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शुक्रवार, 01 अक्टूबर, 2021

 

शुक्रवार, 01 अक्टूबर, 2021

वर्ष का छ्ब्बीसवाँ सामान्य सप्ताह

लिस्यु की संत तेरेसा -अनिवार्य स्मृति

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पहला पाठ : इसायाह का ग्रन्थ 66:10-14


10) “येरूसालेम के साथ आनन्द मनाओ। तुम, जो येरूसालेम को प्यार करते हो, उसके कारण उल्लास के गीत गाओ। तुम, जो उसके लिए विलाप करते थे, उसके कारण आनन्दित हो जाओ,

11) जिससे तुम उसकी संतान होने के नाते सान्त्वना का दूध पीते हुए तृप्त हो जाओ और उसकी गोद में बैठ कर उसकी महिमा पर गौरव करो“;

12) क्योंकि प्रभु यह कहता है, “मैं शान्ति को नदी की तरह और राष्ट्रों की महिमा को बाढ़ की तरह येरूसालेम की ओर बहा दूँगा। उसकी सन्तान को गोद में उठाया और घुटनों पर दुलारा जायेगा।

13) जिस तरह माँ अपने पुत्र को दिलासा देती है, उसी तरह मैं तुम्हें सान्त्वना दूँगा। तुम्हें येरूसालेम से दिलासा मिलेगा।“

14) तुम्हारा हृदय यह देख कर आनन्दित हो उठेगा, तुम्हारा हड्डियाँ हरी-भरी घास की तरह लहलहा उठेंगी। प्रभु अपने सेवकों के लिए अपना सामर्थ्य, किंतु अपने शत्रुओं पर अपना क्रोध प्रदर्शित करेगा।


दूसरा पाठ :कुरिन्थियों के नाम सन्त पौलुस का पहला पत्र 13:4-13


4) प्रेम सहनशील और दयालु है। प्रेम न तो ईर्ष्या करता है, न डींग मारता, न घमण्ड, करता है।

5) प्रेम अशोभनीय व्यवहार नहीं करता। वह अपना स्वार्थ नहीं खोजता। प्रेम न तो झुंझलाता है और न बुराई का लेखा रखता है।

6) वह दूसरों के पाप से नहीं, बल्कि उनके सदाचरण से प्रसन्न होता है।

7) वह सब-कुछ ढाँक देता है, सब-कुछ पर विश्वास करता है, सब-कुछ की आशा करता है और सब-कुछ सह लेता है।

8) भविष्यवाणियाँ जाती रहेंगी, भाषाएँ मौन हो जायेंगी और ज्ञान मिट जायेगा, किन्तु प्रेम का कभी अन्त नहीं होगा;

9) क्योंकि हमारा ज्ञान तथा हमारी भविष्यवाणियाँ अपूर्ण हैं

10) और जब पूर्णता आ जायेगी, तो जो अपूर्ण है, वह जाता रहेगा।

11) मैं जब बच्चा था, तो बच्चों की तरह बोलता, सोचता और समझता था; किन्तु सयाना हो जाने पर मैंने बचकानी बातें छोड़ दीं।

12) अभी तो हमें आईने में धुँधला-सा दिखाई देता है, परन्तु तब हम आमने-सामने देखेंगे। अभी तो मेरा ज्ञान अपूर्ण है; परन्तु तब मैं उसी तरह पूर्ण रूप से जान जाऊँगा, जिस तरह ईश्वर मुझे जान गया है।

13) अभी तो विश्वास, भरोसा और प्रेम-ये तीनों बने हुए हैं। किन्तु उनमें प्रेम ही सब से महान् हैं।


सुसमाचार : सन्त मत्ती 18:1-4


1) उस समय शिष्य ईसा के पास आ कर बोले, ’’स्वर्ग के राज्य में सबसे बड़ा कौन है?’’

2) ईसा ने एक बालक को बुलाया और उसे उनके बीच खड़ा कर

3) कहा, ’’मैं तुम लोगों से यह कहता हूँ- यदि तुम फिर छोटे बालकों-जैसे नहीं बन जाओगे, तो स्वर्ग के राज्य में प्रवेश नहीं करोगे।

4) इसलिए जो अपने को इस बालक-जैसा छोटा समझता है, वह स्वर्ग के राज्य में सबसे बड़ा है।


📚 मनन-चिंतन


शिष्य अक्सर महानता के प्रश्न के बारे में चिंतित रहते थे। ऐसा लगता है कि वे यह प्रश्न यह सोचकर पूछते हैं कि येसु ने उनमें से एक को पहले ही सबसे महान के रूप में चुन लिया है, या मानो वे चाहते हैं कि येसु ये निर्णय लें। वे आपस में बहस करते थे कि कौन सबसे बड़ा है। शिष्य जानना चाहते थे कि येसु के प्रशासन में सर्वोच्च पद कौन धारण करेगा। उन्होंने सम्मान तथा पद के सांसारिक साम्राज्य का सपना देखा।

येसु ने उनसे कहा कि जब तक तुम छोटे बच्चे जैसे नहीं बन जाते, तब तक तुम राज्य में प्रवेश नहीं करोगे। यह शायद शिष्यों के लिए एक बड़ी निराशा की बात थी। बच्चों का समाज में कोई स्थान नहीं था। उन्हें जिम्मेदारी और संपत्ति के रूप में अधिक माना जाता था। येसु ने कहा कि हमें राज्य में प्रवेश करने के लिए इस प्रकार की विनम्रता की जगह लेनी होगी, राज्य में महानतम की बात को तो छोड़ ही दें।

बच्चे धमकाते नहीं हैं; लोग अँधेरे में भी उनसे मिलने से नहीं डरते। येसु एक ऐसे व्यक्ति थे जिनसे लोग मिलने से नहीं डरते थे। उनकी उपस्थिति खतरनाक नहीं थी। बच्चे वास्तव में धोखा भी नहीं देते। येसु भी कभी धोखा धडी की बात नहीं करते थे। येसु चाहते है कि हमारा स्वाभाव भी ऐसा बने।

येसु एक गैर-भ्रामक व्यक्ति थे। बच्चों की तरह, येसु नम्रता के एक आदर्श उदाहरण थे और सामाजिक स्थिति के बारे में बेफिक्र थे। बच्चे विनम्र होने की कोशिश नहीं करते हैं क्योंकि वे ऐसे होते ही हैं। चार्ल्स स्पर्जन इसे खूबसूरती से कहते हैं, "विनम्रता की नकल बीमार करती है; किन्तु वास्तविकता आकर्षक है।"

एक व्यक्ति जो वास्तव में राज्य में सबसे महान था वह येसु मसीह है। इसका अर्थ है कि येसु स्वयं एक छोटे बच्चे की तरह विनम्र थे। उन्हें अपनी हैसियत की चिंता नहीं थी। उन्हें ध्यान का केंद्र नहीं बनना था। वे धोखेबाज नहीं थे और उसके पास जाने से डर नहीं लगता था।

इसलिए, जब येसु ने उन्हें बच्चों की तरह बनने के लिए कहा, तो वह वास्तव में उन्हें अपने जैसा बनने के लिए कह रहे थे।



📚 REFLECTION



The disciples were often concerned about the question of greatness. They seem to ask this question thinking that Jesus has already chosen one of them as greatest, or as if they wanted Jesus to decide among them. They used to argue among themselves about which one was the greatest. The disciples wanted to know who would hold the highest position in the administration Jesus would soon establish. They dreamt of honours and offices, a worldly empire, the kingdoms of the earth.

Jesus told them that unless they become as little children you would not enter the kingdom. This was probably a great disappointment to the disciples. Children were no one in the society. They were regarded more as responsibility and property than individuals. Jesus said we have to take this kind of humble place to enter the kingdom, leave alone the greatest in the kingdom.

