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27 मार्च 2022, इतवार चालीसे का चौथा इतवार

 

27 मार्च 2022, इतवार

चालीसे का चौथा इतवार

पहला पाठ : योशुआ 5:9-12


9) प्रभु ने योशुआ से कहा आज मैंने तुम लोगों पर से मिस्र का कलंक दूर किया इसलिए उस स्थान का नाम आज तक गिलगाल है।

10) इस्राएलियों ने गिलगाल में पडाव डाला और वहाँ येरीखो के मैदान में, महीने के चैदहवें दिन शाम को पास्का पर्व मनाया।

11) पास्का के दूसरे दिन ही उन्होंने उस देश की उपज की बेख़मीर और अनाज की भुनी हुई बालें खायीं।

12) जिस दिन उन्होंने देश की उपज का अन्न पहले पहल खाया उसी दिन से मन्ना का गिरना बंद हो गया। मन्ना नहीं मिलने कारण इस्राएली उस समय से कनान देश की उपज का अन्न खाने लगे।



दूसरा पाठ : 2 कुरिन्थियों 5:17-21


17) इसका अर्थ यह है कि यदि कोई मसीह के साथ एक हो गया है, तो वह नयी सृष्टि बन गया है। पुरानी बातें समाप्त हो गयी हैं और सब कुछ नया हो गया है।

18) यह सब ईश्वर ने किया है- उसने मसीह के द्वारा अपने से हमारा मेल कराया और इस मेल-मिलाप का सेवा-कार्य हम प्रेरितों को सौंपा है।

19) इसका अर्थ यह है कि ईश्वर ने मनुष्यों के अपराध उनके ख़र्चे में न लिख कर मसीह के द्वारा अपने साथ संसार का मेल कराया और हमें इस मेल-मिलाप के सन्देश का प्रचार सौंपा है।

20) इसलिए हम मसीह के राजदूत हैं, मानों ईश्वर हमारे द्वारा आप लोगों से अनुरोध कर रहा हो। हम मसीह के नाम पर आप से यह विनती करते हैं कि आप लोग ईश्वर से मेल कर लें।

21) मसीह का कोई पाप नहीं था। फिर भी ईश्वर ने हमारे कल्याण के लिए उन्हें पाप का भागी बनाया, जिससे हम उनके द्वारा ईश्वर की पवित्रता के भागी बन सकें।



सुसमाचार : सन्त लूकस का सुसमाचार 15:1-3,11-32



1) ईसा का उपदेश सुनने के लिए नाकेदार और पापी उनके पास आया करते थे।

2 फ़रीसी और शास्त्री यह कहते हुए भुनभुनाते थे, "यह मनुष्य पापियों का स्वागत करता है और उनके साथ खाता-पीता है"।

3) इस पर ईसा ने उन को यह दृष्टान्त सुनाया,

11) ईसा ने कहा, "किसी मनुष्य के दो पुत्र थे।

12) छोटे ने अपने पिता से कहा, ’पिता जी! सम्पत्ति का जो भाग मेरा है, मुझे दे दीजिए’, और पिता ने उन में अपनी सम्पत्ति बाँट दी।

13 थोड़े ही दिनों बाद छोटा बेटा अपनी समस्त सम्पत्ति एकत्र कर किसी दूर देश चला गया और वहाँ उसने भोग-विलास में अपनी सम्पत्ति उड़ा दी।

14) जब वह सब कुछ ख़र्च कर चुका, तो उस देश में भारी अकाल पड़ा और उसकी हालत तंग हो गयी।

15) इसलिए वह उस देश के एक निवासी का नौकर बन गया, जिसने उसे अपने खेतों में सूअर चराने भेजा।

16) जो फलियाँ सूअर खाते थे, उन्हीं से वह अपना पेट भरना चाहता था, लेकिन कोई उसे उन में से कुछ नहीं देता था।

17) तब वह होश में आया और यह सोचता रहा-मेरे पिता के घर कितने ही मज़दूरों को ज़रूरत से ज़्यादा रोटी मिलती है और मैं यहाँ भूखों मर रहा हूँ।

18) मैं उठ कर अपने पिता के पास जाऊँगा और उन से कहूँगा, ’पिता जी! मैंने स्वर्ग के विरुद्ध और आपके प्रति पाप किया है।

19) मैं आपका पुत्र कहलाने योग्य नहीं रहा। मुझे अपने मज़दूरों में से एक जैसा रख लीजिए।’

20) तब वह उठ कर अपने पिता के घर की ओर चल पड़ा। वह दूर ही था कि उसके पिता ने उसे देख लिया और दया से द्रवित हो उठा। उसने दौड़ कर उसे गले लगा लिया और उसका चुम्बन किया।

21) तब पुत्र ने उस से कहा, ’पिता जी! मैने स्वर्ग के विरुद्ध और आपके प्रति पाप किया है। मैं आपका पुत्र कहलाने योग्य नहीं रहा।’

22) परन्तु पिता ने अपने नौकरों से कहा, ’जल्दी अच्छे-से-अच्छे कपड़े ला कर इस को पहनाओ और इसकी उँगली में अँगूठी और इसके पैरों में जूते पहना दो।

23) मोटा बछड़ा भी ला कर मारो। हम खायें और आनन्द मनायें;

24) क्योंकि मेरा यह बेटा मर गया था और फिर जी गया है, यह खो गया था और फिर मिल गया है।’ और वे आनन्द मनाने लगे।

25) "उसका जेठा लड़का खेत में था। जब वह लौट कर घर के निकट पहुँचा, तो उसे गाने-बजाने और नाचने की आवाज़ सुनाई पड़ी।

26) उसने एक नौकर को बुलाया और इसके विषय में पूछा।

27) इसने कहा, ’आपका भाई आया है और आपके पिता ने मोटा बछड़ा मारा है, क्योंकि उन्होंने उसे भला-चंगा वापस पाया है’।

28) इस पर वह क्रुद्ध हो गया और उसने घर के अन्दर जाना नहीं चाहा। तब उसका पिता उसे मनाने के लिए बाहर आया।

29) परन्तु उसने अपने पिता को उत्तर दिया, ’देखिए, मैं इतने बरसों से आपकी सेवा करता आया हूँ। मैंने कभी आपकी आज्ञा का उल्लंघन नहीं किया। फिर भी आपने कभी मुझे बकरी का बच्चा तक नहीं दिया, ताकि मैं अपने मित्रों के साथ आनन्द मनाऊँ।

30) पर जैसे ही आपका यह बेटा आया, जिसने वेश्याओं के पीछे आपकी सम्पत्ति उड़ा दी है, आपने उसके लिए मोटा बछड़ा मार डाला है।’

31) इस पर पिता ने उस से कहा, ’बेटा, तुम तो सदा मेरे साथ रहते हो और जो कुछ मेरा है, वह तुम्हारा है।

32) परन्तु आनन्द मनाना और उल्लसित होना उचित ही था; क्योंकि तुम्हारा यह भाई मर गया था और फिर जी गया है, यह खो गया था और मिल गया है’।"



📚 मनन-चिंतन



आज हमें उड़ाऊ पुत्र के दृष्टान्त पर चिंतन करने का आह्वान किया गया है। प्रभु येसु ने यह दृष्टान्त दो प्रकार के लोगों के सामने सुनाया था। एक तरफ नाकेदार और पापी हैं जिन्होंने अपने पिछले जीवन में की गई बुराईयों के लिए खेद महसूस किया और पश्चाताप के साथ प्रभु की ओर अभिमुख होते हैं। दूसरी ओर शास्त्री और फरीसी हैं जो न केवल खुद को धर्मी मानते थे, बल्कि दूसरों में दोष ही दोष ही पाते थे। यह आत्म-धार्मिक रवैया अपने आप में बुरा था। उड़ाऊ पुत्र और उसका बड़ा भाई लोगों के इन दो समूहों का प्रतिनिधित्व करते हैं। उड़ाऊ पुत्र, यद्यपि वह पिता के घर से बहुत दूर चला गया और कुछ समय के लिए पाप में भटकता रहा, उसे पिता की कृपा और दयालु प्रेम का एहसास होता है और वह पिता के घर वापस आ जाता है। बड़ा भाई यद्यपि शारीरिक रूप से पिता के घर के क्षेत्र में रह रहा था, वह मानसिक रूप से पिता से बहुत दूर था। ख्रीस्तीय विश्वासियों की बुलाहट केवल हानिरहित बनने की ही नहीं, बल्कि अपने स्वर्गीय पिता के प्रेम का आनंद लेने और उस प्रेम को दूसरों के साथ साझा करने की भी है। एक सच्चा पवित्र व्यक्ति दूसरों में दोष खोजने के बजाय स्वयं के दोषों को खोजता है और उन्हें सुधारता है। एक सच्चा पवित्र व्यक्ति, निराशावादी और उदास होने से दूर, प्रेम, आनंद और शांति फैलाता है।




📚 REFLECTION


Today we are called upon to reflect over the parable of the prodigal son. Jesus told this parable before two types of people. On the one side we have the tax collectors and sinners who felt sorry about the evil they committed in their past life and turned to God with repentance. On the other hand we have the scribes and Pharisees who not only considered themselves as righteous, but also found fault with others. This self-righteous attitude itself was evil. The prodigal son and his elder brother represent these two groups of people. The prodigal son, although he went far away from the father’s house and wandered about in sin for some time, he comes to realize the father’s graciousness and merciful love and is drawn back to the father’s house. The heart of the elder brother, although he was staying geographically within the area of the house of the father, was far away from the father. As Christians we are called not only to be harmless people, but also to relish the love of our heavenly father and share that love with others with ever-grateful hearts. A truly holy person would find one’s own faults and correct them instead of finding fault with others. A truly holy person, far from being pessimistic and melancholic, radiates love, joy and peace.



