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30 अक्टूबर 2022 वर्ष का इकत्तीसवाँ सामान्य इतवार

 

30 अक्टूबर 2022

वर्ष का इकत्तीसवाँ सामान्य इतवार



पहला पाठ : प्रज्ञा ग्रन्थ 11:22-12:2

22) प्रभु! तेरी दृष्टि में समस्त संसार तराजू के पासंग के बराबर है अथवा प्रातःकाल भूमि पर गिरने वाली ओस की बूँद की तरह।

23) तू सब पर दया करता है, क्योंकि तू सर्वशक्तिमान् है। तू मनुष्य के पापों को इसलिए अनदेखा करता है, कि वह पश्चात्ताप करें।

24) तू सब प्राणियों को प्यार करता है और अपनी बनायी हुई किसी वस्तु से घृणा नहीं करता। यदि तुझे किसी वस्तु से घृणा हुई होती तो तूने उसे नहीं बनाया होता।

25) यदि तू उसे नहीं चाहता, तो कुछ भी अस्तित्व में नहीं बना रहता; यदि तूने उसे नहीं बुलाया होता, तो कुछ भी सुरक्षित नहीं रहता।

26) प्रभु! तू सारी सृष्टि की रक्षा करता है, क्योंकि वह तेरी है। तू सब प्राणियों को प्यार करता है;

12:1) क्योंकि तेरा अविनाशी आत्मा सब में व्याप्त है।

2) प्रभु! तू अपराधियों को थोड़ा-थोड़ा कर के दण्ड देता है। तू उन्हें चेतावनी देता और उन्हें उनके पापों का स्मरण दिलाता है, जिससे वे बुराई से दूर रहे और तुझ पर भरोसा रखें।

3) तूने अपनी पवित्र भूमि के पुराने निवासियों के साथ ऐसा व्यवहार किया,

दूसरा पाठ : 2 थेसलनीकियों 1:11-2:2

11) हम निरन्तर आप लोगों के लिए यह प्रार्थना करते हैं कि ईश्वर आप को अपने बुलावे के योग्य बनाये और आपकी प्रत्येक सदिच्छा तथा विश्वास से किया हुआ आपका प्रत्येक कार्य अपने सामर्थ्य से पूर्णता तक पहुँचा दे।

12) इस प्रकार हमारे ईश्वर की और प्रभु ईसा मसीह की कृपा के द्वारा हमारे प्रभु ईसा मसीह का नाम आप में गौरवान्वित होगा और आप लोग भी उन में गौरवान्वित होंगे।

2:1) भाइयो! हमारे प्रभु ईसा मसीह के पुनरागमन और उनके सामने हम लोगों के एकत्र होने के विषय में हमारा एक निवेदन, यह है।

2) किसी भविष्यवाणी, वक्तव्य अथवा पत्र से, जो मेरे कहे जाते हैं, आप लोग आसानी से यह समझ कर न उत्तेजित हों या घबरायें कि प्रभु का दिन आ चुका है।

सुसमाचार : लूकस 19:1-10

1) ईसा येरीख़ो में प्रवेश कर आगे बढ़ रहे थे।

2) ज़केयुस नामक एक प्रमुख और धनी नाकेदार

3) यह देखना चाहता था कि ईसा कैसे हैं। परन्तु वह छोटे क़द का था, इसलिए वह भीड़ में उन्हें नहीं देख सका।

4) वह आगे दौड़ कर ईसा को देखने के लिए एक गूलर के पेड़ पर चढ़ गया, क्योंकि वह उसी रास्ते से आने वाले थे।

5) जब ईसा उस जगह पहुँचे, तो उन्होंने आँखें ऊपर उठा कर ज़केयुस से कहा, "ज़केयुस! जल्दी नीचे आओ, क्योंकि आज मुझे तुम्हारे यहाँ ठहरना है"।

6) उसने, तुरन्त उतर कर आनन्द के साथ अपने यहाँ ईसा का स्वागत किया।

7) इस पर सब लोग यह कहते हुए भुनभुनाते रहे, "वे एक पापी के यहाँ ठहरने गये"।

8) ज़केयुस ने दृढ़ता से प्रभु ने कहा, "प्रभु! देखिए, मैं अपनी आधी सम्पत्ति ग़रीबों को दूँगा और मैंने जिन लोगों के साथ किसी बात में बेईमानी की है, उन्हें उसका चैगुना लौटा दूँगा"।

9) ईसा ने उस से कहा, "आज इस घर में मुक्ति का आगमन हुआ है, क्योंकि यह भी इब्राहीम का बेटा है।

10) जो खो गया था, मानव पुत्र उसी को खोजने और बचाने आया है।"



📚 मनन-चिंतन



आज का पहला पाठ हमें ईश्वर की दया और करुणा की याद दिलाता है। ईश्वर पापियों पर दया करता है, ताकि वे अपना मन फिरायें और ईश्वर की ओर लौट आएँ। वह किसी से नफ़रत नहीं करते क्योंकि ईश्वर की नफ़रत के सामने कोई भी नहीं टिक पाएगा। ईश्वर ही सर्वशक्तिमान है, उसके लिए कुछ भी असम्भव नहीं है। दूसरा पाठ हमें याद दिलाता है कि ईश्वर ही हमें बुलाहट प्रदान करता है और उस बुलाहट के योग्य भी बनाता है। वह स्वयं हमसे मिलने आते हैं। प्रभु येसु जो स्वर्ग में अरोहित कर लिए गए हैं, वह फिर आएँगे और सब कुछ नवीन कर देंगे। आज का सुसमाचार जकेयुस के जीवन में ईश्वर की दया और क्षमा का सजीव उदाहरण देता है। वह अपनी सम्पत्ति का आधा हिस्सा ग़रीबों में बाँटने के लिए तैयार हो जाता है। इतना ही नहीं, यदि उसने किसी से बेमानी की है तो वह उसका चौगुना लौटाने के लिए तैयार है।

सामान्यतः जब हम एक पापी व्यक्ति या समाज में जाने-माने बुरे व्यक्ति को देखते हैं तो हम तुरंत ही उस व्यक्ति का तिरस्कार कर देते है। ईश्वर से पहले हम स्वयं उस व्यक्ति दोषी करार दे देते हैं। हम कभी भी यह नहीं सोचते कि उस व्यक्ति के मन में क्या चल रहा है, और उस व्यक्ति के लिए ईश्वर की क्या योजना है। हम जकेयुस को देखते हैं जो नाकेदार था। अक्सर नाकेदारों को समाज में स्वीकार नहीं किया जाता था, क्योंकि लोग उन्हें ग़द्दार के रूप में देखते थे जो दुश्मन के लिए काम करता था और अपने ही समाज के विरुद्ध काम करता था। इसलिए समाज में किसी के भी दिल में ऐसे लोगों के लिए कोई सम्मान नहीं था, भले ही उनके पास धन-दौलत थी, सारे सुख-सुविधाएँ थीं लेकिन लोगों का भरोसा नहीं था।

लोगों का यह मानना था कि नाकेदार अधिक धन कमाने के लिए लोगों से बेमानी करते थे। उसी प्रकार इस नाटे से आदमी जकेयुस के मन में किसी ने भी झांकने की कोशिश नहीं की। केवल प्रभु येसु की हृदय की गहराइयों के रहस्य जानते थे। जकेयुस जानता था कि कोई भी उसे पसंद नहीं करता था, वह जानता था कि लोग उसे मक्कार, पापी और धोखेबाज़ समझते थे। लेकिन उसकी इच्छा ईश्वर के दर्शन करने की थी। मन के पवित्र लोग ही ईश्वर के दर्शन कर सकते थे। प्रभु येसु को देखने की इच्छा ही उसके लिए नए जीवन की तरफ़ पहला कदम था। क्या हमारे मन में प्रभु येसु को देखने की इच्छा है?

प्रभु येसु उसकी इच्छा का सम्मान करते हुए न केवल अपने आप को प्रकट करते हैं, बल्कि उसके घर जाते हैं, और उसके साथ भोजन भी करते हैं। हमसे भी प्रभु येसु कहते हैं - “मैं द्वार के सामने खड़ा होकर खटखटाता हूँ। यदि कोई मेरी वाणी सुनकर द्वार खोलेगा, तो मैं उसके यहाँ आकर उसके साथ भोजन करूँगा, और वह मेरे साथ। (प्रकाशना ३:२०)। जकेयुस के घर में प्रभु येसु प्रवेश करने के कारण ना केवल उसका हृदय परिवर्तन होता है बल्कि वह एक कदम और आगे बढ़ता है और अपनी सम्पत्ति का आधा हिस्सा ग़रीबों में बाँटने के लिए तैयार हो जाता है। यदि उसने किसी के साथ बेमानी की है तो वह उसका चौगुना लौटा देगा। इस तरह का आत्मविश्वास तभी आ सकता है जब उसने किसी के साथ बेमानी नहीं की हो, नहीं तो वह चौगुना कहाँ से लौटाएगा? ईश्वर की दया कठोर से कठोर हृदय को भी बदल सकती है।





📚 REFLECTION

The first reading of today reminds us of God's mercy. God is merciful to the sinners, so that they repent and return to God. He does not hate anyone, because if He hates, how can that person survive? All power is of God, nothing is impossible for God. Second reading reminds us that it is God who calls us and makes worthy of our calling. He comes to meet us. Jesus, although taken up into heaven will come and receive us and renew all things. Gospel portrays God's mercy and forgiveness in the life of Zacchaeus. He is ready to give to the poor, half of what he owns, even restore four fold if he has defrauded anyone.