Children are not threatening; people are not afraid of meeting them even in the dark. Jesus was someone people were not afraid to meet. His presence was non-threatening. Children really do not deceive.

Jesus was such a non-deceptive person. Like children Jesus was an ideal example of humility and was unconcerned for social status. Children do not try to be humble but they are so. Charles Spurgeon beautifully puts it, “The imitation of humility is sickening; the reality is attractive.”

The one Man who was actually the greatest in the kingdom is Jesus Christ. This means that Jesus Himself was humble like a little child. He was not concerned about his own status. He did not have to be the center of attention. He was not deceptive and He didn’t have an intimidating presence.

So, when Jesus tells them to became like children, he was in fact telling them to be like him.



मनन-चिंतन - 2


प्रभु येसु अपने वचनों से प्रमाणित करते हैं कि स्वर्गराज्य के मापदंड और इस दुनिया के मापदंड में ज़मीन-आसमान का फ़रक है। जो इस दुनिया के सामने बड़े होते हैं, वे स्वर्गराज्य में बडे नहीं होते हैं। आशीर्वचनों (मत्ती 5:1-8) तथा अमीर और लाज़रूस के दृष्टान्त (लूकस 16:19-31) में यह बात हमारे सामने आती है। इसी बात को आगे बढ़ाते हुए प्रभु एक बालक को शिष्यों के बीच खड़ा कर कहते हैं, “मैं तुम लोगों से यह कहता हूँ- यदि तुम फिर छोटे बालकों-जैसे नहीं बन जाओगे, तो स्वर्ग के राज्य में प्रवेश नहीं करोगे। इसलिए जो अपने को इस बालक-जैसा छोटा समझता है, वह स्वर्ग के राज्य में सबसे बड़ा है।” बच्चे मासूम होते हैं। वे बड़ी जिज्ञासा रखते हैं। वे सब कुछ जानना चाहते हैं। वे सभी प्रकार के ज्ञान के लिए अपने हृदय तथा अपने मन-मस्तिष्क को खुले रखते हैं। वे अपने विरुध्द किये गये अपराधों को जल्दी ही भूल जाते हैं। ये सब गुण आध्यात्मिकता में आगे बढ़ने के लिए विश्वासियों की सहायता करते हैं।




Jesus testifies with his words that the yardsticks of the Kingdom of God and the yardsticks of the world are entirely different. Those who are great in the eyes of the world are small in the Kingdom of God and vice versa. In the beatitudes (cf. Mt 5:1-8) and in the parable of the rich man and Lazarus (Lk 16:19-31) this matter becomes clear to us. Taking this teaching further, Jesus makes a child stand in the midst of the disciples and tells them, “unless you change and become like little children you will never enter the kingdom of Heaven. And so, the one who makes himself as little as this little child is the greatest in the kingdom of Heaven.” Children are innocent. They are eager to know and learn. They keep their heart and the mind open to all types of knowledge. They easily forget the offences committed against them. All these qualities are indubitably helpful to the disciples of Christ.


 -Br. Biniush Topno


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गुरुवार, 30 सितम्बर, 2021 वर्ष का छ्ब्बीसवाँ सामान्य सप्ताह

 

गुरुवार, 30 सितम्बर, 2021

वर्ष का छ्ब्बीसवाँ सामान्य सप्ताह

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पहला पाठ : नहेम्या का ग्रन्थ 8:1-12


1) समस्त इस्राएली जलद्वार के सामने के चैक में एकत्र हुए और उन्होंने एज़्रा से निवेदन किया कि वह प्रभु द्वारा इस्राएल को प्रदत्त मूसा की संहिता का ग्रन्थ ले आये।

2) पुरोहित एज्ऱा सभा में संहिता का ग्रन्थ ले आया। सभा में पुरुष, स्त्रियाँ और समझ सकने वाले बालक उपस्थित थे। यह सातवें मास का पहला दिन था।

3) उसने सबेरे से ले कर दोपहर तक जलद्वार के सामने के चैक में स्त्री-पुरुषों और समझ सकने वाले बालकों को ग्रन्थ पढ़ कर सुनाया। सब लोग संहिता का ग्रन्थ ध्यान से सुनते रहे।

4) शास्त्री एज़ा विशेष रूप से तैयार किये हुए लकड़ी के मंच पर खड़ा था। उसकी दाहिनी और मत्तित्या, शेमा, अनाया, ऊरीया, हिलकीया और मासेया थे और उसकी बायीं ओर पदाया, मीशाएल, मलकीया, हाशुम, हशबद्दाना, ज़कर्या और मशुल्लाम थे।

5) एज्ऱा लोगों से ऊँची जगह पर था। उसने सबों के देखने में ग्रन्थ खोल दिया। जब ग्रन्थ खोला गया, तो सारी जनता उठ खड़ी हुई।

6) तब एज्ऱा ने प्रभु, महान् ईश्वर का स्तुतिगान किया और सब लोगों ने हाथ उठा कर उत्तर दिया, "आमेन, आमेन!" इसके बाद वे झुक गये और मुँह के बल गिर कर उन्होंने प्रभु को दण्डवत् किया।

7) इसके बाद येशूआ, बानी, शेरेब्या, यामीन, अक्कूब, शब्बतय, होदीया, मासेया, कलीटा, अज़र्या, योज़ाबाद, हानान और पलाया, इन लेवियों ने लोगों को संहिता का अर्थ समझाया और वे खड़े हो कर सुनते रहे।

8) उन्होंने ईश्वर की संहिता का ग्रन्थ पढ़ कर सुनाया, इसका अनुवाद किया और इसका अर्थ समझाया, जिससे लोग पाठ समझ सकें।

9) इसके बाद राज्यपाल, नहेम्या, याजक तथा शास्त्री एज़्रा और लोगों को समझाने वाले लेवियों ने सारी जनता से कहा, "यह दिन तुम्हारे प्रभु-ईश्वर के लिए पवित्र है। उदास हो कर मत रोओ"; क्योंकि सब लोग संहिता का पाठ सुन कर रोते थे।

10) तब एज्ऱा ने उन से कहा, "जा कर रसदार मांस खाओ, मीठी अंगूरी पी लो और जिसके लिए कुछ नहीं बन सका, उसके पास एक हिस्सा भेज दो; क्योंकि यह दिन हमारे प्रभु के लिए पवित्र है। उदास मत हो। प्रभु के आनन्द में तुम्हारा बल है।"

11) लेवियों ने यह कहते हुए लोगों को शान्त कर दिया, "शान्त रहो, क्योंकि यह दिन पवित्र है। उदास मत हो।"

12) तब सब लोग खाने-पीने गये। उन्होंने दूसरों के पास हिस्से भेज दिये और उल्लास के साथ आनन्द मनाया; क्योंकि उन्होंने अपने को दी हुई शिक्षा को समझा था।



सुसमाचार : लूकस 10:1-12


1) इसके बाद प्रभु ने अन्य बहत्तर शिष्य नियुक्त किये और जिस-जिस नगर और गाँव में वे स्वयं जाने वाले थे, वहाँ दो-दो करके उन्हें अपने आगे भेजा।

2) उन्होंने उन से कहा, "फ़सल तो बहुत है, परन्तु मज़दूर थोड़े हैं; इसलिए फ़सल के स्वामी से विनती करो कि वह अपनी फ़सल काटने के लिए मज़दूरों को भेजे।

3) जाओ, मैं तुम्हें भेडि़यों के बीच भेड़ों की तरह भेजता हूँ।

4) तुम न थैली, न झोली और न जूते ले जाओ और रास्तें में किसी को नमस्कार मत करो।

5) जिस घर में प्रवेश करते हो, सब से पहले यह कहो, ’इस घर को शान्ति!’