मनन-चिंतन - 2



उडाऊँ पुत्र का दृष्टांत पुत्र की दुष्टता से अधिक पिता की सहद्यता एवं दयालुता पर केंद्रित दृष्टांत हैं। पुत्र का अपने पिता से संपत्ति का हिस्सा मांगना न सिर्फ परंपरा के प्रतिकूल था बल्कि एक प्रकार की उद्दण्डता भी थी। किन्तु पिता पुत्र की अयोग्यता को जानते हुये भी उसे सम्पति का हिस्सा दे देता है। पुत्र जल्द ही अपनी सम्पत्ति का हिस्सा भोग-विलास में उडा देता है तथा अत्यंत दयनीय तथा दरिद्रता का जीवन जीने लगता है। उसे पराये देश में सेवक की नौकरी करनी पडती हैं। वहॉ उसे सूअरों की देखभाल करने का कार्य दिया जाता है। उस देश में अकाल पडा था इसलिये वह सूअर का खाना खाकर “अपना पेट भरना चाहता था, लेकिन कोई उसे उन में से कुछ नहीं देता था” (लूकस 15:16)। तब जाकर वह सोचता है कि उसके पिता के सेवकों के साथ कितना अच्छा व्यवहार किया जाता है। अतः वह सेवक के रूप में ही पिता के घर लौटना चाहता है। हैरानी की बात है कि वह अपने पिता को उसका इंतजार करते हुये पाता है। पिता बिना किसी हिचकिचाहट से उसका स्वागत करता है तथा उसे पुत्र का दर्जा पुनः प्रदान करता है। पिता और पुत्र का व्यवहार निम्नलिखित बातें प्रदर्शित करता है।

1. उडाऊँ पुत्र का रवैया हमे सिखलाता है कि जब हम अपनी स्वतंत्रता का दुरूपयोग करते हैं तो पाप करते हैं तथा इस परिणामस्वरूप सदैव कष्ट उठाते हैं। संत पौलुस कहते हैं, “पाप का वेतन मृत्यु है” (रोमियों 6:23)। आदम और हेवा को ईश्वर ने सबकुछ के साथ उनकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता भी प्रदान की थी। किन्तु जब उन्होंने अपनी स्वतंत्रता का मनमाना इस्तेमाल किया तो उन्होंने पाप किया तथा वे ईश्वर से दूर हो गये। धर्मग्रंथ हमें इस विषय में चेतावनी देता है, “भाइयो! आप जानते हैं कि आप लोग स्वतंत्र होने के लिए बुलाये गये हैं। आप सावधान रहें, नहीं तो यह स्वतन्त्रता भोग-विलास का कारण बन जायेगी।” (गलातियों 5:13) तथा “आप लोग स्वतन्त्र व्यक्तियों की तरह आचरण करें, किन्तु स्वतन्त्रता की आड् में बुराई न करें।” (1 पेत्रुस 2:16) उडाऊँ पुत्र के पिता ने जो स्वतंत्रता उसे प्रदान की थी उसका दुरूपयोग कर वह पिता से सम्पत्ति का बंटवारा करने को कहता है।

2. पुत्र का व्यवहार बताता है कि जब उसने अपनी स्वतंत्रता का दुरूपयोग किया तो वह प्रारंभिक दौर में तो भोग-विलास का आनन्द उठाता है किन्तु बाद में उसे घोर यंत्रणा उठानी पडती हैं। ईश्वर से दूर जाकर, उनकी आज्ञाओं का उल्लंघन कर शुरूआत में तो हमें स्वतंत्रता का अहसास होता है किन्तु जल्द ही हम अनेक बातों, वस्तुओं, परिस्थितियों या व्यक्तियों के गुलाम बन जाते हैं जो हमारे तिरसकार एवं पतन का कारण बन जाता है।

3. पुत्र अपना सबकुछ लुटाने के बाद भी अपने पिता के घर लौटने में देर करता है। पहले उसे किसी बैगाने देश में सेवक बनना पडता है। फिर उसे सूअरों की देखभाल करने का कार्य दिया जाता है। इसके बाद भी उसे पिता के घर लौटने की याद नहीं आती। फिर उसे सूअरों का खाना खाकर अपना जीवन गुजारना पडता है। इतनी दयनीय स्थिति से गुजरने के बाद वह अपने पिता के घर लौटने की सोचता है। एक पापी के रूप में जब हम ईश्वर से दूर हो जाते हैं तो हमारा जीवन भी विभिन्न दुखमयी परिस्थितियों से गुजरता है। हम सांसारिक ’जुगाड’ लगाकर टाल मटोल का रवैया अपनाते हैं। ईश्वर की ओर लौटने के बजाय जब तक हम मजबूर नहीं होते या टूट नहीं जाते हैं तब तक शायद हम ईश्वर की ओर न लौटे। उडाऊँ पुत्र का व्यवहार हमें शिक्षा देता है कि जब हम जीवन में ईश्वर से दूर हो जायें तो यह कहने में “मैं उठकर अपने पिता के पास जाऊँगा...” देर न करें।

4. उडाऊँ पुत्र का अपने जीवन को सही मार्ग पर लाने का एकमात्र रास्ता पश्चातापी हृदय से अपने पिता के घर लौटने का था। इस बात को समझने में उसे बहुत कष्ट उठाना पडता है तथा समय लगता है। यदि हम ईश्वर से दूर है तो हमें भी पश्चाताप कर ईश्वर की ओर लौटना चाहिये क्योंकि बचने का यही एकमात्र उपाय है।

5. पिता का व्यवहार ईश्वर का मानव के प्रति दृष्टिकोण को प्रदर्शित करता है। जब पुत्र ने पिता से अलग हो जाना चाहा तो पिता ने यह जानते हुये भी कि पुत्र की मांग मर्यादा के अनुरूप नहीं है उसकी स्वतंत्रता के अनुसार निर्णय करने देता है।

6. जब पुत्र लौटता है तब वह पिता को उसका इंतजार करते हुये पाता है। पिता का उसे इस प्रकार दूर से ही देख लेना एक संयोग मात्र नहीं था बल्कि पिता रोजाना ही अपने पुत्र की राह देखता रहता था। ईश्वर भी हमारे लौटने के प्रति आशावादी है तथा हमारे सही मार्ग पर लौटने की प्रतीक्षा करते हैं।

7. पिता अपने पुत्र का बिना शर्त स्वागत करता है। वह उसे न तो डांटता है और न ही उसमें ग्लानि का भाव उत्पन्न कराने के लिए कुछ कहता है। बल्कि वह उसे पुत्र के रूप में स्वीकार कर उसका स्वागत करता है। वह उसे पुत्र के वस्त्र एवं अॅगूठी पुनः प्रदान कर उसे पहली जैसी गरिमा प्रदान करता है।

8. जब बडा लडका पिता के इस व्यवहार पर कडी आपत्ति उठाता है तथा घर में आने से इंकार कर देता है तो पिता अपनी उदारता न्यायोचित बताता है। वह बडे बेटे को मनाने के लिए बहाना नहीं बनाता बल्कि प्रदर्शित करता है कि पिता की उदारता पश्चातापी पुत्र के लिए सदैव बनी रहती है।


 -Br. Biniush Topno



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20 मार्च 2022, इतवार चालीसे का तीसरा इतवार


