28 अगस्त 2022
वर्ष का बाईसवाँ सामान्य इतवार
📒 पहला पाठ : 1 प्रवक्ता ग्रन्थ 3:17-18, 20, 28-29
17) और तुम्हारी धार्मिकता समझी जायेगी। लोग तुम्हारी विपत्ति के दिन तुम को याद करेंगे और तुम्हारे पाप धूप में पाले की तरह गल जायेगे।
18) जो अपने पिता का त्याग करता, वह ईष-निंदक के बराबर है। जो अपनी माता को दुःख देता है, वह ईश्वर द्वारा अभिशप्त है।
20) तुम जितने अधिक बड़े हो, उतने ही अधिक नम्र बनों इस प्रकार तुम प्रभु के कृपापात्र बन जाओगे। बहुत लोग घमण्डी और गर्वीले हैं, किन्तु ईश्वर दीनों पर अपने रहस्य प्रकट करता है।
28) कपटी हृदय अपने कार्यो में असफल होगा और दुष्ट हृदय पाप के जाल में फॅसेगा।
29) दुष्ट हृदय बहुत कष्ट पायेगा। पापी पाप-पर-पाप करता रहेगा।
📒 दूसरा पाठ : इब्रानियों 12:18-19, 22-24
18) आप लोग ऐसे पर्वत के निकट नहीं पहुँचे हैं, जिसे आप स्पर्श कर सकते हैं। यहाँ न तो सीनई बादल की धधकती अग्नि है और न काले बादल; न घोर अन्धकार, बवण्डर,
19) तुरही का निनाद और न बोलने वाले की ऐसी वाणी, जिसे सुन कर इस्राएली यह विनय करते थे कि वह फिर हम से कुछ न कहे;
22) आप लोग सियोन पर्वत, जीवन्त ईश्वर के नगर, स्वर्गिक येरूसालेम के पास पहुँचे, जहाँ लाखों स्वर्गदूत,
23) स्वर्ग के पहले नागरिकों का आनन्दमय समुदाय, सबों का न्यायकर्ता ईश्वर, धर्मियों की पूर्णता-प्राप्त आत्माएँ
24) और नवीन विधान के मध्यस्थ ईसा विराजमान हैं, जिनका छिड़काया हुआ रक्त हाबिल के रक्त से कहीं अधिक कल्याणकारी है।
📙 सुसमाचार : सन्त लूकस 14:1,7-14
1) ईसा किसी विश्राम के दिन एक प्रमुख फ़रीसी के यहाँ भोजन करने गये। वे लोग उनकी निगरानी कर रहे थे।
7) ईसा ने अतिथियों को मुख्य-मुख्य स्थान चुनते देख कर उन्हें यह दृष्टान्त सुनाया,
8) "विवाह में निमन्त्रित होने पर सब से अगले स्थान पर मत बैठो। कहीं ऐसा न हो कि तुम से प्रतिष्ठित कोई अतिथि निमन्त्रित हो
9) और जिसने तुम दोनों को निमन्त्रण दिया है, वह आ कर तुम से कहे, ’इन्हें अपनी जगह दीजिए’ और तुम्हें लज्जित हो कर सब से पिछले स्थान पर बैठना पड़े।
10) परन्तु जब तुम्हें निमन्त्रण मिले, तो जा कर सब से पिछले स्थान पर बैठो, जिससे निमन्त्रण देने वाला आ कर तुम से यह कहे, ’बन्धु! आगे बढ़ कर बैठिए’। इस प्रकार सभी अतिथियों के सामने तुम्हारा सम्मान होगा;
11) क्योंकि जो अपने को बड़ा मानता है, वह छोटा बनाया जायेगा और जो अपने को छोटा मानता है, वह बड़ा बनाया जायेगा।"
12) फिर ईसा ने अपने निमन्त्रण देने वाले से कहा, "जब तुम दोपहर या शाम का भोज दो, तो न तो अपने मित्रों को बुलाओ और न अपने भाइयों को, न अपने कुटुम्बियों को और न धनी पड़ोसियों को। कहीं ऐसा न हो कि वे भी तुम्हें निमन्त्रण दे कर बदला चुका दें।
13) पर जब तुम भोज दो, तो कंगालों, लूलों, लँगड़ों और अन्धों को बुलाओ।
14) तुम धन्य होगे कि बदला चुकाने के लिए उनके पास कुछ नहीं है, क्योंकि धर्मियों के पुनरूत्थान के समय तुम्हारा बदला चुका दिया जायेगा।"
📚 मनन-चिंतन