6) यदि वहाँ कोई शान्ति के योग्य होगा, तो उस पर तुम्हारी शान्ति ठहरेगी, नहीं तो वह तुम्हारे पास लौट आयेगी।

7) उसी घर में ठहरे रहो और उनके पास जो हो, वही खाओ-पियो; क्योंकि मज़दूर को मज़दूरी का अधिकार है। घर पर घर बदलते न रहो।

8) जिस नगर में प्रवेश करते हो और लोग तुम्हारा स्वागत करते हैं, तो जो कुछ तुम्हें परोसा जाये, वही खा लो।

9) वहाँ के रोगियों को चंगा करो और उन से कहो, ’ईश्वर का राज्य तुम्हारे निकट आ गया है’।

10) परन्तु यदि किसी नगर में प्रवेश करते हो और लोग तुम्हारा स्वागत नहीं करते, तो वहाँ के बाज़ारों में जा कर कहो,

11 ’अपने पैरों में लगी तुम्हारे नगर की धूल तक हम तुम्हारे सामने झाड़ देते हैं। तब भी यह जान लो कि ईश्वर का राज्य आ गया है।’

12) मैं तुम से यह कहता हूँ - न्याय के दिन उस नगर की दशा की अपेक्षा सोदोम की दशा कहीं अधिक सहनीय होगी।


मनन-चिंतन


आज के सुसमाचार में पुनः प्रभु येसु अपने बहत्तर शिष्यों को दो-दो करके ईश्वर का राज्य सुनाने और चंगाई करने भेजते हुये कहते है मै तुम्हें भेड़ियों के बीच भेड़ों की तरह भेजता हॅूं। भेडिया एक खूंखार जंगली जानवर है वहीं भेड़ निर्मल निर्दोष जानवर है। प्रभु को मालूम था कि संसार में लोग भेडियें के समान है इस पर भी वे अपने शिष्यों को भेड़ियों के समान नही परंतु एक भेड़ के समान भेजते है। संसार में कहावत है लोहा लोहे को काटता है अर्थात् अगर हमें दुश्मन को हराना है तो हमें उसके समान या उससे भी अधिक शक्तिशाली बनना है। परंतु प्रभु का दूसरा नजरियॉं है- प्रभु जानते थे कि नफरत से नफरत को नहीं हराया जा सकता, शत्रुता को शत्रुता से नहीं हराया जा सकता, कोध्र को कोध्र से नहीं हराया जा सकता परंतु दुश्मन को प्रेम से दोस्त बनाया जा सकता है जो अत्याचार करते है उनके लिए प्रार्थना करके उनको उनके पापो से बचाया जा सकता है। इसलिए वे उन्हें भेड़ के समान बिना संसारिक चीज़ों पर आश्रित हुये संसार में भेजते है क्योंकि देने वाला तो ईश्वर है।



📚 REFLECTION


In today’s gospel Jesus once again sends his 72 disciples two by two to proclaim God’s Kingdom and to heal by saying to them. Go on your way. See, I am sending you out like lambs into the midst of wolves. Wolf is a ravaneous animal whereas lamb is a simple and innocent animal. Jesus knew that people in the world be like the wolves even then also he sends his disciples not as a wolf but as a lamb. There is a saying in the world that Iron cuts iron that means to say if we want to defeat an enemy then we have to become strong like him or even stronger than him. But Jesus had different view- He knew that hatred cannot be defeated by hatred, enimity cannot be defeated by enemity, anger cannot be defeated by anger but an enemy can become a friend by love and those who persecute us can be saved from their sins by praying for them. That is why he sends them in the world without depending on the things of the world because the provider is God himself.


 -Br. Biniush Topno


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बुधवार, 29 सितम्बर, 2021 संत मिखाएल, गाब्रिएल और रफाएल - महादूत

 

बुधवार, 29 सितम्बर, 2021
संत मिखाएल, गाब्रिएल और रफाएल - महादूत

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पहला पाठ : दानिएल 7:9-10, 13-14



9) मैं देख ही रहा था कि सिंहासन रख दिये गये और एक वयोवृद्ध व्यक्ति बैठ गया। उसके वस्त्र हिम की तरह उज्जवल थे और उसके सिर के केश निर्मल ऊन की तरह।

10) उसका सिंहासन ज्वालाओं का समूह था और सिहंासन के पहिये धधकती अग्नि। उसके सामने से आग की धारा बह रही थी। सहस्रों उसकी सेवा कर रहे थे। लाखों उसके सामने खड़े थे। न्याय की कार्यवाही प्रारंभ हो रही थी। और पुस्तकें खोल दी गयीं।

13) तब मैंने रात्रि के दृश्य में देखा कि आकाश के बादलों पर मानवपुत्र-जैसा कोई आया। वह वयोवृद्ध के यहाँ पहुँचा और उसके सामने लाया गया।

14) उसे प्रभुत्व, सम्मान तथा राजत्व दिया गया। सभी देश, राष्ट्र और भिन्न-भिन्न भाषा-भाषी उसकी सेवा करेंगे। उसका प्रभुत्व अनन्त है। वह सदा ही बना रहेगा। उसके राज्य का कभी विनाश नहीं होगा।



अथवा - पहला पाठ : प्रकाशना 12:7-12अ


7) तब स्वर्ग में युद्ध छिड़ गया। मिखाएल और उसके दूतों को पंखदार सर्प से लड़ना पड़ा। पंखदार सर्प और उसके दूतों ने उनका सामना किया,

8) किन्तु वे नहीं टिक सके। और स्वर्ग में उनके लिए कोई स्थान नहीं रहा।

9) तब वह विशालकाय पंखदार सर्प वह पुराना सांप, जो इबलीस या शैतान कहलाता और सारे संसार को भटकाता है- अपने दूतों के साथ पृथ्वी पर पटक दिया गया।

10) मैंने स्वर्ग में किसी को ऊँचे स्वर से यह कहते सुना, ’अब हमारे ईश्वर की विजय, सामर्थ्य तथा राजत्व और उसके मसीह का अधिकार प्रकट हुआ है; क्योंकि हमारे भाइयों का वह अभियोक्ता नीचे गिरा दिया गया है, जो दिन-रात ईश्वर के सामने उस पर अभियोग लगाया करता था।

11) "वे मेमने के रक्त और अपने साक्ष्य के द्वारा उस पर विजयी हुए, क्योंकि उन्होंने अपने जीवन का मोह छोड़ कर मृत्यु का स्वागत किया;

12) "इसलिए स्वर्ग और उसके निवासी आनन्द मनायें। किन्तु धिक्कार तुम्हें, ऐ पृथ्वी और समुद्र! क्योंकि शैतान, यह जान कर कि मेरा थोड़ा समय ही शेष है, तीव्र क्रोध के आवेश में तुम पर उतर आया है।"



सुसमाचार :योहन 1:47-51



47) ईसा ने नथानाएल को अपने पास आते देखा और उसके विषय में कहा, "देखो, यह एक सच्चा इस्राएली है। इस में कोई कपट नहीं।"

48) नथानाएल ने उन से कहा, "आप मुझे कैसे जानते हैं?" ईसा ने उत्तर दिया, "फिलिप द्वारा तुम्हारे बुलाये जाने से पहले ही मैंने तुम को अंजीर के पेड़ के नीचे देखा"।

49) नथानाएल ने उन से कहा, "गुरुवर! आप ईश्वर के पुत्र हैं, आप इस्राएल के राजा हैं"।