Normally when we see a sinner or socially acclaimed bad person, we straightway declare him to be condemned. We give judgment even before God. we hardly try to see what is going on within that person and what God has in store for him. We see Zacchaeus who was a tax collector. Usually the tax collectors were not accepted in society because they were considered like traitors who worked for enemy and worked against their own people. So people in society generally had no respect for them, even though they possessed enough wealth and luxuries but could not gain people's trust.

People believed that the tax collectors cheated people in order to earn more money. Hardly anybody could see beyond into the heart of this short man called Zacchaeus. Only Jesus could penetrate the secrets of the hearts. Zacchaeus knew that people did not welcome him, he knew that he was considered a cheat and a sinner. But he had desire to see God. Only pure of heart can see God. The very desire to see Jesus was the first step towards conversion to new life. Do we have a desire to see God?

Jesus honouring his desire not only shows himself to Zacchaeus but also goes and dines with him. Even to us he says, " Listen! am standing at the door, knocking, if you hear my voice and open the door, I will come in to you and eat with you and you with me" (Rev. 3:20). Jesus' coming into Zacchaeus house not only converts him, but he goes one step further to share his wealth with the poor and is ready to give back four fold if he has defrauded anybody. This confidence can come only when he had not defrauded anybody, otherwise from where will he restore four fold? God's mercy can change even the hardest hearts.




मनन-चिंतन -2



स्तोत्र 14:1-2 में, प्रभु का वचन हमें बताता है कि मूर्ख प्रभु ईश्वर के अस्तित्व को नकारते हैं जबकि बुद्धिमान उनको खोजते रहते हैं। इसी बात को Ps 53:1-2 में भी दोहराया गया है। पवित्र वचन हमें बताता है, "ईश्वर यह जानने के लिए स्वर्ग से मनुष्यों पर दृष्टि दौड़ाता है कि उन में कोई बुद्धिमान हो, जो ईश्वर की खोज में लगा रहता हो" (स्तोत्र 14: 2)। 1इतिहास 22:19 हमें निमन्त्रण देता है, "अब अपने सारे हृदय और सारी आत्मा से प्रभु, अपने ईश्वर की खोज में लगे रहो"। यिरमियाह 29: 13-14 एक बहुत बड़ा वादा करता है- “यदि तुम मुझे सम्पूर्ण हृदय से ढूँढ़ोगे, तो मैं तुम्हे मिल जाऊँगा“- यह प्रभु की वाणी है- “और मैं तुम्हारा भाग्य पलट दूँगा। मैं तुम्हें उन सब राष्ट्रों और उन सब स्थानों से, जहाँ मैंने तुम्हें निर्वासित कर दिया है, यहाँ फिर एकत्रित करूँगा।“ यह प्रभु की वाणी है। “मैं तुम्हें फिर उसी जगह ले आऊँगा, जहाँ से मैंने तुम्हें निर्वासित कर दिया था।'' ज़केयुस और येसु के बीच हुई मुलाकात में प्रभु के ये सभी उदार वचन पूरे हुए। ज़केयुस उत्सुकता से प्रभु की तलाश कर रहा था और प्रभु ने खुद को ढूंढने दिया, न केवल पाये जाने दिया, बल्कि ज़कयुस को उनकी निकटता का अनुभव भी करने दिया। ज़केयुस प्रभु के प्रभाव से अछूता नहीं रह सकता था। उसने अपनी संपत्ति के प्रति आसक्ति और अपने पिछले सभी लगाव को छोड़ दिया क्योंकि उसने येसु में सबसे बड़ा खजाना पाया। ज़केयुस ने प्रभु को पाने के लिए अपना सब कुछ छोड दिया, तो इसके ठीक विपरीत मारकुस 10:17-31 में हम उस अमीर युवक को पाते हैं जो उदास होकर चला गया था क्योंकि वह अपनी सम्पत्ति का त्याग करना नहीं चाहता था। ज़केयुस ने पवित्र ग्रन्थ के उस आह्वान को समझ लिया जो कहता है, “प्रभु-भक्तों! प्रभु पर श्रद्धा रखो! श्रद्धालु भक्तों को किसी बात की कमी नहीं।" (स्तोत्र 34:10)।





REFLECTION



In Psalm 14: 1-2, the Word of God tells us that the foolish negate the existence of God while the wise seek God. This is repeated in Ps 53 too. The Word tells us, “The Lord looks down from heaven on humankind to see if there are any who are wise, who seek after God” (Ps 14:2). 1Chron 22:19 admonishes us, “Now set your mind and heart to seek the Lord your God”. Jer 29:13-14 makes a huge promise- “When you search for me, you will find me; if you seek me with all your heart, I will let you find me, says the Lord, and I will restore your fortunes and gather you from all the nations and all the places where I have driven you, says the Lord, and I will bring you back to the place from which I sent you into exile.” All these magnanimous words of the Lord are fulfilled in the meeting between Zachaeus and Jesus. Zachaeus was eagerly seeking the Lord and the Lord let himself be found, not only to be found but also to be experienced closely by Zachaeus. Zachaeus could not remain unchanged. He gives up all his previous attachment to properties and possessions as he finds the greatest treasure in Jesus. We can very find the contrast between the Rich Tax Collector Zachaeus gave up everything for the sake of Jesus and the Rich young man who went away sad for he was unwilling to give up what he possessed (cf. Mk 10:17-31) Zachaeus was able to give up everything because he has come to believe the Word that tells, “The young lions suffer want and hunger, but those who seek the Lord lack no good thing” (Ps 34:10).



प्रवचन

आज के तीनों पाठों के जरिये प्रभु एक बार फिर से अपना प्रेम व करूणामय चेहरा हमारे सामने पेश करते हैं। पहले पाठ से प्रज्ञा ग्रंथ 11:23 में लेखक कहता है - ‘‘तू सबों पर दया करता है, क्योंकि तू सर्वशक्तिमान है। तू मनुष्य के पापों को इसलिए अनदेखा करता है कि वह पश्चाताप करे।’’

पश्चाताप, हमारे पूरे मुक्ति-इतिहास के पीछे बस एक यही कारण है और यूँ कहें कि पूरे धर्मग्रंथ के लिखे जाने के पीछे यही उद्देश्य है - पश्चाताप। पिता ईश्वर के द्वारा अपने एकलौते को इस संसार में भेजने के पीछे भी यही कारण था। इसलिए संत मारकुस के सुसमाचार 1:14-15 में हम पढते हैं कि जब प्रभु येसु ने अपनी सेवकाई प्रारम्भ की तो उनके मुख से निकले पहले शब्द यही थे- ‘‘समय पूरा हो चुका है। ईश्वर का राज्य निकट आ गया है। पश्चाताप करो और सुसमाचार में विश्वास करो।’’ संत लूकस 24-47 में वचन कहता है - ‘‘उनके येसु नाम पर येुरूसालेम से लेकर सभी राष्टों को पाप क्षमा के लिए पश्चाताप का उपदेश दिया जायेगा। पूरे धर्मग्रंथ का संदेश इसी विषय के ईर्द-गिर्द घुमता है।

इससे हमें यह समझ में आता है कि मनुष्य की सबसे बडी समस्या जो हैं, वो हैं उसका पाप। और उसका सबसे उत्तम समाधान जो हैं वो है पश्चाताप। पाप किस प्रकार से हमारी सबसे बडी समस्या है इसे संत योहन 8:34 के द्वारा समझा जा सकता है जहॉं प्रभु का वचन कहता है- ‘‘जो पाप करता है वह पाप का दास है। दास सदा घर में नहीं रहता, पुत्र सदा रहता है।’’ यहॉं पुत्र के घर में रहने की बात कही गयी है। पुत्र जो है वह हमेशा घर में रहता है। यहॉं पर कौन से घर की बात कही गई है? यह पिता का घर है जो स्वर्ग में है। तो जो पाप करता है वह इस घर में हमेशा नहीं रहता। वह इसे छोडर दूर चला जाता है जैसा कि हम खोये हुए बेटे के दृष्टांत में पढते हैं। छोटा बेटा जो कि अपने पिता के विरूद्ध पाप करता है, वह अपने घर से दूर चला जाता है। यही हमारे इस दुनियाई जीवन की वास्तविकता है। हम अपने पिता के घर से दूर आ गये हैं। जैसा कि संत पौलुस फिलिपियों 3:20 में कहते हैं - ‘‘हमारा स्वदेश तो स्वर्ग है।’’ तो हम उस स्वर्ग बहुत दूर आ गये हैं।

