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08 जनवरी 2022, शनिवार

 

08 जनवरी 2022, शनिवार

प्रभु-प्रकाश पर्व के बाद का शनिवार

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पहला पाठ : 1 योहन 5:14-21

14) हमें ईश्वर पर यह भरोसा है कि यदि हम उसकी इच्छानुसार उस से कुछ भी मांगते हैं, तो वह हमारी सुनता है।

15) यदि हम यह जानते हैं कि हम जो भी मांगे, वह हमारी सुनता है, तो हम यह भी जानते हैं कि हमने जो कुछ मांगा है, वह हमें मिल गया है।

16) यदि कोई अपने भाई को ऐसा पाप करते देखता है, जो प्राणघातक न हो, तो वह उसके लिए प्रार्थना करे और ईश्वर उसका जीवन सुरक्षित रखेगा। यह उन लोगों पर लागू है, जिनका पाप प्राणघातक नहीं है; क्योंकि एक पाप ऐसा भी होता है जो प्राणघातक है। उसके विषय में मैं नहीं कहता कि प्रार्थना करनी चाहिए।

17) हर अधर्म पाप है, किन्तु हर पाप प्राणघातक नहीं है।

18) हम जानते हैं कि ईश्वर की सन्तान पाप नहीं करती। ईश्वर का पुत्र उसकी रक्षा करता है और वह दुष्ट के वंश में नहीं आती।

19) हम जानते हैं कि हम ईश्वर के हैं, जबकि समस्त संसार दुष्ट के वश में है।

20) हम जानते हैं कि ईश्वर का पुत्र आया है और उसने हमें सच्चे ईश्वर को पहचानने का विवेक दिया है। हम सच्चे ईश्वर में निवास करते हैं; क्योंकि हम उसके पुत्र ईसा मसीह में निवास करते हैं। यही सच्चा ईश्वर और अनन्त जीवन है।

21) बच्चो! असत्य देवताओं से अपने को बचाये रखो।


सुसमाचार : योहन 3:22-30


22) इसके बाद ईसा अपने शिष्यों के साथ यहूदिया प्रदेश आये और वहाँ उनके साथ रहे। वे बपतिस्मा देते थे।

23) योहन भी सलीम के निकट एनोन में बपतिस्मा दे रहा था, क्योंकि वहाँ बहुत पानी था। लोग वहाँ आ कर बपतिस्मा ग्रहण करते थे।

24) योहन उस समय तक गिरफ़्तार नहीं हुआ था।

25) योहन के शिष्यों और यहूदियों में शुद्धीकरण के विषय में विवाद छिड़ गया।

26) उन्होंने योहन के पास जा कर कहा, "गुरुवर! देखिए, जो यर्दन के उस पार आपके साथ थे और जिनके विषय में आपने साक्ष्य दिया, वह बपतिस्मा देते हैं और सब लोग उनके पास जाते हैं"।

27) योहन ने उत्तर दिया, "मनुष्य को वही प्राप्त हो सकता हे, जो उसे स्वर्ग की ओर से दिया जाये।

28) तुम लोग स्वयं साक्षी हो कि मैंने यह कहा, ‘मैं मसीह नहीं हूँ’। मैं तो उनका अग्रदूत हूँ।

29) वधू वर की ही होती है; परन्तु वर का मित्र, जो साथ रह कर वर को सुनता है, उसकी वाणी पर आनन्दित हो उठता है। मेरा आनन्द ऐसा ही है और अब वह परिपूर्ण है।

30) यह उचित है कि वे बढ़ते जायें और मैं घटता जाऊँ।"


📚 मनन-चिंतन


जब संत योहन बपतिस्ता ने येसु की बढ़ती हुई प्रसिद्धि के बारे में सुना, तो उन्होंने कहा, "वह बढ़ता जाये और मैं घटता जाऊँ”। उनके इस बयान में उनकी विनम्रता झलकती है। विनम्रता महानों का गुण है। कोई आश्चर्य नहीं कि येसु ने योहन बपतिस्ता के बारे में कहा, "मैं तुम से कहता हूँ, मनुष्यों में योहन बपतिस्ता से बड़ा कोई नहीं।" (लूकस 7:28)। हम मरियम, जोसेफ, मूसा, दाऊद और उन सभी में नम्रता का गुण देख सकते हैं जिन्होंने ईमानदारी से प्रभु की सेवा की। प्रवक्ता 3:17 में सभी लोगों के लिए एक सलाह है, "पुत्र! नम्रता से अपना व्यवसाय करो और लोग तुम्हें दानशील व्यक्ति से भी अधिक प्यार करेंगे।।” संत पौलुस कहते हैं, "आप दलबन्दी तथा मिथ्याभिमान से दूर रहें। हर व्यक्ति नम्रतापूर्वक दूसरों को अपने से श्रेष्ठ समझे।" (फिलिप्पियों 2:3)