50) ईसा ने उत्तर दिया, "मैंने तुम से कहा, मैंने तुम्हें अंजीर के पेड़ के नीचे देखा, इसीलिए तुम विश्वास करते हो। तुम इस से भी महान् चमत्कार देखोगे।"

51) ईसा ने उस से यह भी कहा, "मैं तुम से यह कहता हूँ- तुम स्वर्ग को खुला हुआ और ईश्वर के दूतों को मानव पुत्र के ऊपर उतरते-चढ़ते हुए देखोगे"।



मनन-चिंतन


आज हम महादूतों- संत मिखाएल, गाब्रिएल और रफाएल का पर्व मनाते है। दूतगण दिव्य प्राणी है जो ईश्वर की स्तुति एवं मनुष्यों की संसार में मदद करते है। स्वर्ग में निरंतर दूतों द्वारा ईश्वर की स्तुति-आराधना, सेवा एवं आदार सम्मान किया जाता है। वे स्वर्गिक प्राणी ईश्वर की परिचर्या में लगे रहते है। तथा इस पृथ्वी पर मनुष्यों को ईश्वर के पथ पर चलने, शैतान की शक्तियों से लड़ने एवं प्रभु का संदेश समझनें में मदद करते हैं।

इन दूतांे में तीन दूत प्रमुख है जिन्हें हम महादूत भी कहते है और वे संत मिखाएल, संत गाब्रिएल एवं संत रफाएल। संत मिखाएल को अधिकतर रक्षक के रूप मंे जाना जाता है जो शैतान और उसके दूत से लड़कर हमारी रक्षा करता है। संत गाब्रिएल को संदेशवाहक के रूप में जाना जाता है जो ईश्वर का संदेश हम तक पहुॅचाने में मदद करता है जिस प्रकार उन्होंने मरियम के लिए ईश्वर का संदेश सुनाया था। संत रफाएल को एक रोगहारक के रूप में जाना जाता है जो मनुष्यों को जीवन के रास्ते में साथ देता है एवं चंगाई दिलाने में मदद करता है। ये तीन महादूत ईश्वर के प्रमुख है एवं निरंतर ईश्वर के राज्य फैलने में मनुष्यों की मदद करते है। हमारा जीवन इनकी मदद से और भी संुदर एवं ईश्वरीय राज्य फैलाने में सफल हो। आमेन!



📚 REFLECTION



Today we celebrate the feast of St. Michael, St. Gabriel and St. Raphael the Archangels of God. Angels are divine being who always praises God and helps the people in the world. In heaven there is a continuous praise and worship, serving and adoration of God by the angels. These heavenly beings are always at the service of God. And they help people in this world to walk in the path of God, to fight against evil powers and to understand God’s message.

Among the angels these Archangels that is to say St. Michael, St. Gabriel and St. Raphael are the main or chief angels. St. Michael is known as the protector who fights and protects us from satan and his angels. St. Gabriel is known as the God’s Messenger who brings God’s message to us as he brought the message of God to Mary in the event of Annuciation. St. Raphael is known as the Healer who accompanies the people on the way of life and helps in the healing. These three Archangels are the main angels of God and continuous help people in spreading God’s Kingdom. With the help of them may our lives become more beautiful and a success in spreading God’s Kingdom. Amen!


 -Br. Biniush Topno


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मंगलवार, 28 सितम्बर, 2021

 

मंगलवार, 28 सितम्बर, 2021

वर्ष का छ्ब्बीसवाँ सामान्य सप्ताह

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पहला पाठ : ज़करिया 8:20-23


20) "विश्वमण्डल का प्रभु यह कहता है- राष्ट्र तथा महानगरों के निवासी फिर आयेंगे।

21) एक नगर के लोग दूसरे नगर के लोगों के पास जा कर कहेंगे, ’आइए, हम प्रभु की कृपा माँगने चलें; हम विश्वमण्डल के प्रभु के दर्शन करने जायें। मैं तो जा रहा हूँ।’

22) इस प्रकार बहुसंख्यक लोग और शक्तिशाली राष्ट्र विश्वमण्डल के प्रभु के दर्शन करने और प्रभु की कृपा माªगने के लिए येरूसालेम आयेंगे।

23) विश्वमण्डल का प्रभु यह कहता है- उन दिनों राष्ट्रों में प्रचलित सभी भाषाएँ बोलने वाले दस मनुष्य एक यहूदी की चादर का पल्ला पकडेंगे और कहेंगे, ’हम आप लोगों के साथ चलना चाहते है, क्योंकि हमने सुना है कि ईश्वर आप लोगों के साथ है’।"



सुसमाचार : सन्त लूकस 9:51-56


51) अपने स्वर्गारोहण का समय निकट आने पर ईसा ने येरूसालेम जाने का निश्चय किया

52) और सन्देश देने वालों को अपने आगे भेजा। वे चले गये और उन्होंने ईसा के रहने का प्रबन्ध करने समारियों के एक गाँव में प्रवेश किया।

53) लोगों ने ईसा का स्वागत करने से इनकार किया, क्योंकि वे येरूसालेम जा रहे थे।

54) उनके शिष्य याकूब और योहन यह सुन कर बोल उठे, "प्रभु! आप चाहें, तो हम यह कह दें कि आकाश से आग बरसे और उन्हें भस्म कर दे"।

55) पर ईसा ने मुड़ कर उन्हें डाँटा

56) और वे दूसरी बस्ती चले गये।


मनन-चिंतन



तिरस्कार जीवन की ऐसी सच्चाई है जिसे जीवन में हर किसी को सामना करना पड़ता है क्योंकि यह जरूरी नहीं कि हर कोई हमारा स्वागत सत्कार करें। यहीं प्रभु येसु के साथ भी हुआ उन्हें अपने स्वयं के नगर के लोगों से तिरस्कार सहना पड़ा, फरीसी शास्त्री से तिरस्कार सहना पड़ा, गेरासेनियों के लोगो से तिरस्कार सहना पड़ा और आज के सुसमाचार में येसु को समारियों से तिरस्कार सहना पड़ा। परंतु येसु ने कभी भी उनका तिरस्कार करने वालो का बुरा नहीं चाहा परंतु उनका भला ही चाहा। जिस प्रकार वे कू्रस पर टॅंगे होने पर भी उनका अपमान करने वालों के लिए प्रार्थना करते है, ‘‘पिता! इन्हें क्षमा कर क्योंकि यह नहीं जानते कि क्या कर रहें है।’’ यह स्वभाव ईश्वर का स्वभाव को दर्शाता है जो भले और बुरे दोनो पर सूर्य उगाता तथा धर्मियों और अधर्मियों दोनो पर पानी बरसाता है।



📚 REFLECTION



Rejection is that reality of life which everyone has to face in their lives because it is not necessary that all will welcome us or all will be good to us. This happed with Jesus also; He bore the rejections of the people from his own home town, rejection from Pharisees and Scribes, rejection from the people of Gerasenes and in today’s gospel Jesus was rejected by the people of Samaria. But Jesus never thought of bad for the people who rejected him but instead thought only good for them. As being hung on the Cross he prays for those who humiliated him, “Father, forgive them; for they do not know what they are doing.” This nature reflects the nature of God who makes his sun rise on the evil and on the good, and sends rain on the righteous and on the unrighteous.