इन सब बातों से यह स्पष्ट हो जाता है कि हमारी सब से बडी समस्या हमारा ईश्वर के घर से दूर हो जाना है। और परम पिता ईश्वर ने इस समस्या के समाधान हेतु अपने इकलौते बेटे को दे दिया है ताकि जो कोई उनमें विश्वास करें, उनका सर्वनाश न हो बल्कि वे अनंनत जीवन प्राप्त करें। परन्तु इस ओर एक कदम हमें भी बढाने की ज़रूरत है। जैसा कि आज के सुसमाचार में ज़केयुस ने किया। वह एक पापी था। उसने बेईमानी की कमाई से, गरीबों को लूटकर काफी धन जमा कर लिया था। लेकिन येसु को अपने घर में पाकर उसे अपनी गलती का एहसास हो जाता है। वह पश्चाताप से भर कर बोल उठता है - ‘‘प्रभु! देखिए, मैं अपनी आधी संपत्ती गरीबों को दूँगा और मैंने जिन जिन लोगों के साथ किसी भी बात में बेईमानी की है, उन्हें उसका चौगुना लौटा दूँगा।’’ तब प्रभु ने उससे कहा - ‘‘आज इस घर में मुक्ति का आगमन हुआ है...जो खो गया था मानव पुत्र उसी को खोजने और बचाने आया है।’’ दूसरे शब्दों में कहें तो, जो अपने पिता के घर से दूर हो गया था, उसी को वापस अपने पिता के घर ले जाने के लिए येसु इस दुनिया में आये हैं।

यह मुक्ति तभी संभव है जब हम येसु से मिलने के लिए बेताब हैं और ज़केयुस जैसे अपने जीवन में येसु को कार्य करने दें। उनकी कृपा के लिए हमारे जीवन के दरवाजे़ खोल दें। और सबसे महत्वपूर्ण यह कि हम हमारे पापों के ऊपर पश्चाताप करें। तब प्रभु येसु हमसे भी यही कहेंगे - आज इस घर में, इस पल्ली में, इस व्यक्ति के जीवन में मुक्ति का आगमन हुआ है।

आईये हम हमारी मुक्ति के स्रोत येसु को अपने जीवन में बुलाने में न हिचकें। और उनकी कृपा के लिए अपने जीवन के द्वार को खोल दें। ताकि हम जो अपने पिता के घर से दूर हो गये हैं प्र्रभु येसु के द्वारा, उनके साथ वापस अपने पिता के घर उस अनन्त निवास में लौट सकें, जहॉं हमारा स्वर्गिक पिता हम सब का इंतजार कर रहा है। आमेन।  


 -Br. Biniush Topno


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Praise the Lord!

23 अक्टूबर 2022 वर्ष का तीसवाँ सामान्य इतवार

 

23 अक्टूबर 2022

वर्ष का तीसवाँ सामान्य इतवार




पहला पाठ : प्रवक्ता 35:12-14; 16-18



12) जिस प्रकार सर्वोच्च ईश्वर ने तुम्हें दिया है, उसकी प्रकार तुम भी उसे सामर्थ्य के अनुसार उदारतापूर्वक दो;

13) क्योंकि प्रभु प्रतिदान करता है, वह तुम्हें सात गुना लौटायेगा।

14) उसे घूस मत दो, वह उसे स्वीकार नहीं करता।

16) वह दरिद्र के साथ अन्याय नहीं करता और पद्दलित की पुकार सुनता है।

17) वह विनय करने वाले अनाथ अथवा अपना दुःखड़ा रोने वाली विधवा का तिरस्कार नहीं करता।

18) उसके आँसू उसके चेहरे पर झरते हैं और उसकी आह उत्याचारी पर अभियोग लगाती है।



दूसरा पाठ : 2तिमथी 4:6-8,16-18



6) मैं प्रभु को अर्पित किया जा रहा हूँ। मेरे चले जाने का समय आ गया है।

7) मैं अच्छी लड़ाई लड़ चुका हूँ, अपनी दौड़ पूरी कर चुका हूँ और पूर्ण रूप से ईमानदार रहा हूँ।

8) अब मेरे लिए धार्मिकता का वह मुकुट तैयार है, जिसे न्यायी विचारपति प्रभु मुझे उस दिन प्रदान करेंगे - मुझ को ही नहीं, बल्कि उन सब को, जिन्होंने प्रेम के साथ उनके प्रकट होने के दिन की प्रतीक्षा की है।

16) जब मुझे पहली बार कचहरी में अपनी सफाई देनी पड़ी, तो किसी ने मेरा साथ नहीं दिया -सब ने मुझे छोड़ दिया। आशा है, उन्हें इसका लेखा देना नहीं पड़ेगा।

17) परन्तु प्रभु ने मेरी सहायता की और मुझे बल प्रदान किया, जिससे मैं सुसमाचार का प्रचार कर सकूँ और सभी राष्ट्र उसे सुन सकें। मैं सिंह के मुँह से बच निकला।

18) प्रभु मुझे दुष्टों के हर फन्दे से छुड़ायेगा। वह मुझे सुरक्षित रखेगा और अपने स्वर्गराज्य तक पहुँचा देगा। उसी को अनन्त काल तक महिमा! आमेन!



सुसमाचार : सन्त लूकस 18:9-14



9) कुछ लोग बड़े आत्मविश्वास के साथ अपने को धर्मी मानते और दूसरों को तुच्छ समझते थे। ईसा ने ऐसे लोगों के लिए यह दृष्टान्त सुनाया,

10) "दो मनुष्य प्रार्थना करने मन्दिर गये, एक फ़रीसी और दूसरा नाकेदार।

11) फ़रीसी तन कर खड़ा हो गया और मन-ही-मन इस प्रकार प्रार्थना करता रहा, ’ईश्वर! मैं तुझे धन्यवाद देता हूँ कि मैं दूसरे लोगों की तरह लोभी, अन्यायी, व्यभिचारी नहीं हूँ और न इस नाकेदार की तरह ही।

12) मैं सप्ताह में दो बार उपवास करता हूँ और अपनी सारी आय का दशमांश चुका देता हूँ।’

13) नाकेदार कुछ दूरी पर खड़ा रहा। उसे स्वर्ग की ओर आँख उठाने तक का साहस नहीं हो रहा था। वह अपनी छाती पीट-पीट कर यह कह रहा था, ‘ईश्वर! मुझ पापी पर दया कर’।

14) मैं तुम से कहता हूँ - वह नहीं, बल्कि यही पापमुक्त हो कर अपने घर गया। क्योंकि जो अपने को बड़ा मानता है, वह छोटा बनाया जायेगा; परन्तु जो अपने को छोटा मानता है, वह बड़ा बनाया जायेगा।"



📚 मनन-चिंतन



आज के इस रविवार को माता कलीसिया मिशन रविवार के रूप में मनाती है। यह एक ऐसा दिन है (या कुछ ऐसे दिन हैं) जिनमें हम मिशन के लिए विशेष प्रार्थना करते हैं और उदारतापूर्वक मिशन के विकास और जारी रखने के लिए दान देते हैं। आज की पूजन विधि हमें दरिद्रों, विधवाओं एवं पापियों के लिए ईश्वर के विशेष प्रेम की याद दिलाती है। जब दरिद्र, निराश्रित और अनाथ प्रभु को पुकारते हैं तो उनकी आह भरी पुकार बादलों को चीरकर प्रभु के कानों तक पहुँच जाती है। ईश्वर उनकी पुकार को अनसुना नहीं करता, वह तुरन्त उस पर ध्यान देता है। यदि हमारा स्वर्गीय पिता दरिद्रों और दिन-हीनों का इतना ख़्याल रखते हैं तो हमें, उनकी प्रिय सन्तानों को उनका कितना ख़्याल रखना चाहिए?

आज का दूसरा पाठ हमें सन्त पौलुस के मिशन एवं उनकी चुनौतियों तथा कठिनाइयों का वर्णन करता है। वह कलिसिया के अगुआ लोगों को प्रेरित करते हैं कि वे जो भी करें प्रभु के मिशन को ध्यान में रखकर करें और निरंतर उसी की सफलता के लिए अथक प्रयास करते रहें। आज का यह रविवार हमें हमारे मिशन की भी याद दिलाता है, ईश्वर ने हममें से प्रत्येक व्यक्ति को भी एक-एक मिशन सौंपा है, और वह मिशन है, संसार के कौने-कौने में सुसमाचार का प्रचार करना। दुनिया में ऐसे अनेक लोग हैं जिन्हें आधारभूत सुविधाएँ भी नसीब नहीं होतीं। हमारे देश में ही ऐसे गाँव हैं जहाँ शिक्षा का उजाला अभी तक नहीं पहुँच पाया है।

ऐसे लोग हैं जिन्हें पीने का स्वच्छ जल नहीं मिल पाता है, उचित स्वास्थ्य सुविधाएँ नहीं मिल पाती हैं, ऐसे गाँव हैं जो बरसात के मौसम में मुख्य धारा से कट जाते हैं क्योंकि वहाँ उचित सड़क नहीं है। कई गाँव में बिजली तक नहीं पहुँची है। ऐसे लोग हैं जो कमजोर और गरीब हैं, जिनका शक्तिशाली और धनवान लोगों द्वारा शोषण किया जाता है, ग़रीबों के साथ तरह-तरह से अन्याय किया जाता है। उनका हृदय मदद के लिए ईश्वर को पुकारता है। ईश्वर आज आपसे और मुझसे पूछते हैं - “मेरी प्रजा की करुण पुकार मेरे कानों तक पहुँची है, उनकी मदद के लिए मैं किसे भेजूँ?” क्या ईश्वर के इस सवाल का जवाब देने की हिम्मत है मुझमें?