20 मार्च 2022, इतवार

चालीसे का तीसरा इतवार



पहला पाठ : निर्गमन 3:1-8,13-15


1) मूसा अपने ससुर, मिदयान के याजक, यित्रों की भेडें चराया करता था। वह उन्हें बहुत दूर तक उजाड़ प्रदेश में ले जा कर ईश्वर के पर्वत होरेब के पास पहुँचा।

2) वहाँ उसे झाड़ी के बीच में से निकलती हुई आग की लपट के रूप में प्रभु का दूत दिखाई दिया। उसने देखा कि झाड़ी में तो आग लगी है, किन्तु वह भस्म नहीं हो रही है।

3) मूसा ने मन में कहा कि यह अनोखी बात निकट से देखने जाऊँगा और यह पता लगाऊँगा कि झाड़ी भस्म क्यों नहीं हो रही है।

4) निरीक्षण करने के लिए उसे निकट आते देख कर ईश्वर ने झाड़ी के बीच में से पुकार कर उससे कहा, ''मूसा! मूसा!'' उसने उत्तर दिया, ''प्रस्तुत हूँ।''

5) ईश्वर ने कहा, ''पास मत आओ। पैरों से जूते उतार दो, क्योंकि तुम जहाँ खड़े हो, वह पवित्र भूमि है।''

6) ईश्वर ने फिर उस से कहा, ''मैं तुम्हारे पिता का ईश्वर हूँ, इब्राहीम, इसहाक तथा याकूब का ईश्वर।'' इस पर मूसा ने अपना मुख ढक लिया; कहीं ऐसा न हो कि वह ईश्वर को देख ले।

7) प्रभु ने कहा, ''मैंने मिस्र में रहने वाली अपनी प्रजा की दयनीय दशा देखी और अत्याचारियों से मुक्ति के लिए उसकी पुकार सुनी है। मैं उसका दुःख अच्छी तरह जानता हूँ।

8) मैं उसे मिस्रियों के हाथ से छुड़ा कर और इस देश से निकाल कर, एक समृद्ध तथा विशाल देश ले जाऊँगा, जहॉँ दूध तथा मधु की नदियाँ बहती हैं, जहाँ कनानी, हित्ती, अमोरी, परिज्जी, हिव्वी और यबूसी बसते हैं।

13) मूसा ने झाड़ी में से प्रभु की वाणी सुन कर उस से कहा, ''जब मैं इस्राएलियों के पास पहुँच कर उन से यह कहॅूँगा - तुम्हारें पूर्वजों के ईश्वर ने मुझे तुम्हारे पास भेजा है, और वे मुझ से पूछेंगे कि उसका नाम क्या है, तो मैं उन्हें क्या उत्तर दूँगा?''

14) ईश्वर ने मूसा से कहा, ''मेरा नाम सत् है। उसने फिर कहा, ''तुम इस्राएलियों को यह उत्तर दोगे जिसका नाम "सत्" है, उसी ने मुझे भेजा है।''

15) इसके बाद ईश्वर मूसा से कहा, ''तुम इस्राएलियों से यह कहोगे - प्रभु तुम्हारे पूर्वजों के ईश्वर, इब्राहीम, इसहाक तथा याकूब के ईश्वर ने मुझे तुम लोगों के पास भेजा है। यह सदा के लिए मेरा नाम रहेगा और यही नाम ले कर सब पीढ़ियॉँ मुझ से प्रार्थना करेंगी।



दूसरा पाठ : 1 कुरिन्थियों 10:1-6,10-12



1) भाइयो! मैं आप लोगों को याद दिलाना चाहता हूँ कि हमारे सभी बाप-दादे बादल की छाया में चले, सबों ने समुद्र पार किया,

2) और इस प्रकार बादल और समुद्र का बपतिस्मा ग्रहण कर सब-के-सब मूसा के सहभागी बने।

3) सबों ने एक ही आध्यात्मिक भोजन ग्रहण किया

4) और एक ही आध्यामिक पेय का पान किया; क्योंकि वे एक आध्यात्मिक चट्टान का जल पीते थे, जो उनके साथ-साथ चलती थी और वह चट्टान थी - मसीह।

5) फिर भी उन में अधिकांश लोग ईश्वर के कृपा पात्र नहीं बन सके और मरुभूमि में ढेर हो गये।

6) ये घटनाएँ हम को यह शिक्षा देती हैं कि हमें उनके समान बुरी चीजों का लालच नहीं करना चाहिए।

10) आप लोग नहीं भुनभुनायें, जैसा कि उन में कुछ भुनभुनाये और विनाशक दूत ने उन्हें नष्ट कर दिया।

11) यह सब दृष्टान्त के रूप में उन पर बीता और हमें चेतावनी देने के लिए लिखा गया है, जो युग के अन्त में विद्यमान है।

12) इसलिए जो यह समझता है कि मैं दृढ़ हूँ, वह सावधान रहे। कहीं ऐसा न हो कि वह विचलित हो जाये।



सुसमाचार : सन्त लूकस का सुसमाचार 13:1-9



1) उस समय कुछ लोग ईसा को उन गलीलियों के विषय में बताने आये, जिनका रक्त पिलातुस ने उनके बलि-पशुओं के रक्त में मिला दिया था।

2) ईसा ने उन से कहा, "क्या तुम समझते हो कि ये गलीली अन्य सब गलीलियों से अधिक पापी थे, क्योंकि उन पर ही ऐसी विपत्ति पड़ी?

3) मैं तुम से कहता हूँ, ऐसा नहीं है; लेकिन यदि तुम पश्चात्ताप नहीं करोगे, तो सब-के-सब उसी तरह नष्ट हो जाओगे।

4) अथवा क्या तुम समझते हो कि सिल़ोआम की मीनार के गिरने से जो अठारह व्यक्ति दब कऱ मर गये, वे येरुसालेम के सब निवासियों से अधिक अपराधी थे?

5) मैं तुम से कहता हूँ, ऐसा नहीं है; लेकिन यदि तुम पश्चात्ताप नहीं करोगे, तो सब-के-सब उसी तरह नष्ट हो जाओगे।"

6) तब ईसा ने यह दृष्टान्त सुनाया, "किसी मनुष्य की दाखबारी में एक अंजीर का पेड़ था। वह उस में फल खोजने आया, परन्तु उसे एक भी नहीं मिला।

7) तब उसने दाखबारी के माली से कहा, ’देखो, मैं तीन वर्षों से अंजीर के इस पेड़ में फल खोजने आता हूँ, किन्तु मुझे एक भी नहीं मिलता। इसे काट डालो। यह भूमि को क्यों छेंके हुए हैं?’

8) परन्तु माली ने उत्तर दिया, ’मालिक! इस वर्ष भी इसे रहने दीजिए। मैं इसके चारों ओर खोद कर खाद दूँगा।

9) यदि यह अगले वर्ष फल दे, तो अच्छा, नहीं तो इसे काट डालिएगा’।"



📚 मनन-चिंतन


मत्ती 4:17 के अनुसार, येसु ने अपना सार्वजनिक जीवन शुरू करते हुए कहा, “पश्चात्ताप करो। स्वर्ग का राज्य निकट आ गया है”। जब ईश्वर का राज्य निकट है, हमें उसे पश्चाताप के साथ अपनाना होगा। आज के सुसमाचार में येसु पश्चाताप की तात्कालिकता और आवश्यकता पर जोर देते हैं। प्रभु अपनी दया से हमें अपनी क्षमा प्रदान करते हैं। हमें अपने पश्चाताप के द्वारा ईश्वर की क्षमा को प्राप्त करना चाहिए। वे हमें चेतावनी देते हैं कि अगर हम पश्चात्ताप नहीं करेंगे, तो हमारा सर्वनाश होगा। स्कॉटिश इतिहासकार, आलोचक और समाजशास्त्रीय लेखक थॉमस कार्लाइल कहते हैं, "मनुष्य के सभी कृत्यों में पश्चाताप सबसे दिव्य है। सभी दोषों में सबसे बड़ा दोष किसी के प्रति सचेत न रहना है।" येसु हमें चेतावनी देते हैं कि यदि हम पश्चाताप नहीं करते हैं तो हमारा विनाश होना अनिवार्य है। संत योहन क्रिसोस्टॉम कहते हैं, "क्या आपने अपनी आत्मा को बूढ़ा बना दिया है? निराश न हों, हताश न हों, बल्कि पश्चाताप, और आँसू, और पाप-स्वीकार, और अच्छे कामों के द्वारा अपनी आत्मा को नवीनीकृत करें। और ऐसा करना कभी न छोड़ें।" वे यह भी कहते हैं, "पश्चाताप की बात करना पाप को नज़रअंदाज़ करना पसंद करने वाली आज की दुनिया में फैशन नहीं है, फिर भी हम जो मसीह के हैं, इस बात की गवाही दे सकते हैं कि पश्चाताप - क्षमा और स्वतंत्रता का मार्ग है। यह वह कुंजी है जो ईश्वर की दया को खोल देती है! पश्चात्ताप करने का आह्वान हमेशा पहले स्वयं को संबोधित किया जाता है, क्योंकि हम सभी लोगों को लगातार गहरे परिवर्तन की आवश्यकता होती है।”



