इतवार, 11 जुलाई, 2021
वर्ष का पन्द्रहवाँ सामान्य इतवार
पहला पाठ : आमोस का ग्रन्थ 7:12-15
12) बेतेल के याजक अमस्या ने आमोस से कहा, ‘‘नबी! यहाँ से चले जाओ। यूदा के देश भाग जाओ। वहाँ भवियवाणी करते हुए अपनी जीविका चलाओ।
13) बेतेल में भवियवाणी करना बन्द करो; क्योंकि यह तो राजकीय पुण्य-स्थान है, यह राज मन्दिर है।’’
14) आमेास ने अमस्या को यह उत्तर दिया, ‘‘मैं न तो नबी था और न नबी की सन्तान। मैं चरवाहा था और गूलर के पेड़ छाँटने वाला।
15) मैं झुण्ड चरा ही रहा था कि प्रभु ने मुझे बुलाया मुझ से यह कहा, ‘जाओ! मेरी प्रजा इस्राएल के लिए भवियवाणी करो’।
दूसरा पाठ: एफ़ेसियों के नाम सन्त पौलुस का पत्र 1:3-14
3) धन्य है हमारे प्रभु ईसा मसीह का ईश्वर और पिता! उसने मसीह द्वारा हम लोगों को स्वर्ग के हर प्रकार के आध्यात्मिक वरदान प्रदान किये हैं।
4) उसने संसार की सृष्टि से पहले मसीह में हम को चुना, जिससे हम मसीह से संयुक्त हो कर उसकी दृष्टि में पवित्र तथा निष्कलंक बनें।
5) उसने प्रेम से प्रेरित हो कर आदि में ही निर्धारित किया कि हम ईसा मसीह द्वारा उसके दत्तक पुत्र बनेंगे। इस प्रकार उसने अपनी मंगलमय इच्छा के अनुसार
6) अपने अनुग्रह की महिमा प्रकट की है। वह अनुग्रह हमें उसके प्रिय पुत्र द्वारा मिला है,
7) जो अपने रक्त द्वारा हमें मुक्ति अर्थात् अपराधों की क्षमा दिलाते हैं। यह ईश्वर की अपार कृपा का परिणाम है,
8) जिसके द्वारा वह हमें प्रज्ञा तथा बुद्धि प्रदान करता रहता है।
9 (9-10) उसने अपनी मंगलमय इच्छा के अनुसार निश्चय किया था कि वह समय पूरा हो जाने पर स्वर्ग तथा पृथ्वी में जो कुछ है, वह सब मसीह के अधीन कर एकता में बाँध देगा। उसने अपने संकल्प का यह रहस्य हम पर प्रकट किया है।
11 (11-12) ईश्वर सब बातों में अपने मन की योजना पूरी करता है। उसके अनुसार उसने निर्धारित किया है कि हम (यहूदी) मसीह द्वारा बुलाये जायें और हम लोगों के कारण उसकी महिमा की स्तुति हो। हम लोगों ने तो सब से पहले मसीह पर भरोसा रखा था।
13) आप लोगों ने भी सत्य का वचन, अपनी मुक्ति का सुसमाचार, सुनने के बाद मसीह में विश्वास किया है और आप पर उस पवित्र आत्मा की मुहर लग गयी, जिसकी प्रतिज्ञा की गयी थी।
14) वह हमारी विरासत का आश्वासन है और ईश्वर की प्रजा की मुक्ति की तैयारी, जिससे उसकी महिमा की स्तुति हो।
सुसमाचार : सन्त मारकुस का सुसमाचार 6:7-13
7) ईसा शिक्षा देते हुए गाँव-गाँव घूमते थे। वे बारहों को अपने पास बुला कर और उन्हें अपदूतों पर अधिकार दे कर, दो-दो करके, भेजने लगे।
8) ईसा ने आदेश दिया कि वे लाठी के सिवा रास्ते के लिए कुछ भी नहीं ले जायें- न रोटी, न झोली, न फेंटे में पैसा।
9) वे पैरों में चप्पल बाँधें और दो कुरते नहीं पहनें
10) उन्होंने उन से कहा, ’’जिस घर में ठहरने जाओ, नगर से विदा होने तक वहीं रहो!
