर पुकारा, क्योंकि वह उससे नहीं डरता था, उसने मौलिक जीवन जिया। लेकिन यह उसका असली परिचय नहीं था।

कुछ लोगों ने उसे महान नबी येरेमियाह अथवा नबी एलियस समझा, उनमें भी प्रभु येसु से मिलती-जुलती समानताएँ थीं, लेकिन वह भी उसका असली परिचय नहीं था। और अंततः प्रभु येसु अपने शिष्यों से उनके व्यक्तिगत अनुभव के बारे में पूछते हैं, और संत पेत्रुस जवाब देने के लिए आगे आते हैं। आज प्रभु येसु हममें से प्रत्येक को वहीं सवाल पूछते हैं, “तुम क्या कहते हो कि मैं कौन हूँ?” मेरा उत्तर क्या होगा? मेरे व्यक्तिगत जीवन में प्रभु येसु को कैसे अनुभव किया है? ईश्वर या प्रभु येसु का मेरा अपना क्या अनुभव है? क्या वह मेरे मुक्तिदाता हैं, चंगाई दाता या चमत्कार करने वाला? एक मित्र या एक सान्त्वनादाता है? इसका जवाब पाने के लिए अपने मन में झांककर देखें।



📚 REFLECTION

India is a land known for its number of sages and seekers of God. In every land there are people having quest for knowing God. We are well familiar with the story of St. Augustine who was trying to understand God and in this pursuit, one day he was spending sometime walking and reflecting about understanding God. He was trying very hard and using his mind to understand God and then he saw a small child who was trying to fill water with his hands in a small pit that he had made in the sand. He was trying very hard to bring water but it was all in vain. Seeing how desperate he was, Augustine asked him, “What are you doing, child?” He said, “I am going to fill the whole water of this ocean into this small hole.” Augustine laughed at his ignorance and said, “How can you fill such a vast ocean into this small tiny hole?” The child replied, “That’s what you are doing.” St. Augustine was trying to understand the mystery of God with tiny small mind. How can our tiny brain contain such a vast mystery? No one can know God fully, we are just creation of his hands.

But today we see Jesus, trying to find out whether the disciples know him. They replied about what others said about Jesus. Very often instead of knowing and experiencing God for ourselves, we try to feast on others experience and explanation of God, what and how others understand God. Even others had not understood Jesus fully. Some understood Jesus as John the Baptist, perhaps because Jesus had some similarities with John. He spoke truth, he corrected those who went on wrong path, he was not afraid of the king whom he called ‘fox’, and he lived a radical life. But that was not his real identity.

Others understood him to be some great prophet like Elijah or Jeremiah, they both also had similarities that matched with Jesus, but that either was not his real identity. Then finally Jesus asks their personal experience of him and Peter comes forward with the answer. Today Jesus asks each one of us the same question “Who do you say that I am?” what will be my answer? How have I experienced Jesus in my personal life? What is my personal experience of God or Jesus? Is he a saviour for me? A healer, a miracle worker? A friend, a consoler? Let us ask ourselves.


मनन-चिंतन - 2

प्रभु येसु ने अपने जीवन काल में शिष्यों को शिक्षा दी, उनके साथ समय बिताया, उनके विश्वास को दृढ़ बनाया तथा अपने दुखभोग, मरण तथा पुनरुत्थान के बारे में उन्हें समझाया ताकि शिष्य भविष्य में निडर हो कर दृढ़तापूर्वक ईश्वर के राज्य की घोषणा कर सकें।