क्या मुझमें हिम्मत है कि मैं कह सकूँ, “प्रभु मैं तैयार हूँ, अपने मिशन के लिए मुझे भेज?” हो सकता है मैं नौकरी करता हूँ, देख-भाल करने के लिए एक परिवार है, ऐसे लोग हैं मेरे जीवन में जिनकी ज़िम्मेदारी मेरे ही कंधों पर है, मैं अपने जीवन बहुत ज़्यादा व्यस्त हूँ। मैं दूर दराज स्थानों पर मिशन कार्य के लिए कैसे जा सकता हूँ? भले ही आप मिशन कार्य के लिए अपने घर से दूर नहीं जा सकते, लेकिन आप फिर भी मिशन के विकास के लिए अपना सहयोग दे सकते हैं। आप मिशन के लिए प्रार्थना करने के लिए अपना समय दे सकते हैं। प्रत्येक ख्रिस्तिय को अपनी कमाई का दशमांश कलिसिया के कार्यों के लिए देना चाहिए, लेकिन हम में से कितने लोग ऐसा करते हैं? मिशन के लिए और जो मिशन की ख़ातिर अपना सर्वस्व न्योछावर कर देते हैं, उन सब की ख़ातिर उदारतापूर्वक दान दें। याद रखिए ईश्वर के कार्य के लिए दिल से दिया हुआ छोटा सा दान भी ईश्वर की नज़र से नहीं छुपेगा।




📚 REFLECTION



Today the Mother Church celebrates the mission Sunday. It is a day (or few days together) specially meant for praying for missions and generously contributing for the growth and sustenance of the missions. Today's liturgy of the word reminds us about special love of God for poor, widows and sinners. When the poor, the orphan, the widows call upon the name of the Lord, their cry pierces the clouds and reaches straight to God, and God does not ignore their cries, He hears and attends to them immediately. If God our father is so concerned about the weak and the poor, how much more we, his beloved children, should be concerned about them all?

The second reading reminds us about the mission that St. Paul completes after so many hardships and rejections and persecutions. He encourages and inspires other church leaders to keep the mission in the mind and work tirelessly for the mission of the Lord. This Sunday reminds each one of us of the mission that is entrusted to us, to carry the good news to the ends of the world. There are innumerable people who are deprived of even the basic amenities. Even in our own country, there are places and people to whom the light of education has not reached yet.

There are people who have no access to clean water, no access to proper medical facilities, there are villages which are totally cut off from mainstream and rainy season, because of lack of proper roads, no electricity in many villages. There are poor people who are exploited by the rich and powerful, there is a lot of injustice done to the weak. Their heart cries out to God for help. And we know God will not leave them without help. Today God asks you and me - "I hear the cry of my people, whom shall I send?” Do I have an answer to God’s calling?

Do I have courage to say, Lord I am ready, send me for your mission? Maybe I have a job, a family to take care of, people around me who are depending on me, I am too busy in my life. How can I go for missions to far away places? Even though you cannot go to far away places for missions, you can still contribute in the growth of the mission. You can spend time in praying for the missions. Every Christian is expected to give 1/10 of the income to the church for works of charity. Contribute generously for the mission, for people who have given their life for the missions. Remember, the generous donations given for God’s mission, will not go unrewarded.



मनन-चिंतन -2




फरीसी और नाकेदार का दृष्टांत बताता है कि हम छोटे से छोटे से वरदान को खरीद नहीं सकते हैं। अनुग्रह मुफ़्त है; हम उसके लिए भुगतान नहीं कर सकते, न ही हम उसका हकदार बनने का दावा कर सकते हैं। स्वयं को धार्मिक मानने वाला व्यवहार हमें सब कुछ खोने के खतरे में डाल सकता है। धार्मिक प्रथाओं तथा अनुष्ठानों से हम ईश्वर के अनुग्रहों के लिए भुगतान नहीं कर सकते है। सभी धार्मिक अनुष्ठान हमें अपने महान और दयालु ईश्वर द्वारा हम पर बरसाने वाले अनुग्रहों की प्राप्ति के योग्य बना सकते हैं। नाकेदार स्तोत्रकार के साथ मिल कर सवाल करते हैं, "प्रभु! यदि तू हमारे अपराधों को याद रखेगा, तो कौन टिका रहेगा?" (स्तोत्र 130: 3) उसके पास दावा करने के लिए कुछ भी नहीं है। वह बस ईश्वर की दया के लिए खुद को प्रस्तुत करता है। केवल विनम्रता ही हमारी प्रार्थना को ईश्वर के समक्ष स्वीकृति के योग्य बनाती है। विनम्रता हमें दूसरों को स्वीकार करने और उनकी सराहना करने में सक्षम भी बनाती है। संत पौलुस कहते हैं, "आप दलबन्दी तथा मिथ्याभिमान से दूर रहें। हर व्यक्ति नम्रतापूर्वक दूसरों को अपने से श्रेष्ठ समझे।" (फिलिप्पियों 2: 3)।




SHORT REFLECTION



The parable of the Pharisee and the tax collector tells us that we cannot pay for even the smallest of graces. Grace is gratuitous; we cannot pay for it, nor can we claim it. Self-righteous behavior can place us in danger of losing everything. Religious practices are not meant to be payments for graces. They are meant to create an adequate disposition to receive graces that are freely lavished upon us by our great and merciful God. The tax collector seems to join the psalmist in asking, “If you, O Lord, should mark iniquities, Lord, who could stand?” (Ps 130:3) He has nothing to claim for. He simply submits himself to the mercy of God. Only humility makes our prayer worthy of acceptance before God. It is humility that enables us to accept and appreciate others. St. Paul says, “Do nothing from selfish ambition or conceit, but in humility regard others as better than yourselves” (Phil 2:3).



प्रवचन


प्रार्थना मनुष्य को ईश्वर से जोडती है। प्रार्थना के माध्यम से हम ईश्वर से वह सबकुछ प्राप्त कर सकते हैं जो हम ईश्वर से प्रार्थना में मांगते हैं। प्रार्थना को अत्यंत शुद्ध तथा स्वच्छ मन से करना चाहिये। दिखावटीपन, आडंबर, अहं, डींग आदि बातें प्रार्थना के लिये दीमक की तरह होती है। यह हमारी प्रार्थनाओं को सार्वजनिक प्रदर्शन में बदल देता है। इस प्रकार से की गयी प्रार्थनाओं से कोई लाभ नहीं होता है। ऐसी गलत प्रवृत्तियों के प्रति आगाह करते हुये येसु कहते हैं, ’’ढोंगियों की तरह प्रार्थना नहीं करो। वे सभागृहों में और चौकों पर खड़ा होकर प्रार्थना करना पसंद करते हैं, जिससे लोग उन्हें देखें।’’ (मत्ती 6:5) सुसमाचार में प्रभु दो व्यक्तियों को प्रार्थना करते प्रस्तुत करते हैं। दोनों की प्रार्थना में जमीन-आसमान का फर्क है। एक अपनी स्वघोषित धार्मिकता के दंभ में चूर है। उसे ईश्वर की क्षमा या कृपा की आवश्यकता नहीं। वह यह भी मानता है कि वह दूसरों के समान पापी नहीं हैं।

दूसरी ओर नाकेदार अपने पाप और पश्चाताप के बोध के कारण ईश्वर की ओर ऑखें भी नहीं उठा पा रहा था। ईश्वर उसके पश्चातापी एवं विनम्रता के भाव को स्वीकार करते हैं। धर्मग्रंथ हमें सिखाता तथा आशवासन देता है कि जब भी हम विनम्रता एवं पश्चाताप के सच्चे भाव के साथ प्रार्थना करते हैं तो ईश्वर हमारी सुनता है। ’’यदि मेरी अपनी प्रजा विनयपूर्वक प्रार्थना करेगी, मेरे दर्शन चाहेगी और अपना कुमार्ग छोड़ देगी, तो मैं स्वर्ग से उसकी सुनूँगा, उसके पाप क्षमा करूँगा और उसके देश का कल्याण करूँगा। इस स्थान पर जो प्रार्थना की जाये, उसे मेरी आँखें, देखती रहेंगी और मेरे कान सुनते रहेंगे।’’ (2 इतिहास 7:14-15)