11) यदि किसी स्थान पर लोग तुम्हारा स्वागत न करें और तुम्हारी बातें न सुनें, तो वहाँ से निकलने पर उन्हें चेतावनी देने के लिए अपने पैरों की धूल झाड़ दो।’’
12) वे चले गये। उन्होंने लोगों को पश्चात्ताप का उपदेश दिया,
13) बहुत-से अपदूतों को निकाला और बहुत-से रोगियों पर तेल लगा कर उन्हें चंगा किया।
📚 मनन-चिंतन
क्या कभी आपने खुद से गहराई से पूछा है, कि आपके जीवन का उद्देश्य क्या है? आपको ईश्वर ने इस दुनिया में क्यों भेजा है? जब तक हमें इन दोनों सवालों के जवाब नहीं मिलेंगे तब तक हम यह नहीं जान पायेंगे कि हम सही रास्ते पर चल रहे हैं, या सही रास्ते से भटक गये हैं. अक्सर कई बार हम अपने जीवन का उद्देश्य जाने बगैर जीवन की भाग-दौड़ में लगे रहते हैं, जब तक कि ईश्वर हमें कुछ घटनाओं के द्वारा या कुछ लोगों के द्वारा झकझोर कर हमें अपनी ईश्वरीय योजना और इच्छा का आभास न करा दे. ऐसा ही हुआ नबी आमोस के जीवन में. आज के पहले पाठ में हम देखते हैं कि वह न तो कोई नबी थे न उनके बाप-दादा नबी थे, वह गूलर काटते थे और भेड़ चराते थे, लेकिन ईश्वर ने उन्हें चुना, बुलाया और नबी नियुक्त किया. गूलर के पेड़ों और भेड़ों से बढ़कर भी उनके लिए कुछ और था.
हमारी धर्मशिक्षा हमें सिखाती है कि हम अपने बप्तिस्मा संस्कार द्वारा एक नबी, पुरोहित और राजा के रूप में नियुक्त होते हैं. नबी यानि कि हमें ईश्वर ज़िम्मेदारी देते हैं कि हमें उनकी बात दुनिया तक पहुँचानी है, उनकी आवाज़ बनना है. जब भी हमारे आस-पास कुछ गलत होता है, लोग ईश्वर के रास्ते से भटक कर गलत रास्ते पर चले जाते हैं तो हमें धर्मग्रन्थ के नबियों की भांति उन्हें ईश्वर का प्यार याद दिलाना है, ईश्वर की इच्छा याद दिलानी है. ज़रूरी नहीं है, कि लोग हमारी सुनेंगे, हो सकता है प्रभु येसु कि भांति हमारा तिरस्कार भी करेंगे, हम पर अत्याचार भी करेंगे, लेकिन इससे हमारी ज़िम्मेदारी ख़त्म नहीं हो जाती. प्रभु येसु आज के सुसमाचार में हमें याद दिलाते हैं कि यदि लोग तुम्हारा स्वागत ना करें तो वहाँ से आगे बढ़ जाओ. प्रभु येसु के आगमन तक हमारा काम जारी रहना चाहिए.
ईश्वर हमें एक पुरोहित भी बनने के लिए बुलाते हैं. ज़रूरी नहीं है कि कई वर्षों की शिक्षा और प्रशिक्षण से ही हम पुरोहित बन सकते हैं, हमारे बप्तिस्मा के द्वारा ईश्वर हम में से हरेक व्यक्ति को एक पुरोहित की ज़िम्मेदारी सौंपते हैं. एक पुरोहित का क्या काम है? एक पुरोहित लोगों की तरफ से ईश्वर तक उनकी प्रार्थनाएं पहुंचाता है और ईश्वर की तरफ लोगों के लिए मध्यस्थ बनता है. वह लोगों के पापों के लिए और खुद के पापों के लिए बलिदान चढ़ाता है. अक्सर हम दूसरों के पापों को देखकर उनसे घृणा करने लगते हैं, उनके परिवर्तन के लिए कुछ भी नहीं करते. प्रभु येसु धर्मियों की अपेक्षा पापियों को बचाने आये हैं (मारकुस 2:17). क्या कभी हमने पापियों के मन परिवर्तन के लिए प्रार्थना की है, मिस्सा बलिदान चढ़वाया है? दूसरों को छोडिये, कभी-कभी हम अपने पापों के लिए भी पश्चाताप नहीं करते बल्कि उन्हें नज़र-अंदाज़ कर देते हैं. प्रभु येसु ने जब सुसमाचार प्रचार की शुरुआत की तो पश्चाताप के आह्वान के साथ की.