आज के सुसमाचार में हम देखते हैं कि प्रभु शिष्यों की परीक्षा लेते हैं। वे जानना चाहते हैं कि शिष्यों ने इतने वर्षों में क्या सीखा, क्या समझा और क्या अनुभव किया। इसलिए प्रभु येसु अपने शिष्यों से प्रश्न करते हैं कि ’मैं कौन हूँ’ इस विषय में लोग क्या कहते हैं। तुरन्त ही वे उन्हें बताने लगते हैं कि कुछ लोग आपको योहन बपतिस्ता, कुछ एलियस, कुछ यिरमियाह और कुछ नबियों में से कोई कहते हैं। फिर वे उनसे एक व्यक्तिगत प्रश्न करने लगते हैं कि तुम क्या कहते हो कि मैं कौन हूँ। इसका उत्तर देने में शिष्य सोच में पड जाते हैं। सिर्फ पेत्रुस उत्तर देते हैं, “आप मसीह हैं, आप जीवन्त ईश्वर के पुत्र हैं।”

पवित्र बाइबिल में हमें पढ़ने को मिलता है कि लोगों ने अपने अनुभव के आधार पर प्रभु येसु के बारे में कुछ न कुछ कहा। जैसे फरीसियों ने उन्हें बढई का बेटा माना, समारी स्त्री ने उन्हें नबी कहा और निकोदेमुस ने उन्हें गुरू तथा इस्राएल का राजा कहा। इस प्रकार अलग-अलग लोगों ने अपने-अपने अनुभव के आधार पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त की।

आज प्रभु येसु हम से भी व्यक्तिगत प्रश्न करते हैं कि तुम क्या कहते हो कि मैं कौन हूँ? हम सब इस प्रश्न का जवाब अपने ख्रीस्तीय जीवन के अनुभव के द्वारा ही दे सकते हैं। हम सबों के उत्तर शायद भिन्न-भिन्न होंगे। किसी के लिए वे चंगाईदाता हैं, तो किसी के लिए शांतिदाता या दयासागर, प्रेमी पिता या मित्र । अगर किसी व्यक्ति ने अपने जीवन में येसु को करीब से अनुभव नहीं किया हो, तो उसके लिए इस प्रश्न का जवाब देना असंभव है।

जब पेत्रुस ने कहा, “आप मसीह हैं, आप जीवन्त ईश्वर के पुत्र हैं” तब येसु पेत्रुस से कहते हैं, “सिमोन, योनस के पुत्र, तुम धन्य हो, क्योंकि किसी निरे मनुष्य ने नहीं, बल्कि मेरे स्वर्गिक पिता ने तुम पर यह प्रकट किया है”। इसका यह मतलब है कि जब तक ईश्वर अपने आप को प्रकट नहीं करते हैं, तब तक हम उन्हें नहीं जान सकते हैं।

आज के पहले पाठ में संत पौलुस कहते हैं, “कितना अगाध है ईश्वर का वैभव, प्रज्ञा और ज्ञान! कितने दुर्बोध हैं उसके निर्णय! कितने रहस्यमय हैं उसके मार्ग! प्रभु का मन कौन जान सका?” (रोमियों 11:33-34)

हालाँकि हम ईश्वर का अनुभव कर सकते हैं और उस अनुभव के आधार पर उन के विषय में कुछ न कुछ कह सकते हैं, वह सब ज्ञान गहरा नहीं हो सकता जब तक ईश्वर स्वयं अपने आप को हमारे लिए प्रकट करने की कृपा न करें। ईश्वर को प्यार करने वालों को और उनके समक्ष बच्चों जैसा बनने वालों के सामने ईश्वर अपने आप को प्रकट करते हैं। मत्ती 11:25-27 में प्रभु येसु कहते हैं, “पिता! स्वर्ग और पृथ्वी के प्रभु! मैं तेरी स्तुति करता हूँ; क्योंकि तूने इन सब बातों को ज्ञानियों और समझदारों से छिपा कर निरे बच्चों पर प्रकट किया है। हाँ, पिता! यही तुझे अच्छा लगा। मेरे पिता ने मुझे सब कुछ सौंपा है। पिता को छोड़ कर कोई भी पुत्र को नहीं जानता। इसी तरह पिता को कोई भी नहीं जानता, केवल पुत्र जानता है और वही, जिस पर पुत्र उसे प्रकट करने की कृपा करे।”