सुसमाचार में येसु आत्म-केंद्रितता और पाखंड पर सवाल उठाते हैं। हम एक ऐसी दुनिया में रह रहे हैं जो प्रतिस्पर्धा और सफलता को महत्व देती है, और सबसे ऊपर 'सम्मान के स्थान' पर कब्जा करती है। कमजोरों के लिए और जो खुद को आगे बढ़ाने में असमर्थ हैं उनके लिए बहुत कम जगह है। एक स्वयं की छवि जो स्वयं को विशेष पहचान के योग्य मानती है, स्वयं विनाशकारी हो सकती है। जब हम खुशी-खुशी अपनी ईश्वर प्रदत्त प्रतिभा का उपयोग दूसरों की सेवा करने में करते हैं, तो हम स्वीकार करते हैं कि ईश्वर सभी अच्छाइयों का सच्चा स्रोत है। जिस तरह की नम्रता की बात येसु यहाँ कर रहे हैं, उसका वर्णन कैंटबरी के एक पूर्व आर्चबिशप, विलियम टेम्पल ने अच्छी तरह से किया था: “विनम्रता का अर्थ अन्य लोगों की तुलना में अपने बारे में कम सोचना नहीं है, और न ही इसका अर्थ अपने स्वयं के उपहारों के बारे में कम राय रखना है। इसका अर्थ है अपने बारे में बिल्कुल भी सोचने से मुक्ति।"
📚 REFLECTION
In the gospel Jesus questions the self-centredness and hypocrisy. We are living in a world that values competition and success, occupying the ‘place of honour’, above all else. There is little space for the weak and for those who are unable to push themselves forward. A self image that considers oneself deserving of special recognition can be self destructive. When we happily use our God-given talents in serving others, we acknowledge that God is the true source of all goodness. The kind of humility Jesus is talking about here was described well by a former Archbishop of Canterbury, William Temple: “Humility does not mean thinking less of yourself than of other people, nor does it mean having a low opinion of your own gifts. It means freedom from thinking about yourself at all.”
📙 मनन-चिंतन -2
पूर्व राष्ट्रपति स्वर्गीय डॉ० अब्दुल कलाम को 2007 के रामनाथ गोयनका उत्कृष्ट पत्रकारिता पुरस्कार समारोह में मुख्य अतिथि के रूप में आमंत्रित किया गया था. उस समय भी वे देश के प्रथम नागरिक (राष्ट्रपति) थे, और उन्हें उस समारोह को सम्बोधित करने के लिए आमंत्रित किया गया था, और उसके बाद बड़े-बड़े पत्रकारों का पत्रकारिता के बारे में विचारों का आदान-प्रदान का कार्यक्रम था, और उसके लिए मुख्य अतिथि का रुकना ज़रूरी नहीं था. सबने सोचा कि राष्ट्रपति अपने सम्बोधन के बाद विदा ले लेंगे, लेकिन डॉ० अब्दुल कलाम विचार-विमर्श के इस कार्यक्रम के लिए भी रुक गये, लेकिन इससे अधिक आश्चर्यजनक बात यह थी उन्होंने उस आदान-प्रदान में सक्रीय भाग भी लिया, और वे जोश में आकर अतिथि दीर्घा से उठकर मंच पर जा बैठे, वो भी कुर्सी पर नहीं नीचे. सब लोग आश्चर्यचकित थे कि देश का राष्ट्रपति एक आम इन्सान के सामान नीचे मंच पर बैठा है, लेकिन उन्हें किसी बात की परवाह नहीं थी. उस कार्यक्रम की उस तस्वीर को आज भी इन्टरनेट पर खोजा जा सकता है. इसमें कोई संदेह नहीं कि डॉ० अब्दुल कलाम विनम्रता के जीते-जागते उदाहरण थे, और इसलिए आज भी वे करोड़ों लोगों में जिंदा हैं और और लोग उन्हें सम्मान के साथ याद करते हैं.