सन्त पौलुस हमें याद दिलाते हैं कि यदि हम प्रभु येसु के दुःख-भोग में भागी बनते हैं तो उनकी महिमा में भी सहभागी होंगे. अगर हम उनकी मृत्यु के सहभागी होते हैं तो उनके साथ अनन्त जीवन के सहभागी भी होंगे. (रोमियों 6:8). हम जानते हैं कि प्रभु येसु को सब कुछ के ऊपर अधिकार मिला है, स्वर्ग और सारी सृष्टि पर अधिकार मिला है (मत्ती 28:18). यह अधिकार उन्हें सारी मानव जाति के लिये दुःख उठाने के कारण मिला है. यदि हम एक नबी और पुरोहित होने के कारण कष्ट उठाते हैं, प्रभु येसु के नाम में विश्वास करने के कारण सताये जाते हैं तो निश्चय ही हम सारी सृष्टि के राजा अधिराज के साथ राज भी करेंगे. इसलिए ईश्वर हमें राजा होने का अधिकार देते हैं. आईये हम प्रार्थना करें कि ईश्वर हमें हमारे जीवन के वास्तविक उद्देश्य की याद दिलाये, और अपने जीवन में उसकी इच्छा पूरी करने की शक्ति दे. आमेन.
📚 REFLECTION
Have your deeply reflected about the purpose of your life in this world? Why God has sent you in this world? Till we discover the answers to these questions, we wouldn’t know whether we are on the right path or have lost the way. Very often we forget our real purpose in this world and keep ourselves busy in the ways of the world till God intervenes in our life through various incidences or persons and reminds us His purpose of sending us into this world. We have several such examples of God intervening in people’s lives. Such an example can be seen in the first reading of today. Prophet Amos says he was not a prophet nor was his father. He was a dresser of sycamore trees and a herdsman but God called him for His work. There was something beyond the sycamore trees and herding the sheep for prophet Amos.
Our Catechism teaches us that our Baptism makes us a prophet, a king and a priest (CCC 783). The role of a prophet is to listen to God and reach His message to the people; he is called to be the voice of God to the people. Whenever there is something immoral or wrong taking place around us, when we see people loosing God’s path and going astray, in such situation we need to remind them of God’s love for them like prophets of old, we need to remind them God’s purpose and will or them. It is not necessary that people will welcome and accept us and listen to us; it is possible and sure that we will be rejected like Jesus our Lord, even persecuted but our obligation to share the mission of Jesus does not end here. Jesus reminds us in the gospel today, if people do not welcome you, then move on to next place. The mission must continue without interruption till our Lord comes again.
God has called us to be priests, a holy nation. We share in the universal priesthood of Jesus hence Jesus gives us the same mission as given to his own disciples. What does a priest do? A priest mediates people to God and works as mediator from God to the people. He offers sacrifice for the sins of the people and also for his own sins. Very often when we see others sinning we start hating them and condemning them, doing nothing for their conversion of heart. More than righteous, Jesus came to call sinners (cf Mark 2:17). Did we ever pray for the repentance of the sins of others, offered a mass for the conversion of the sinners? Forget about others, we don’t even bother to think and repent for our sins, we close our eyes towards our own sins. In fact Jesus began his ministry with a call to repent.
St. Paul reminds us about our share in the sufferings and glory of Christ. If we have died with him, then we shall also reign with him (cf Romans 6:8). We know that everything has been handed over to Christ, he says, “All authority in heaven and on earth has been given to me.” (Matthew 28:18). This authority has been given after the suffering of Jesus for whole humanity. Glorification or authority comes only after suffering and giving up oneself. If we face sufferings and persecutions because of being a prophet and a priest and because of the name of Jesus, then we will certainly reign with the most high king of the universe. God gives us a share in His kingship. Let us pray to God to give us the grace to discover the real purpose of our life and seek to do His will in everything. Amen.