जब राजा दाऊद ने व्यभिचार और हत्या जैसा अपराधों को स्वीकारा, ’’मैंने प्रभु के विरूद्ध पाप किया है’’ तो प्रभु ने उनकी प्रार्थनाओं पर ध्यान दिया तथा उसका पश्चाताप स्वीकारा, ’’प्रभु ने आपका यह पाप क्षमा कर दिया है। आप नहीं मरेंगे। (2समूएल 12:13) जब अहाब ने अपनी पत्नी के साथ मिलकर नाबोत को मरवा कर उसकी दाखबारी हथिया ली तो ईश्वर ने उनके लिये घोर सजा निर्धारित की। ’’अहाब ने ये शब्द सुन कर अपने वस्त्र फाड़ डाले और अपने शरीर पर टाट ओढ़ कर उपवास किया। वह टाट के कपड़े में सोता था और उदास हो कर इधर-उधर टहलता था।’’ जब अहाब ने प्रभु का भय खाकर, विनम्र तथा पश्चातापी हृदय से ईश्वर से इस प्रकार प्रार्थना की तो ईश्वर ने उनके घोर अपराधों को भी क्षमा करते हुये कहा, ’’क्या तुमने देखा है कि अहाब ने किस तरह अपने को मेरे सामने दीन बना लिया है? चूँकि उसने अपने को मेरे सामने दीन बना लिया, इसलिए मैं उसके जीवनकाल में उसके घराने पर विपत्ति नहीं ढाऊँगा।’’ (1 राजाओं 21:27,29) इसी प्रकार प्रभु के क्रूस-मरण के दौरान जब उनकी बगल में लटका डाकू उनसे कहता है, ’’ईसा, जब आप अपने राज्य में आयेंगे, तो मुझे याद कीजिएगा’’ तो ईसा उसे तुरंत पुरस्कृत करते हुये कहते हैं, ’’मैं तुम से यह कहता हूँ, तुम आज ही परलोक में मेरे साथ होगे।’’ (लूकस 23:42-43)

खोये हुये लडके के दृष्टांत के माध्यम से प्रभु इसी बात को रेखांकित करते है कि यदि पापी अपना भटका मार्ग छोड पश्चातापी हृदय से ईश्वर के पास लौटेगा तो ईश्वर उसे बेझिझक अपना लेंगे। (देखिये लूकस 15:11-32) जब जकेयुस प्रभु से कहता है, ’’प्रभु! देखिए, मैं अपनी आधी सम्पत्ति गरीबों को दूँगा और मैंने जिन लोगों के साथ किसी बात में बेईमानी की है, उन्हें उसका चौगुना लौटा दूँगा’ तब ईसा उसे तथा उसके परिवार को मुक्ति प्रदान करते हुये कहते हैं, ’’आज इस घर में मुक्ति का आगमन हुआ है, क्योंकि यह भी इब्राहीम का बेटा है। जो खो गया था, मानव पुत्र उसी को खोजने और बचाने आया है।’’ (लूकस 19:8-10)

इस प्रकार की विनम्रता एवं पश्चाताप के साथ की गयी प्रार्थनायें ईश्वर कभी नहीं ठुकराते हैं। हमें ईश्वर के सामने अपनी अयोग्यता को कभी नहीं भूलना चाहिये। हम अपनी योग्यता के बल पर नहीं बल्कि ईश्वर की दया से मुक्ति पाते हैं। येसु स्वयं ऐसे लोगों को बुलाने एवं बचाने आये थे जो स्वयं के पापों को जानते, स्वयं को अयोग्य समझते तथा पापमय जीवन से छुटकारा पाना चाहते थे। ’’निरोगियों को नहीं, रोगियों को वैद्य की जरूरत होती है। मैं धर्मियों को नहीं, पापियों को पश्चाताप के लिए बुलाने आया हूँ।’’ (लूकस 5:31-32) हमें भी इन्हीं मनोभावों को अपना कर ईश्वर से पूरे विश्वास के साथ प्रार्थना करना चाहिये।


 -Br. Biniush Topno


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09 अक्टूबर 2022 ववर्ष का अट्ठाइसवाँ सामान्य सप्ताह, रविवार09 अक्टूबर 2022 ववर्ष का अट्ठाइसवाँ सामान्य सप्ताह, रविवार

 

09 अक्टूबर 2022

ववर्ष का अट्ठाइसवाँ सामान्य सप्ताह, रविवार

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📒 पहला पाठ : 2राजाओं 5:14-17


14) इसलिए जैसा कि एलीशा ने उस से कहा था, उसने जा कर यर्दन नदी में सात बार डुबकी लगायी और उसका शरीर फिर छोटे बालक के शरीर-जैसा स्वच्छ हो गया।

15) वह अपने सब परिजनों के साथ एलीशा के यहाँ लौटा। वह भीतर जा कर उसके सामने खड़ा हो गया और बोला, "अब मैं जान गया हूँ कि इस्राएल को छोड़ कर और कहीं पृथ्वी पर कोई देवता नहीं है। अब मेरा निवेदन है कि आप अपने सेवक से कोई उपहार स्वीकार करें।"

16) एलीशा ने उत्तर दिया, "उस प्रभु की शपथ, जिसकी मैं सेवा करता हूँ! मैं कुछ भी स्वीकार नहीं करूँगा"। नामान के अनुरोध करने पर भी उसने स्वीकार नहीं किया।

17) तब नामान ने कहा, "जैसी आपकी इच्छा। आज्ञा दीजिए कि मुझे दो खच्चरों का बोझ मिट्टी मिल जाये, क्योंकि मैं अब से प्रभु को छोड़ कर किसी और देवता को होम अथवा बलि नहीं चढ़ाऊँगा।



📒 दूसरा पाठ : 2तिमथी 2:8-3



8) दाऊद के वंश में उत्पन्न, मृतकों में से पुनर्जीवित ईसा मसीह को बराबर याद रखो- यह मेरे सुसमाचार का विषय है।

9) मैं इस सुसमाचार की सेवा में कष्ट पाता हूँ और अपराधी की तरह बन्दी हूँ;

10) मैं चुने हुए लोगों के लिए सब कुछ सहता हूँ, जिससे वे भी ईसा मसीह द्वारा मुक्ति तथा सदा बनी रहने वाली महिमा प्राप्त करें।

11) यह कथन सुनिश्चित है- यदि हम उनके साथ मर गये, तो हम उनके साथ जीवन भी प्राप्त करेंगे।

12) यदि हम दृढ़ रहे, तो उनके साथ राज्य करेंगे। यदि हम उन्हें अस्वीकार करेंगे, तो वह भी हमें अस्वीकार करेंगे।

13) यदि हम मुकर जाते हैं, तो भी वह सत्य प्रतिज्ञ बने रहेंगे; क्योंकि वह अपने स्वभाव के विरुद्ध नहीं जा सकते।


📙सुसमाचार : सन्त लूकस 17:11-19



11) ईसा येरूसालेम की यात्रा करते हुए समारिया और गलीलिया के सीमा-क्षेत्रों से हो कर जा रहे थे।

12) किसी गाँव में प्रवेश करने पर उन्हें दस कोढ़ी मिले,

13) जो दूर खड़े हो गये और ऊँचे स्वर से बोले, "ईसा! गुरूवर! हम पर दया कीजिए"।

14) ईसा ने उन्हें देख कर कहा, "जाओ और अपने को याजकों को दिखलाओ", और ऐसा हुआ कि वे रास्ते में ही नीरोग हो गये।

15) तब उन में से एक यह देख कर कि वह नीरोग हो गया है, ऊँचे स्वर से ईश्वर की स्तुति करते हुए लौटा।

16) वह ईसा को धन्यवाद देते हुए उनके चरणों पर मुँह के बल गिर पड़ा, और वह समारी था।

17) ईसा ने कहा, "क्या दसों नीरोग नहीं हुए? तो बाक़ी नौ कहाँ हैं?

18) क्या इस परदेशी को छोड़ और कोई नहीं मिला, जो लौट कर ईश्वर की स्तुति करे?"