📚 REFLECTION



According to Mt 4:17, Jesus began his public ministry preaching, “Repent, for the kingdom of heaven has come near”. While the kingdom of God is near, one has to approach it with repentance. In today’s Gospel, Jesus emphasizes the urgency and necessity of repentance. God in his mercy offers his forgiveness to us. We need to receive this forgiveness by our repentance. He warns, “unless you repent, you will all likewise perish”. The Scottish historian, critic, and sociological writer Thomas Carlyle says, “Of all acts of man repentance is the most divine. The greatest of all faults is to be conscious of none.” Jesus warns us that if we do not repent what awaits us is destruction. St. John Chrysostom says, “Have you made your soul old? Do not despair, do not despond, but renew your soul by repentance, and tears, and Confession, and by doing good things. And never cease doing this.” He also says, “To speak of repentance is not fashionable today in a world that prefers to ignore sin, yet we who belong to Christ can testify that repentance is the way to forgiveness and freedom. It is the key that unlocks the mercy of God! The call to repentance is always addressed to ourselves first, since all of us are continually in need of deeper conversion.”



मनन-चिंतन -2


ईश्वर की इच्छा किसी को भी नष्ट करने की नहीं है। वे सभी से प्रेम करते हैं तथा उन्हें बचाना चाहते हैं क्योंकि सबकुछ का सृष्टिकर्ता ईश्वर ही है। किन्तु यदि मनुष्य अपने पाप के मार्ग पर हठी बन जाता है और अपने जीवन को ईश्वर के इच्छानुसार नहीं सुधार पाता है तो उसका विनाश निश्चित हो जाता है। किन्तु उसके अंत से पहले ईश्वर सभी को सुधरने या सकारात्मक बदलाव लाने का अवसर देते हैं।

आज के सुसमाचार में ईसा विभिन्न घटनाओं द्वारा ईश्वर की चेतावनी तथा बचने के अवसरों को बताते हैं। पिलातुस ने कुछ गलीलियों का रक्त बलि-पशुओं के रक्त के साथ मिला दिया था। इस घटना ने यहूदियों को हिला दिया था। यहूदियों में यह धारणा थी कि यदि किसी के जीवन में कुछ बीमारी, असमय या आकस्मिक मृत्यु, विपत्ति आती थी तो इसका कारण उसके या उसके पूर्वजों के पाप रहे होंगे। यहूदियों की सोच की इस पृष्ठभूमि को समझ कर प्रभु उनसे पूछते हैं, “क्या तुम समझते हो कि ये गलीली अन्य सब गलीलियों से अधिक पापी थे, क्योंकि उन पर ही ऐसी विपत्ति पड़ी? मैं तुम से कहता हूँ, ऐसा नहीं है लेकिन यदि तुम पश्चात्ताप नहीं करोगे, तो सब-के-सब उसी तरह नष्ट हो जाओगे।” इसका तात्पर्य है उन मरे गलीलियों से अधिक पापी लोग भी वहाँ जीवित थे जिन्हें ईश्वर बदलने का अवसर प्रदान करते हैं। अपने इसी सिद्धांत को अधिक स्पष्ट करते हुये येसु आगे सिलोआम की मीनार गिरने की दुर्घटना जिसमें दबकर अठारह व्यक्ति मर गये थे का जिक्र करते हुये भी इसी सच्चाई को दोहराते हैं कि जो मर गये वे अधिक पापी नहीं थे और जो जीवित हैं वे अधिक नेक लोग नहीं है। जीवितों को पश्चाताप का मार्ग अपनाते हुये जीवन बदलना चाहिए अन्यथा उनका अंत भी बुरा होगा। हरेक व्यक्ति अपने जीवन के प्रति उत्तरदायी है तथा उसके कर्मों का परिणाम उसे भी भुगतना पडेगा। संत पौलुस हमें समझाते हैं – “हम सबों को मसीह के न्यायासन के सामने पेश किया जायेगा। प्रत्येक व्यक्ति ने शरीर में रहते समय जो कुछ किया है, चाहे वह भलाई हो या बुराई, उसे उसका बदला चुकाया जायेगा।” (2 कुरिन्थियों 5:10)

कई बार हम भ्रष्ट, अन्यायी, कुकर्मी व्यक्तियों को फलते-फूलते देखते हैं तो सोचते हैं जो वे कर रहे हैं उसका परिणाम उन्हें भुगतना नहीं पडेगा। उनके फलते-फूलते दिन वास्तव में ईश्वर द्वारा प्रदान वह अवधि है जिसमें वे चाहे तो अपने कुकर्मों को त्याग कर सच्चाई का मार्ग अपना सकते हैं। यदि वे ऐसा नहीं करते तो अचानक ही विपति एवं मृत्यु का दिन उन पर आ पडता है और वे नष्ट हो जाते हैं।

कई बार हम दूसरों के जीवन की विपत्ति को देखकर सोचते हैं कि वे अपने कर्मों का फल भोग रहे हैं। यह शायद सच भी हो लेकिन इसी दौरान हमें भी अपने जीवन का अवलोकन करना चाहिये तथा दूसरों की विपत्ति से सीख लेकर अपने जीवन की बुराईयों को हटाना चाहिये।

फलहीन अंजीर को काटने के आदेश पर माली कहता है, “मालिक! इस वर्ष भी इसे रहने दीजिए। मैं इसके चारों ओर खोद कर खाद दूँगा। यदि यह अगले वर्ष फल दे, तो अच्छा, नहीं तो इसे काट डालिएगा’।” माली की इस प्रकार अंजीर के पेड को बचाने की गुहार वास्तव में ईश्वर की सोच है, हर उस व्यक्ति के लिए है जो अपने जीवन को व्यर्थ ही जी रहा है।

यदि हम भी अपने फलहीन जीवन में फल उत्पन्न करना चाहते हैं तो माली के समान हमें भी जीवन को उपजाऊ बनाने के लिये विभिन्न प्रयत्न करने चाहिये। फलदायी बनने के लिए येसु के कहते हैं, “मैं दाखलता हूँ और तुम डालियाँ हो। जो मुझ में रहता है और मैं जिसमें रहता हूँ वही फलता है क्योंकि मुझ से अलग रहकर तुम कुछ भी नहीं कर सकते।” (योहन 15:5) येसु के साथ एक हो जाने से तात्पर्य है हमें येसु की शिक्षाओं से एकमत होकर उनके अनुसार जीवन जीना चाहिये। जो व्यक्ति अपने जीवन को ईश्वचन के अनुसार ढालता है वह अधिक फलताफूलता है। प्रभु स्वयं यह वादा करते हैं – “यदि तुम मुझ में रहो और तुम में मेरी शिक्षा बनी रहती है तो चाहे जो माँगो, वह तुम्हें दिया जायेगा।” आइये हम भी अपने जीवन को फलदायी बनाये तथा येसु की शिक्षा को अपनाये।


 -Br. Biniush Topno


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13 मार्च 2022, इतवार चालीसे का दूसरा इतवा

 

13 मार्च 2022, इतवार 

चालीसे का दूसरा इतवार



पहला पाठ : उत्पत्ति 15:5-12, 17-18


5) ईश्वर ने अब्राम को बाहर ले जाकर कहा, ''आकाश की और दृष्टि लगाओ और सम्भव हो, तो तारों की गिनती करो''। उसने उस से यह भी कहा, ''तुम्हारी सन्तति इतनी ही बड़ी होगी''।

6) अब्राम ने ईश्वर में विश्वास किया और इस कारण प्रभु ने उसे धार्मिक माना।

7) प्रभु ने उस से कहा, ''मैं वही प्रभु हूँ, जो तुम्हें इस देश का उत्तराधिकारी बनाने के लिए खल्दैयों के ऊर नामक नगर से निकाल लाया था।''

8) अब्राम ने उत्तर दिया, ''प्रभु! मेरे ईश्वर! मैं यह कैसे जान पाऊँगा कि इस पर मेरा अधिकार हो जायेगा?''