 -Br. Biniush Topno


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सितंबर 27 संत विन्सेंट डी पॉल

 

सितंबर 27

संत विन्सेंट डी पॉल




संत विन्सेंट डी पॉल का जन्म 24 अप्रैल, 1581 को फ्रांसीसी गांव पौय में एक गरीब किसान परिवार में हुआ था। उनकी पहली औपचारिक शिक्षा फ्रांसिसियों द्वारा प्रदान की गई थी। उन्होंने इतना अच्छा किया कि उन्हें पास के एक धनी परिवार के बच्चों को पढ़ाने के लिए काम पर रखा गया। उन्होंने टूलूज विश्वविद्यालय में अपनी औपचारिक पढ़ाई जारी रखने के लिए अध्यापन से अर्जित धन का उपयोग किया जहां उन्होंने धर्मशास्त्र का अध्ययन किया।

उन्हें सन 1600 में पुरोहिताभिषेक दिया गया था और वे कुछ समय के लिए टूलूज में ही रहे। 1605 में, मार्सिले से नारबोन की यात्रा करने वाले एक जहाज पर, उन्हें पकड़ लिया गया, ट्यूनिस लाया गया और दास के रूप में बेचा गया। दो साल बाद वे अपने मालिक के साथ भागने में सफल रहे और दोनों फ्रांस लौट आए।

संत विन्सेंट डी पॉल अपनी पढ़ाई जारी रखने के लिए एविग्नन और बाद में रोम गए। वहाँ रहते हुए वे काउंट ऑफ गोगनी के याजक वर्ग बन गए और उन्हें जरूरतमंद गरीबों को पैसे बांटने का प्रभारी बनाया गया। वे थोड़े समय के लिए क्लिची में एक छोटे से पल्ली के पल्ली पुरोहित बने, साथ में उन्होंने एक शिक्षक और आध्यात्मिक निर्देशक के रूप में भी काम किया।

उस समय से उन्होंने अपना जीवन प्रचार मिशनों और गरीबों को राहत प्रदान करने में बिताया। उन्होंने उनके लिए अस्पताल भी स्थापित किए। यह काम उनके लिए जुनून बन गया। बाद में उन्होंने अपनी दिलचस्पी और प्रेरिताई को कैदीयों तक बढ़ा दिया। इन आत्माओं के बीच प्रचार करने और उनकी सहायता करने की आवश्यकता इतनी महान थी और इन मांगों को पूरा करने की उनकी अपनी क्षमता से परे कि उन्होंने मदद करने के लिए लेडीज ऑफ चैरिटी, एक सामान्य महिला संस्थान की स्थापना की, साथ ही पुरोहितों का एक धार्मिक संस्थान - पुरोहितों की मिशन मंडली, जिन्हें आमतौर पर अब विन्सेंशियन के रूप में जाना जाता है।

यह उस समय की बात है जब फ्रांस में बहुत से पुरोहित नहीं थे और वहां जो पुरोहित थे, वे न तो सुसंगठित थे और न ही अपने जीवन के प्रति वफादार थे। विन्सेंट ने याजक वर्ग को सुधारने में मदद की जिस तरीके से उन्हें निर्देश दिया जाता था और पौरोहित्य के लिए तैयार किया जाता था। उन्होंने इसे पहले रिट्रीट की प्रस्तुति के माध्यम से और बाद में हमारे आधुनिक दिन के सेमिनरी के लिए एक अग्रदूत विकसित करने में मदद करके किया। एक समय उनका समुदाय 53 उच्च स्तरीय सेमिनरी का निर्देशन कर रहा था। पुरोहितों और आम लोगों के लिए खुले उनके रिट्रीट में इतनी अच्छी तरह से भाग लिया गया था कि ऐसा कहा जाता है कि उन्होंने ‘‘अपने पिछले 23 वर्षों में 20,000 से अधिक लोगों के बीच ख्रीस्तीय भावना का संचार किया।‘‘

86 देशों में लगभग 4,000 सदस्यों के साथ विंसेंशियन धर्मसमाजी आज हमारे साथ हैं। विंसेंशियन पुरोहितों के अपने तपस्वी धर्मसंघ के अलावा, संत विंसेंट ने संत लुईस डी मारिलैक के साथ डॉटर्स ऑफ चैरिटी की स्थापना की। आज 18,000 से अधिक धर्मबहने 94 देशों में गरीबों की जरूरतों को पूरा कर रही हैं। 27 सितम्बर, 1660 को जब पेरिस में उनकी मृत्यु हुई तब वे अस्सी वर्ष के थे। वे ‘‘फ्रांसीसी कलीसिया के सफल सुधारक के प्रतीक बन गए थे‘‘। संत विंसेंट को कभी-कभी ‘‘द एपोसल ऑफ चैरिटी‘‘ और ‘‘गरीबों के पिता‘‘ के रूप में जाना जाता है।

मृत्यु के बाद भी उनका हृदय अभ्रष्ट रहा और उसे कॉन्वेंट ऑफ द सिस्टर्स ऑफ चैरिटी में पाया जा सकता है और उनकी हड्डियों को चर्च ऑफ द लाजरिस्ट मिशन में स्थित संत के मोम के पुतले में जड़ा गया है। दोनों जगह पेरिस, फ्रांस में स्थित हैं।

संत विंसेंट को दो चमत्कारों के लिए श्रेय दिया गया है - अल्सर से ठीक हुई एक मठवासिनी और लकवा से ठीक हुई एक आम महिला। 16 जून, 1737 को उन्हें संत पिता क्लेमेंट तेरहवें द्वारा संत घोषित किया गया था। यह बताया गया है कि संत विंसेंट ने अपने जीवनकाल में 30,000 से अधिक पत्र लिखे थे और 18वीं शताब्दी में लगभग 7,000 पत्र एकत्र किए गए थे। उनके पत्रों के कम से कम पांच संग्रह आज अस्तित्व में हैं।



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सोमवार, 27 सितम्बर, 2021

 सोमवार, 27 सितम्बर, 2021

वर्ष का छ्ब्बीसवाँ सामान्य सप्ताह

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पहला पाठ : ज़करिया 8:1-8


1) विश्वमण्डल के प्रभु की वाणी यह कहते हुए सुनाई पड़ीः

2) "विश्वमण्डल का प्रभु यह कहता हैः मैं सियोन की बहुत अधिक चिन्ता करता हूँ, मुझ में उनके प्रति प्रबल उत्साह है।

3) "प्रभु यह कहता हैः मैं सियोन लौट रहा हूँ, मैं येरूसालेम में निवास करने आ रहा हूँ। येरूसालेम निष्ठावान् नगर और विश्वमण्डल के प्रभु का पर्वत, पवित्र पर्वत कहलायेगा।

4) "विश्वमण्डल का प्रभु कहता हैः वुद्ध पुरुष और स्त्रियाँ, अपने बुढापे के कारण हाथ में छड़ी लिये हुए।

5) फिर येरूसालेम के चैकों में बैठेंगे और नगर के चैक खेलते हुए लडकों और लडकियों से भरे रहेंगे।

6) "विश्वमण्डल का प्रभु यह कहता हैः यदि यह उस दिन इस राष्ट्र के बचे हुए लोगों को असंभव-सा लगेगा, तो क्या वह मुझे भी असंभव-सा लगेगा? यह विश्वमण्डल के प्रभु की वाणी है।

7) "विश्वमण्डल का प्रभु यह कहता हैः देखो! मैं पूर्व के देशों से और सूर्यास्त के देशों से अपनी प्रजा का उद्धार करूँगा।

8) मैं उन्हें वापस ले आऊँगा और वे येरूसालेम में निवास करेंगे। वे निष्ठा और न्याय से मेरी प्रजा होंगे और मैं उनका ईश्वर होऊँगा।"



सुसमाचार : सन्त लूकस 9:46-50



46) शिष्यों में यह विवाद छिड़ गया कि हम में सब से बड़ा कौन है।

47) ईसा ने उनके विचार जान कर एक बालक को बुलाया और उसे अपने पास खड़ा कर

48) उन से कहा, "जो मेरे नाम पर इस बालक का स्वागत करता है, वह मेरा स्वागत करता है और जो मेरा स्वागत करता है, वह उसका स्वागत करता है, जिसने मुझे भेजा है; क्योंकि तुम सब में जो छोटा है, वही बड़ा है।"