19) तब उन्होंने उस से कहा, "उठो, जाओ। तुम्हारे विश्वास ने तुम्हारा उद्धार किया है।"



📚 मनन-चिंतन


आज की पूजनविधि हमें ईश्वर की भलाई और उदारता को पहचानने और उसके प्रति कृतज्ञ बने रहकर संसार के सामने उसकी घोषणा करनी है, जैसे कि माता मरियम पवित्र बाइबल में बहुत सी महान हस्तियों ने किया। पहले पाठ में हम देखते हैं कि किस प्रकार नामान सिरियन अपने जीवन में हुए चमत्कार के लिए ईश्वर के प्रति कृतज्ञ था और लौटकर प्रभु के नबी को धन्यवाद देने के लिए आया। आज का सुसमाचार भी हमें ईश्वर के महान कार्यों के लिए कृतज्ञता प्रकट करने का आह्वान करता है। दस कोढ़ियों में से सिर्फ़ ही कोढ़ी चंगा होने पर वापस लौटकर प्रभु येसु को धन्यवाद देने आया, अन्य नौ कोढ़ियों ने ईश्वर के प्रति धन्यवाद प्रकट करना उचित भी नहीं समझा।

हम जानते हैं कि हमें ईश्वर से इतने वरदान और कृपाएँ मिलीं हैं जिनके हम योग्य भी नहीं हैं। ईश्वर ने ही हमें जीवन दिया है, जिसने अपने प्राण हम में फूंक दिए हैं ताकि हम जीवित रह सकें। वह हमारी रक्षा करता है और उसी ने इस पृथ्वी को हमें अपने निवास स्थान के रूप में दिया है। वह हम पर नज़र रखता है ताकि हम ठोकर खाकर गिर ना पड़ें। जब हम बीमारी में कमजोर हो जाते हैं तो ईश्वर हमें शक्ति और चंगाई प्रदान करता है, जब हम जीवन में भटक जाते हैं, तो ईश्वर हमें सही राह दिखाता है, नई आशा प्रदान करता है और हमारा मार्ग, सत्य और जीवन बन जाता है। पवित्र बाइबल हमें सिखाती है कि ईश्वर सदा से हमें अपने मार्ग पर ले जाना चाहता है। मुक्ति विधान ऐसे अनेक उदाहरणों से भरा पड़ा है जो ईश्वर के अपार प्रेम को दर्शाते हैं और यह बताते हैं कि ईश्वर हमारी देख-भाल करता है।

अंततः उसने इस दुनिया में अपने एकलौते पुत्र को भेज दिया जो हमारे प्रति ईश्वर के असीम प्रेम का अचूक प्रमाण है। प्रभु येसु ने हमें पिता ईश्वर के दर्शन कराए। उन्होंने बीमारों को चंगा किया, मुर्दों को जिलाया, पापियों को क्षमा दिलायी एवं मानवता को ईश्वर की ओर उन्मुख किया। उसने हमारे पापों को अपने ऊपर ले लिया और स्वयं क्रूस की कष्टकारी मृत्यु को अपनाया। ये सब किसके लिए? हमारे लिए! अगर हमने प्रभु में बपतिस्मा लिया है, तो हम उनके उत्तराधिकारी बन गए हैं, क्रूस पर मृत्यु के फल के सहभागी बन गए हैं। आज भी वह हमें हमारे भोजन के रूप में अपना शरीर और रक्त प्रदान करते हैं। क्या मैं अपने प्रति ईश्वर की उदारता एवं प्रेम के लिए कृतज्ञ हूँ?

यदि मैं अपने प्रति ईश्वर के प्रेम के लिए कृतज्ञ हूँ तो उस असीम प्रेम को मुझे दूसरों के साथ बाँटना है। हर वह व्यक्ति जिसने प्रभु येसु को मुक्तिदाता के रूप में स्वीकार किया है, उसके लिए यह अनिवार्य है कि वह संसार के लिए ईश्वर की ओर से मिले मुक्ति रूपी उपहार की घोषणा करे। आज यदि हम संसार के सामने प्रभु येसु को अपना मुक्तिदाता स्वीकार करते हैं तो प्रभु येसु भी अपने स्वर्गीय पिता और स्वर्गदूतों के समक्ष अपने प्रिय शिष्यों के रूप में स्वीकार करेंगे। इससे बढ़कर आनंद की बात हमारे लिए और क्या हो सकती है हम पिता ईश्वर और प्रभु येसु की नज़रों में उनके प्रेम के योग्य पाए जाएँ! यदि मैं ईश्वर के प्रति कृतज्ञ हूँ तो मुझे उसके प्रेम की घोषणा भी करनी है। ईश्वर हमें कृपा प्रदान करे कि हम उसके वरदानों के प्रति कृतज्ञ बनें और उसके असीम प्रेम की घोषणा संसार के सामने कर सकें।




📚 REFLECTION


Today’s liturgy of the word invites us to acknowledge God’s goodness and generosity towards us and express our gratitude, proclaim his kindness to whole world as mother Mary and many other Biblical personalities proclaimed it. The first reading describes about how Naaman the Syrian was grateful to God of Israel and came back to thank the prophet. The gospel of the day also gives us a similar message of expressing the gratitude. Only one leper out of 10 came to thank Jesus for getting healed.

We know we have received from God much more than we deserve. God is the one who has given us life, who has breathed his spirit within us, so that we can live. He protects us and has given us the Earth as our home. He watches over us so that we do not fall. When we are sick, God gives us strength and healing, when we are lost in life God shows us new path, gives us new hope and becomes our way, truth and life. The holy Bible teaches us that God has been always trying to call us to his paths. The salvation history is full of innumerable proofs that God loves us unconditionally and takes care of us.

Finally he sent his only son into this world as the greatest proof of his love. Jesus showed us the true face of God. He healed the sick, raised the dead, forgave the sinners, and turned the face of humanity towards God. He took all our iniquities upon himself and died a painful and shameful death on the cross. All for us! If we have been baptised in him, then we have become his heirs, we have become the beneficiaries of his sacrifice on the cross. Even today he nourishes us with his own body and blood. Am I grateful to God for all his goodness and love to me?

If I am grateful towards God’s love for me, then I must share it with others. Every Christian who has accepted Jesus as the saviour, also has the obligation to proclaim the great gift of salvation to the whole world. Today if we proclaim Jesus as our saviour before the world, then he also will proclaim us as his loving disciples before the heavenly father, and imagine what is more joyful than to be loved and accepted by Father and the son in heaven! If I am grateful to God then I must proclaim him. May God grant us strength to express our gratitude to him and proclaim it before the world.




 -Br. Biniush Topno


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रविवार, 02 अक्टूबर 2022 वर्ष का सत्ताईसवाँ सामान्य रविवार

 

रविवार, 02 अक्टूबर 2022

वर्ष का सत्ताईसवाँ सामान्य रविवार



📒 पहला पाठ : हबक्कूक 1:2-3;2:2-4


2) प्रभु! मैं कब तक पुकारता रहूँगा और तू अनसुनी करता रहेगा? मैं कब तक तेरी दुहाई देता रहूँगा और तू बचाने नहीं आयेगा?

3) तू क्यों मुझे पापाचार दिखाता है? क्यों मुझे अत्याचार देखना पडता है? लूटपात और हिंसा मेरे सामने हैं। चारों ओर लडाई-झगडे होते रहते हैं।

2:2) प्रभु ने उत्तर में मुझ से यह कहा, "जो दृश्य तुम देखने वाले हो, उसे स्पष्ट रूप से पाटियों पर लिखो, जिससे सब उसे सुगमता से पढ सकें;

3) क्योंकि वह भविय का दृश्य है, जो निश्चित समय पर पूरा होने वाला है। यदि उस में देर हो जाये, तो उसकी प्रतीक्षा करते रहो, क्योंकि वह अवश्य ही पूरा हो जायेगा। जो दृष्ट है, वह नष्ट हो जायेगा।

4) जो धर्मी है, वह अपनी धार्मिकता के कारण सुरक्षित रहेगा।


📒 दूसरा पाठ : 2तिमथी 1:6-8,13-14


6) मैं तुम से अनुरोध करता हूँ कि तुम ईश्वरीय वरदान की वह ज्वाला प्रज्वलित बनाये रखो, जो मेरे हाथों के आरोपण से तुम में विद्यमान है।

7) ईश्वर ने हमें भीरुता का नहीं, बल्कि सामर्थ्य, प्रेम तथा आत्मसंयम का मनोभाव प्रदान किया।

8) तुम न तो हमारे प्रभु का साक्ष्य देने में लज्जा अनुभव करो और न मुझ से, जो उनके लिए बन्दी हूँ, बल्कि ईश्वर के सामर्थ्य पर भरोसा रख कर तुम मेरे साथ सुसमाचार के लिए कष्ट सहते रहो।

13) जो प्रामाणिक शिक्षा तुम को मुझ से मिली, उसे अपना मापदण्ड मान लो और ईसा मसीह के प्रति विश्वास तथा प्रेम से दृढ़ बने रहो।

14) जो निधि तुम्हें सौंपी गयी, उसे हम में निवास करने वाले पवित्र आत्मा की सहायता से सुरक्षित रखो।


📚 सुसमाचार : सन्त लूकस 17:5-10


5) प्रेरितों ने प्रभु से कहा, "हमारा विश्वास बढ़ाइए"।

6) प्रभु ने उत्तर दिया, "यदि तुम्हारा विश्वास राई के दाने के बराबर भी होता और तुम शहतूत के इस पेड़ से कहते, ‘उखड़ कर समुद्र में लग जा’, तो वह तुम्हारी बात मान लेता।

7) "यदि तुम्हारा सेवक हल जोत कर या ढोर चरा कर खेत से लौटता है, तो तुम में ऐसा कौन है, जो उससे कहेगा, "आओ, तुरन्त भोजन करने बैठ जाओ’?