9) प्रभु ने कहा, ''तीन वर्ष की कलोर, तीन वर्ष की बकरी, तीन वर्ष का मेढा, एक पाण्डुक और एक कपोत का बच्चा यहाँ ले आना''।

10) अब्राम ये सब ले आया। उसने उनके दो-दो टुकड़े कर दिये और उन टुकड़ों को आमने-सामने रख दिया, किन्तु पक्षियों के दो-दो टुकड़े नहीं किये।

11) गीध लाशों पर उतर आये, किन्तु अब्राम ने उन्हें भगा दिया।

12) जब सूर्य डूबने पर था, तो अब्राम गहरी नींद में सो गया और उस पर आतंक छा गया।

17) सूर्य डूबने तथा गहरा अन्धकार हो जाने पर एक धुँआती हुई अंगीठी तथा एक जलती हुई मशाल दिखाई पड़ी, जो जानवरों के उन टुकडों के बीच से होते हुए आगे निकल गयीं।

18) उस दिन प्रभु ने यह कह कर अब्राम के लिए विधान प्रकट किया, मैं मिस्त्र की नदी से लेकर महानदी अर्थात् फ़रात नदी तक का यह देश तुम्हारे वंशजों को दे देता हूँ।


दूसरा पाठ : फिलिप्पियो 3:17-4:1


3:17) भाईयो! आप सब मिल कर मेरा अनुसरण करें। मैंने आप लोगों को एक नमूना दिया। इसके अनुसार चलने वालों पर ध्यान देते रहें;

18) क्योंकि जैसा कि मैं आप से बार-बार कह चुका हूँ और अब रोते हुए कहता हूँ, बहुत-से लोग ऐसा आचरण करते हैं कि मसीह के क्रूस के शत्रु बन जाते हैं।

19) उनका सर्वनाश निश्चित है। वे भोजन को अपना ईश्वर बना लेते हैं और ऐसी बातों पर गर्व करते हैं, जिन पर लज्जा करनी चाहिए। उनका मन संसार की चीजों में लगा हुआ है।

20) हमारा स्वदेश तो स्वर्ग है और हम स्वर्ग से आने वाले मुक्तिदाता प्रभु ईसा मसीह की राह देखते रहते हैं।

21) वह जिस सामर्थ्य द्वारा सब कुछ अपने अधीन कर सकते हैं, उसी के द्वारा वह हमारे तुच्छ शरीर का रूपान्तरण करेंगे और उसे अपने महिमामय शरीर के अनुरूप बना देंगे।

4:1) इसीलिए मेरे प्रिय भाइयो, प्रभु में इस तरह दृढ़ रहिए। प्रिय भाइयो! मुझे आप लोगों से मिलने की बड़ी इच्छा है। आप मेरे आनन्द और मेरे मुकुट हैं।


सुसमाचार : सन्त लूकस का सुसमाचार 9:28-36


28) इन बातों के करीब आठ दिन बाद ईसा पेत्रुस, योहन और याकूब को अपने साथ ले गये और प्रार्थना करने के लिए एक पहाड़ पर चढ़े।

29) प्रार्थना करते समय ईसा के मुखमण्डल का रूपान्तरण हो गया और उनके वस्त्र उज्जवल हो कर जगमगा उठे।

30) दो पुरुष उनके साथ बातचीत कर रहे थे। वे मूसा और एलियस थे,

31) जो महिमा-सहित प्रकट हो कर येरुसालेम में होने वाली उनकी मृत्यु के विषय में बातें कर रहे थे।

32) पेत्रुस और उसके साथी, जो ऊँघ रहे थे, अब पूरी तरह जाग गये। उन्होंने ईसा की महिमा को और उनके साथ उन दो पुरुषों को देखा।

33) वे विदा हो ही रहे थे कि पेत्रुस ने ईसा से कहा, "गुरूवर! यहाँ होना हमारे लिए कितना अच्छा है! हम तीन तम्बू खड़ा कर दें- एक आपके लिए, एक मूसा और एक एलियस के लिए।" उसे पता नहीं था कि वह क्या कह रहा है।

34) वह बोल ही रहा था कि बादल आ कर उन पर छा गया और वे बादल से घिर जाने के कारण भयभीत हो गये।

35) बादल में से यह वाणी सुनाई पड़ी, "यह मेरा परमप्रिय पुत्र है। इसकी सुनो।"

36) वाणी समाप्त होने पर ईसा अकेले ही रह गये। शिष्य इस सम्बन्ध में चुप रहे और उन्होंने जो देखा था, उस विषय पर वे उन दिनों किसी से कुछ नहीं बोले।


📚 मनन-चिंतन


रूपान्तरण शिष्यों के सबसे मनोरम अनुभवों में से एक था। वर्षों बाद संत पेत्रुस ने कहा, “जब हमने आप लोगों को अपने प्रभु ईसा मसीह के सामर्थ्य तथा पुनरागमन के विषय में बताया, तो हमने कपट-कल्पित कथाओं का सहारा नहीं लिया, बल्कि अपनी ही आंखों से उनका प्रताप उस समय देखा, जब उन्हें पिता-परमेश्वर के सम्मान तथा महिमा प्राप्त हुई और भव्य ऐश्वर्य में से उनके प्रति एक वाणी यह कहती हुई सुनाई पड़ी, "यह मेरा प्रिय पुत्र है। मैं इस पर अत्यन्त प्रसन्न हूँ।" (2 पेत्रुस 1:16-18)। संत योहन के पत्र में भी इस घटना के स्थायी प्रभाव की एक प्रतिध्वनि है। वे कहते हैं, “हमारा विषय वह शब्द है, जो आदि से विद्यमान था। हमने उसे सुना है। हमने उसे अपनी आंखों से देखा है। हमने उसका अवलोकन किया और अपने हाथों से उसका स्पर्श किया है। वह शब्द जीवन है और यह जीवन प्रकट किया गया है। यह शाश्वत जीवन, जो पिता के यहाँ था और हम पर प्रकट किया गया है- हमने इसे देखा है, हम इसके विषय में साक्ष्य देते ओर तुम्हें इसका सन्देश सुनाते हैं। हमने जो देखा और सुना है, वही हम तुम लोगों को भी बताते हैं, जिससे तुम हमारे साथ पिता और उस के पुत्र ईसा मसीह के जीवन के सहभागी बनो। (1योहन 1:1-3) रूपान्तरण का यह अनुभव चेलों को उन कष्टों का सामना करने हेतु मज़बूत करने के लिए था, जिनसे येसु गुज़रने वाले थे। प्रभु ईश्वर का अनुभव हमें अपनी परेशानियों तथा मुसीबतों के समय सशक्त बनायें।




📚 REFLECTION

Transfiguration was one of the most captivating experiences of the disciples. Years later St. Peter said, “For we did not follow cleverly devised myths when we made known to you the power and coming of our Lord Jesus Christ, but we had been eyewitnesses of his majesty. For he received honor and glory from God the Father when that voice was conveyed to him by the Majestic Glory, saying, “This is my Son, my Beloved, with whom I am well pleased.” We ourselves heard this voice come from heaven, while we were with him on the holy mountain.” (2Pet 1:16-18). In St. John’s writings too we have an echo of the lasting impact of this event. He says, “We declare to you what was from the beginning, what we have heard, what we have seen with our eyes, what we have looked at and touched with our hands, concerning the word of life— this life was revealed, and we have seen it and testify to it, and declare to you the eternal life that was with the Father and was revealed to us— we declare to you what we have seen and heard so that you also may have fellowship with us; and truly our fellowship is with the Father and with his Son Jesus Christ.” (1Jn 1:1-3) This experience of transfiguration was meant to strengthen the disciples on the face of the sufferings Jesus was about to undergo. Let the experience of God strengthen our life especially in our difficulties.