इस से हम यह समझ सकते हैं कि हम अपने दिमाग से ईश्वर का पक्का ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकते हैं। हमें ईश्वरीय ज्ञान के लिए ईश्वर से ही गिडगिडा कर याचना करना चाहिए। सूक्ति 2:1-6 में प्रभु का वचन कहता है, “पुत्र! यदि तुम मेरे शब्दों पर ध्यान दोगे, मेरी आज्ञाओं का पालन करोगे, प्रज्ञा की बातें कान लगा कर सुनोगे और सत्य में मन लगाओगे; यदि तुम विवेक की शरण लोगे और सद्बुद्धि के लिए प्रार्थना करोगे; यदि तुम उसे चाँदी की तरह ढूँढ़ते रहोगे और खजाना खोजने वाले की तरह उसके लिए खुदाई करोगे, तो तुम प्रभु-भक्ति का मर्म समझोगे और तुम्हें ईश्वर का ज्ञान प्राप्त होगा; क्योंकि प्रभु ही प्रज्ञा प्रदान करता और ज्ञान तथा विवेक की शिक्षा देता है।”

नबी दानिएल कहते हैं “ईश्वर का नाम सदा-सर्वदा धन्य है, प्रज्ञा और शक्ति उसी की है; काल और ऋतु उसी के हाथ में हैं; वही राजाओं की प्रतिष्ठा करता और उनके सिंहासन उलटता है। वही विद्वानों को प्रज्ञा देता है और समझदारों को समझ। वही गूढ़ रहस्यों को प्रकट करता है, वही अंधकार में छिपे भेद जानता है, क्योंकि उस में ज्योति का निवास है। (दानिएल 2:20-22)



22 अगस्त का पवित्र वचन

 

22 अगस्त 2020
मरियम स्वर्ग की रानी

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📒 पहला पाठ : इसायाह का ग्रन्थ 9:1-6

1) अन्धकार में भटकने वाले लोगों ने एक महती ज्योति देखी है, अन्धकारमय प्रदेश में रहने वालों पर ज्योति का उदय हुआ है।

2) तूने उन लोगों का आनन्द और उल्लास प्रदान किया है। जैसे फ़सल लुनते समय या लूट बाँटते समय उल्लास होता है, वे वैसे ही तेरे सामने आनन्द मना रहे हैं।

3) उन पर रखा हुआ भारी जूआ, उनके कन्धों पर लटकने वाली बहँगी, उन पर अत्याचार करने वाले का डण्डा- यह सब तूने तोड़ डाला है, जैसा कि मिदयान के दिन हुआ था।

4) सैनिकों के सभी भारी जूते और समस्त रक्त-रंजित वस्त्र जला दिये गये हैं।

5) यह इस लिए हुआ कि हमारे लिए एक बालक उत्पन्न हुआ है, हम को एक पुत्र मिला है। उसके कन्धों पर राज्याधिकार रखा गया है और उसका नाम होगा- अपूर्व परामर्शदाता, शक्तिशाली ईश्वर, शाश्वत पिता, शान्ति का राजा।

6) वह दऊद के सिंहासन पर विराजमान हो कर सदा के लिए शन्ति, न्याय और धार्मिकता का साम्राज्य स्थापित करेगा। विश्वमण्डल के प्रभु का अनन्य प्रेम यह कार्य सम्पन्न करेगा।

📙 सुसमाचार : सन्त लूकस का सुसमाचार 1:26-38

26) छठे महीने स्वर्गदूत गब्रिएल, ईश्वर की ओर से, गलीलिया के नाजरेत नामक नगर में एक कुँवारी के पास भेजा गया,

27) जिसकी मँगनी दाऊद के घराने के यूसुफ नामक पुरुष से हुई थी, और उस कुँवारी का नाम था मरियम।

29) वह इन शब्दों से घबरा गयी और मन में सोचती रही कि इस प्रणाम का अभिप्राय क्या है।