📚 REFLECTION



When John the Baptist heard about the increasing fame of Jesus, he said, “He must increase, but I must decrease”. His humility becomes evident in this statement. Humility is a quality of the great. No wonder Jesus said about him, “I tell you, among those born of women no one is greater than John” (Lk 7:28). We can see the virtue of humility in Mary, Joseph, Moses, David and all who served the Lord faithfully. In Sir 3:17 we have an advice for everyone, “My child, perform your tasks with humility; then you will be loved by those whom God accepts.” St. Paul says, “Do nothing from selfish ambition or conceit, but in humility regard others as better than yourselves.” (Phil 2:3)


📚 मनन-चिंतन -02


आज का सुसमाचार हमारे समक्ष योहन बप्तिस्ता की विनम्रता का चित्र प्रस्तुत करता है। वह ऐसे स्थान पर बपतिस्मा दे रहे थे जहाँ बहुत सारे लोगों का आना-जाना लगा रहता था, इसलिए उनके पास बहुत सारे लोग बपतिस्मा ग्रहण करने के लिए आते थे। वह उनके ज्वलंत शब्दों को सुनकर बेचैन हो जाते थे। ना केवल सन्त योहन के वचनों से बल्कि उनके सादा जीवन से भी बहुत अधिक प्रभावित होते थे। वह जो प्रवचन देते थे उसका अपने जीवन में पालन भी करते थे, इसलिए बहुत सारे लोग उनके वचन सुनने के लिए उमड़ पड़ते थे। उनके भी अनेक शिष्य थे, और कुछ लोगों ने तो उन्हें गुरुवर कहकर पुकारना भी शुरू कर दिया था। किसी भी व्यक्ति को इतना सम्मान और उपलब्धि मिलने के बाद उसके मन में घमण्ड और अहंकार का जन्म लेना स्वाभाविक है, जो बाद में घृणा एवं ईर्ष्या जैसी नकारात्मक भावनाओं को जन्म देते हैं।

लेकिन हम देखते हैं कि योहन बप्तिस्ता इस तरह की नकारात्मक शक्तियों से अछूते रहते हैं, उन्हें अपनी वास्तविक पहचान मालूम है। लोग उन्हें चाहे जैसे भी बुलाएँ या कैसा भी सम्मान दें, उन्हें यह अच्छी तरह मालूम था कि वह केवल ईश्वर के मेमने की ओर इंगित करने वाला चिन्ह मात्र था। लोग चिन्ह अथवा संकेत को ही अपनी मंज़िल ना समझ लें। इसलिए वह उन्हें याद दिलाते हैं, “मैं मसीह नहीं हूँ लेकिन उनके आगे भेजा हुआ दूत हूँ,,,वह बढ़ते जाएँ और मैं घटता जाऊँ।” क्या मैं स्वयं के सम्मान के लिए कार्य करता हूँ या ईश्वर की महिमा के लिए? क्या मैं चाहता हूँ कि मुझमें और मेरे परिवार में ईश्वर बढ़ता जाए?



📚 REFLECTION


Today’s gospel witnesses before us about the humility of the John the Baptist. He was baptising in a place where lots of people could come, and so many people came to him and were baptised. They listened to his burning words that could stir their hearts. They were deeply impressed not only by his bold words but also by his life style. He practised what he preached and had always people around him to listen to him. He had a circle of disciples, some people even gave him the title of Rabbi. After getting such honour and achievement, pride and ego can creep in easily, which can give birth to other negative feelings like hatred and jealousy.

But we see John is untouched by these negative forces, he is well aware of his identity. Whatever people call him or in whichever way they treat him, he was well aware that he was only sign which indicated towards the lamb of God. People should not confuse the sign or indicator with the destination. So he reminds them “I am not messiah but I have been sent ahead of him…he must increase but I must decrease.” Do I seek self glory or glory of God? Do I want God to increase in me and my family?


 -Br. Biniush Topno


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Praise the Lord!

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