49) योहन ने कहा, “गुरूवर! हमने किसी को आपका नाम ले कर अपदूतों को निकालते देखा है और हमने उसे रोकने की चेष्टा की, क्योंकि वह हमारी तरह आपका अनुसरण नहीं करता“।

50) ईसा ने कहा, “उसे मत रोको। जो तुम्हारे विरुद्ध नहीं है, वह तुम्हारे साथ हैं।“



मनन-चिंतन


हम अधिकतर आगमन काल में और अपनी प्रार्थनाओं में यही प्रार्थना करते है कि प्रभु मेरे जीवन में आ जाइये मेरे हृदय में आ जाईये। अर्थात् हम प्रभु येसु को अपने जीवन में, अपने परिवारों में, अपने समुह में स्वागत करते है। आज का वचन हमें एक तरिका बताता है कि हम किस प्रकार से प्रभु का स्वागत कर सकते है। प्रभु कहते है, ‘‘जो मेरे नाम पर इस बालक का स्वागत करता है, वह मेरा स्वागत करता है।’’ अर्थात् जो छोटे बालको जैसे निर्मल हृदय या विनम्र व्यक्ति या दीन व्यक्ति का स्वागत करता है तो मानो वह येसु का स्वागत करता है जिस प्रकार संत मदर तेरेसा ने गरीब दीन दुखियों, अनाथों के लिए किया वह उनके लिए नहीं परंतु येसु के लिए किया। हम अपने जीवन में अपने से छोटो का कभी तिरस्कार न करें बल्कि उनका आदर करें जिससे हम येसु की उपस्थिति से भर जायंे।



📚 REFLECTION



In the Advent Season and in our prayers we usually pray to Lord to come in our lives, to come in our hearts; that means to say we invite or welcome Lord Jesus in our lives, in our families, in our groups. Today’s God’s word tells us one way how we can welcome Jesus. Jesus says, “Whoever welcomes this child in my name welcomes me” That means to say whoever welcomes the child like heart people or humble or poor people they welcome Jesus; as St. Mother Teresa did for the poor, sad and abandoned people he didn’t serve them but served Jesus. Let’s not reject the one who is lower than us but give them the due honour so that we can be filled with Jesus presence.



मनन-चिंतन - 2



हम देखते हैं कि संत योहन और साथियों ने किसी व्यक्ति को येसु का नाम ले कर अपदूतों को निकालते देखा और उसे रोकने की चेष्टा की, क्योंकि वह उनके साथ नहीं था। लेकिन येसु ने कहा, “उसे मत रोको। जो तुम्हारे विरुद्ध नहीं है, वह तुम्हारे साथ हैं।“ हमें पवित्र बाइबिल को बाइबिल से ही समझना चाहिए। संत पौलुस कहते हैं, “कोई ईश्वर के आत्मा से प्रेरित हो कर यह नहीं कहता, "ईसा शापित हो" और कोई पवित्र आत्मा की प्रेरणा के बिना यह नहीं कह सकता, "ईसा की प्रभु है" (1कुरिन्थियों 12:3)। संत याकूब कहते हैं, “सभी उत्तम दान और सभी पूर्ण वरदान ऊपर के हैं और नक्षत्रों के उस सृष्टिकर्ता के यहाँ से उतरते हैं, जिसमें न तो कोई परिवर्तन है और न परिक्रमा के कारण कोई अन्धकार” (याकूब 1:17)। इस प्रकार सभी फलाईयों का स्रोत ईश्वर ही है। इसलिए हमें सभी भलाईयों को स्वीकार करना तथा बढ़ावा देना चाहिए।




We see in the Gospel that St. John and his companions saw someone casting out demons in the name of Jesus and tried to stop him because he was not with them. But Jesus said to them, “You must not stop him; anyone who is not against you is for you”. We need to understand the Bible with the Bible. St. Paul says, “Therefore I want you to understand that no one speaking by the Spirit of God ever says “Jesus be cursed!” and no one can say “Jesus is Lord” except by the Holy Spirit” (1Cor 12:3). St. James says, “ Every good endowment and every perfect gift is from above, coming down from the Father of lights with whom there is no variation or shadow due to change” (Jam 1:17). Thus God is the source of all goodness. Hence we have to accept and encourage all goodness.


 -Br. Biniush Topno


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Mass Readings for Sunday, 26 September 2021

 Daily Mass Readings for Sunday, 26 September 2021



First Reading: Numbers 11: 25-29


25 And the Lord came down in a cloud, and spoke to him, taking away of the spirit that was in Moses, and giving to the seventy men. And when the spirit had rested on them they prophesied, nor did they cease afterwards.

26 Now there remained in the camp two of the men, of whom one was called Eldad, and the other Medad, upon whom the spirit rested; for they also had been enrolled, but were not gone forth to the tabernacle.

27 And when they prophesied in the camp, there ran a young man, and told Moses, saying: Eldad and Medad prophesy in the camp.

28 Forthwith Josue the son of Nun, the minister of Moses, and chosen out of many, said: My lord Moses forbid them.

29 But he said: Why hast thou emulation for me? O that all the people might prophesy, and that the Lord would give them his spirit!

Responsorial Psalm: Psalms 19: 8, 10, 12-13, 14


R. (9a) The precepts of the Lord give joy to the heart.

8 The law of the Lord is unspotted, converting souls: the testimony of the Lord is faithful, giving wisdom to little ones.

R. The precepts of the Lord give joy to the heart.

10 The fear of the Lord is holy, enduring for ever and ever: the judgments of the Lord are true, justified in themselves.

R. The precepts of the Lord give joy to the heart.

12 For thy servant keepeth them, and in keeping them there is a great reward.

13 Who can understand sins? from my secret ones cleanse me, O Lord:

R. The precepts of the Lord give joy to the heart.

14 And from those of others spare thy servant. If they shall have no dominion over me, then shall I be without spot: and I shall be cleansed from the greatest sin.

R. The precepts of the Lord give joy to the heart.

Second Reading: James 5: 1-6


1 Go to now, ye rich men, weep and howl in your miseries, which shall come upon you.

2 Your riches are corrupted: and your garments are motheaten.

3 Your gold and silver is cankered: and the rust of them shall be for a testimony against you, and shall eat your flesh like fire. You have stored up to yourselves wrath against the last days.

4 Behold the hire of the labourers, who have reaped down your fields, which by fraud has been kept back by you, crieth: and the cry of them hath entered into the ears of the Lord of Sabaoth.

5 You have feasted upon earth: and in riotousness you have nourished your hearts, in the day of slaughter.

6 You have condemned and put to death the Just One, and he resisted you not.

Alleluia: John 17: 17b, 17a


R. Alleluia, alleluia.

17b, 17a Your word, O Lord, is truth; consecrate us in the truth.

R. Alleluia, alleluia.

Gospel: Mark 9: 38-43, 45, 47-48


38 John answered him, saying: Master, we saw one casting out devils in thy name, who followeth not us, and we forbade him.

39 But Jesus said: Do not forbid him. For there is no man that doth a miracle in my name, and can soon speak ill of me.

40 For he that is not against you, is for you.

41 For whosoever shall give you to drink a cup of water in my name, because you belong to Christ: amen I say to you, he shall not lose his reward.

42 And whosoever shall scandalize one of these little ones that believe in me; it were better for him that a millstone were hanged around his neck, and he were cast into the sea.