8) क्या वह उस से यह नहीं कहेगा, ‘मेरा भोजन तैयार करो। जब तक मेरा खाना-पीना न हो जाये, कमर कस कर परोसते रहो। बाद में तुम भी खा-पी लेना’?

9) क्या स्वामी को उस नौकर को इसीलिए धन्यवाद देना चाहिए कि उसने उसकी आज्ञा का पालन किया है?

10) तुम भी ऐसे ही हो। सभी आज्ञाओं का पालन करने के बाद तुम को कहना चाहिए, ‘हम अयोग्य सेवक भर हैं, हमने अपना कर्तव्य मात्र पूरा किया है’।"


📚 मनन-चिंतन



आज की पूजन विधि के मनन-चिन्तन का मुख्य विषय है- ईश्वर में हमारा विश्वास। पहले पाठ में नबी हबक्कूक अपने चारों ओर हो रहे अत्याचार और हिंसा की ओर प्रभु का ध्यान खींचते हैं, और अन्त में यही सन्देश मिलता है कि अपने विश्वास द्वारा ही धर्मी विजय पाता है। सन्त पौलुस आज के दूसरे पाठ में हमें आगे समझाते हैं कि हमारे विश्वास के कारण हमें बहुत कष्ट उठाने हैं लेकिन अपने उन कष्टों और परेशानियों को प्रभु येसु के दुःख भोग के नज़रिए से देखना है। हमारे कष्टों के द्वारा ही हमारे विश्वास की परीक्षा ली जाती है, यही कष्ट हमारे विश्वास को मज़बूती प्रदान करते हैं। आज के सुसमाचार में भी प्रेरित लोग प्रभु से उनका विश्वास बढ़ाने का निवेदन करते हैं। प्रभु उन्हें विश्वास के बारे में दृष्टांतों द्वारा समझाते हैं।

आख़िर हमारे विश्वास का अर्थ क्या है? हम जानते हैं कि हमारी सृष्टि ईश्वर ने की है, ईश्वर ने हमें अपने प्रतिरूप में बनाया है। वह हमारी देख-भाल करता है, और जब भी हमें उसकी विशेष कृपा और आशीष की ज़रूरत पड़ती है, वह हमारे जीवन में हस्तक्षेप करता है। दर असल ईश्वर हर पल, हर क्षण हम पर नज़र रखते हैं। हम कहीं भी उनकी नज़रों से नहीं बच सकते। उसने हमारा नाम अपनी हथेली पर लिख रखा है (इसा 49:16)। वह हमें अपनी आँखों की पुतली के समान सम्भाल कर रखता है। और यही कारण है कि ईश्वर हमारे जीवन में अनेक चिन्ह और चमत्कार दिखाता है और अपनी उपस्थिति को प्रकट करता है। प्रभु के चिन्हों और चमत्कारों एवं हमारे जीवन में उसकी उपस्थिति के प्रति हमारा जो प्रत्युत्तर है वही हमारा विश्वास कहलाता है।

उदाहरण के लिए जब हम सुबह उठते हैं तो हमें एक नई सुबह और नया दिन देखने को मिलता है। अगर हम ईश्वर में विश्वास करते हैं तो प्रातः काल हमारे लिए ईश्वर को धन्यवाद देने का समय है, प्रार्थना के साथ शुरुआत करने का अवसर है। और यदि हम ईश्वर में विश्वास नहीं करते हैं तो हर सुबह हमारे लिए सामान्य होगी, और हम ईश्वर को याद नहीं करेंगे। उसी तरह से जब हम यात्रा करते हैं, एक स्थान से दूसरे स्थान जाते हैं और सुरक्षित पहुँचते हैं, तो हम विश्वास करते हैं कि ईश्वर ने हमारी रक्षा की और हमें सुरक्षित पहुँचाया है। लेकिन यदि हम ईश्वर में विश्वास नहीं करते हैं तो यह हमारे लिए एक सामान्य सी घटना होगी।

ईश्वर में विश्वास करना और उस विश्वास के अनुसार जीना बहुत मुश्किल ज़िम्मेदारी है। अगर हम ईश्वर में विश्वास करते हैं, उन्हें प्यार करते हैं, तो हमें उनकी आज्ञाओं को मानना पड़ेगा, उनके बताये मार्ग पर चलना पड़ेगा, जो कि बहुत कठिन है। आज की दुनिया में विश्वास का जीवन जीना और अपने जीवन द्वारा अपने विश्वास का साक्ष्य देना बहुत बड़ा चुनौतीपूर्ण कार्य है। हमारे विश्वास के कारण हमारे साथ भेद-भाव किया जाता है, हम पर अत्याचार होता है, झूठे मुक़दमों में फँसाया जाता है। लेकिन प्रभु येसु ने हमसे वादा किया है, कि हमें विकट परिस्थितियों में घबराना नहीं है, बल्कि अपने विश्वास में अड़िग बने रहना है क्योंकि प्रभु संसार के अन्त तक सदा हमारे साथ हैं। ईश्वर हमें हमारे विश्वास में अड़िग और अटल बने रहने की कृपा प्रदान करे। आमेन।



📚 REFLECTION


The main theme for our reflection is - our faith in God. Prophet Habakkuk in the first reading of today puts forward the violence and pathetic condition around him, that God may pay heed. Ultimately we get the message that the righteous will endure through their faith. In the second reading of today, St. Paul explains further that we will have to undergo many sufferings and trials on account of our faith, but we have to look at those sufferings from the perspective of the sufferings of Christ. Our faith is tested amidst these sufferings and trials and they strengthen and purify our faith. The apostles in today’s gospel, request Jesus to increase their faith, and Jesus explains to them with the help of parables.

What does it mean by faith? We know that God has created us out of his own free will and in his own image and likeness. He cares for us, and whenever we are in great need of his love and protection, he intervenes in our lives. In fact God watches over us every moment of our life. There no place where we can hide away from his sight. He has inscribed us on the palm of his hand (Isa. 49:16). He protects us like the apple of his eyes. He shows many signs and miracles because he loves us want us to experience his presence in our lives. Our response towards God’s miracles and his presence in our lives, is called our faith in him.

For example when we open our eyes in the morning, we find a new fresh morning and a new day. If we have faith in God, then that beautiful morning becomes an opportunity for us to thank and praise God and begin the day with prayer. But if we have no faith in God than every morning will be ordinary morning and we may never remember God for it. Similarly when we travel from one place to another and we rach safely to our destination, we believe that God has brought us safely and protected us on the way. But without faith this is an ordinary thing.

Having faith in God and living our life according to that faith, is indeed a very difficult task. If we believe in God and love him, then we are obliged to obey his commandments and walk on the path that he shows us, which is very difficult. It's very challenging in today's world to believe and to live according to that faith. We may face discrimination because of our faith we may be persecuted, be led to the courts and falls cases. But Jesus has assured us that we need not to be afraid of such situations rather we have to be strong in our faith cause the Lord is with us to the end of the world. May God grant us the grace to stand strong in our faith and live according to our faith. Amen.



📚 मनन-चिंतन - 2


जब प्रेरितों ने प्रभु से कहा, "हमारा विश्वास बढ़ाइए", तब प्रभु ने उत्तर दिया, "यदि तुम्हारा विश्वास राई के दाने के बराबर भी होता और तुम शहतूत के इस पेड़ से कहते, ‘उखड़ कर समुद्र में लग जा’, तो वह तुम्हारी बात मान लेता।“ ऐसा लगता है कि येसु उनसे कह रहे थे कि जब तुम्हारे पास विश्वास ही नहीं है, तो उसे बढ़ाने की बात कैसे कर रहे हो? जब गाडी चालू ही नहीं है, तो उसकी स्पीड बढ़ाने को कैसे कह सकते हो? थोड़ा-सा विश्वास भी कितने बडे चमत्कार कर सकता है! वास्तव में हमें प्रभु से विश्वास की कृपा मिलने के लिए प्रार्थना करनी चाहिए। विश्चास ईश्वर की कृपा है। पवित्र बाइबिल कहती है, “सुनने से विश्वास उत्पन्न होता है और जो सुना जाता है, वह मसीह का वचन है”। जब हम प्रभु ईश्वर का वचन सुनते हैं, तब ईश्वर हमारे हृदय में स्वर्गराज का बीज बोता है। वह बीज हमारे हृदय में अंकुरित होता है, बढ़ता है और बहुत फल लाता है। आज के दिन हम यह जाँच करें कि क्या मेरे अन्दर थोड़ा-सा भी विश्वास है, मेरा विश्वास कितना पक्का है, क्या विश्वास की शक्ति को मैं परखता हूँ। लूकस 18:7-8 में प्रभु कहते हैं, “क्या ईश्वर अपने चुने हुए लोगों के लिए न्याय की व्यवस्था नहीं करेगा, जो दिन-रात उसकी दुहाई देते रहते हैं? क्या वह उनके विषय में देर करेगा? मैं तुम से कहता हूँ - वह शीघ्र ही उनके लिए न्याय करेगा। परन्तु जब मानव पुत्र आयेगा, तो क्या वह पृथ्वी पर विश्वास बचा हुआ पायेगा?" मैं यह समझता हूँ कि प्रभु येसु उस बात की ओर संकेत रहे हैं कि आज दुनिया में विश्वास बढ़ नहीं रहा है, बल्कि घट रहा है। यह हमारे लिए चिंता का विषय है।