मनन-चिंतन - 2


हम अपने जीवन में आश्वासन चाहते हैं। यदि हमें किसी से कोई आशा है तो उसका कारण हमारा पूर्व का संतोषप्रद अनुभव होगा। कई बार हम आशाहीन भी हो जाते हैं। इसका कारण भी हमारा पूर्व का कटु अनुभव होगा। बैंक जब ऋण देता है तो वह भी वापसी के आशा में गारंटी के रूप में कुछ भरोसेमंद आश्वासन चाहता है। इस प्रकार हम अपने जीवन में आश्वासन चाहते हैं कि कोई हमारे साथ है या जो हम कर रहे हैं वह सही दिशा में उठाये कदम है। आज के पहले पाठ में पिता इब्राहिम भी ईश्वर से उनकी प्रतिज्ञाओं के प्रति कुछ आश्वासन चाहते हैं। ईश्वर ने जो प्रतिज्ञा उन से की थी वह मानव दृष्टिकोण से लगभग असंभव प्रतीत होती है। ’’आकाश की और दृष्टि लगाओ और सम्भव हो, तो तारों की गिनती करो। ....तुम्हारी सन्तति इतनी ही बड़ी होगी।’’ इब्राहिम जो बुढा तथा निसंतान था किन्तु विश्वास का धनी था ईश्वर पर अविश्वास नहीं करता किन्तु केवल आश्वासन चाहता है जिसके बल पर वह प्रतिज्ञा के पूर्ण हो जाने तक विश्वासी तथा दृढ बना रहे। सृष्टिकर्ता ईश्वर जिनके लिये कुछ भी असंभव नहीं है इब्राहिम को आश्वासन के रूप में ’’धुँआती हुई अंगीठी तथा एक जलती हुई मशाल’’ के रूप में इब्राहिम के बलिदान के बीच से होकर गुजरते हैं।

ईश्वर अपने भक्तों को निराश नहीं करते और बाइबिल में अनेक स्थानों पर हम पाते हैं कि वे अपनी उपस्थिति तथा चिन्हों द्वारा उन्हें आश्वांवित कर उनकी हौसला अफजाई करते हैं। निर्गमन ग्रंथ में मूसा भी प्रभु से आश्वासन चाहते हैं। ’’यदि मैं सचमुच तेरा कृपापात्र हूँ, तो मुझे अपना मार्ग दिखला, जिससे मैं तुझे जान सकूँ और तेरा कृपापात्र बना रहूँ। ....हम यह कैसे जान सकेंगे कि मैं और तेरे ये लोग तेरे कृपापात्र हैं? यदि तू हमारे साथ नहीं चलता, तो मैं और तेरे ये लोग पृथ्वी के अन्य सब लोगों से कैसे विशिष्ट समझे जायेंगे?..., ’’मुझे अपनी महिमा दिखाने की कृपा कर।’ मैं अपनी सम्पूर्ण महिमा के साथ तुम्हारे सामने से निकल जाऊँगा और तुम पर अपना ’प्रभु’ नाम प्रकट करूँगा। मैं जिनके प्रति कृपालु हूँ, उन पर कृपा करूँगा और जिनके प्रति दयालू हूँ, उन पर दया करूँगा। .....तुम एक चट्टान पर खड़े हो सकते हो। और जब तक तुम्हारे सामने से मेरी महिमा नहीं निकल जायेगी, तब तक मैं तुम्हें चट्टान की दरार में रखूँगा और तुम्हारे सामने से निकलते समय अपने हाथ से तुम्हारी रक्षा करूँगा।’’ (देखिए निर्गमन 33:13-22) इस प्रकार ईश्वर मूसा को आश्वांवित करते तथा उसके मिशन को प्रमाणित भी करते हैं।

जब ईश्वर का दूत गिदओन से मिदयानियों से युद्ध पर जाने तथा उसे विजय का आश्वासन देता हैं तो गिदओन भी ईश्वर से आश्वासन चाहते हुये निवेदन करता है, ’’यदि मुझ पर आपकी कृपा दृष्टि हो, तो मुझे एक ऐसा चिन्ह दीजिए, जिससे मैं जान सकूँ कि आप ही मुझ से बोल रहे हैं। आप कृपया यहाँ से तब तक न जायें, जब तक मैं आपके पास न लौट आऊँ। मैं अपना चढ़ावा ले कर आऊँगा और आपके सामने रखूँगा।’’ .....प्रभु के दूत ने उस से कहा, ’’मांस और रोटियाँ वहाँ चट्टान पर रखो और उन पर शोरबा उँड़ेल दो’’। उसने यही किया। तब प्रभु के दूत ने अपने हाथ का डण्डा बढ़ा कर उसके सिरे से मांस और बेखमीर रोटियों को स्पर्श किया। इस पर चट्टान से आग निकली, जिसने मांस और बेखमीर रोटियों को भस्म कर दिया और प्रभु का दूत गिदओन की आँख से ओझल हो गया। तब गिदओन समझ गया कि वह प्रभु का दूत था और उसने कहा, ’’हाय! प्रभु-ईश्वर! मैंने प्रभु के दूत को आमने-सामने देखा है।’’ (देखिए न्यायकताओं 6:17-22)

नबी एलियाह शक्तिशाली तथा साहसिक नबी थे। उन्होंने ईश्वर के लिए लोगों के सामने निडर होकर गवाही दी तथा चमत्कारिक कार्य किये। किन्तु एक मोड पर वे थक-हार जाते हैं। वे ईज़ेबेल की मौत की धमकी से डरकर भयभीत हो जाते हैं। ’’इस से एलियाह भयभीत हो गया और अपने प्राण बचाने के लिय यूदा के बएर-शेबा भाग गया। वहाँ उसने अपने सेवक को छोड़ दिया और वह मरुभूमि में एक दिन का रास्ता तय कर एक झाड़ी के नीचे बैठ गया और यह कह कर मौत के लिए प्रार्थना करने लगा, ‘‘प्रभु! बहुत हुआ। मुझे उठा ले, क्योंकि मैं अपने पुरखों से अच्छा नहीं हूँ।’’ (1 राजाओं 19:3-4)

किन्तु ईश्वर अपने सेवक को नहीं भूलता है। वे स्वर्गदूत को भेज कर उन्हें ढाढस बंधाते हुये कहते हैं, ‘‘उठिए और खाइए, नहीं तो रास्ता आपके लिए अधिक लम्बा हो जायेगा’’। एलियाह भोजन कर चालीस दिन और चालीस रात चल कर ईश्वर के पर्वत होरेब पहुँचा। वहॉ पर उसे अंत में ईश्वर के दर्शन हुये। “....तब प्रभु उसके सामने से हो कर आगे बढ़ा। प्रभु के आगे-आगे एक प्रचण्ड आँधी चली - पहाड़ फट गये और चट्टानें टूट गयीं, किन्तु प्रभु आँधी में नहीं था। आँधी के बाद भूकम्प हुआ, किन्तु प्रभु भूकम्प में नहीं था। भूकम्प के बाद अग्नि दिखाई पड़ी, किन्तु प्रभु अग्नि में नहीं था। अग्नि के बाद मन्द समीर की सरसराहट सुनाई पड़ी। एलियाह ने यह सुनकर अपना मुँह चादर से ढक लिया और वह बाहर निकल कर गुफा के द्वार पर खड़ा हो गया। तब उसे एक वाणी यह कहते हुए सुनाई पड़ी, “एलियाह! तुम यहाँ क्या कर रहे हो?“ (1 राजाओं 19:1-13) इस प्रकार ईश्वर के दर्शन पाकर एलियाह पुनः उत्साहित हो जाता है।

इस प्रकार ईश्वर दाऊद, मनोअह (देखिए न्यायकर्ताओं 13:2-23), दानिएल (दानिएल 14:37-39), स्तेफनुस (प्रेरित चरित 7:55-60), संत पौलुस (2 कुरिन्थियों 12:1-10) सुलेमान (1 राजाओं 3:5-12) आदि अनेकानेक भक्तों को अपनी उपस्थिति या चिन्ह द्वारा आश्वासन एवं सहायता प्रदान करता है। आज का सुसमाचार भी येसु तथा उनके शिष्यों पेत्रुस, योहन और याकूब के लिए भावी दुखःभोग के होने तथा उस दौरान साहसी एवं विश्वासी बने रहने का आश्वासन था। पिता परमेश्वर येसु को अपना प्रिय पुत्र घोषित कर उन्हें भी आश्वासन देते हैं तथा येसु इस दृश्य के द्वारा अपने इन तीन शिष्यों को भविष्य के दुःखभोग तथा कू्रसमरण से उदास एवं हताश नहीं होने के लिए आश्वांवित करते हैं।

हमारे जीवन में भी कठिन अवसर आते हैं। ऐसे मौको पर हम निराश एवं हताश हो उठते हैं। हम भी आशा और दिलासे के लिए इधर-उधर देखते हैं। हमारा विश्वास भी शायद हिल जाता है। हमें पवित्र बाइबिल में दिये इन उदाहरणों से सीखना चाहिये तथा ईश्वर से उसके संरक्षण, सानिध्य तथा सामिप्य की गुहार लगाना चाहिये। ईश्वर हमें कभी भी निराश नहीं करेंगे। बाइबिल के आदर्शों एवं उदाहरणों के अनुसार ईश्वर हमें उनकी उपस्थिति की कृपा प्रदान करेंगे। यह प्रभु का वचन है जो कहता है “उनके दुहाई देने से पहले ही, मैं उन्हें उत्तर दूँगा; उनकी प्रार्थना पूरी होने से पहले ही, मैं उसे स्वीकार करूँगा।“ (इसायाह 65:24)


 -Br. Biniush Topno


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Praise the Lord!