43 And if thy hand scandalize thee, cut it off: it is better for thee to enter into life, maimed, than having two hands to go into hell, into unquenchable fire:

45 And if thy foot scandalize thee, cut it off. It is better for thee to enter lame into life everlasting, than having two feet, to be cast into the hell of unquenchable fire:

47 And if thy eye scandalize thee, pluck it out. It is better for thee with one eye to enter into the kingdom of God, than having two eyes to be cast into the hell of fire:

48 Where their worm dieth not, and the fire is not extinguished.

✍️-Br. Biniush Topno

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PRAISE THE LORD

इतवार, 26 सितम्बर, 2021 वर्ष का छ्ब्बीसवाँ सामान्य इतवार

 इतवार, 26 सितम्बर, 2021

वर्ष का छ्ब्बीसवाँ सामान्य इतवार

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पहला पाठ : गणना 11:25-29


25) तब प्रभु बादल में आ कर मूसा से बात करने लगा और उसने मूसा की शक्ति का कुछ अंष सत्तर वयोवृद्धों को प्रदान किया। इसके फलस्वरूप उन्हें एक दिव्य प्रेरणा का अनुभव हुआ और वे भविष्यवाणी करने लगे। बाद में उन्हें फिर ऐसा अनुभव नहीं हुआ।

26) दो पुरुष शिविर में रह गये थे। एक का नाम था एलदाद और दूसरे का मेदाद। यद्यपि वे दर्शन-कक्ष में नहीं आये थे, तब भी उन्हें दिव्य प्रेरणा का अनुभव हुआ क्योंकि वे चुने हुए वयोवृद्वों में से थे और वे शिविर में ही भविष्यवाणी करने लगे।

27) एक नवयुवक दौड़ कर मूसा से यह कहने आया - ''एलदाद और मेदाद शिविर में भविष्यवाणी कर रहे हैं''।

28) नुन के पुत्र योशुआ ने, जो बचपन में मूसा की सेवा करता था, यह कह कर अनुरोध किया, ''मूसा! गुरूवर! उन्हें रोक दीजिए।''

29) इस पर मूसा ने उसे उत्तर दिया, ''क्या तुम मेरे कारण ईर्ष्या करते हो? अच्छा यही होता कि प्रभु सब को प्रेरणा प्रदान करता और प्रभु की सारी प्रजा भविष्यवाणी करती।''



दूसरा पाठ : याकूब 5:1-6



1) धनियो! मेरी बात सुनो। आप लोगों को रोना और विलाप करना चाहिए, क्योंकि आप पर विपत्तियाँ पड़ने वाली हैं।

2) आपकी सम्पत्ति सड़ गयी है। आपके कपड़ों में कीड़े लग गये हैं।

3) आपकी सोना-चांदी पर मोरचा जम गया है। वह मोरचा आप को दोष देगा; वह आग की तरह आपका शरीर खा जायेगा। यह युग का अन्त है और आप लोगों ने धन का ढेर लगा लिया है।

4) मजदूरों ने आपके खेतों की फसल लुनी और आपने उन्हें मजदूरी नहीं दी। वह मजदूरी पुकार रही है और लुनने वालों की दुहाई विश्वमण्डल के प्रभु के कानों तक पहुँच गयी है।

5) आप लोगों ने पृथ्वी पर सुख और भोग-विलास का जीवन बिताया है और वध के दिन के लिए अपने को हष्ट-पुष्ट बना लिया है।

6) आपने धर्मी को दोषी ठहरा कर मार डाला है और उसने आपका कोई विरोध नहीं किया।



सुसमाचार : मारकुस 9:38-43,45,47-48



38) योहन ने उन से कहा, "गुरुवर! हमने किसी को आपका नाम ले कर अपदूतों को निकालते देखा और हमने उसे रोकने की चेष्टा की, क्योंकि वह हमारे साथ नहीं चलता"।

39) परन्तु ईसा ने उत्तर दिया, "उसे मत रोको; क्योंकि कोई ऐसा नहीं, जो मेरा नाम ले कर चमत्कार दिखाये और बाद में मेरी निन्दा करें।

40) जो हमारे विरुद्ध नहीं है, वह हमारे साथ ही है।

41) "जो तुम्हें एक प्याला पानी इसलिए पिलायेगा कि तुम मसीह के शिष्य हो, तो मैं तुम्हें विश्वास दिलाता हूँ कि वह अपने पुरस्कार से वंचित नहीं रहेगा।

42) "जो इन विश्वास करने वाले नन्हों में किसी एक के लिए भी पाप का कारण बनता है, उसके लिए अच्छा यही होता कि उसके गले में चक्की का पाट बाँधा जाता और वह समुद्र में फेंक दिया जाता।

43 (43-44) और यदि तुम्हारा हाथ तुम्हारे लिए पाप का कारण बनता है, तो उसे काट डालो। अच्छा यही है कि तुम लुले हो कर ही जीवन में प्रवेश करो, किन्तु दोनों हाथों के रहते नरक की न बुझने वाली आग में न डाले जाओ।

45 (45-46) और यदि तुम्हारा पैर तुम्हारे लिए पाप का कारण बनता है, तो उसे काट डालो। अच्छा यही है कि तुम लँगड़े हो कर ही जीवन में प्रवेश करो, किन्तु दोनों पैरों के रहते नरक में न डाले जाओ।

47) और यदि तुम्हारी आँख तुम्हारे लिए पाप का कारण बनती है, तो उसे निकाल दो। अच्छा यही है कि तुम काने हो कर ही ईश्वर के राज्य में प्रवेश करो, किन्तु दोनों आँखों के रहते नरक में न डाले जाओ,

48) जहाँ उन में पड़ा हुआ कीड़ा नहीं मरता और आग नहीं बुझती।

मनन-चिंतन

जैसे जैसे समय बीत रहा है लोग इस आधुनिक काल में कुदगरज़ होते जा रहें है; वे अधिकतर अपने बारे में सोचते है दूसरों के बारे में नहीं। परंतु बाईबिल में हम पाते है कि ईश्वर हमेशा चाहते है हम एक दूसरे की देख रेख करें। संत मत्ती का सुसमाचार 18ः15-17अ, ‘‘यदि तुम्हारा भाई कोई अपराध करता है, तो जा कर उसे अकेले में समझाओ। यदि वह तुम्हारी बात मान जाता है, तो तुमने अपनी भाई को बचा लिया। यदि वह तुम्हारी बात नहीं मानता, तो दो-एक व्यक्तियों को साथ ले जाओ ताकि दो या तीन गवाहों के सहारे सब कुछ प्रमाणित हो जाये। यदि वह उनकी भी नहीं सुनता, तो कलीसिया को बता दो।’’ संत लूकस के सुसमाचार में भले समारी का दृष्टांत। उत्पत्ति ग्रंथ में ईश्वर काइन से पूॅंछते है तुम्हारा भाई हाबिल कहॉं है? काईन कहता है, ‘‘मैं नहीं जानता। क्या मैं अपने भाई का रखवाला हॅूं? प्रभु यही बताना चाहते है कि हम सब एक दूसरे के रखवाले है हमारी एक दूसरे के प्रति कुछ जिम्मेदारियॉ है।

हमारा जीवन और व्यवहार ऐसा हो जिसे देखकर लोग ईश्वर के निकट आये न कि दूर जायें। इसलिए यह कहना कि मै जो कुछ भी करूॅं यह मेरी मर्जी है, मेरा जीवन है भले लोग कुछ भी कहें बुरी बातों और आदतों के लिए ठीक नहीं है। आज प्रभु येसु हमें दूसरों के लिए बुरा उदाहरण या पाप का कारण न बनने की हिदायत देते है। जब हम पाप करते है तो उसका फल हमें मिलता है परंतु जब हम दूसरों के लिए पाप का कारण बनते है तो वह हमारे पाप करने से भी बढ़कर दण्डनीय हो जाता है इसलिए प्रभु येसु कहते है, ‘‘जो इन विश्वास करने वाले नन्हों में किसी एक के लिए भी पाप का कारण बनता है, उसके लिए अच्छा यही होता कि उसके गले मंे चक्की का पाट बॉंधा जाता और वह समुद्र में फेंक दिया जाता।’’ इसलिए जो जो चीज़ या अंग हमारे लिए पाप का कारण बनता है हमें उसे अपने जीवन से अलग कर देना चाहिए अर्थात् उस से दूरी बना लेनी चाहिए। आईये हम अपने और दूसरों के लिए पाप का कारण नहीं परंतु आशिष बनें। आमेन!