मनन-चिंतन
पिछले इतवार के सुसमाचार में हमने प्रभु को लोगों द्वारा तिरस्कृत हुए पाया। इसलिए हम आज के सुसमाचार में प्रभु को अपनी रणनीति बदलते हुए देखते है। प्रभु अपने शिष्यों को स्वर्गराज्य के रह्स्यों की शिक्षा दे कर दो दो करके भेजते हैं। इससे प्रभु हमें एक सीख जरूर देते हैं कि जब भी हम कुछ कार्य करने निकलते हैं तो हमारे पास एक वैकल्पिक योजना होनी चाहिए। एक नहीं चले तो दूसरा चलेगा। अपने शिष्यों को भेजते समय प्रभु द्वारा दिये गये अनुदेशों या हिदायतों पर हम आज मनन चिन्तन करेंगे।
1. साधारण जीवन शैली
2. अच्छे लोगों की संगति
3. तिरस्कृति में धूल झाडना
4. लोगों को चंगा करना
1. साधारण जीवन शैली :- एक बार एक व्यक्ति एक ऋषि के दर्शन करने आया और वह उस संत का कमरा देख कर चकित हो गया। उसके कमरें में एक भी फर्नीचर नहीं था। उसने ऋषि से पूछा कि यह बहुत बुरी बात है कि आपके घर में मेहमान को बिठाने के लिए एक कुर्सी तक नहीं है। तो साधू ने उनसे पूछा आपकी कुर्सी कहाँ है? उसने कहा कि मुझे कुर्सी की ज़रूरत नहीं है क्योंकि मैं एक मुसाफिर हूँ। तब ऋषि ने उनसे कहा कि मैं भी इस संसार में एक मुसाफिर हूँ।
रेल गाडी के डिब्बे में कई जगह हम यह लिखा हुआ पाते हैं – Less luggage, more comfort - जितना कम वजन उतना आराम। आज के सुसमाचार में प्रभु यही बात अपने शिष्यों को समझाते हैं कि सुसमाचार प्रचार करते समय हम अपने आप को जितना विमुक्त रखते हैं, वह काम उतना ज़्यादा आसान बनता है। प्रभु अपने शिष्यों को मौलिक या बुनियादी आवश्यकताओं से भी वंचित कर देते हैं। उनका मतलब यह था कि एक सुसमाचार प्रचारक का मन और हृदय हमेशा प्रभु पर और केवल प्रभु पर निर्भर रहना चाहिए।
2. अच्छे लोगों की संगति :- हम तारामंडल में काले छेद के बारे में ये पढ़ते हैं। उनके पास इतनी ताकत होती है कि आस पास से गुजरने वाले हर तारे को अपनी ओर आकर्षित करके एक चक्की की तरह काम करते हुए उसे काला कर देता है। इसी प्रकार जब हम बुरे या गलत लोगों की संगति में आते है तब हम भी उसके जैसे बदल सकते हैं। इसीलिए प्रभु उन्हें चेतावनी देते हुए कहते हैं कि गाँव छोडने तक उन्हें अच्छे लोगों की संगति में रहना है।
3. धूल झाडना :- यहूदी लोग दूसरे गैरयहूदियों के देश घूमकर वापस आते समय उनके पैर और कपडे से धूल झाडने की एक प्रथा प्रचलित थी। इसी परंपरा को याद दिलाते हुए प्रभु अपने शिष्यों से कहते हैं कि जो उनका प्रवचन को अस्वीकार करते हैं, जो उनकी निन्दा करते हैं, जो उन पर विश्वास नहीं करते हैं, उनके वहाँ ठहरने की ज़रूरत नहीं है। आज के पहले पाठ में हम देखते हैं कि इस्राएल के राजा येरोबाम यहूदियों को आराधना के लिए येरूसलेम नहीं भेजता है बल्कि अपने देश में बाल देवता के लिए मंदिर बना कर लोगों को बाल देवता की आराधना करने के लिए बाध्य करता है। ना नबी आमोस ने इसके विरुध्द आवाज उठायी और न ही बतेल मंदिर के अमासिया ने उनकी निन्दा की। ईश्वरीय कार्य में निन्दा या तिरस्कार हमें मिलते रहेंगे लेकिन लोगों को चेतावनी देना हमारा कर्तव्य है। धूल झाडना एक प्रकार का चेतावनी है।
4. लोगों को चंगा करना :- आज की दुनिया को चंगाई की जरूरत है क्योंकि लोग विभिन्न प्रकार की बीमारियों से गुजर रहे हैं। शारीरिक और मानसिक बीमारियों की चंगाई के अतिरिक्त आज समाज के हर क्षेत्र में फैल रही सामाजिक बीमारियों को भी चंगाई की आवश्यकता है। समाज में एक दूसरे के प्रति नफरत भेदभाव के व्यवहार, असहिष्णुता, नैतिक मूल्यों का उडेल, धोखेबाजी और अस्वस्थ प्रतियोगिता आदि इसके कुछ उदाहरण है। प्रभु ने हमें सबको इन बीमारियों से चंगाई प्रदान करने का माध्यम बनाया हैं।
हमें अपनी इस बुलाहट को पहचानना जरूरी है। हम प्रभु के इस मिशन-कार्य को गंभीरता से लें। लोगों की निन्दा से हताश न होते हुए अच्छे लोगों की संगति में रहते हुए प्रभु की योजना के अनुसार हम काम करते रहें, लोगों को और समाज को चंगाई देते रहें। प्रभु आज हम से यही अपेक्षा करते हैं।
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