06 मार्च 2022, इतवार चालीसा काल का पहला इतवार

 

06 मार्च 2022, इतवार

चालीसा काल का पहला इतवार



📒 पहला पाठ : विधि-विवरण 26:4-10


4) "याजक तुम्हारे हाथ से टोकरी ले कर उसे तुम्हारे प्रभु-ईश्वर की वेदी के सामने रख देगा।

5) तब तुम लोग अपने प्रभु-ईश्वर के सामने यह कहोगे, ’हमारे पूर्वज अरामी यायावर थे। जब वे शरण लेने के लिए मिस्र देश में बसने आये, तो थोड़े थे; किन्तु वे वहाँ एक शक्तिशाली बहुसंख्यक तथा महान् राष्ट्र बन गये।

6) मिस्र के लोग हमें सताने, हम पर अत्याचार करने और हम को कठोर बेगार में लगाने लगे।

7) तब हमने प्रभु की, अपने पूर्वजों के ईश्वर की, दुहाई दी। प्रभु ने हमारी दुर्गति, दुःख-तकलीफ़ तथा हम पर किया जाने वाला अत्याचार देख कर हमारी पुकार सुन ली।

8) आतंक फैला कर और चिन्ह तथा चमत्कार दिखा कर प्रभु ने अपने बाहुबल से हमें मिस्र से निकाल लिया।

9) उसने हमें यहाँ ला कर यह देश, जहाँ दूध अैर मधु की नदियाँ बहती हैं, दे दिया।

10) प्रभु! तूने मुझे जो भूमि दी है, उसकी फ़सल के प्रथम फल मैं तुझे चढ़ा रहा हूँ - यह कह कर तुम उन्हें अपने प्रभु-ईश्वर के सामने रखोगे और अपने प्रभु-ईश्वर को दण्डवत् करोगे।



📒 दूसरा पाठ : रोमियों 10:8-13



8) किन्तु धर्मग्रन्थ क्या कहता है?- वचन तुम्हारे पास ही हैं, वह तुम्हारे मुख में और तुम्हारे हृदय में है। यह विश्वास का वह वचन है जिसका हम प्रचार करते हैं।

9) क्योंकि यदि आप लोग मुख से स्वीकार करते हैं कि ईसा प्रभु हैं और हृदय से विश्वास करते हैं कि ईश्वर ने उन्हें मृतकों में से जिलाया, तो आप को मुक्ति प्राप्त होगी।

10) हृदय से विश्वास करने पर मनुष्य धर्मी बनता है और मुख से स्वीकार करने पर उसे मुक्ति प्राप्त होती है।

11) धर्मग्रन्थ कहता है, "जो उस पर विश्वास करता है, उसे लज्जित नहीं होना पड़ेगा"।

12) इसलिए यहूदी और यूनानी और यूनानी में कोई भेद नहीं है- सबों का प्रभु एक ही है। वह उन सबों के प्रति उदार है, जो उसकी दुहाई देते है;

13) क्योंकि जो प्रभु के नाम की दुहाई देगा, उसे मुक्ति प्राप्त होगी।


📒 सुसमाचार : सन्त लूकस का सुसमाचार 4:1-13


1) ईसा पवित्र आत्मा से परिपूर्ण हो कर यर्दन के तट से लौटे। उस समय आत्मा उन्हें निर्जन प्रदेश ले चला।

2) वह चालीस दिन वहाँ रहे और शैतान ने उनकी परीक्षा ली। ईसा ने उन दिनों कुछ भी नहीं खाया और इसके बाद उन्हें भूख लगी।

3) तब शैतान ने उन से कहा, "यदि आप ईश्वर के पुत्र हैं, तो इस पत्थर से कह दीजिए कि यह रोटी बन जाये"।

4) परन्तु ईसा ने उत्तर दिया, "लिखा है-मनुष्य रोटी से ही नहीं जीता है"।

5) फिर शैतान उन्हें ऊपर उठा ले गया और क्षण भर में संसार के सभी राज्य दिखा कर

6) बोला, "मैं आप को इन सभी राज्यों का अधिकार और इनका वैभव दे दूँगा। यह सब मुझे दे दिया गया है और मैं जिस को चाहता हूँ, उस को यह देता हूँ।

7) यदि आप मेरी आराधना करें, तो यह सब आप को मिल जायेगा।"

8) पर ईसा ने उसे उत्तर दिया, "लिखा है-अपने प्रभु-ईश्वर की आराधना करो और केवल उसी की सेवा करो"।

9) तब शैतान ने उन्हें येरुसालेम ले जा कर मन्दिर के शिखर पर खड़ा कर दिया और कहा, "यदि आप ईश्वर के पुत्र हैं, तो यहाँ से नीचे कूद जाइए;

10) क्योंकि लिखा है-तुम्हारे विषय में वह अपने दूतों को आदेश देगा कि वे तुम्हारी रक्षा करें

11) और वे तुम्हें अपने हाथों पर सँभाल लेंगे कि कहीं तुम्हारे पैरों को पत्थर से चोट न लगे"।

12) ईसा ने उसे उत्तर दिया, "यह भी कहा है-अपने प्रभु-ईश्वर की परीक्षा मत लो"।

13) इस तरह सब प्रकार की परीक्षा लेने के बाद शैतान, निश्चित समय पर लौटने के लिए, ईसा के पास से चला गया।


📚 मनन-चिंतन


येसु अपने स्वर्गिक पिता द्वारा दिए गए कार्य में उतरने ही वाले थे। इसके लिए उन्हें तत्काल तैयारियाँ करने की जरूरत थी। इसलिए वे चालीस दिन और चालीस रात निर्जनस्थान में बिताते हैं। यह उनके लिए एक महत्वपूर्ण समय था। यह जानते हुए कि येसु ईश्वर की योजना का सावधानीपूर्वक पालन करने जा रहे हैं, शैतान उनका ध्यान सांसारिक आकर्षणों की ओर लगाने की कोशिश करता है। वह येसु को वह सब कुछ प्रदान करने का वादा करता है जो संसार दे सकता है - सांसारिक धन, नाम, शक्ति और पद। येसु की पहचान ईश्वर के पुत्र के रूप में है। शैतान परोक्ष रूप से उन्हें ईश्वर के पुत्र होने की पहचान और पिता के साथ उनके संबंध को नकारने के लिए उनके ऊपर दबाव डाल रहा था। हम प्रभु की संतान हैं। हर प्रलोभन में, शैतान इस पहचान और प्रभु के साथ हमारे रिश्ते पर सवाल उठाता है। पाप के द्वारा हम ईश्वर की संतान के रूप में अपनी पहचान को धीरे-धीरे भूल जाते हैं और अंत में छोड़ देते हैं। इस प्रकार हम शैतान की संतान बन जाते हैं। जब येसु प्रत्येक प्रलोभन पर विजय प्राप्त करते हैं, तो वे अपनी पहचान पर भी जोर देते हैं। हमें ईश्वर की सन्तान होने की अपनी पहचान को पुनः स्थापित करने के लिए ईश्वर की सहायता लेना चाहिए।



📚 REFLECTION



Jesus was about to plunge into the task given by His heavenly Father. He needed to make the immediate preparations for it. He therefore spends 40 days and 40 nights in the desert. This was a crucial time for him. Knowing that Jesus was going to meticulously follow the plan of God, devil tries to divert his attention to worldly attractions. He offers Jesus whatever the world can offer – earthly wealth, name, power and position. Jesus has an identity as the Son of God. The devil was indirectly forcing him to deny that identity of being the Son of God and his relationship with the Father. We are the children of God. In every temptation, devil questions this identity and our relationship with God. By sin we gradually forget and forego our identity as the children of God and become children of devil. When Jesus overcomes each temptation, he asserts his identity too. We need to seek the assistance of God to reassert our identity of being the children of God.