30) तब स्वर्गदूत ने उस से कहा, ’’मरियम! डरिए नहीं। आप को ईश्वर की कृपा प्राप्त है।

31) देखिए, आप गर्भवती होंगी, पुत्र प्रसव करेंगी और उनका नाम ईसा रखेंगी।

32) वे महान् होंगे और सर्वोच्च प्रभु के पुत्र कहलायेंगे। प्रभु-ईश्वर उन्हें उनके पिता दाऊद का सिंहासन प्रदान करेगा,

33) वे याकूब के घराने पर सदा-सर्वदा राज्य करेंगे और उनके राज्य का अन्त नहीं होगा।’’

34) पर मरियम ने स्वर्गदूत से कहा, ’’यह कैसे हो सकता है? मेरा तो पुरुष से संसर्ग नहीं है।’’

35) स्वर्गदूत ने उत्तर दिया, ’’पवित्र आत्मा आप पर उतरेगा और सर्वोच्च प्रभु की शक्ति की छाया आप पर पड़ेगी। इसलिए जो आप से उत्पन्न होंगे, वे पवित्र होंगे और ईश्वर के पुत्र कहलायेंगे।

36) देखिए, बुढ़ापे में आपकी कुटुम्बिनी एलीज़बेथ के भी पुत्र होने वाला है। अब उसका, जो बाँझ कहलाती थी, छठा महीना हो रहा है;

37) क्योंकि ईश्वर के लिए कुछ भी असम्भव नहीं है।’’

38) मरियम ने कहा, ’’देखिए, मैं प्रभु की दासी हूँ। आपका कथन मुझ में पूरा हो जाये।’’ और स्वर्गदूत उसके पास से चला गया।

📚 मनन-चिंतन

आज के सुसमाचार में हम आदर-सम्मान की दो तस्वीरें देखते हैं, पहली तस्वीर ईश्वर के चुने हुए ज़िम्मेदार धर्मगुरुओं की है, जिन्हें लोगों को सही राह दिखाने की और खुद ईमानदारी से ईश्वर के रास्ते पर चलने की ज़िम्मेदारी दी गयी थी। वे धर्मग्रंथ की व्याख्या करके और लोगों को संहिता के नियमों को समझाते हुए अपना कार्य करते थे। लेकिन वे इसे सिर्फ़ एक पेशे के समान करते थे, उसे अपने जीवन में नहीं उतारते थे। उन्ही शिक्षाएँ उनके जीवन में परिणत नहीं हुईं, बल्कि उनके कार्य, उनकी शिक्षाओं के विपरीत थे। वे झूठा सम्मान चाहते थे।

दूसरी तस्वीर पहली के विपरीत है। प्रभु येसु अपने शिष्यों को उन धर्मगुरुओं का सम्मान करने के लिए कहते हैं, क्योंकि वे मूसा की गद्दी पर बैठे हैं, लेकिन उनके कर्मों का अनुसरण ना करो। वे सांसारिक आदर-सम्मान के भूखे हैं, लेकिन हमें ईश्वर की नज़रों में आदर-सम्मान पाने के लिए कार्य करना है। ऐसा हम तभी कर सकते हैं, जब हम अपने जीवन में सबसे अधिक ईश्वर को आदर-सम्मान और महिमा देंगे, और स्वयं को ईश्वर की नज़रों में विनम्र बना लेंगे।

आज की दुनिया में हम अपने चारों तरफ़ ऐसे लोगों को देखते हैं जो नाम और शोहरत कमा कर सम्मान पाना चाहते हैं। वे दौलत और शोहरत के लिए दिन-रात मेहनत करते हैं और ईश्वर को भूल जाते हैं, जो हमें सब कुछ प्रदान करता है। आइए हम ईश्वर से विनम्रता का वरदान माँगें ताकि हम सबसे पीछे रहें और सबसे बढ़कर ईश्वर की महिमा करें।आमेन।