📚 REFLECTION



As the time is passing in this modern world people are becoming more and more selfish; they mostly think about themselves not about others. But in the Bible we see God always want that we take care of each other. St. Matthew 18:15-17a, “If another member of the church sins against you, go and point out the fault when the two of you are alone. If the member listens to you, you have regained that one. But if you are not listened to, take one or two others along with you, so that every word may be confirmed by the evidence of two or three witnesses. If the member refuses to listen to them, tell it to the church”, In Gospel of Luke we read about the Good Samaritan. In the book of Genesis God asks Cain, “Where is your brother Abel?” He said, “I do not know; am I my brother’s keeper?” God wants to tell that we all are each others guardian; we all have some responsibilities towards each other.

Our life and behavior should be such that seeing it people should draw near to God not distance themselves to God. That is why to say that ‘whatever I do it is my wish, my life even if people say anything’ is not at all good for the bad or sinful habits. Today Lord Jesus instructs us not to be a bad example or not to be a stumbling block to others. When we sin or do wrong then we get its fruit but when we become a stumbling block for others then it becomes more punishable than the sin or wrong what we did; that is why Jesus says, “If any of you put a stumbling block before one of these little ones who believe in me, it would be better for you if a great millstone were hung around your neck and you were thrown into the sea.” That is why any thing or body organs which causes to stumble should be removed, that is to say to ditach oneself from them. Let’s not become the stumbling block for oneself and for others but instead become a blessing to others. Amen!



मनन-चिंतन -2


कई बार हमने ऐसे लोगों को देखा होगा जो अपने काम को बड़ी वफादारी और लगन से करते हैं, इस आशा से कि उनकी उस मेहनत का उन्हें उचित फल मिलेगा। जो किसी नौकरी में किसी छोटे पद पर है वह इस बात की आस लगाये रहता है कि एक दिन उसे बड़ा पद मिलेगा, या फिर उसकी सैलरी बढेगी, या फिर उसके अधिक मेहनत करने से वह अपने परिवार के लिये और अधिक बेहतर साधन जुटा सकेगा। दूसरे लोग उसकी उस मेहनत और लगन की सच्चाई को स्वतः ही समझ भी जाते हैं, और वे भी चाहते हैं कि उसकी उस मेहनत और लगन के बदले उसे उसका उचित फल मिलना ही चाहिये। जब उस व्यक्ति को उसकी उस मेहनत के लिये प्रमोशन, या वेतनवृद्धि के रूप में उचित फल मिलता है तब दूसरों को भी खुशी होती है, सन्तुष्टि मिलती है कि वह व्यक्ति उसके योग्य था, और उसे उसका फल मिला।

दूसरी ओर हमने ऐसे लोगों को भी देखा है कि ऐसी ही इच्छा रखते हैं कि उनका प्रमोशन हो या उनकी सैलरी बढे। लेकिन इसके लिये वे ईमानदारी का रास्ता नहीं अपनाते। वे या तो किसी प्रभाव के द्वारा उसे पाना चाहते हैं या फिर दिखावे की मेहनत करते हैं। कभी-कभी बॉस के अधिक करीबी होने के कारण, वेतनवृद्धि या प्रमोशन को वे अपना अधिकार समझते हैं। ऐसे में यदि किसी ईमानदार व्यक्ति को उसकी ईमानदारी और लगन का उचित फल मिलता है तो इन लोगो को बड़ी जलन होती है। बॉस से चुगली करते हैं, उनके प्रमोशन में अड़चन पैदा करने की कोशिश करते हैं। ऐसे लोग दूसरों के प्रति ईर्ष्या से भर जाते हैं।

आज के पहले पाठ में हम देखते हैं कि प्रभु चुने हुए लोगों पर सामर्थ्य बरसाता है जिससे वे भविष्यवाणी करने लगते हैं। भविष्यवाणी करने का वरदान प्रभु के आत्मा का बहुत महत्वपूर्ण चिन्ह है (प्ररित चरित 2:17)। नये विधान में भविष्यवाणी के वरदान के साथ-साथ और भी अन्य वरदान हैं जो प्रभु के आत्मा का चिन्ह है (1 कुरिन्थियों 12:8-10)। यह सामर्थ्य और वरदान प्रभु अपने चुने हुए लोगों पर बरसाते हैं, वो लोग जो प्रभु के प्रति ईमानदार हैं और अपनी जिम्मेदारी के प्रति लगन रखते हैं। लेकिन सुसमाचार में हम देखते हैं कि जब कुछ लोग प्रभु का नाम लेकर भले कार्य करते हैं तो प्रभु के शिष्यों को इससे आपत्ति होती है और वे प्रभु से शिकायत करते हैं। प्रभु येसु के शिष्य हर घड़ी प्रभु के साथ रहते थे। प्रभु के सबसे करीब थे। और अगर लोग प्रभु का स्वागत करते थे तो उनके शिष्यों का भी स्वागत सम्मान करते थे।

ऐसे में यदि कोई और प्रभु के नाम का उपयोग कर भले कार्य करता है तो उन्हें जलन होती है। शायद उन्होंने प्रभु को ठीक से समझा नहीं था। शायद उन्होंने सोचा था कि प्रभु के नाम का पेटेन्ट सिर्फ उन्हीं का है और सिर्फ वही उसके द्वारा चमत्कार कर सकते हैं। लेकिन ईश्वर पर किसी का व्यक्तिगत अधिकार नहीं है। ईश्वर सबके लिऐ है और जो ईश्वर को मानता है और ईश्वर के विरुद्ध नहीं है वह ईश्वर का ही है।

कभी-कभी हम भी प्रभु येसु के शिष्यों के समान व्यवहार करते हैं। कोई जन्म से ख्रिस्तीय है तो स्वयं को प्रभु का सच्चा शिष्य समझता है और जो प्रभु के विश्वास में नया है उसे हिकारत की नज़रों से देखता है। कभी कभी जो प्रभु द्वारा बुलाये और चुने हुए लोग हैं, वे चमत्कार नहीं कर पाते, लेकिन साधरण व्यक्ति अपने विश्वास द्वारा महान चमत्कार कर देते हैं। यदि हम प्रभु की विशेष चुनी हुई प्रजा हैं तो दूसरे लोग भी जो प्रभु के बताये हुए मार्ग पर चलते हैं वे भी हमारे ही भाई-बहन हैं। हमें उनके प्रति ईर्ष्या नहीं बल्कि प्रेम और भाईचारे के साथ पेश आना है। वहीं दूसरी ओर हमें अपने विश्वास और ख्रिस्तीय जीवन का मूल्यांकन करना है कि कहीं हमें और अधिक ईमानदारी और लगन से अपने विश्वास को नहीं जीना है। आइये हम अपने विश्वास में दूसरों को भी स्वीकार करे और अपने विश्वास द्वारा उन्हें प्रभु के रास्ते पर प्रेरित करें। आमेन।


Br. Biniush Topno


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