📚 मनन-चिंतन-2



प्रवक्ता ग्रंथ अध्याय 2 वाक्य 1 में पवित्र वचन कहता है, “पुत्र! यदि तुम प्रभु की सेवा करना चाहते हो, तो परीक्षा का सामना करने को तैयार हो जाओ।” प्रभु येसु कहते है, “प्रलोभन अनिवार्य है।” (लूकस 17:1) इनसे यह अभिप्राय है कि परीक्षा या प्रलोभन जीवन के अनिवार्य अंग हैं। लेकिन हम किस तरह इन प्रलोभनों का सामना करते हैं हमारे विश्वास की गहराई को अभिव्यक्त करते हैं।

जीवन में हम निर्णय लेते हैं। हम अनेक बातों को ध्यान में रखकर उस बात का चयन करते हैं जो नैतिक तथा आध्यात्मिक दृष्टि से उचित हो। यदि हम नैतिकता का ध्यान नहीं रखेंगे तो हमारे निर्णय तत्कालीन तौर पर शायद लाभदायक प्रतीत हो सकते हैं, किन्तु लम्बे समय में वे हमें दुख देने लगेंगे। इसलिये जीवन में निर्णय लेते समय हमें ईश्वर की शिक्षा या आज्ञाओं का ध्यान रखना चाहिये। पवित्र बाइबिल में प्रथम प्रश्न शैतान ने हेवा से यह कहते हुये किया था, “क्या ईश्वर ने सचमुच तुम को मना किया कि वाटिका के किसी वृक्ष का फल मत खाना”? शैतान के इस प्रकार पूछने से हेवा भी संशय में पड गयी तथा उससे वार्तालाप करने लगी जिसकी परिणिति पाप में होती है। यदि हेवा ने शैतान के धूर्ततापूर्ण प्रश्नों पर ध्यान नहीं दिया होता तो शायद उसकी सोच पाप की ओर नहीं जाती। आज के सुसमाचार में हम पढ़ते हैं कि शैतान येसु से भी प्रश्न करता है। किन्तु हेवा के विपरीत येसु शैतान की बातों के जंजाल में नहीं फंसते बल्कि उसे सटीक उत्तर देकर खाली हाथ लौटा देते हैं। शैतान येसु को तीन प्रलोभन देता है।

“यदि आप ईश्वर के पुत्र हैं, तो इस पत्थर से कह दीजिए कि यह रोटी बन जाये”। इस्राएलियों ने मरूभूमि में रोटी को लेकर ही ईश्वर की परीक्षा ली तथा निंदा की थी, “उन्होंने....इस प्रकार ईश्वर की परीक्षा ली। उन्होंने ईश्वर की निन्दा करते हुए यह कहा, “क्या ईश्वर मरूभूमि में हमारे लिए भोजन का प्रबन्ध कर सकता है?” (स्तोत्र 78:18-19) लेकिन येसु जो आत्मा से परिपूर्ण है अपने जीवन के लिए भौतिक रोटी पर निर्भर नहीं करते बल्कि पिता की इच्छा को अपना भोजन मानते है। ‘‘जिसने मुझे भेजा, उसकी इच्छा पर चलना और उसका कार्य पूरा करना, यही भेरा भोजन है”। (योहन 4:8) इसके अलावा भी येसु को रोटी देने वाले तो उनके पिता है। वे जब चाहे पिता उन्हें यह रोटी प्रदान कर सकते हैं। उन्हें शैतान के कहने या उसे दिखाने के लिए ऐसा करने की आवश्यकता नहीं थी। येसु शैतान को यह कहकर, “लिखा है - मनुष्य रोटी से ही नहीं जीता है।” निरूत्तर कर देते हैं।

इसके बाद “शैतान उन्हें ऊपर उठा ले गया और क्षण भर में संसार के सभी राज्य दिखा कर बोला, ’मैं आप को इन सभी राज्यों का अधिकार और इनका वैभव दे दूँगा। यह सब मुझे दे दिया गया है और मैं जिस को चाहता हूँ, उस को यह देता हूँ। यदि आप मेरी आराधना करें, तो यह सब आप को मिल जायेगा।’ यहूदी केवल एक ही ईश्वर में विश्वास करते थे। ईश्वर की दस आज्ञाओं में प्रथम आज्ञा यही है कि, “मैं प्रभु तुम्हारा ईश्वर हूँ।... मेरे सिवा तुम्हारा कोई ईश्वर नहीं होगा।” (निर्गमन 20:2-3) ईश्वर को छोड किसी अन्य देवता पर विश्वास करना, उसकी आराधना करना इस्राएलियों के लिए घनघोर पाप था। “....क्योंकि मैं प्रभु, तुम्हारा ईश्वर, ऐसी बातें सहन नहीं करता.....मैं तीसरी और चौथी पीढ़ी तक उनकी सन्तति को उनके अपराधों का दण्ड देता हूँ।” (निर्गमन 20:5)

अतीत में जब भी इस्रालिएयों ने इस प्रथम आज्ञा को भंग किया तो ईश्वर ने उन्हें घोर दण्ड भी दिया, यहॉ तक कि उनके देश का विभाजन तथा उनसे उनका निष्काशन भी हो गया। येसु के लिए इस प्रलोभन का कोई मूल्य या महत्व नहीं था क्योंकि वे स्वयं पिलातुस को कहते हैं, “मेरा राज्य इस संसार का नहीं हैं।” (योहन 18:36) येसु के लिए पिता परमेश्वर को छोड और कोई ईश्वर नहीं था इसलिये वचन के माध्यम से वे शैतान को पुनः निरूत्तर कर देते हैं, “लिखा है-अपने प्रभु-ईश्वर की आराधना करो और केवल उसी की सेवा करो।”

शैतान येसु को तीसरी बार उनकी शक्ति-परीक्षण करने का प्रलोभन देता है। “तब शैतान ने उन्हें येरुसालेम ले जा कर मन्दिर के शिखर पर खड़ा कर दिया और कहा, ’यदि आप ईश्वर के पुत्र हैं, तो यहाँ से नीचे कूद जाइए क्योंकि लिखा है - तुम्हारे विषय में वह अपने दूतों को आदेश देगा कि वे तुम्हारी रक्षा करें और वे तुम्हें अपने हाथों पर सँभाल लेंगे कि कहीं तुम्हारे पैरों को पत्थर से चोट न लगे”। कोई भी व्यक्ति पहाड या इमारत से कूदने का इच्छुक नहीं हो सकता तो प्रभु येसु के लिए भी कूदना कोई प्रलोभन नहीं था। लेकिन परीक्षा कूदने की नहीं यह देखने की थी उनका अब्बा पिता जो उनके लिये पूर्व प्रंबध करता हैं उन्हें बचायेगा या नहीं।

कई बार हमारे जीवन में हम कुछ बातों या प्रार्थनाओं को सशर्त करते हैं जैसे यदि ऐसा हो जायेगा तो मैं जान जाऊँगा कि ईश्वर मेरे साथ है या ईश्वर सचमुच मेरी प्रार्थना सुनता है। इस प्रकार की सशर्त प्रार्थना या निवेदन जो ’यदि’, ’अगर’, ’ऐसा हो जाये तो’, ’किन्तु’ ’परन्तु’ आदि योजक-शब्दों पर निर्भर है ईश्वर की परीक्षा लेने के समान ही है।

जब होलोफेरनिस ने बेतूलिया नगर की घेराबंदी की थी तो लोगों में घबराहट एवं हताशा थी तब उज्जीया ने कहा, ’भाइयो! ढारस रखो। हम पाँच दिन और ठहरेंगे। इस बीच प्रभु, हमारा ईश्वर अवश्य ही हम पर दया करेगा, क्योंकि वह हमें अन्त तक नहीं छोड़ेगा। यदि इस अवधि में हमें सहायता प्राप्त नहीं होगी, तो मैं तुम्हारा कहना मानूँगा।” (यूदीत 7:30:31) इस प्रकार ईश्वर के लिए सशर्त समयबद्ध बातें ईश्वर की परीक्षा लेने के समान ही थी। यूदीत उन्हें लताडते हुये कहती है, “बेतूलियावासियों के नेताओ!... आपने प्रभु को साक्षी बना कर शपथ खायी है कि यदि प्रभु, हमारे ईश्वर ने निश्चित अवधि तक हमारी सहायता नहीं की, तो आप नगर हमारे शत्रुओं के हाथ दे देंगे। आप कौन होते हैं, जो आपने आज ईश्वर की परीक्षा ली और जो मनुष्यों के बीच ईश्वर का स्थान लेते हैं?.... यदि वह पाँच दिन के अन्दर हमें सहायता देना नहीं चाहता, तो वह जितने दिनों के अन्दर चाहता है, वह हमारी रक्षा करने में अथवा हमारे शत्रुओं द्वारा हमारा विनाश करवाने में समर्थ है। आप हमारे प्रभु-ईश्वर को निर्णय के लिए बाध्य करने का प्रयत्न मत कीजिए, क्योंकि ईश्वर को मनुष्य की तरह डराया या फुसलाया नहीं जा सकता।” (यूदीत 8:11-12,15-16) यूदीत की बातों से स्पष्ट है कि प्रलोभन की जो प्रक्रिया शैतान अपनाता है वह ईश्वर की परीक्षा लेने की थी इसलिये येसु भी उसे निरूत्तर करते हुये कहते हैं, “यह भी कहा है - अपने प्रभु-ईश्वर की परीक्षा मत लो”।


 -Br. Biniush Topno


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