When the apostles said to Jesus, “Increase our faith” Jesus responded saying, “If you had faith like a mustard seed you could say to this mulberry tree, “Be uprooted and planted in the sea,” it would obey you”. In other words, Jesus seems to say that there is no real basis for asking for an ‘increase’ of faith, when there is no faith at all (not even like a mustard seed). You can ask for an ‘increase’ only when there is something, some base. When a vehicle is still parked in the garage, how can we speak of increasing the speed. In fact, they are supposed to pray for obtaining faith from sources available. Faith is a free gift of God. The Bible says, “So faith comes from what is heard, and what is heard comes through the word of Christ” (Rom 10:17). When we listen to the Word of God, the Lord sows the seed of faith in us. That seed remains in us to grow and produce fruits. In Lk 19:7-8, the Lord says, “And will not God grant justice to his chosen ones who cry to him day and night? Will he delay long in helping them? I tell you, he will quickly grant justice to them. And yet, when the Son of Man comes, will he find faith on earth?” Is there not an indication in the word of the Lord that in today’s society faith is not increasing, but decreasing? We should be concerned about this indication from the Lord.



प्रवचन


हिन्दी में कहावत है, ’’कर्म किये जा फल की चिंता मत कर।’’ लगभग यही बात येसु अपने शिष्यों के निवेदन में बताते है जब वे निवेदन करते हैं, ’’प्रभु हमारा विश्वास बढाईये।’’ येसु इसका सीधा उत्तर न देते हुये उन्हें कर्मठ एवं वफादार सेवक का दृष्टांत सुनाते हैं। इसके द्वारा प्रभु बताते है जब हम अपने उत्तरदायित्व को पूरी तत्परता एवं वफादारी के साथ बिना फल की आशा किये करते हैं तो हमारा विश्वास स्वतः बढता जाता है। विश्वास में किये गये कर्म ही हमारा विश्वास बढाते हैं।

’अशर्फियों का दृष्टांत’ तीन सेवकों की उनके स्वामी द्वारा दी गयी राशि के प्रति प्रतिक्रिया को दर्शाता है। इसमें प्रथम दो सेवकों ने तो दी गयी अशर्फियों से व्यापार कर दुगुना कमाया किन्तु तीसरे ने अपनी निधि को जमीन में गाढ़ कर छिपा दिया था। यह तीसरा सेवक स्वामी द्वारा दी गयी निधि के प्रति ईमानदार है। वह इस अशर्फी का दुरूपयोग नहीं करता और न ही कोई हानि पहुँचाता है। किन्तु यह सदभावना उसे सही ठहाराने के लिये नाकाफी है। स्वामी उसे उसकी इसी अकर्मण्यता के लिये उसे ’निकम्मे सेवक’ कह कर बुलाता है। ’निकम्मे’ शब्द का भावार्थ होता है, ’निष्कर्म’ वह जो कुछ काम न करे। यदि हमारा विश्वास अकर्मण्य हो तो हम भी ’निकम्मे सेवक’ ही माने जायेंगे।

यदि उस तीसरे सेवक को अपनी सदभावना का उचित इस्तेमाल करना था तो उसे भी उसे दी गयी निधि से व्यापार करना चाहिये था। हमारा विश्वास यदि तीसरे सेवक के समान हो तो क्या लाभ! इससे न तो विश्वास बढता है और न ही ऐसे विश्वास से किसी को कोई लाभ ही होता है। बिना अनुकूल कार्यों के विश्वास नगण्य है। ऐसा सुप्त विश्वास हमें बचा नहीं सकता। संत याकूब कहते हैं, ’’यदि कोई यह कहता है कि मैं विश्वास करता हूँ किन्तु उसके अनुसार आचरण नहीं करता, तो इस से क्या लाभ? क्या विश्वास ही उसका उद्धार कर सकता है?... कर्मों के अभाव में विश्वास पूर्ण रूप से निर्जीव होता है।... जिस तरह आत्मा के बिना शरीर निर्जीव है, उसी तरह कर्मों के अभाव में विश्वास निर्जीव है। (याकूब 2:14,17) कार्यों के द्वारा विश्वास को बढाने के हेतु संत पेत्रुस कहते हैं, “जिसे जो वरदान मिला है, वह ईश्वर के बहुविध अनुग्रह के सुयोग्य भण्डारी की तरह दूसरों की सेवा में उसका उपयोग करे। जो प्रवचन देता है, उसे स्मरण रहे कि वह ईश्वर के शब्द बोल रहा है। जो धर्मसेवा करता है वह जान ले कि ईश्वर ही उसे बल प्रदान करता है।” (1 पेत्रुस 4:10-11) इस प्रकार अपने कार्यों को ईश्वर की सेवा में समर्पित करने से हमारा विश्वास नित्य बढता जाता है।

संत लूकस के सुसमाचार में शिष्यगण रातभर मेहनत करने के बाद भी कुछ नहीं पाते हैं। तब येसु उनसे कहते हैं, “नाव को गहरे पानी में ले चलो।” शिष्यों के लिये तो यह आश्चर्य की बात थी। वे थके हुये थे तथा अभी-अभी समुद्र से लौटे थे। ऐसे में प्रभु उनसे दुबारा जाने के लिये कहते हैं। जो भी उनके भाव रहे हो लेकिन वे येसु की बात टाल नहीं सकते थे। नाव को बीच समुद्र में ले जाने पर येसु उनसे एक और अजीब बात कहते हैं, “दायी ओर अपना जाल डालो”। यह सुनकर शायद पेत्रुस का धैर्य जबाव दे गया हो, इसलिये वे कहते हैं, “प्रभु रातभर मेहनत करने पर भी हमें कुछ नहीं मिला, किन्तु आप के कहने पर मैं जाल डालूँगा।” पेत्रुस के प्रभु के अनुदेशनुसार कार्य करने पर उनका जाल मछलियों से भर जाता है। इस प्रकार के परिणाम से शिष्यों में भय छा जाता है वे येसु की प्रभुता को पहचान जाते हैं। पेत्रुस कह उठता है, “प्रभु आप मेरे पास से चले जाइये क्योंकि मैं पापी मनुष्य हूँ।” कार्य करने से विश्वास बढता है। यही बात पेत्रुस और उनके साथियों के साथ भी होती है।

राजाओं के दूसरे ग्रंथ में हम कोढी नामान के बारे में पढते हैं। जब नामान नबी एलीशा के पास चंगाई के लिये जाते हैं तो अपनी पूरी तैयारी के साथ जाते हैं। किन्तु एलीशा उन्हें संदेश के द्वारा केवल कहते हैं, “आप जाकर यर्दन नदी में सात बार स्नान कीजिए। आपका शरीर स्वच्छ हो जायेगा और आप शुद्ध हो जायेंगे।” (2 राजाओं 5:10) किन्तु नामान इस कार्य को तुच्छ समझकर लौटने लगता है। किन्तु सेवकों से समझाने पर वह नबी एलीशा द्वारा निर्देशित कार्य कर शुद्धता प्राप्त करता है। नामान का ईश्वर में विश्वास जब होता तब वह उनके द्वारा निर्देशित कार्य करता है। नामान का इस प्रकार का कार्य उसके विश्वास की अभिव्यक्ति था जो चंगाई के बाद ठोस विश्वास में परिणीत हो जाता है। इस कार्य के बिना न तो उसका विश्वास पनपता और न ही परिपूर्णता तक पहुँचता।

स्कूलों में भी बच्चों को अभ्यास कार्य स्वयं करने के लिए दिया जाता है। जब बच्चा उन कार्यों को स्वयं करता है तो उसमें आत्मविश्वास आता है तथा जितना अधिक वह अभ्यास के कार्यों को करता जाता है उतना अधिक उसमें विश्वास बढता है। यही बात हमारे आध्यात्मिक विश्वास पर भी लागू होती है। जितनी बार हम येसु में विश्वास कर सुसमाचार के अनुसार अपने कार्यों को ढालते हैं उतना ही हम विश्वास में परिपक्व होते जाते हैं। ऐसा निरंतर करने से हम में भी ईश्वर के सेवक होने का भाव आता है। हम अपने जीवन को ईश्वर को समर्पित सेवा में जीकर विनम्र बनते और आगे बढते हैं।


 -Br. Biniush Topno


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