आज की पूजन-विधि में हमारे मनन-चिंतन का विषय भी यही महान गुण ‘विनम्रता’ है. आज के पहले पाठ, प्रवक्ता-ग्रन्थ में विनम्रता और विनम्र व्यक्ति की प्रशंसा की गयी है. दूसरे पाठ में भी हम पुराने व्यवस्थान के भय उत्पन्न करने वाले ईश्वर की अपेक्षा प्रभु येसु में एक विनम्र मेमने के रूप में ईश्वर के दर्शन करते हैं, और आज के सुसमाचार में स्वयं प्रभु येसु इसी महान गुण के बारे में समझाते हैं. हर इन्सान चाहता है कि वह महान बने, लोग उसका आदर सम्मान करें. सभी के अन्दर खुद की एक पहचान बनाने की लालसा रहती है, कुछ करने की, कुछ बनने लालसा रहती है. ऐसी लालसा होना बुरी बात नहीं है, यह स्वभाविक है, तभी तो पिता ईश्वर ने भी कहा “फलो-फूलो. पृथ्वी पर फैल जाओ और उसे अपने अधीन कर लो. (उत्पत्ति ग्रन्थ 1:28).” महान बनने की लालसा मनुष्य में प्रारम्भ से ही है, काईन ने अपने भाई हाबिल का रक्त बहाया, याकूब ने एसाव का प्रथम अधिकार छिना, राजा साउल भी दाउद को मारना चाहता था. बड़ा और महान बनने के लिये इन सब ने गलत और बुरा रास्ता चुना, और आज की दुनिया में हम भी वही गलतियाँ करते हैं. लेकिन प्रभु येसु हमें महान और बड़ा बनने का सबसे अच्छा और सही रास्ता बताते हैं. प्रभु येसु के अनुसार ‘यदि हमें बड़ा और महान बनना है तो सबसे पहले सबसे छोटा और विनम्र बनना पड़ेगा.’ दरअसल विनम्रता, महान बनने की सबसे पहली सीढ़ी है.
विश्वप्रसिद्ध आध्यात्मिक कृति “दि इमीटेशन ऑफ़ क्राइस्ट” (ख्रिस्तानुकरण) में लेखक थॉमस केम्पिस इस पुस्तक के दूसरे अध्याय में कहते हैं, “स्वयं को नगण्य समझना, एवं दूसरों को अपने से अच्छा और श्रेष्ठ समझना ही सर्वोत्तम एवं सर्वश्रेष्ठ बुद्धिमानी (प्रज्ञा) है.” विनम्रता ही अन्य सद्गुणों की जननी है. किसी ने कहा है कि, ‘विनम्रता एक विशाल वृक्ष की जड़ के समान है, और यदि एक वृक्ष की जड़ें ज़मीन में दृढ़ता से नहीं जमीं हैं तो वह वृक्ष ना तो मजबूती से बढ़ सकता है, और ना कोई फल उत्पन्न कर सकता है, और ना ही ज़्यादा दिनों तक जीवित रह सकता है. उस विनम्रता रूपी वृक्ष की डालियाँ हैं- शालीनता या सादगी, निरभिमान एवं गौरव. जिस व्यक्ति में विनम्रता नहीं है, उसमें दूसरे सद्गुणों का पनपना मुश्किल है. राजा सुलेमान के अनुसार ‘विनम्र व्यक्ति में ही प्रज्ञा का वास है.’ (सूक्ति ग्रन्थ 11:2).
प्रभु येसु आखिर क्यों चाहते हैं कि हम विनम्र बनें? प्रभु येसु के इस दुनिया में आने का मुख्य उद्देश्य समस्त मानव जाति का पिता ईश्वर से मेल कराना है, यानि कि हमें ईश्वर से मिलाना है, ईश्वर के दर्शन कराना है. और ईश्वर के दर्शन करने के लिए हमारा विनम्र होना अनिवार्य है. अहंकारी व्यक्ति कभी प्रभु को नहीं पा सकता है वहीँ दूसरी ओर प्रभु येसु ने स्वयं वादा किया है, “धन्य हैं वे जो नम्र हैं, उन्हें प्रतिज्ञात देश प्राप्त होगा.” (मत्ती 5:4). विनम्र व्यक्ति सारी दुनिया को जीत सकता है, सबके दिलों पर राज कर सकता है. आइये हम प्रभु से इस महान गुण का वरदान माँगें.
✍ -Br. Biniush Topno
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